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कहानी- नया ज़माना नई सोच (Short Story- Naya Zamana Nai Soch)

हमारा तो जीवन ऐसे ही कट गया. तुम लोगों का अच्छा है. लड़कों के बराबर कमाती हो, मन माफिक रहती हो, मनपसंद खाती-पहनती हो. खाने का क्या है, बना-बनाया बाज़ार से आ जाता है. कम से कम मन में तो संतुष्टि है कि हम परिवार की आय में बराबर के भागीदार हैं. तुम्हें किसी के सामने हाथ तो नहीं फैलाना पड़ता." यह सब कहते-कहते दादी भावुक हो गईं.

"कैसा वक़्त आ गया है? न कुछ क़ायदा है, न क़ानून. जब चाहो उठो और जब चाहे सोओ. न बड़ों का सम्मान, न छोटों से प्यार, न गृहस्थी की चिंता, न पति का मान, मेरे तो कुछ भी समझ में नहीं आता. प्रियम की गृहस्थी कैसे चलेगी? माना बहू पढ़ी-लिखी है, नौकरी करती है, प्रियम के बराबर कमाती है, दफ़्तर में बड़ा पद है, सब उसके काम की तारीफ़ करते हैं, कभी अमेरिका तो कभी लंदन जाया करती है, दोनों पति-पत्नी में प्यार भी बहुत है, परंतु गृहस्थी में क्या यही सब काफ़ी है? दोनों न कभी हंसते-बोलते हैं, न घर को समय दे पाते हैं. आदित्य और आशा कितना चाहते हैं कि बेटा-बहू कुछ समय तो उनके साथ बिताएं, पर उनके पास समय कहां है किसी के लिए."
"सुबह आठ बजे प्रज्ञा दफ़्तर के लिए निकल जाती है. प्रियम नौ बजे जाता है. लौटने का कुछ निश्चित नहीं. दौड़ते-भागते नाश्ता करते हैं. खाना दफ़्तर में खाया. रात में पिज्जा, बर्गर दुकान से मंगाया और खा लिया. यह भी कोई ज़िंदगी है?" दादी कल ही मुंबई से लौटी हैं. जब से आई है इसी तरह बड़बड़ाए जा रही हैं. ताईजी के बेटा-बहू वहीं काम करते हैं. दोनों इंजीनियर हैं. ताई-ताऊजी भइया-भाभी के पास मुंबई जा रहे थे तो दादी को भी उन्होंने वहां बुला लिया. जब से वहां से लौटी हैं इसी तरह बड़बड़ा रही है. दादी शुरू से ही हमारे पास रहती हैं. मां भी उन्हें समझा चुकी हैं कि अम्माजी, यह नया ज़माना है. आजकल सबकी यही दिनचर्या है. आप क्यों अपना ब्लड प्रेशर बढ़ा रही हो.
"कैसे कुछ न कहूं प्रभा! पांच-छह साल हो गए शादी हुए बच्चे के विषय में तो कुछ सोचते ही नहीं. एक दिन प्रज्ञा को अपने पास बिठाकर समझाना चाहा तो कहने लगी, "दादीजी बस, कुछ दिन ठहर जाइए. अभी तो मेरा प्रमोशन होना है. प्रियम प्रोजेक्ट के लिए विदेश जा रहे हैं. उनके वापस आने पर आपकी बात पर विचार करेंगे."
"दादी की बात पर विचार करेंगे. यह भी भला कोई तर्क हुआ. क्या यह सब तुम्हारे हाथ में है प्रज्ञा, जब तक तुम मां बनने की सोचो तब तक ज़रूरी नहीं कि तुम्हारा शरीर मां बनने योग्य रहे. हर काम का एक समय और उम्र होती है. यह निकल गया तो फिर केवल पछताया ही जा सकता है. कौन समझाए उन्हें?" इतना बोल कर दादी फिर से दुखी होकर आंसू पोंछने लगीं. मां भी क्या समझाएं? दादी ग़लत भी तो नहीं हैं.
ताईजी-ताऊजी भी चाहते हैं कि प्रज्ञा मां बने. घर में बच्चे की किलकारियां गूंजे. उनकी भी कहां सुनते हैं दोनों. प्रियम भइया तो भाभी का ही साथ देते हैं. उनकी आकांक्षाओं की लिस्ट में हर भौतिक सुविधा का नाम है. बस, नाम नहीं है तो बच्चे का.
मां भी तो नौकरी करती थी. प्रिसिपल थीं वह. सुबह जल्दी उठकर घर की सारी व्यवस्था करना, हम बच्चों की आवश्यकताएं पूरी करना, दादी-बाबा का पूरा ख़्याल रखते हुए वह नौकरी करती थीं. दादी का सहयोग मां को हमेशा मिला. लेकिन दादाजी की जानलेवा बीमारी एवं हमारा भविष्य संवारने के कारण उन्होंने नौकरी से त्यागपत्र देने में ज़रा भी देर नहीं लगाई. हां, इतना तो वह अभी भी करती हैं कि चार-छह गरीब बच्चों को घर पर पढ़ाने का समय निकाल ही लेती हैं.
मां मुझे हमेशा यही समझाती हैं, "नित्या, तुम आज की इस अंधी दौड़ में शामिल मत होना. मेरे कहने का ये तात्पर्य बिल्कुल नहीं है कि तुम पढ़ो नहीं या अपने पैरों पर खड़ी मत होओ, परंतु हमेशा प्राथमिकता अपने परिवार को ही देना. संबंधों को बनाए रखना तुम्हारी प्राथमिकताओं में सर्वोपरि होना चाहिए.

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माना आज के समय में पैसे का महत्व बहुत अधिक है, पर कभी यदि तुम्हें लगे कि तुम्हारे काम के कारण घर-परिवार दरक रहा है तो उस स्थिति में अपने परिवार को प्राथमिकता देना."
मैंने मां के विचारों का हमेशा सम्मान किया है. मां की सीख के साथ-साथ मेरी आदर्श मेरी बुआ की बेटी सुमन दीदी रही हैं. वह हमारे परिवार की पहली इंजीनियर लड़की हैं. उनकी शादी को आठ साल हो चुके हैं. दो बच्चों की मां सुमन दीदी शादी से पहले एक सफल वर्किंग गर्ल थीं. ऑफिस में वह एक सफल एवं कुशल अधिकारी थीं. जब उनका रिश्ता तय हुआ तभी भुवन जीजा ने उनसे स्पष्ट कह दिया था कि हमारे परिवार में तुम्हारे काम करने को लेकर कोई विरोध में नहीं है, लेकिन भविष्य में यदि तुम्हें लगे कि तुम्हारे काम को लेकर परिवार बिखर सकता है तो उस स्थिति में तुम्हें काम की बजाय परिवार को प्राथमिकता देनी होगी,
दीदी ने जीजाजी की इच्छा का हमेशा ध्यान रखा. शादी के बाद वह तीन साल तक एक सफल सॉफ्टवेयर इंजीनियर के रूप में काम करती रहीं. उनके अधिकारी उनकी कार्य कुशलता से बहुत ख़ुश रहते थे. तीन साल बाद जब उन्होंने मां बनने का मन बनाया, तो उस समय यह अपना त्यागपत्र देने को तुरंत तैयार हो गई. यह अलग बात है कि उनके बॉस ने उनका त्यागपत्र यह कहते हुए अस्वीकार कर दिया कि तुम लंबी छुट्टी लेकर घर से ही ऑफिस का काम करती रहना, अतः दीदी इस तरह घर पर रहकर काम करती रहीं. जब उनकी बेबी बड़ी होने लगी तब वह कुछ समय के लिए दफ़्तर चली जातीं. आज भी जब वह दो बच्चों की मां बन चुकी हैं, दफ़्तर का अधिकतर काम घर पर ही करती हैं. इस तरह सुमन दीदी ने घर-परिवार को संभालते हुए अपनी नौकरी भी जारी रखी.
मैंने भी दीदी का अनुकरण करते हुए ऐसा कोर्स करने का मन बना लिया है, जिससे जब तक चाहो नौकरी करो और जब चाहो घर से काम करो या अपना निजी काम शुरू कर दो. मेरी इच्छा तो फैशन डिजाइनिंग में कुछ करने की है. उसमें नौकरी के साथ-साथ घर पर रहकर भी काम किया जा सकता है. इस तरह मैं घर-परिवार दोनों जगह सामंजस्य बिठा सकती हूं. मेरा मानना है कि थोड़ी समझदारी एवं सूझबूझ से ही परिवार में प्यार व आपसी समझ पनपती है. आख़िरकार परिवार ही तो सर्वोपरि है.
एक दिन दादी को अच्छे मूड में देखकर मैं उनके पास गई और उनके गले में बांहें डालकर पास में ही लेट गई. वह मेरे बाल सहलाने लगीं, "दादी, पता है प्रज्ञा भाभी बचपन में बहुत ही सीधी और कोमल सी थीं. यह बात उन्होंने अपनी शादी के बाद मुझे स्वयं बताई थी. बचपन में भाभी व उनकी दीदी आम लड़कियों की तरह ख़ूब मस्ती करती थीं, लेकिन उनकी दादी व उनके मम्मी-पापा को लड़कियों का इस तरह मस्ती करना पसंद नहीं था. उनका मानना था कि लड़कियों को घर की चहारदीवारी में रहकर गृहस्थी के काम सीखने चाहिए. बाहर के काम के लिए उनका भाई ही उपयुक्त है. उसे उच्च शिक्षा दिलाई जा रही थी.
उसकी सुख-सुविधाओं का भी विशेष ध्यान दिया जाता था. यहां तक कि लड़के एवं लड़कियों के खानपान में भी भेदभाव किया जाता था. उनका मानना था कि लड़कियां तो पराया धन हैं. किसी तरह शादी करके इन्हें घर से निकालना ही तो है. बस, यहीं प्रज्ञा भाभी विद्रोह कर जातीं. वह अपनी दादी से लड़ पड़तीं और कहतीं कि देखना, मैं वह सब करके दिखाऊंगी जो भइया भी नहीं कर सकेगा. वह विद्रोही होती गईं. उनकी कोमलता छिन गई. उन पर आगे बढ़ने का जुनून सा सवार हो गया. वह क्लास में हमेशा प्रथम आती. गाड़ी चलातीं, बैंक आदि का काम देखतीं. एक तरफ़ जहां उनकी दीदी अपनी मां के साथ गृहस्थी के कामों में हाथ बंटातीं, वहीं दूसरी तरफ़ प्रज्ञा भाभी अपने छोटे भाई को पीछे छोड़ते हुए उच्च शिक्षा प्राप्त करके अच्छी नौकरी भी पा गई.
घरभर का दुलारा उनका भाई ग़लत संगत में पड़कर बिगड़ता चला गया. कुछ हटकर दिखाने की चाह ही भाभी को इस मुकाम पर ले आई. यही कारण रहा कि वह घरेलू कामों में दिलचस्पी नहीं लेतीं. आप ही बताओ दादी, इसमें भाभी का क्या दोष है?"
दादी मेरी बातें बड़े ही ध्यान से सुन रही थी.

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"हां बिटिया, हमारे ज़माने में तो लड़कियों के काम को बहुत छोटा समझा जाता था. पता है, शादी के बाद जब मैं ससुराल आई तब ससुराल में बहुत बड़ा परिवार होने के कारण सुबह से लेकर रात तक घर का काम करना होता था. कभी-कभी तो रात के बारह बजे भी मेहमानों को खाना बनाकर खिलाना होता था. उस पर ज़रा भी गड़बड़ होने पर तेरे दादाजी कहते थे कि सारा दिन पलंग तोड़ती हो. खाना बनाना और खाना, इसके सिवाय तो कुछ काम है नहीं. हम बाहर से थककर घर लौटते हैं. इतना भी नहीं कि ढंग से बातचीत कर लो.
उनकी दृष्टि में घरेलू‌ कार्य का कोई महत्व नहीं था. उनके ताने सुनकर रोना आ जाता था. चौबीस घंटे की ड्यूटी करने पर भी यही सब सुनना पड़ता था. दादाजी ही क्या, घर में कोई भी तो संतुष्ट नहीं रहता था. हमारा तो जीवन ऐसे ही कट गया. तुम लोगों का अच्छा है. लड़कों के बराबर कमाती हो, मन माफिक रहती हो, मनपसंद खाती-पहनती हो. खाने का क्या है, बना-बनाया बाज़ार से आ जाता है. कम से कम मन में तो संतुष्टि है कि हम परिवार की आय में बराबर के भागीदार हैं. तुम्हें किसी के सामने हाथ तो नहीं फैलाना पड़ता." यह सब कहते-कहते दादी भावुक हो गईं.
जीवनभर का दर्द आज उनकी ज़ुबां पर आ ही गया, इस तरह कई माह बीत गए. एक दिन ताईजी का फोन शुभ समाचार लेकर आया. उन्होंने बताया कि प्रज्ञा भाभी मां बनने वाली हैं. डॉक्टर ने उन्हें घर पर रहकर पूरा आराम करने की राय दी है. भाभी ने नौकरी छोड़ने का मन बना लिया है. भाभी का कहना है कि लड़की होकर उन्होंने लड़कों के बराबर कार्य करके ख़ुद को सफल साबित कर दिया है. अब मां बनकर अपने बच्चे के लिए ख़ुद को सफल साबित करना है.

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प्रज्ञा भाभी मां बनने वाली है. घर में बच्चा आने वाला है. यह समाचार दादी को सारे जहान की ख़ुशियां दे गया. उनका बस चले तो यह उड़कर मुंबई पहुंच जाएं और प्रज्ञा भाभी की सारी ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले लें. "उनका ख़ुश होना बनता है भई, क्योंकि वह परदादी बनने वाली हैं." मां इतना कहकर मंद-मंद मुस्कुराने लगीं.

- मृदुला गुप्ता

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