Close

कहानी- मां कहां गई?.. (Short Story- Maa Kahan Gayi?..)

“अब क्या बताऊं घर की बात…” प्रयाग बोल रहा था. उसकी बात मेरे गले में ही अटक गई.
“घर की बात!”
मैं उसे एकटक देख रही थी. उसने अपनी बात को संभालते हुए कहा, “नीतू, तुम अपने ससुराल में उलझी रहती हो. तुम अपने पति, परिवार और बच्चों को संभालो. यहां की टेंशन मत लो. हम सब संभाल लेंगे.”
“वह सब ठीक है, पर यह तो बताओ कि मां कहां गई?”

सामने नीम का पेड़ खड़ा लहरा रहा था. ऐसा लग रहा था कि वह कह रहा हो, “आओ बेटा, तुम्हें अपनी आगोश में ले लूं. तुम्हें चिंता करने की ज़रूरत बिल्कुल भी नहीं है.”
बस अपनी कुछ उम्मीद को लेकर मैंने मायके के दहलीज़ पर कदम रखे थे, यह सोचकर कि शायद मेरे कदम रखते ही मेरे तीनों भाइयों के बीच का मतभेद ख़त्म हो जाएगा. मगर सिर्फ़ यह मेरी भूल थी. सामने तीन दीवारें दिखाई दे रही थीं. दिलों के बीच दीवार खड़ी हो चुकी थी, अब यह कैसे ख़त्म होती!
झगड़ा सिर्फ़ इस नीम के पेड़ को लेकर था. यह किसके हिस्से में हो, इस बात को लेकर तीनों के बीच घमासान ज़ारी था. अंततः यह निर्णय लिया गया कि इस पेड़ को ही गिरा दिया जाएगा और इसकी लकड़ियों का भी बंटवारा होगा और उस जगह का भी. अंतिम बार मैं अपने नीम के पेड़ से मिलने आई थी, देख तो लूं आख़िरी बार!
नीम का यह पेड़ मेरे बचपन की सारी ख़ुशियों का गवाह रहा है. गर्मियों में अम्मा कहती थीं, "थोड़ी देर नीम के पेड़ के नीचे खेलो, ताकि फोड़े-फुंसी ना हों."
कुछ देर तक मैं उसके नीचे खड़ी हो गई, पता नहीं ईश्वर का विधान क्या है समझ में नहीं आता. मेरे तीनों भाई आपस में जान देते थे. मैं ही उनके बीच कबाब में हड्डी बन जाती थी और लड़ाई लगाया करती थी. लेकिन ये तीनों एक-दूसरे से भरपूर प्यार लिए करते थे.
बड़े भइया ने अपना इंजीनियरिंग इसलिए ड्रॉप किया था कि मंझले भइया इंजीनियरिंग कर सकें, क्योंकि पापा के पास इतना सामर्थ्य नहीं था कि दो-दो बच्चों को इंजीनियरिंग पढ़ा सकें.  

यह भी पढ़ें: ना बनाएं कोविड सिंड्रोम रिश्ते, ना करें ये गलतियां, रखें इन बातों का ख़याल (Covid syndrome relationship: How much have relationships evolved in the pandemic, Mistakes to avoid in relationships)

छोटा प्रयाग सबका दुलारा था. अम्मा का तो वो लाड़ला था, लेकिन न जाने कौन से ग्रह का साया मेरे परिवार में पड़ गया. अब इन ऊंची दीवारों को फांदकर कहां जाऊं? किसके घर पहले जाऊं?
मैं नम आंखों से नीम के पेड़ के तले खड़ी थी,‌ तभी बड़े भइया की आवाज़ मेरी कानों में पड़ी, “अरे नीतू, वहां क्या कर रही है तू?”
उनकी आवाज़ से मैं अपने प्रश्न व्यूह से बाहर आई. अपनी आंखें पोंछीं और उनके पैर छूकर प्रणाम किया.
“आओ अंदर आओ!”
 भइया के चेहरे पर परिचित मुस्कान मौजूद थी.
“शैला ज़रा चाय बनाना, देखो कौन आया है?” भइया अपने  चिरपरिचित अंदाज़ में ख़ुशी से भाभी को आवाज़ देते हुए बोले.
“नीतू तुम चाय लोगी या कॉफी?" भइया को चाय पसंद थी, इसलिए मैंने चाय बोल दिया.
भाभी भी ख़ुशी से बलैया लेते हुए बोलीं, “बहुत अच्छा किया नीतू तू आ गई. तुम्हें देखते ही भइया ख़ुश हो जाते हैं.”
थोड़ी देर बैठने के बाद मैं मंझले भइया के पास चली गई और फिर छोटे प्रयाग के पास. सब ने मुझे हाथों हाथ लिया. मैं आश्चर्यचकित थी इस बात से कि इतनी देर से मुझे यह नहीं पता था कि मां कहां हैं?


 “प्रयाग, मां कहां गई?”
 उसके चेहरे पर शून्यता दिखाई दे रही दे रही थी. वह झल्लाते हुए बोला, “नीतू, हम तीनों ने मिलकर यह फ़ैसला किया था कि मां चार-चार महीने सबके पास रहेंगी, मगर मां को यह नागवार लगा. उनके ईगो पर आ गया. वह नाराज़ होकर बोलीं, अब मेरा भी बंटवारा करोगे? घर, ज़मीन-जायदाद सब तो बांट लिए… मेरा बंटवारा नहीं होना चाहिए."
“इसका क्या मतलब है?” मैं उसकी बात समझ नहीं पाई.
“अब क्या बताऊं घर की बात…” प्रयाग बोल रहा था. उसकी बात मेरे गले में ही अटक गई.
“घर की बात!”

यह भी पढ़ें: माफ़ी मांगने से क्यों कतराते हैं पुरुष? (Why Do Guys Never Say Sorry?)

मैं उसे एकटक देख रही थी. उसने अपनी बात को संभालते हुए कहा, “नीतू, तुम अपने ससुराल में उलझी रहती हो. तुम अपने पति, परिवार और बच्चों को संभालो. यहां की टेंशन मत लो. हम सब संभाल लेंगे.”
“वह सब ठीक है, पर यह तो बताओ कि मां कहां गई?”
“मां शारदा होम चली गई हैं?”
“क्या?.. मां वृद्धाश्रम चली गई हैं? यह तुम लोगों ने क्या किया? किस बात पर इतना मतभेद हो गया कि तुमने मां को ही हटा दिया.”
“हमने मां को वृद्धाश्रम नहीं भेजा. यह उनकी ख़ुद की इच्छा थी. तुम उनसे बात क्यों नहीं कर लेती?”
"कई बार उनसे बात करने की कोशिश की, परंतु मां का फोन कभी लगता ही नहीं था. कई बार भाभी से पूछ भी चुकी थी, किंतु उनका गोल-गोल जवाब यह बताता था कि मां की तबीयत ठीक नहीं रहती, इसलिए उनके पास फोन नहीं रहता."
मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गई. मैंने अपना पर्स उठाया कहा, “मैं मां से मिलकर आती हूं.”
मेरे मन में कई सवाल आ-जा रहे थे. उन्हीं सवालों के साथ मेरा थ्री व्हीलर रुक गया.


शारदा होम यानी वृद्धाश्रम का बोर्ड मेरा स्वागत कर रहा था. कुछ फॉर्मेलिटी करने के बाद मैं रिसेप्शन रूम में बैठ गई. थोड़ी देर में मां को आते हुए देखा. मां उदास नहीं थीं. मुझे देखते ही उन्होंने गले से लगा लिया.
“यह सब क्या है? आप यहां क्यों हैं?”
“अरे छोड़ो ना उन तीनों की बात. इतने दिनों बाद तुमसे मुलाक़ात हुई है. बैठकर कुछ बातें करते हैं.”
“पर मां मैं आपको यहां रहने नहीं दूंगी. आप मेरे साथ चलिए.”
“अरे नहीं, मुझे नरक का भागीदार मत बनाओ. मैं यहीं ठीक हूं. मेरी ही ग़लती थी, जो मैंने उनमें संस्कार नहीं भर पाई.”
“मगर मां कोई क्या कहेगा कि चार बच्चों की मां वृद्धाश्रम में..!”
“अरे वृद्धाश्रम तो है नहीं ना, यह तो तेरी बड़ी मौसी का घर है, जिसे तेरे मौसाजी ने वृद्धाश्रम में बदल दिया. मुझे यहां किसी भी बात की कोई कमी नहीं है. मैं ख़ुश हूं. मेरी बहुत सारी सहेलियां बन चुकी हैं, सब मेरा ख़्याल रखती हैं. उस घर में रहकर लड़ाई-झगड़े से तो अच्छा है कि मैं यही रहूं.” 
बचपन में हम शारदा मौसी के यहां जाते भी थे, इसलिए वह जगह कुछ अनजान नहीं थी. मौसी की कैंसर से मृत्यु के बाद उनकी आत्मा की शांति के लिए मौसाजी ने इसे अनाथ बुज़ुर्गों के लिए घर बना दिया था.
बड़े ही भारी मन से मै मां से विदा लेकर वहां से निकली.
दूसरे दिन सुबह ही मुझे वापस लौटना था. रातभर करवट बदलने के बाद नींद देर से आई और सुबह ठक-ठक की आवाज़ से नींद खुली. तभी बड़ी तेजी से आवाज़ करता हुआ कुछ धड़ाम से गिर गया. मैं कमरे से निकलकर बालकनी में आ गई. सामने नीम का पेड़ कटे हाल में धराशाई गिरा हुआ था. मेरी आंखें भर आईं. रिश्तों में मन के भेद इतने ज़्यादा क्यों हो जाते हैं कि हमारी सोच में भी मतभेद हो जाते हैं. बहुत सारे प्रश्न अनुत्तरित.

यह भी पढ़ें: क्या आपका अतीत आपको आगे नहीं बढ़ने दे रहा है? बीते कल के इमोशनल बैगेज से ऐसे छुटकारा पाएं (Is Your Emotional Baggage Holding You Back? 10 Hacks To Get Rid Of Emotional Baggage)

मैंने सबसे विदा लिया और वहां से निकल आई. सब ने झोली भर-भर कर मुझे गिफ्ट दिया था. सब कुछ ठीक था, लेकिन आपसी कौन सी लड़ाई थी, समझ से परे थी.
अगर किसी को थोड़ी ज़मीन ज़्यादा मिल जाती या किसी को थोड़ी ज़मीन कम मिल जाती, तो उससे क्या हो जाता? एक समय ऐसा था कि बड़े भइया ने अपने इंजीनियर बनने का सपना छोड़ दिया था, पर आज की सच्चाई मुझे खून के आंसू रुला रही थी.
- सीमा प्रियदर्शिनी सहाय

अधिक कहानियां/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां क्लिक करें – SHORT STORIES

Photo Courtesy: Freepik

अभी सबस्क्राइब करें मेरी सहेली का एक साल का डिजिटल एडिशन सिर्फ़ ₹599 और पाएं ₹1000 का गिफ्ट वाउचर.

Share this article