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कहानी- डियर नानी! (Short Story- Dear Nani!)

एक इंटरव्यू के दौरान जब मुझसे यह सवाल पूछा गया,‌ तो मेरी स्मृति में नानी कूद पड़ीं. शब्दों की खान और भावों से धनी थीं मेरी नानी! उनको याद करते हुए मैंने उत्तर दिया, ''मेरी नानी! उन्हीं से मैं भावों को पिरोना सीखी हूं.''

''रिया जी! आप आज एक सफल और चर्चित लेखिका हैं, इसका एक बड़ा कारण शायद यही हो सकता है कि आपके पास जो शब्दों का ख़ज़ाना है, वह दूसरे लेखकों से अलग है. आपका कहन इतना सहज, सरल और अपना सा होता है कि हर पाठक के दिल में उतर जाता है. क्या आप बता सकतीं हैं कि आपको इस लेखन की प्रेरणा किससे मिली?''
एक इंटरव्यू के दौरान जब मुझसे यह सवाल पूछा गया,‌ तो मेरी स्मृति में नानी कूद पड़ीं. शब्दों की खान और  भावों से धनी थीं मेरी नानी! उनको याद करते हुए मैंने उत्तर दिया, ''मेरी नानी! उन्हीं से मैं भावों को पिरोना सीखी हूं.''
''नानी! मतलब? आपकी नानी लेखिका थी क्या?" उसने आश्चर्य से यह सवाल पूछा, तो सहसा नानी की छवि मेरे दिमाग़ के इर्द-गिर्द घूमने लगी. तभी मैंने अपना माइक सम्भलाते हुए उत्तर दिया ''लेखिका नहीं थीं वो, पर फिर भी वे साहित्य की कोई आलमारी से कम न थीं. उनके पास अपने समय का पूरा इतिहास था. उनकी भाषा ठेठ बुंदेली थी. उनके पास एक शब्द के लिए कई शब्द थे. हिंदी मुहावरों को वे आंचल से बांधकर घूमती थीं.''
भावों में बहती हुई मैं लगातार नानी के बारे में बोलती गई.

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''किसी शख़्स के पास बैठकर संजीदगी से ही कुछ सीखा जाए यह ज़रूरी नहीं. कभी-कभी हम अपने आसपास के चलते-फिरते लोगों को बिना कोई गुरुदक्षिणा दिए भी बहुत कुछ सीख लेते हैं. और उस ज्ञान के विनिमय के दौरान गुरु और शिष्य दोनों इस बात से अनभिज्ञ होते हैं कि वे गुरु-शिष्य के संबंध में हैं.''
''वाह! कितना सुंदर उत्तर है आपका. ख़ैर आगे बताएं, तो आपकी नानी आपके लेखन की वज़ह हैं?'' उसने पुनः एक सवाल किया.
''हां! बहुत हद तक, दरअसल मेरी नानी, कहानियां बहुत सुनाती थीं और साथ ही उन्हें किताबें पढ़ने का भी शौक था. मेरे भीतर जो कल्पना शक्ति है, जो शब्दों की प्रचुरता है, वह निःसंदेह मेरी नानी की ही देन है. मेरी नानी बहुत अलग तरह की महिला थीं.
यूं तो नब्बे साल पूरे करके जाना बुरा नहीं होता, पर मेरी नानी ऐसी थीं कि अगर वे हज़ारों साल भी जीवत रहतीं, तो भी वे हम सबके दिलो पर राज़ क़रतीं. समय के साथ बदलना और समय की नब्ज़ पकड़ना उन्हें बख़ूबी आता था. वे महज़ आठवीं पास थीं. लेकिन बुद्धि-विवेक और ज्ञान में मानो वे चलता-फिरता कोई प्रकाश-पुंज थीं.''

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कुछ सवालों के बाद इंटरव्यू ख़त्म हुआ. तो मेरी आंखें नम हो गईं. आज नानी की कही कितनी ही बातें मैं अपने लेखन में इस्तेमाल करती हूं. क्या नानी यह सब देखती होंगीं? क्या नानी कभी-कभी चुपके से मेरी कहनियां पढ़ती होंगीं?
पता नहीं नानी किस दुनिया में होंगीं. उन्हें याद करते हुए मैं एक बिना पते वाला ख़त लिखने बैठ गई, मैंने काग़ज़ पर जैसे ही डियर नानी लिखा, आऔख से एक आंसू ढुलककर काग़ज़ पर गिर गया. और वह आंसू मेरे मन के सारे भाव कह गया.

writer poorti vaibhav khare
पूर्ति खरे


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Photo Courtesy: Freepik

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