केस 1ः विधि और निखिल का विवाह हुए अभी 6 महीने भी नहीं हुए थे और उनमें आए दिन तकरार होने लगी. इसकी वजह थी दोनों की वित्तीय आदतों और प्राथमिकताओं में अंतर. विधि बचत में विश्वास रखती थी. उसकी कुछ म्युचुअल फंड, एसआइपी, रिकरिंग डिपॉजिट आदि की मासिक किश्तें भी थीं. इनमें उसकी सैलरी का एक बड़ा हिस्सा ख़त्म हो जाता था. साथ ही वह निखिल की आदतों के कारण उससे छिपाकर कुछ पैसे भी इकट्ठा करती थी. दरअसल, निखिल खाओ, पियो और मौज करो की प्रवृत्ति वाला इंसान था. उसे नित नए गैजेट्स ख़रीदने, पैसे उड़ाने और मस्ती करने का शौक था. ज़ाहिर है इन मुद्दों पर विधि और निखिल में अक्सर बहस हो जाती थी. विधि और निखिल ने लव मैरिज किया था और एक-दूसरे को तीन-चार वर्षो से जानते थे, इसके बावजूद विधि ने कभी इस बात पर गौर नहीं किया.
केस 2ः वसुधा और मनीष के बीच सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था. शादी को 5 साल होने आए. लेकिन धीरे-धीरे एक-दूसरे की वित्तीय आदतों को लेकर उनमें झगड़ा होने लगा. मनीष रिस्क लेने का शौकीन था और हाई रिस्क इक्विटीज़ में निवेश करने के साथ-साथ गैंबलिंग, लॉटरी आदि में भी इंटरेस्ट रखता था. इतना ही नहीं, वह वसुधा से अक्सर कहने लगा था कि वह कमाती भले ही है, मगर फाइनेंशियल डिसीजन लेने का हक़ सिर्फ़ उसे है. इसी बात को लेकर आए दिन दोनों के बीच तू तू-मैं मैं होती थी. मामला इतना बिगड़ गया कि बात तलाक़ तक पहुंच गई.
एक ज़माना था जब यह माना जाता था कि पति-पत्नी के रिश्तों में रुपए-पैसे की बात बेमानी है, लेकिन यह तब की बात है जब पति ब्रेड अर्नर माना जाता था और पत्नी पर घर-गृहस्थी, रिश्तेदारी और चूल्हा-चौका संभालने की ज़िम्मेदारी होती थी. आज के अर्थ प्रधान युग में पति और पत्नी दोनों के कमाऊ होने के कारण किसी भी रिश्ते में पैसों की बड़ी अहमियत होती है. अब पत्नी पूरी तरह पति पर आर्थिक रूप से निर्भर नहीं है. अगर है भी तो उसमें अपने हक़ मांगने की जागरूकता आ चुकी है. पति और पत्नी की वित्तीय आदतें अगर मेल ना खाएं, तो उनके बीच तकरार और फिर रिश्तो में दरार पड़ने का जोख़िम बढ़ जाता है.
अमेरिकी लॉ फर्म जीमेनेज द्वारा किए गए अध्ययन में पता चला है कि अमेरिका में 29 फ़ीसदी तलाक़ वित्तीय असहमतियों की वजह से ही होते हैं. भारत में भी यह संख्या कम नहीं है. आर्थिक दबाव, जॉब स्ट्रेस, वर्क लाइफ बैलेंस की दिक़्क़त के साथ-साथ महिला सशक्तिकरण, महिलाओं के शिक्षित, जागरूक और वित्तीय रूप से आत्मनिर्भर होने की वजह से वित्तीय तकरार और तलाक़ की दर में काफ़ी बढ़ोतरी हुई है.
तकरार और दरार के कारण और उनका समाधान
विभिन्न वित्त विशेषज्ञों, वकीलों और मनोवैज्ञानिकों के मुताबिक़ पति-पत्नी के बीच अक्सर जो वित्तीय तकरार होती हैं, वह मूल रूप से निम्न प्रकार की होती हैं. उनका समाधान पति और पत्नी आपस में संवाद से कर सकते हैं. मगर इसके लिए थोड़ा सा समझौता और थोड़ा विवेकशील होने की ज़रूरत है.
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ज़्यादा ख़र्च करने और कर्ज़ लेने की आदत
पति या पत्नी में से कोई एक जब फिजूलख़र्ची करता है या दोनों हाथों से पैसा उड़ाता है, तो धीरे-धीरे यह बात मितव्यय करनेवाले पार्टनर को खलने लगती है. इस तरह की आदत का व्यक्ति के मनोविज्ञान से सीधा संबंध होता है. कुछ लोगों को शॉपिंग करने से ख़ुशी मिलती है. उन्हें लगता है कि लोगों को प्रभावित करने और उन पर रौब जमाने के लिए महंगी चीज़ें ख़रीदना, ब्रांडेड कपड़े और गैजेट्स ख़रीदना ज़रूरी है. इस मानसिकता के लोग ऋण लो और खाओ-पियो मौज करो के सिद्धांत पर चलते हैं. वहीं जो लोग पैसे की क़ीमत समझते हैं और दिखावे को ढकोसला या मूर्खता मानते हैं, वे पैसों को बेहद सोच-समझकर ज़रूरी चीज़ों में ही ख़र्च करते हैं. ये पैसे का उपयोग अपना भविष्य सुरक्षित करने, चल अचल संपत्ति ख़रीदने, सेल्फ इंप्रूवमेंट में या फिर बच्चों की शिक्षा, विवाह और हेल्थ की मेंटेनेंस आदि पर ख़र्च करने के लिए बचाते हैं. जब पति और पत्नी दोनों अपनी ज़िद पर अड़ जाएं और एक कदम भी पीछे हटने या आगे बढ़ने को तैयार ना हों तो झगड़ा बढ़ जाता है, जबकि समझदार दंपति आपस में बात करके थोड़ा-थोड़ा समझौता कर लेते हैं और गृहस्थी की गाड़ी को सुगमता पूर्वक चलाते रहते हैं.
ख़ुद को निर्णायक समझना
कई बार एक पार्टनर, ज़्यादातर मामलों में पुरुष किसी भी प्रकार के वित्तीय निर्णय लेना अपना ही हक़ समझता है और वह ख़ुद को ही इसके योग्य समझता है, जबकि उच्च शिक्षित और सफल प्रोफेशनल होने के बावजूद ज़रूरी नहीं कि हमेशा पुरुष ही सही वित्तीय निर्णय लेने में सक्षम होगा. कमाऊ और समझदार पत्नी को यह बात अखर जाती है कि आख़िर अपने द्वारा कमाए गए पैसों को कैसे ख़र्च और निवेश करना है, इसका निर्णय वह स्वयं क्यों नहीं ले सकती. इस मुद्दे पर दोनों के अहंकार टकराने लगते हैं और तकरार शुरू हो जाती है, जबकि समझदार कपल या तो जिसका पैसा है, उसे निर्णय लेने देते हैं या मिल-बैठकर प्लानिंग करके कोई भी वित्तीय निर्णय लेते हैं.
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निवेश की अलग-अलग पसंद
पति और पत्नी दोनों वर्किंग हैं और दोनों की निवेश की पसंद अलग-अलग है, तो इसमें कोई दिक़्क़त है, बल्कि दोनों जोख़िम लेने की अपनी-अपनी आर्थिक क्षमता के हिसाब से निवेश करें, तो उन दोनों का पोर्टफोलियो डायवर्सिफाइड होगा. इससे कुल मिलाकर उनके परिवार को फ़ायदा मिलेगा, लेकिन दिक़्क़त तब आती है, जब पति या पत्नी अपनी पसंद पार्टनर पर थोपने की कोशिश करते हैं. जो कपल बुद्धिमान होते हैं, वे बातचीत के माध्यम से तथा किसी वित्त सलाहकार से परामर्श करके मामला सुलझा लेते हैं.
पैरेंट्स या रिलेटिव की मदद करना
अचानक किसी बड़ी मुसीबत में या आपातकालीन स्थिति में किसी रिश्तेदार की मदद करना या बेटी अथवा बेटे पर निर्भर माता-पिता की मदद करना ग़लत नहीं है, लेकिन अगर यह एक रेगुलर हैबिट बन जाए और इसके कारण आपको वित्तीय समस्याएं झेलनी पड़ें, आपकी ज़िम्मेदारियां बढ़ जाएं, तो इसे तुरंत रोकने की ज़रूरत है. कई पार्टनर तो चोरी-छिपे अपने जीवनसाथी को बिना बताए ऐसा करते हैं. अगर पति और पत्नी इस बात को नहीं समझते और ज़िद करते हैं, तो झगड़ा होना स्वाभाविक है. बेहतर होगा कि ऐसी ग़लती को तुरंत सुधार लिया जाए, वरना दरार निश्चित है.
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यह भी रखें ध्यान
पति और पत्नी में मतांतर स्वाभाविक बात है, लेकिन ऐसे में लांछित करने, आरोप लगाने, धौंस जमाने या आदेश सुनाने की बजाय सलाह के रूप में और संवाद स्थापित करने के रूप में बात करनी चाहिए. जो ग़लतियां हो रही हैं, उनके नुक़सान और उन्हें सुधारने के बाद होनेवाले फ़ायदों पर चर्चा करनी चाहिए. बातचीत के दौरान किसी वित्त सलाहकार या अनुभव व्यक्ति से मदद ली जा सकती है. ऐसी बातचीत के तरीक़े से तकरार बहुत आसानी से सुलझ सकती है.
- शिखर चंद जैन
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