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कहानी- अंत भला तो सब भला… (Short Story- Ant Bhala Toh Sab Bhala…)

एकाए‌क मुझे लगा कि मैने बच्चों को कुछ ज़्यादा ही सुना दिया है. मैंने तुरंत बातचीत का सूत्र बदलते हुए कहा, "मैं भी कहा की बातें ले बैठी. अंत भला तो सब भला, अब तो यह सोचना है कि कॉलेज में पार्थ के खाने की क्या व्यवस्था होगी..."

"अभी-अभी शिखर का फोन आया है कि हम रात की ट्रेन से पहुंच रहे हैं. सब ठीक हो गया है. आप ज़रा भी चिता न करें. पार्थ बिल्कुल ठीक है. रात के खाने में दाल-सब्ज़ी-रोटी बनवा लीजिएगा." पूजा से उठकर ही फोन रिसीव करने आयी थी. पुनः पूजाघर में आकर भगवान के चरणों में झुक गई, "हे प्रभु! तूने हमारी लाज रख ली. तेरे प्रताप से ही पार्थ आज ठीक होकर घर लौट रहा है. डॉक्टरों ने तो बहुत ही डरा दिया था, तभी तो मेरठ से दिल्ली ले जाना पड़ा. कितने दिनों से पार्थ खाने में अरुचि दिखा रहा था. खाता भी तो उल्टी कर देता, "कहता, छाती भारी हो रही है. मुंह कड़वा है." डॉक्टर भी शुरू में कहां कुछ समझ पा रहे थे. यह तो जब बुढ़ाना गेट वाले बड़े डॉक्टर को दिखाया, तब जाकर पता चला कि पार्थ का लिवर कमज़ोर हो गया है. डॉक्टर ने तो यहां तक डरा दिया था कि जल्दी ही सही इलाज नहीं हुआ, तो लिवर फट भी सकता है. उन्हीं के कहने पर दिल्ली के मशहूर डॉक्टर को दिखाने ले गए थे. उन्हीं के इलाज से आराम हुआ है. एक महीना तो नर्सिंग होम में भर्ती रहा. श्वेता और शिखर तो मानो खाना-सोना ही भूल गए. भूले भी क्यों न, जिनका जवान लड़का जीवन-मृत्यु से जूझ रहा हो, उन मां-पिता को भला कुछ सूझता है…
मैं बूढ़ी दादी यहां बस अपने ठाकुरजी के चरणों में ही पड़ी रही. घर का इकलौता बच्चा ठीक होकर घर लौट आए, यही मन्नते मांगती रही.
इस एक महीने में अतीत की कितनी यादें उमड़ती-घुमड़ती रही. वर्षों का सफ़र एक माह में दोहरा गई. शिखर और पूनम के बचपन की शरारतें कभी मन को गुदगुदाती, तो कभी उनके बीमार पड़ने पर मन में उठी शंका मुझे झकझोरती. पूनम का सिविल सर्विस में सिलेक्शन होना, उसकी नौकरी, शादी एवं पति के साथ विदेश में बस जाना, सभी दृश्य मानो साकार हो उठे. इसी तरह शिखर का अपने पापा के पदचिह्नों पर चलकर जज बनने की चाह उसे एक अच्छा वकील बना गई. शिखर के पापा जब मेरठ के जिला जज बनकर आए, तभी शिखर ने लॉ में दाखिला लिया था. लॉ करने के बाद दो बार में भी जब वह मुंसिफी की परीक्षा पास नहीं कर पाया, तब उन्होंने ही उसे यहां अपने मित्र, जो नामी वकील थे, के मार्गदर्शन में लॉ की प्रैक्टिस करने की सलाह दी. तभी से शिखर ने एक वकील के रूप में ख्याति प्राप्त की. आज एक सफल वकील के रूप में उसकी पहचान है.
श्वेता शिखर के पापा के दोस्त की लड़की थी. दोनों दोस्तों ने दोस्ती को रिश्तेदारी में परिवर्तित करने का मन बनाया, अतः श्वेता हमारे घर की बहू बनकर आ गई. उसने जल्द ही पार्थ को मेरी गोद में डाल दिया, मैं तो निहाल हो गई. शिखर की शादी के बाद के दिन आजकल बहुत याद आते है. शिखर के पापा ने हमेशा ही बच्चों के खान-पान की गुणवत्ता पर बहुत ध्यान दिया.
इसी का परिणाम था कि घर में दो-दो गाय बंधी रहती. नौकरों की कमी न थी. बड़े-बड़े बंगले रहने को मिलते, हरी सब्ज़ियां घर पर ही माली उगा देता. घर का शुद्ध दूध-दही बच्चे भरपेट खाते. भारतीय परंपरागत खाना ही हमारी रसोई में बनता. नौकर कितने भी हो, पर खाना मैं ख़ुद अपने हाथों से बनाती. मैंने कभी भी इस मामले में नौकरी पर भरोसा नहीं किया. शिखर तो जब तक घर का दूध नहीं पी लेता उसे चैन न पड़ता. पौष्टिक खाने का ही परिणाम था कि दोनों बच्चे हमेशा स्वस्थ रहे.

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श्वेता खानपान के मामले में हमसे भिन्न है. उसकी पसंद भिन्न है. यह बात मुझे शादी के एक दिन बाद ही पता चल गई थी. सुबह नाश्ते में आलू के परांठे के साथ ग्लास भर दूध जब शिखर ने उसे भी पिला दिया, तब उसका मुंह देखने लायक था. कड़वी दवा की तरह वह लिहाज़ के कारण पी तो गई, लेकिन सारा दिन उसका सिर दुखता रहा. सिर पर रूमाल बांधने का कारण जब मैंने पूछा, तब उसने बताया कि उसे बेड टी पीने की आदत है उसके यहां सब चाय ही पीते हैं.
उसके बाद उसके साथ-साथ शिखर भी चाय का आदी हो गया. दूध की जगह चाय, मट्ठे की जगह कोल्ड ड्रिंक ने कब घर में स्थान बना लिया पता ही नहीं चला. फ्रिज कोल्ड ड्रिंक्स की बोतलों से भरा रहने लगा. श्वेता की न तो दाल-रोटी पसंद आती, न दूध-दही. हफ़्ते में दो दिन बाहर खाना उनकी दिनचर्या का हिस्सा था. शुरू-शुरू में श्वेता का साथ देने के लिए शिखर बाहर खाने जाता, लेकिन बाद में वही उसकी भी पसंद बन गया. शिखर के पापा को यह सब पसंद नहीं था, परंतु मेरे समझाने पर वह बच्चों को कुछ भी कहते न थे.
पार्थ का जन्म तो‌ हमारे‌ लिए असंख्य ख़ुशियां लेकर आया था. उसके दादाजी उसे अपने से अलग न करते. अपने साथ सुलाते-खिलाते वह भी उनके साथ ही घुसा रहता, यह बात श्वेता को पसंद नहीं आती थी. यह बात मुझे साफ़ महसूस हो रही थी. धीरे-धीरे उसने पार्थ को अपने साथ रखना शुरू कर दिया. अपने साथ नहाने ले जाती. अपने साथ चाय पिलाती, जो खाती, उसे भी खिलाती.
इन्हें श्वेता का व्यवहार बहुत बुरा लगा. परंतु घर की शांति के लिए इन्होंने अपने को पार्थ से दूर कर लिया. इनके मन की व्यथा मैं समझ पा रही थी.
शिखर की उपस्थिति में एक दिन श्वेता से बात की. उससे कहा कि पार्थ के दादाजी उसका सान्निध्य चाहते हैं. दादा-दादी को पोते-पोती से विशेष लगाव होता है. तुम पार्थ को उनके पास से क्यों ले आती हो? इस पर उसका उत्तर मुझे अंदर तक आहत कर गया. वह बोली, "मम्मी, आपने अपने बच्चों को अपने तरीक़े से बड़ा किया. अपनी पसंद का खिलाया, पहनाया. पार्थ मेरा बच्चा है, उसे मैं अपने तरीक़े से बड़ा करूंगी. मैं नहीं चाहती कि मेरा बच्चा देसी वातावरण में पले. मैं उसे आधुनिक बनाना चाहती हूं."
मैंने शिखर की तरफ़ देखा, तो पाया कि उसका समर्थन अपनी पत्नी के साथ है. उस दिन से हमारी रसोई तो एक रही, पर खाना दो तरह का बनना शुरू हो गया. देखते-देखते पार्थ स्कूल जाने लगा. दूध-परांठे की जगह नूडल्स, कोल्ड ड्रिंक ने ले ली. दाल-रोटी तो पार्थ खाना ही नहीं चाहता था. उसे चाहिए पिज़्ज़ा-बर्गर और है भी न जाने क्या-क्या. मैं तो सबके नाम भी नहीं जानती. श्वेता पहले हफ़्ते में दो दिन होटल जाती थी, लेकिन अब पार्थ की इच्छा से या तो बाहर खाते या फिर घर पर ऑर्डर करके मंगा लेते. लड्डू सहजी का नाश्ता तो रसोई से गायब हो गया. पार्थ वर्षों तक हाई कैलोरी का खाना खाता रहा. पढ़ाई के कारण न खेलने जाता, न घर का कुछ काम करता. उसका वज़न बढ़ने लगा. तबीयत ख़राब होने पर जब भी डॉक्टर के पास जाते, तो डॉक्टर कहता कि बच्चे पर ध्यान दीजिए. अगर यह अपना वज़न कम नहीं करेगा, तो इसे बार-बार मेरे पास आना होगा. अब तो घर में ऐसी स्थिति हो गई कि शिखर और श्वेता चाहते थे कि पार्थ अपना खानपान बदले, लेकिन वो सुनने को तैयार नहीं था. घर का खाना वह खा ही नहीं सकता था. चाइनीज़, थाई, इटालियन जैसे फूड ही उसे पसंद थे. इंटर करने के बाद वह एक साल पहले ही तो मेडिकल में सलेक्ट हुआ था. वहां भी मेस का खाने की जगह जंक ही खाना खाता. रात-रात भर पढ़ना, तला-भूना खाना, उसका स्वास्थ्य ख़राब रहने लगा. उसकी भूख कम हो गई. जी मिचलाने लगा. उल्टियां होने लगी. लखनऊ मेडिकल कॉलेज से पत्र आया कि आपका बेटा बीमार है, तब शिखर जाकर उसे मेरठ ले आया. यहां बड़े-बड़े डॉक्टरों को दिखाया. जब कुछ लाभ नहीं हुआ, तो उसे दिल्ली ले जाना पड़ा.

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मेरी सोच को विराम लगा, जब गंगा ने आकर पूछा, "मांजी, आज खाने में क्या बनेगा." "मूंग दाल, परवल की सब्ज़ी बना ले, दही तो है ही." गंगा आश्चर्य से मेरा मुंह देखने लगी, मानो पूछ रही हो कि क्या छोटे भैया यह सब खा लेंगे.
गाड़ी ठीक समय पर आ गई. ड्राइवर को स्टेशन भेज दिया था. अभी-अभी तीनों लौटे श्वेता और शिखर बहुत थके हुए लग रहे थे. पार्थ तो मुझे प्रणाम करके अपने कमरे में आराम करने चला गया. उसका वज़न काफ़ी कम हो गया है. मैंने मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दिया.
खाने आदि से निवृत्त होकर श्वेता और शिखर मेरे पास आकर बैठ गए. "मां, हमें क्षमा कर दीजिए." दोनों एक साथ बोले. "मां। हमने आपका बहुत दिल दुखाया है. आपकी बातों का उल्लंघन किया है. आप कितनी सही थीं. हमारे ग़लत खानपान के कारण ही आज पार्थ इस स्थिति में पहुंच गया है. पापाजी का भी कितना मन दुखाया हमने? उनसे तो हम क्षमा भी नहीं मांग पाए?" "मां-पिता कभी भी बच्चों का अहित नहीं चाहते, परंतु आजकल का चलन ही ऐसा हो गया है कि अपने पारंपरिक तरीक़े, चाहे खानपान में हो या पहनावे में, बच्चों को पसंद नहीं आते. तुम्हारा भी इसमें दोष नहीं है. दोष है तो हर चीज़ की अति में है. कभी-कभी बाहर का खाना ग़लत नहीं है, परंतु इसे अपनी दिनचर्या का हिस्सा बना लेना ग़लत है. भारतीय खाना संपूर्ण
आहार माना जाता है. इसमें सभी पोषक तत्व विद्यमान होते हैं. टीवी के विज्ञापन तथा होटलों के कॉन्टिनेंटल फूड देखकर खाने का मन होता ही है. मेरा तो मानना है, चाहे कुछ भी खाओ, पर अपना घरेलू भोजन खाना न छोड़ें."
एकाए‌क मुझे लगा कि मैने बच्चों को कुछ ज़्यादा ही सुना दिया है. मैंने तुरंत बातचीत का सूत्र बदलते हुए कहा, "मैं भी कहा की बातें ले बैठी. अंत भला तो सब भला, अब तो यह सोचना है कि कॉलेज में पार्थ के खाने की क्या व्यवस्था होगी. अभी कुछ समय तक तो वह मेस का खाना नहीं खा सकेगा. मेडिकल की पढ़ाई में तो कॉलेज में ही रहना आवश्यक होता है. मुझे तो बहुत चिंता लगी है. पढ़ाई से लंबी छु‌ट्टी लेना भी संभव नहीं है."
"मां, आप चिंता न करें. मैंने लखनऊ में अपने दोस्त राजेश से बात की है. वह लखनऊ में मेडिकल कॉलेज के पास ही रहता है. जब तक पार्थ मेस का खाना खाने लायक नहीं हो जाता, तब तक डॉक्टर के निर्देशानुसार वह उनके घर पर खाना खाएगा. राजेश अपने बच्चे की तरह पार्थ का ध्यान रखेगा."
मेरे हाथ प्रभु की इस कृपा के लिए अपने आप जुड़ते चले गए. फिर मैंने देखा, पार्थ पीछे खड़े होकर हमारी बातें ध्यान से सुन रहा था. वह आकर मुझसे लिपट गया. मेरी आंखों से भी ख़ुशी के आंसू झरने लगे. "दादी, जब मेरा परहेज़ समाप्त हो जाएगा और मैं घर का साधारण खाना खाने लगूंगा, तब आप मुझे अपने हाथ से बने बेसन के लड्डू, मठरी बनाकर खिलाना."

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मैं उसका चेहरा देखती रह गई. क्या यह यही पार्थ है. मैंने एक बार फिर उसे गले से लगा लिया. ख़ुशी के आंसुओं से मेरी आंखें झिलमिलाने लगी.

- मृदुला गुप्ता

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