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कहानी- कच्ची अमिया सी लड़की मीठे गुड़ सा प्रेम… (Short Story- Kachchi Amiya Si ladki Meethe Gud Sa Prem…)

विनीता राहुरीकर

भावरी की आंखें ब्याह की बात पर चंचल हो उठीं. एक नमकीन शरारत उसके चेहरे पर नाच उठी और सारंग का प्रेम मीठे गुड़ सा उसके सर्वांग में छलक उठा. सांझ ढलने को थी.
“तो यह कच्ची अमिया सी लड़की तुझे भी आख़िर भा ही गई.” मैंने राहत की सांस ली.
“हंसिए वाली चंडी को तो भोलेनाथ ही संभाल सकते हैं ना, तो इस खट्टी अमिया को यह गुड़ की भेली ही मीठा कर सकती थी.” सारंग हंसकर बोला.

वह हौद से लोटा भर पानी ले आई और उसके हाथ-मुंह धुलवाने लगी. रेत-सीमेंट में सने हाथ धोने के बाद उसने अपने मुंह पर पानी के छींटे मारे और फिर लड़की के सूती आंचल से ही हाथ-मुंह पोंछ लिए. लड़की की कजरारी आंखें चंचल हो उठीं. तब पास लगे कनेर के पेड़ की छाया में बैठ दोनों रोटी खाने लगे. अक्सर ही उनकी थाली में नमक लगी मिर्च और प्याज़ ही होते थे रोटी के साथ. कभी बाज़ार से लाया चिवड़ा-सेव होते और कभी-कभार सब्ज़ी दिख जाती. जिस कनेर के पेड़ के नीचे बैठ वे दोनों खाना खाते थे, वह मेरी रसोइघर की खिड़की के ठीक सामने ही था. मैं खाना बनाते हुए या रसोईघर में काम करते हुए सारा समय उन्हीं को देखती रहती.
जबसे नीलबड़ की इस कोठी में रहने आए थे, तब से लगभग एकाकीपन ही जी रहे थे. वर्षों तक शहर के कोलाहलपूर्ण जीवन में रहने के बाद पतिदेव को अचानक ही शहर के प्रदूषित अशांत दौड़-भाग वाले जीवन से दूर प्रकृति के सानिध्य में शांत जीवन जीने की इच्छा हुई. उन्होंने शहर से बाहर नीलबड़ में एक फॉर्म हाउस बनवा लिया और रिटायरमेंट के बाद यही आ गए. दोनों बेटे तो बाहर ही थे, तो घर में हम दोनों ही रहते थे. लेकिन आस-पड़ोस व शहर में बरसों पुरानी
जान-पहचान थी, तो आना-जाना लगा रहता था. दिनभर कॉलोनी में चहल-पहल बनी रहती थी. लेकिन यहां दो-चार मकान ही थे वह भी इतनी दूर-दूर बने हुए थे कि ऐसा लगता था जैसे कि जंगल में बस एक हमारा ही घर है. उस पर भी रात में सियारों की आवाज़ से अजीब सी दहशत होती थी और दिन में वन विहार के शेरों की दहाड़ यहां तक सुनाई देती थी. प्रकृति के आनंद में तो नहीं, हां दहशत में ज़रूर जी रही थी मैं.
“अरे, देखते ही देखते यहां भी अब अच्छी-ख़ासी भीड़ हो जाएगी, चिंता क्यों करती हो.” निशांत का यही जुमला
सुनते-सुनते चार साल हो गए इस जंगल में. वह तो अच्छा है कि पीछे की तरफ़ कुछ दूरी पर लड़कों का बोर्डिंग स्कूल है, जहां के हॉस्टल में लगभग 50-55 लड़के रहते हैं और क़रीब पांच सौ छात्र पढ़ने आते हैं. सुबह-शाम उनके आते और जाते समय अच्छी रौनक़ रहती है. लेकिन साढ़े पांच के बाद सन्नाटा बड़ा भयावह लगता है. तब मैं ऊंची आवाज़ में टीवी चला कर रखती हूं, ताकि अकेलापन महसूस ना हो. पिछले चार सालों में यहां स़िर्फ दो नए घर बने हैं, वहां भी वे लोग कभी-कभार पिकनिक मनाने भर को या वीकेंड एंजॉय करने आते हैं.
अब पिछले ढाई-तीन महीने से बगल में यह नया मकान जिसे कोठी कहना ही उचित होगा बनना शुरू होने से दिन-रात चहल-पहल बनी रहती है.
मजदूरों ने ईटों के तीन-चार कच्चे घर बना लिए थे और अपने परिवार के साथ वही रहते. मजदूरों के साथ ही कुल पांच बच्चे भी थे. कोने वाले घर में ये दोनों रहते. दिनभर काम की धमक और बच्चों की किलकारियों का साथ रहता और रात में उन सबके आसपास होने का आश्‍वासन.
चार सालों बाद लोगों के आसपास होने के एहसास से अब मुझे रातभर चैन की नींद आने लगी थी. नहीं तो चार सालों से मैं अक्सर रातभर सन्नाटे और अकेलेपन की घबराहट में जागती ही रहती थी. अब मुझे रसोईघर में काम करने के नाम पर बुरा नहीं लगता था. पहले निशांत यदि कुछ भी विशेष फ़रमाइश कर देते थे, तो मैं खीज जाती थी, लेकिन अब मैं ख़ुशी-ख़ुशी बना देती हूं. उन सभी की गतिविधियों को देखते हुए मेरा भी सारा काम कब पूरा हो जाता, पता ही नहीं चलता.

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नवंबर की दोपहरिया में धूप की तेज़ काफ़ी हद तक कम हो जाती है. मैं रसोईघर के बाहर बने बरामदे में खड़ी एक-एक ईंट जोड़कर उस मकान को बनते देखते रहती या कभी ऊपर वाले कमरे की गैलरी में खड़ी होकर. दोनों ही जगह मैंने लोहे का मज़बूत जंगला लगवा कर रखा था, वरना तो इस जंगल में खुले में खड़े होने की या आंगन में बैठने की भी मेरी हिम्मत नहीं होती थी. मैं निशांत पर खीज भी जाती कि प्रकृति के ऐसे सानिध्य में भी क्या रहना कि लोहे के सरियों में ़कैद होकर रह गए हैं. यह घर कम ़कैदखाना अधिक लगता है.
“सब तो आराम से घूमते हैं. तुम ही हो जो बाहर निकलने से डरती हो.”
निशांत हंसते.
“घूमने के लिए यहां है क्या, दो-चार बकरी और गाय-बैल हैं.” मैं और खीज जाती. लेकिन अब आंगन में भी जाते डर नहीं लगता. शाम को तो मैं एक आध घंटे चाय का कप लेकर कुर्सी डालकर बैठ भी जाती हूं. मन ही मन मैं भगवान से यही प्रार्थना करती रहती हूं कि यह कोठी आराम से सालों तक बनती रहे और ये सब लोग यहीं बसे रहें.
चार बजे के आसपास ठेकेदार आया. वह आते हुए चाय पत्ती, शक्कर आदि सामान लाकर दे देता है. यहां आसपास चाय की गुमटियां तो हैं नहीं. इन लोगों को सुबह-शाम की चाय ख़ुुद ही चूल्हे पर बनानी होती है. मैं देखती कि शाम की चाय सभी मजदूरों की एक ही चूल्हे पर बनती थी. मैंने भी दो कप चाय बनाई और एक प्लेट में बिस्किट-नमकीन लेकर हॉल में निशांत के पास आकर बैठ गई. उधर से भी सुलगती लकड़ियों के धुएं के साथ-साथ चाय की सोंधी गंध नाक में भर गई.
“चूल्हे पर बनी चाय का क्या सौंधा स्वाद होता है. देखो ना, कितनी बढ़िया ख़ुशबू आ रही है चाय की.” मैंने यूं ही निशांत से कहा.
“तो मांग लो एक कप चाय या वहीं जाकर पी आओ.” निशांत ने मुझे छेड़ा. “इसी बहाने उन लोगों से पहचान भी हो जाएगी और तुम्हारा समय भी कट जाया करेगा उनसे बातचीत में. तुम्हें अकेलापन भी नहीं लगेगा.”
“उनसे जाकर चाय मांगना क्या अच्छा लगेगा.” मैं बोली.
“तो एक काम करो. आंगन में चूल्हा बना लो. यहां आसपास सूखी लकड़ियों की तो कमी है नहीं.” उन्होंने फिर चुहल की.
“हां लकड़ियां बीनने तुम जाया करना और साथ ही उपलों के लिए गोबर भी उठा लाया करना.” मैं भी उन्हें छेड़ने में कहां पीछे रहती थी.


दूसरे दिन चाय-नाश्ता करने के बाद निशांत जल्दी ही कुछ ज़रूरी काम के लिए शहर निकल गए. मैं खाने की तैयारी करती उन दोनों को देख रही थी. चाय के लिए चूल्हा सुलगाने के पहले ही वह खाने की भी तैयारी कर लेती थी. एक परात में आटा गूंथ लेती. सब्जी होती, तो काट कर रख लेती. चाय छानते ही चूल्हे पर सब्ज़ी की देगची चढ़ा देती. इस बीच वह कमरे में से कभी थाली ला देता, कभी हंसिया ला देता, कभी नून-मिर्च की पुड़िया ले आता. दोनों जैसे घर बनाने का काम एक साथ करते, वैसे ही अपनी छोटी सी गृहस्थी का भी सारा काम मिलकर करते. हमेशा एक-दूसरे के आसपास ही रहते. मुझे उनका सदा साथ-साथ रहना बड़ा भला लगता.
कभी-कभी दिव्य की याद आ जाती, तो कभी प्रसाद की. अपने बेटे-बहुओं के प्रेम को तो मैं इस तरह से फलते-फूलते देख ही नहीं पाई. विदेश से आए, शादी की और वापस वहीं उड़ गए. कभी सोचती कि क्या वे दोनों भी इसी तरह अपनी पत्नियों के साथ मिलकर सारा काम करते होंगे. इस लड़के में कभी दिव्य को सोचती, तो कभी प्रसाद को देखने लगती. शायद उन्हीं कुछ अतृप्त इच्छाओं की तृप्ति इन दोनों के मध्य के प्रेम को देखकर करना चाहती हूं, इसीलिए आजकल ध्यान सदा वहीं बना रहता है.
फ्रिज में मोटी मिर्चियां पड़ी हुई थीं, सोचा बेसन की भरवा मिर्ची बना लेती हूं. उसके लिए खटाई की ज़रूरत थी. आंगन में नींबू का पेड़ लगा ही था. दो-चार नींबू तो पक ही रहे होंगे. मैं बाहर आई, तो देखा अंदर की तरफ़ तो सारे नींबू कच्चे ही थे. मैं गेट खोलकर बाहर निकल आई, सोचा उधर की टहनियों पर शायद पके नींबू लगे हों. जाकर देखा, तो चार नींबू थे, लेकिन मेरी पहुंच से बहुत ऊपर. आसपास देखकर एक डंडी उठाई और तोड़ने की कोशिश करने लगी, लेकिन डंडी के पतले सिरे से नींबू तो टूटे नहीं, उल्टे डंडी ही टूट गई. नीचे भी देखा कि शायद कोई अपने आप पक कर गिर गया हो. तभी एक लंबा सा हाथ आया और नींबू तक पहुंच गया. मैंने पीछे मुड़ कर देखा. यह वही था. दूर से देखने पर लगता तो था, लेकिन आज अपनी बगल में पाकर जाना कि वह वास्तव में काफ़ी ऊंचा-पूरा था.

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“लीजिए बाईसा.” मुस्कुराते हुए उसने चार नींबू मेरे हाथ पर धर दिए.
मैंने भी मुस्कुराकर उसका आभार प्रकट किया. तभी हवा के झोंके के साथ ढेर सारा धुआं आकर आंख में लगा. मैं आंख मलने लगी.
“हमारे चूल्हों की वजह से आपको धुएं की बहुत परेशानी होती होगी.” आवाज़ विनम्र होने के बाद भी भारी और रुआबदार थी. चेहरे पर एक मीठा सा भोलापन था, जो गालों में पढ़ते गड्ढों के कारण और भी लुभावना लगता. कान में बालियां, सिर पर लाल मुडासा, धोती-कुर्ते के पहनावे के साथ ही वह बोली और नैन-नक्श से ठेठ राजस्थानी लग रहा था.
“नहीं, मुझे तो बहुत भाती है धुएं की गंध. चूल्हे की चाय तो मुझे बहुत पसंद है.” मेरे मुंह से अनायास ही निकल गया. फिर मैंने पूछ लिया, “राजस्थानी हो?”
“हां बाईसा, जैसलमेर के गांव का.” उसने बताया.
उसके बात करने का लहजा मजदूरों जैसा तो बिल्कुल नहीं था. किसी भले घर के संस्कारवान युवक जैसा था. चेहरे की गठन में भी एक विशेष कुलीनता झलक रही थी. अजब सी मिठास और लुनाई थी. उम्र में 24-25 का ही होगा, लेकिन
हटा-कट्टा गढ़ा हुआ शरीर था. देखकर ही जाने क्यों मन उससे जुड़ सा गया.
मैं भीतर आकर भरावन के लिए बेसन तैयार करने लगी. छह मिर्चियां थीं. न जाने क्यों मन हुआ दो मिर्ची उन्हें भी दे दूं. यह तो अधिक तीखी नहीं होती. मैंने फ्रिज से चार छोटी तीखी मिर्ची भी निकाल लीं. राजस्थान के लोग तो तीखा खाना पसंद करते हैं. बेसन भरकर मिर्चियां पकाई और दो मोटी के साथ चार तीखी मिर्ची एक प्लास्टिक के डिब्बे में रखकर रसोईघर के पीछे वाले जंगले में से उसे आवाज़ लगाई.
“ऐ सुनो, हां तुम, यहां आओ.”
लड़का मकान के काम में लगा था. लड़की रोटी तवे से उतार कर ओढ़नी से हाथ पोंछती चेहरे पर प्रश्‍न लिए पास आई.
“क्या हुआ बाईसा?”
दशहरी की अमिया जैसा रंग था उसका और दशहरी आम की रंगत के होंठ. पलकें इतनी घनी और काली थीं कि बिना काजल के ही आंखें कजरारी लग रही थीं. चेहरे पर भोलेपन मिश्रित चंचलता थी. तभी वह अचार की अमिया जैसी खट्टी नहीं, वरन दशहरी की अमिया जैसी लग रही थी. मुझे ख़ुद ही सौंदर्य को परिभाषित करने वाली इस अजीब उपमा पर हंसी आ गई. लोग सुंदरता का वर्णन करने के लिए चंपा-जूही की कलियों की उपमा देते हैं और मुझे अमिया दिख रही है. पर उसके मुखड़े के चंचल भाव ठीक वैसे ही तो थे.
“यह लो रोटी के साथ खा लेना दोनों.” मैंने डिब्बा उसे पकड़ा दिया.
“धन्यवाद बाईसा. माई का साथ छूटा उसके बाद आज पहली बार भरवां मिर्च खाऊंगी. उसके चेहरे पर प्रसन्नता के साथ माई की याद में आंखों में नमी भी तैर गई. मेरा मन उसके प्रति ममत्व से भर उठा. जाने कब से यह अपनी माई से मिली नहीं होगी. रोज़गार के लिए बेचारे घर-बार छोड़कर इतनी दूर अकेले पड़े हैं. नवब्याहता है. वहां होती तो मायके और ससुरालवाले कितना मान-सम्मान करते. यहां दिनभर हाड़तोड़ मेहनत ही करती रहती है यह नाज़ुक सी लड़की.
“क्या नाम है तुम्हारा?” मैंने पूछा.
“भावरी.” उसने बताया.
“और तुम्हारे पति का?”
“सारंग कहे हैं उन्हें.” उसने आंचल का कोना मुंह में दबाते हुए सलज्ज भाव से बताया और लजाकर भाग गई.
दोपहर को यूं ही रसोईघर के बाहर के जंगले में से झांककर देखा, दोनों एक ही थाली में से रोटी खा रहे थे. आज बहुत ख़ुश लग रहे थे दोनों. सारंग एक कौर ख़ुद खाता दूसरा भावरी को खिलाता. मैं कुछ देर उनका यह प्यार भरा रूप देखती रही और फिर मुस्कुरा कर भीतर आ गई.
शाम को निशांत की राह देखते हुए मैं आंगन में बैठी थी कि वह आ जाएं, तो मैं चाय बनाऊं. बगल में चूल्हे सुलग रहे थे. वह मजदूर भी चाय बना रहे थे. दो ही मिनट बाद सारंग आंगन के गेट पर नज़र आया. उसके हाथ में एक कप था और चेहरे पर संकोच.
“यह क्या है?” मैंने पूछा.
“सवेरे आपने कहा था ना कि आपको चूल्हे की चाय अच्छी लगती है, तो…” उसने बड़े आग्रह से कप मेरी ओर बढ़ाया.
“अरे, वह तो मैंने यूं ही कह दिया था. तुम लोग पियो ना…” मैंने अचानक से अचकचा कर बोल दिया.
उसका चेहरा अचानक आहत सा दिखने लगा.


“मैंने बर्तन मांज कर ख़ुद अपने हाथ से बनाई है. बाईसा उसको नहीं छूने दिया. मैं राजपूत क्षत्रिय हूं, आप पी सकते हो मेरे हाथ की चाय.”
मुझे अपनी भूल का आभास हुआ. शायद उसे लगा कि मैं जात-पात का विचार कर रही हूं. मैंने झट कप उसके हाथ से ले लिया.
“तुम लोग भी यहीं ले आओ चाय अपनी. कुछ देर यहीं बैठ जाओ साथ में.” मैंने आंगन का दरवाज़ा खोल दिया और अंदर से दो कुर्सियां और ले आई. वे दोनों आ गए, लेकिन नीचे घास पर ही बैठे.
“मिर्ची बहुत स्वाद बनी थी बाईसा.” वह प्रसन्न मुख से बोली. धानी रंग की चुनर में लिपटा उसका पीताभ गोरा रंग. आज वास्तव में ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने छिलके सहित कौरी की फांक तश्तरी में रख दी हो. कैसा अपना सा मुखड़ा था उसका. काश यह सौंदर्य किसी अमीर घर में दिया होता भगवान ने, लेकिन ऐसा निश्छल सौंदर्य तो आधुनिकता के दिखावे से दूर ही संभव है.
“जैसलमेर से यहां इतनी दूर कैसे आना हुआ?” मैंने अपना कौतूहल प्रकट किया. सारंग और भावरी के चेहरे पर एक लज्जा युक्त लालिमा छा गई.
“सब इसके चलते, इसके कारण ही यहां आना पड़ा. सब छोड़-छाड़ कर.” सारंग ने भावरी को इंगित कर कहा. लेकिन उसके चेहरे और स्वर में कोई उलाहना नहीं था, वरन यह कहते हुए प्रेम का एक सागर ही उसकी आंखों के साथ ही जैसे संपूर्ण शरीर में लहरा गया था.
“ऐसा क्यों?” मैं उत्सुक हो गई.
“मैं जात का राजपूत हूं, ऊंचे कुल का क्षत्रिय.” सारंग ने सहज भाव से कहा.
“और भावरी…” मेरी जिज्ञासा बढ़ गई.
“यह गडेरण है, बंजारा गडरिया.”
उसने बताया.
“तो मिले कहां तुम दोनों?” मैंने चूल्हे की चाय का एक भरपूर घूंट पीते हुए सवाल किया.
“म्हारे खेतों के पास ही इसकी टोली जानवर चराती थी. यह खेत पर कभी मिर्ची मांगने, तो कभी अमिया मांगने आती रहती थी.” सारंग जैसे प्रेम की पुरानी गली में अपना पहला कदम दोबारा रख रहा था.
“और तुमने इस अमिया सी लड़की को मिर्च के साथ ही अपना दिल भी दे दिया.” मैंने उसे छेड़ा.
वह घुटनों में सिर दिए शरमा गया.
“वह तो इसकी आंख का इशारा ही…”

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भावरी ओढ़नी का छोर मुंह में दिए मुस्कुरा रही थी.
“यह तो बाईसा, कभी मेरे मुंह की ओर आंख उठाकर देखता भी नहीं था. मैं देखती रहती थी इसे. ज़मीन में मुंह गड़ाकर बस फसल का काम ही देखता रहता था. इसके खेत पर मजदूर लड़कियां थीं, जो इससे ठिठोली करती थीं. पर ये उनसे दूर भाग जाता. जहां गांव, खेतों और मेरे अपने भी जात के छोरे मेरे रूप के आगे डोलते फिरते थे, वहां यह कभी आंख नहीं डालता था मुझ पर. बस, यही बात इसकी भा गई मेरे मन को और मन को लगा जो कभी मेरी शादी हो, तो ऐसा ही भले मन का, भले चरित्तर वाला आदमी मिले मुझे.”
“तब फिर…” मेरी उत्सुकता चरम पर थी.
“एक दिन इस ने इशारा किया कि क्या मैं इतनी बुरी दिखती हूं कि ठाकुर मुझे देखते भी नहीं.” सारंग ने बताया.
“तब यह बिना ही आंख उठाए बोले कि यूं ताका-झांकी करना मेरे कोनी पसंद. मैं तो उसी को आंख भर देखूंगा जिसका घूंघट उठाऊंगा.” भावरी बोली.
तब इसने झट ओढ़नी सिर पर लेकर घूंघट काढ़ लिया और बोली, “ले ठाकुर मैंने तेरे नाम का घूंघट काढ लिया आज. जो ये मुख कोई देखेगा इस जनम में तो तू ही देखेगा, वरना यह रूप ऐसे ही चिता पर राख होवेगा.” सारंग के चेहरे पर वो क्षण प्रत्यक्ष हो उठा था.
“इतनी बड़ी प्रतिज्ञा?” मेरा सर्वांग कांप  उठा.
“उसके बाद सच में ही इसके मुंह से घूंघट नहीं हटा. इसकी जात के लोगों में पंचायत बैठ गई. जात-बिरादरी में
कानाफूसी होने लगी. इस पर भी दबाव बनने लगा. रंग-कुरंग देखकर भावरी सदा ही तेज धार हंसिया अपनी कमर में बांधे घूमती और कपड़ों में छुरा छुपाए रहती. लेकिन इसने कभी भी मेरा नाम बाहर नहीं आने दिया था.” प्रेम का अनूठा सात्विक रूप सारंग के चेहरे पर छाया हुआ था.
“तब फिर तुम्हारा ब्याह कैसे हुआ?” मैं जल्दी से सब कुछ जान लेना चाहती थी.
“मुझे खेत पर सब सुगबुगाहट लगती रहती थी. सारी बिरादरी से यह अकेली ही जूझती रहती. कुछ मनचलों ने इसे फांसने की कोशिश की, तो इसने अपने हंसिए की धार से उनके दांत खट्टे कर दिए. सच बाईसा इसका प्रेम देखकर म्हारा मन भी न पसीजने लगा. लगा कि कितना सच्चा प्रेम करे ये म्हारे से. तब इसके बापू ने बिरादरी के एक लफंगे छोरे से इसका ब्याह तय कर दिया. जिस दिन मुझे पता चला मेरा दिल बहुत रोया, क्योंकि छोरा वो काला, चेचक के दाग़ भरा था. उस पर चाल-चलन का भी ख़राब. मुझे ठीक न लगा ये अन्याय.” सारंग गहरी सांस लेकर बोला.
“लेकिन तुम तो क्षत्रिय हो. तुम्हारे घर पर तो इस रिश्ते को कोई स्वीकारता ही नहीं.” मैंने अपने भीतर बहुत सारा तनाव, चिंता महसूस की.
“म्हारे घर क्या, इसकी बिरादरी क्या कम जात-पात का बवाल करती है. ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो, गड़ेरिये हो… सभी बस अपनी जात को ही जानते हैं बाईसा. इस दुनिया में कोई नहीं जानता, तो बस मानुष मानुष के बीच के प्रेम को नहीं जानता, जो मानुष की सबसे ऊंची जात है. लोग सारी जात को मानते-जानते हैं, लेकिन एक प्रेम की जात को कोई नहीं जानता. दुनिया में प्रेम की ही बस एक जात है. प्रेम ही सबसे ऊंची जात है. जिस छोरे से इसके बाप ने इसका ब्याह तय कर दिया था, एक दिन उसने इसे सांझ के समय जब यह खेत में ढोरों के लिए राड़ा काट रही थी, तब धर लिया. मैं तब बावड़ी पर बैठा था, जब इसकी चीख मुझे सुनाई दी. जब तक मैं दौड़ कर पहुंचा यह अपने हंसिए से उसे बुरी तरह घायल कर चुकी थी और अपना भी गला काटने ही वाली थी. मैंने हाथ धरकर कहा कि बावली हुई है क्या. फेंक हंसिया.”
“फिर?” कहानी का सुखद अंत मेरे सामने प्रत्यक्ष बैठा था, तब भी मन को अजीब सा धड़का लगा हुआ था.
“यह बोली, “नहीं ठाकुर यह देह और मन तेरे नाम कर दिया. अब इस पर दूसरा आंख डालें यह मैं सहन नहीं कर सकती. तेरी मजबूरी जानती हूं. तू मुझसे ब्याह नहीं कर सकता, तो मर ही जाने दे, कम से कम तेरे नाम की तो होकर मरूंगी.”
तब बाईसा मैंने इसका घूंघट उलट दिया और नज़र भर इसका मुंह देख कर कहा, “ले आज से तू मेरी ठकुराइन हुई और मैं तेरा ठाकुर.”
फिर हम दोनों खेत से ही पैदल भाग खड़े हुए. रात ही रात तीन गांव पार हो गए और ख़ूब लुकते-लुकाते दूर यहां चले आए, ताकि कोई ख़बर ही ना पा सके हमारी. रामजी के मंदिर में विवाह किया और यहां ठेकेदार की मजदूरी पा गए.”
भावरी की आंखें ब्याह की बात पर चंचल हो उठीं. एक नमकीन शरारत
उसके चेहरे पर नाच उठी और सारंग का प्रेम मीठे गुड़ सा उसके सर्वांग में छलक उठा. सांझ ढलने को आ गई थी.
“तो यह कच्ची अमिया सी लड़की तुझे भी आख़िर भा ही गई.” मैंने राहत की सांस ली.
“हंसिए वाली चंडी को तो भोलेनाथ ही संभाल सकते हैं ना, तो इस खट्टी अमिया को यह गुड़ की भेली ही मीठा कर सकती थी.” सारंग हंसकर बोला.
रात सारंग बाहर खटिया पर बैठा एकतारा बजा रहा था. पता नहीं कौन सा राग था, लेकिन जो भी था, सीधे दिल में उतर रहा था. धुन जैसे प्रेम की सभी उपमाओं को शब्दों में ढाल कर मन को कोई कहानी सुना रही थी. पूर्णिमा का चांद भी उस गीत को सुनकर ठिठक गया था और अपनी सारी चांदनी उन दोनों पर बरसा रहा था. ऐसा लगा जैसलमेर के एक पुराने महल से कोई प्राचीन प्रेम कहानी उठकर रेत के ढूहों पर चलकर यहां तक आ पहुंची है. मैंने मन ही मन हवा से प्रार्थना की कि रेत पर उस कहानी के कदमों के निशानों को मिटाती जाना, ताकि कभी कोई जाति-बिरादरी उन निशानों को देखते हुए यहां तक ना आ पहुंचे.
भरवां मिर्च, भरवां बैंगन और चूल्हे की सौंधी चाय के आदान-प्रदान में डेढ़ साल बीत गया. अब भरते के लिए बैंगन भावरी चूल्हे पर सेंक देती. कोठी बहुत कुछ बन चुकी थी. भावरी और सारंग से रोज़ ही बात होती रहती. सारंग अब भी सारा समय भावरी के ही आसपास बना रहता. अपने कौल को पूरे समर्पण से शब्द-शब्द जीता था सारंग, कि जिसका घूंघट उठाऊंगा उसी का मुंह देखता रहूंगा… और भावरी प्रेम की उस मिठास में पूरी तरह भीगी रहती. भला सारंग अर्थात चंद्रमा अपनी भावरी (पृथ्वी) से क्षण भर को भी कभी अलग होता है क्या!.. वह तो युगों से उसका ही फेरा लगा रहा है और युगों तक लगाता रहेगा. हर रात उसके एकतारे पर प्रेम की एक नई कहानी गीत बनकर गूंजती रहती और दोनों आज भी मुझे वैसे ही लगते हैं- कच्ची अमिया सी लड़की और मीठे गुड़ सा प्रेम…

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Photo Courtesy: Freepik

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