काँपें थर-थर तन सभी, मुख से निकले भाप।
रगड़ें लोग हथेलियाँ, बढ़े तनिक सा ताप।
बढ़े तनिक सा ताप, युक्ति सारी कर डालें।
रहे ठंड सब माप, शीत में ख़ुद को ढालें।
सिहरें सब के गात, कान मफलर से ढाँपें।
कटे कष्ट से रात, ठंड से सारे काँपें।।
कुहरा घट-घट पड़ रहा, हाथ न सूझे हाथ।
पता नहीं चल पा रहा, कौन चल रहा साथ?
कौन चल रहा साथ, जमी आँखों पर झिल्ली।
भूल गए निज पाथ, दूर लगती अब दिल्ली।
जो भी देखे हाल, हँसी से होता दुहरा।
कुदरत करे कमाल, पड़ रहा बेढब कुहरा।
उत्तर भारत में कहर, नित ढाये नीहार।
जीव-जंतु भी शीत से, पड़ जाते बीमार।
पड़ जाते बीमार, गुज़ारा कैसे हो तब।
मिले नहीं आहार, कुहासा पड़ता है जब।
मौसम का यह रूप, कर रहा आज निरुत्तर।
कब निकलेगी धूप, खोजते इसका उत्तर।।
- कर्नल प्रवीण त्रिपाठी
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Photo Courtesy: Freepik
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