एक अशिक्षित, मगर समझदार रानी के कथन से मुझे लगा कि जैसे किसी ने मेरे पूरे शरीर को झकझोर कर रख दिया हो. मेरे सिर पर असंख्य हथौड़े बरसने लगे. इस कटु सत्य से मैं निरुत्तर था. मेरी ज़ुबान तालू से चिपक गई. क्या जवाब दूं? यही कि हमारा समस्त ज्ञान महज़ किताबों तक सीमित है. हमारी आधुनिकता एक स्वांग भर है. असल ज़िंदगी में हम हर पुरुष जगत है और हर स्त्री निमकी. कब टूटेगा यह रूढ़िवाद? कब हटेगी यह मिथ्या की चादर? जिसे ओढ़कर पुरुष सदियों से स्त्री का शोषण करता रहा है.
बरामदे में बैठा मैं अख़बार पढ़ रहा था. तभी दुबली-पतली भूरी आंखों वाली निमकी अपने दूध पीते बच्चे और छोटी-छोटी बच्चियों के साथ कमरे में दाख़िल हुई. अपरिचित होने के नाते मैं उसका परिचय पूछा. उसने ख़ुद को महरी बताया. तब मैंने अपनी पत्नी अलका को आवाज़ दी. वह काम अधूरा छोड़कर तेज़ी से मेरे पास आई, "तुम्हें पड़ोस की सोनी आंटी ने भेजा है ना?"
"हां…" वह मुस्कुराते हुए बोली.
अलका ने उसे गौर से देखा. उसकी गरीबी चेहरे से स्पष्ट झलक रही थी.
"कितने घरों के बर्तन मांजती हो?"
"आठ…" निमकी का बच्चा खांस रहा था.
"बच्चे की तबीयत ठीक नहीं है क्या? काम कैसे करोगी…?" अलका के कथन पर वह तनिक दयनीय मुद्रा में बोली, "क्या करें बहनजी पेट की खातिर करना पड़ता है."
वह ये कह कर चली गई. अलका ने ज़्यादा पूछना मुनासिब नहीं समझा. अलका को उसका व्यवहार ठीक-ठाक लगा. मेहनती तो थी ही, साथ में पगार को लेकर ज़्यादा हुज्जत नहीं की. इसलिए अलका ने भी मन बना लिया कि अपनी तरफ़ से वह कोई कसर नहीं छोड़ेगी."
निमकी वक़्त की बड़ी पाबंद थी. सुबह ही आ जाती. अपना काम कर चली जाती. कभी-कभार मेहमान के आने पर बर्तन बढ़ जाते, तो कभी नाक-भौ नहीं सिकोड़ती. शराफ़त उसमें कूट-कूट कर भरी थी.
अजगर की तरह पसरा निमकी का पति जगत आधा दिन होने तक खाट पर करवटें बदलता. निमकी इन सब की अभ्यस्त हो चुकी थी. पति के अलावा परिवार में छह सदस्य और थे. एक गाय को जोड़ दिया जाए, तो पूरे सात. रहने का मकान था, पर कच्चा. पति के निठल्लेपन के चलते वह सारा दिन जी तोड़ मेहनत करती. जगत सो कर उठता तो सीधे दारू के अड्डे पर जाता. अड्डा पास में ही था. कितनी बार उसने अड्डे पर जाकर गाली-गलौज की.
"गरीब का ही मुहल्ला बचा है, जो खून चूसने के लिए अड्डा खोल दिया." कौन सुनता है कमज़ोर की आवाज़. ज़्यादातर अड्डे ऐसे ही जगह खोले जाते हैं.
निमकी के लिए गाय एक समस्या थी. लोक-लाज के भय से अपना पेट काटकर उसके लिए खली-भूसी की व्यवस्था करती. इधर कुछ दिनों से गाय कमज़ोर हो जाने की वजह से दूध भी नहीं देती थी. बगैर दूध गाय बोझ से कम नहीं होती. बांझ स्त्री और कमज़ोर गाय दोनों की स्थिति लगभग एक ही होती है हमारे समाज में.
बरसात का मौसम किसे अच्छा नहीं लगता. निमकी का मकान कच्चा होने की वजह से हर साल चूने लगता. इस वर्ष भी पक्की सीमेंट ना लगने के कारण चूने लगा था. एक रात वह अपने बच्चों के साथ मेरे घर आई.
हथिया नक्षत्र. बरसात के साथ जाड़ा समेटे हुए निमकी नीचे से ऊपर तक भीगी हुई थी. उसके बच्चें भी भीगे कपड़ों में दांत किटकिटा रहे थे.
"बहनजी…"
उसकी आवाज़ पर मैं बरामदे में आया. बल्ब जलाया. देखा निमकी फाटक के बाहर खड़ी थी. मैंने फाटक खोलकर उसे अंदर बिठाया तब तक अलका भी आ गई. निमकी की हालत उस देखी ना गई. तुरंत तौलिया लाई. पुरानी साड़ियाँ व कपड़े लाकर उसे बदलने के लिए दिए और चाय बनाकर उसे अपने हाथों से दिया. अब निमकी कुछ राहत महसूस कर रही थी.
"बरसात भर यही रहाकर." अलका सहानुभूतिवश बोली.
"इतने बच्चों को लेकर रहूंगी, तो आप भी ऊब जाएंगी बहनजी." वह हंस दी.
"बच्चे बीमार पड़ गए. किसी को कुछ हो गया तो?" अलका चिंतित स्वर में बोली.
"क्या फ़र्क़ पड़ता है. अपने मरद के पास और काम तो है नहीं, एक और सही…" उसके चेहरे पर वेदना की लकीरें स्पष्ट थी. मैंने मौक़े की नज़ाकत समझी और अपने कमरे में आ गया.
"गाय को कहां छोड़ा?" अलका को जैसे याद आया.
"कोठरी मे…."
"कोठरी मे क्यूं? वहां तो तुम लोग रहते हो ना."
"मुरचहा टीन के नीचे इतना पानी चुअत है बहनजी कि वह भीग कर बीमार पड़ सकती है. उसके चेहरे पर संतोष के भाव थे." निमकी ने सोने वाले कमरे में गाय बांध रखी थी. थोड़ी सी जगह थी, तभी तो बच्चों समेत यहां चली आई.
"गाय बेच क्यों नहीं देती?" अलका के कथन पर उसने चुप्पी साध ली. शायद वह इस अनापेक्षित प्रश्न के लिए तैयार नहीं थी.
रविवार का दिन. आजाद पंछी की तरह निरंकुश दिनचर्या. हर काम लेट-लतीफ. देर से उठना, देर से नहाना-धोना, नाश्ता वगैरह सब. नौ बज रहे थे. जब मैं नाश्ता कर रहा था तभी फाटक पर किसी की आहट हुई. कोई बाहर खड़ा फाटक खटखटा रहा था. मैंने पर्दा हटा कर देखा एक आदमी खड़ा था.
"कौन?"
"हम हैं साहब.. निमकी का पति…" उसकी आवाज़ अपेक्षाकृत धीमी थी. मैंने उसे अंदर आने के लिए कहा. वह फाटक खोलकर अंदर आया. मैंने आने की वजह पूछी.
"साहब, एक ज़रूरी काम है."
"कहो…" बांस की कुर्सी पर बैठते हुए बोला.
"हमें लोन चाहिए. एक साहब आए थे, कह रहे थे कि तुम्हें धंधा-पानी के लिए दस हज़ार रुपए दिलवा सकते हैं."
"तो..?"
"ऐसे नहीं मिलेगा. ज़मीन निमकी के नाम पर है. आप वकील आदमी ठहरे. किसी सूरत से ज़मीन हमारे नाम करवा दें. आप तो जानते हैं कि वह कतई रकम के लिए ज़मीन गिरवी नहीं रख सकती."
"उन रुपयों से क्या तुम धंधा कर लोगे? बैंक का रुपया भर सकोगे?" मेरे माथे पर शिकन आई.
"क्यों नहीं साहब, एक-दो भैंस ख़रीदेंगे. उसका दूध बेचकर सारा कर्ज़ा पाट देंगे." उसकी आंखों में अजीब सी चमक थी.
"मुझे तो नहीं लगता. तुम तो पहले भी निमकी की भैंस-बकरियां बेचकर शराब-जुए में हार चुके हो."
"बस यही खोट है साहब, जिससे कोई हमारी बात पर यक़ीन नहीं करता." वह झल्लाकर बोला और पैर पटकते हुए चला गया.
जगत मुझसे मिला था. निमकी से ये बात छुपी ना थी. उसी शाम वह मेरे पास आई. उसका चेहरा सूजा हुआ था. पूछने पर पता चला कि यहां से जाने के बाद उसने निमकी को लात-घूंसों से मारा. भद्दी-भद्दी गालियां दी. कहने लगा, "मेरे ना रहने पर पड़ोस वाले तुझे बेदखल कर देंगे. मर्दों को तू नहीं जानती. अकेली औरत वह भी जवान, तेरा जीना मुश्किल कर देंगे. तेरी बोटियां नोच लेंगे."
निमकी अपने आंसू पोंछने के बाद बोली, "मालिक, हमारे पास जमा पूंजी में बस एक ज़मीन व कच्ची कोठरी है. जिसे मेरी मां मरते समय मेरे नाम कर गई थी. उसे बचा लीजिए." वह मेरे पैरों पर गिर गई.
मैंने उसे विश्वास दिलाया कि उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ कुछ नहीं होगा, तब वह कहीं शांत हुई.
जगत की हारे हुए जुआरी की मनोदशा थी. ठेके पर गया. पौवा चढ़ाया और लगा बकबकाने, "कहां है साली, मुझसे टक्कर लेती है. आज मैं उसे नहीं छोड़ूंगा." जगत शराब के नशे में बड़बड़ा रहा था. रात के बारह बज रहे थे.
निमकी के आसपास जिन लोगों की बस्ती थी, उनमें सभी अशिक्षित थे. पीकर गाली-गलौज करने व मारपीट की हद तक पहुंचने जैसे स्थिति उनके लिए सामान्य बात थी. तभी तो निमकी व जगत की तू-तू, मैं-मैं आम बात थी. कभी-कभी तो नशे की धुन में वह निमकी को इतना पीट देता था कि वह कई दिनों तक खाट से उठ नहीं पाती थी. ऐसे में साहब लोगों का आसरा रहता था. उन्हीं के यहां से आए भोजन से बच्चों का पेट भरता.
अचानक निमकी की नींद खुली. थोड़ी देर पहले ही तो सोई थी. आंखें मींचते हुए खिड़की के पास आई. लालटेन की बत्ती थोड़ा ऊपर चढ़ाई. हाथ में लालटेन लिए दरवाज़े तक आई. सिटकनी खोलकर बाहर झांकी. थोड़ा और आगे बढ़ी. लालटेन हवा में लहराई, "तुम?" उसकी आंखें फटी रह गई.
सामने जगत गाय के गले में पड़ी रस्सी का दूसरा छोर हाथ में लिए खड़ा था. लाल-लाल चढ़ी हुई आंखें बदहवास चेहरा.
"हट जा सामने से." वह ग़ुस्से से बोला.
"नहीं हटूंगी…" निमकी निर्भीक होकर खड़ी रही.
"तू ऐसे नहीं मानेगी…!" निमकी को एक ज़ोरदार झटका देकर वह आगे बढ़ गया. झटका ना बर्दाश्त करने के कारण निमकी पास के पत्थर के चबूतरे पर सिर के बल गिर गई. उसके सिर से खून बहने लगा, लेकिन उसने हिम्मत ना हारी. बिजली की गति से उठकर पुनः जगत के सामने चट्टान की भांति खड़ी हो गई.
"मैं तुझे जान से मार डालूंगा..!" वह चीखा.
"तू पहले भी मेरी सारी बकरियां बेचकर शराब-जुए में बर्बाद कर चुका है. एक इज़्ज़त बची है, उसे भी बेच देना चाहता है."
"इज़्ज़त, कैसी इज़्ज़त?" दोनों का शोर सुनकर पड़ोस के लोग भी जाग गए. वे सभी निमकी के इर्दगिर्द जमा हो गए.
"हमारे दरवाज़े पर कोई गाय-भैंस नहीं रहेगी, तो क्या मुंह दिखाओगे बिरादरी में? कैसे ब्याह करोगे अपनी बेटी का? का मुंह लेकर लड़की वालों के घर जाओगे? कहेंगे दरिद्र घर की बेटी काहे को ले, तो क्या जवाब दोगे?" वह हांफ रही थी.
लेकिन जगत तो जैसे ही पागल हो गया था. वहशी बिल्कुल वहशी. उसे तो सिर्फ़ गाय बेचकर पैसा चाहिए था. होगा किसी का कर्ज़. जुआ में हारना, उधार में शराब पीना, फिर बीवी से लड़-झगड़कर उसकी गाढ़ी कमाई से इकट्ठा की हुई तमाम बकरियों को कौड़ी के दाम बेचकर कर्ज़ चुकाना नई बात थोड़े ही थी उसके लिए.
"नहीं ऐसा हरगिज़ नहीं होगा. मेरे जीते जी गाय नहीं बिकेगी." निमकी तेज़ी से चलकर आई और जगत के हाथ से गाय के गले की रस्सी छीन ली.
"निमकी मर्द जो करता है अच्छा ही करता है. उसके काम में अड़ंगा डालना ठीक नहीं…" लोगों ने समझाने का प्रयास किया, पर निमकी पर इन बातों का कोई असर नहीं हुआ. वह अपनी जगह अड़ी रही. लोगों के समझाने-बुझाने का जब उस पर कोई असर नहीं पड़ा, तो सभी उसी को बुरा-भला कहने लगे.
"मर्द का बच्चा है तो छीन ले रस्सी..!"
गांव के शिवराम ने ज़ोर मारा. जगत को जैसे जोश आ गया. निमकी की कलाई से रस्सी छुड़ाई और आगे बढ़ गया.
निस्सहाय स्त्री प्रतिरोध ना कर सकी. एक होता तब ना. यहां तो सभी उसके दुश्मन थे. ज़मीन पर बैठकर फूट-फूट रोने लगी निमकी.
लोग छंटने लगे. सभी अपने-अपने घरों में जा चुके थे, लेकिन निमकी वैसे ही पूरी रात बैठे गुज़ार दी.
अजान हुई. काम का समय शुरू हो गया. बगैर हाथ-मुंह धोए निमकी सीधे मेरे घर आई. बोझिल आंखें, उदास चेहरा. बेमन से बर्तन मांज का चली गई.
उसके बाद बर्तन मांजने नहीं आई. अलका की परेशानी समझकर मैं निमकी के घर गया. निमकी ने खाट पकड़ ली थी.
"बाबूजी, मैं बर्तन नहीं मांज पाऊंगी. रानी को भेज देती हूं…" कहकर भारी गले से रानी को पुकारा. बड़ी मुश्किल से उसके गले से आवाज़ निकल रही थी.
"रानी को भेजने की क्या ज़रूरत है. बेचारी तो अभी बच्ची है, खेलने दो. अलका ख़ुद तुम्हारें ठीक होने तक बर्तन मांज लिया करेगी."
निमकी की घुटी-घुटी आवाज़, मुरझाया चेहरा, निस्तेज आंखें. टूटी हुई टहनी की तरह शक्तिहीन शरीर. ऐसा लगा जैसे महीनों से बिस्तर पर पड़ी रही हो. टीबी या टाइफाइड वाले रोगियों सी दशा उसकी हो गई थी.
मैंने दवा-दारू के लिए कुछ रुपए निमकी को दे दिए. वापस आकर अलका से सारी बातें बता दी. अलका ने भी शाम को उसे देखने का फ़ैसला किया.
"कैसी तबीयत है?" दरवाज़े से अंदर घुसते ही अलका ने पूछा.
"थोड़ा बुखार हो गया था बहनजी."
वह उठना चाही, पर अलका ने मना कर दिया.
"यह क्या है?" शीशी हाथ में लेते हुए अलका बोली.
"दवा.."
"किसने ला कर दी?"
"देवरती ने." देवरती उसकी पड़ोसन थी.
"डॉक्टर को दिखाया?"
"नहीं."
"तो क्या ऐसे ही दवा ले रही हो?"
वह कुछ नहीं बोली. थोड़ी देर चुप रही. फिर अचानक फूट-फूटकर रोने लगी.
"निमकी… निमकी क्या हुआ? क्यों रो रही हो..?" अलका भी क्षण भर के लिए भावुक हो उठी.
"बहनजी, हमारी गाय…" उसके कंठ रुंध गए.
"क्या हुआ गाय को?" अलका सोची गाय मर गई है. चारों तरफ़ दृष्टिपात की. गाय नज़र ना आई.
"रानी के बापू ने गाय बेच दी…" कहकर रोने लगी.
"अच्छा हुआ झंझट छूटा."
"हमारी इज़्ज़त का क्या होगा, बिरादरी क्या कहेगी? लड़की का ब्याह कैसे होगा? लड़के वाले दरवाज़े पर खाली खूंटी देखेंगे, तो हम पर थूकेंगे. कैसे हम उनका सामना करेंगे?"
"यह सब बकवास है. जाति-बिरादरी, परंपरा, प्रथा क्या खाने को देंगे? यह सब ढकोसला है. अपनी बेटी को पढ़ाओ-लिखाओ. उसे अपने पैरों पर खड़ा करो. एक क्या, हज़ार लड़के तेरी बेटी का हाथ मांगेंगे."
निमकी पर अलका की बातों का असर हुआ. अपने आंसू पोंछे. कमरे में रखी लालटेन की रोशनी रह-रह कर तेज हो उठती, तो कभी मद्धिम. शायद तेल कम हो गया था. एक मरघट का सन्नाटा छाया हुआ था. रह-रहकर अलका के शरीर में एक सिरहन सी दौड़ जाती.
"बहनजी, जानती हैं हमारी मा़ ने हमारा नाम निमकी क्यों रखा था?" निमकी के चेहरे पर मुस्कुराहट के भाव थे.
"क्यों?" अलका का स्वर किंचित धीमा था.
"तीन भाई-बहनों के लगातार मरने के बाद मेरी मां ने मुझे एक नाई को जन्म के साथ ही दे दिया था. फिर दमड़ी देकर ख़रीदा. तभी से उस नाई ने मेरा नाम, मेरी मां के दिए नाम से निमकी रख दिया." कहते-कहते निमकी की आंखें भीग गई. वह कहती रही, "दीर्घायु होने के लिए मेरी मां ने कोहनी के बल पांच कोष चलकर शीतला मां का दर्शन किया था." उसका गला अवरुद्ध हो गया.
"इतने जतन से पाल-पोस बड़ी हुई थी, तो तक़दीर में ऐसा खोटा पति मिला. "
रात के दस बज रहे थे. कचहरी से लौटकर आने पर पता चला कि अलका शाम से गई अभी तक लौटी नहीं. बाबू से पूछने पर पता चला कि वह निमकी के यहां गई है. मैं बाबू को डांटा, "इतनी रात गए अकेली औरत, जाकर पता नहीं लगा सकते थे?" उलझकर वक़्त जाया करने से अच्छा था कि मैं स्वयं निमकी के घर जाकर पता लगाऊं.
मुझे देखकर अलका की जान में जान आई वह बुरी तरह से डरी हुई थी.
"तुम आ गए…"
"चेहरे पर हवाइयां क्यों उड़ रही है? सब ठीक तो है? निमकी कैसी है?.. मैं निमकी के क़रीब गया.
इससे पहले अलका कुछ कहे, निमकी की बंद होती हिचकी हक़ीक़त का बयान कर रही थी.
"बेपर्दा होने का ग़म बर्दाश्त ना कर सकी निमकी…" अलका भर्राये स्वर में बोली. लालटेन बुझ चुका था. निमकी का इस तरह जाना हम दोनों को ग़मगीन कर गया. उस रात मुझे नींद ना आई. मैं करवटें बदलते निमकी के बच्चों के भविष्य के बारे में सोचता रहा. मेरे क़रीब लेटी अलका की मनोदशा लगभग ऐसी ही थी. काफ़ी विचार मंथन के बाद मैं अपने मन की बात अलका से कहा.
"तुमने मेरे मन की बात कह दी." अलका ख़ुश होते हुए बोली.
"शुभ काम में देरी कैसी? चलकर जगत से बात करते हैं." अलका ने मेरे प्रस्ताव पर सहमति जताई.
मैं अलका के साथ दूसरे दिन निमकी के घर पहुंचा. फिर हमने इस विषय पर बात की.
"रानी को आप पालेंगे?" जगत तनिक आश्चर्य से बोला.
"हां, उसे पढ़ा-लिखा कर स्वावलंबी बनाऊंगी." अलका बोली.
"बेटी आपके हाथ सौंपकर क्या बिरादरी में नंगा होना है." जगत के चेहरे पर अजीब से भाव तैर गए.
"इसमें नंगा होने की क्या बात है?" मैं आश्चर्य से जगत की ओर देखा.
" कैसे नहीं है… लड़की जात है कुछ भी कर सकते हैं."
जगत इतना पतित हो सकता है मैंने सपने में भी नहीं सोचा था. अपनी बेटी को लेकर इतने कुत्सित विचार. मेरा मन खिन्न हो गया. मैं तत्काल अलका को लेकर वापस आ गया. अलका ने भी तब रानी को अपनाने का विचार मन से निकाल दिया.
दूसरे दिन जगत मेरे पास आया. मैंने उसे फाटक से ही लौटाना चाहा. वह कहने लगा, "आप लोग रानी को ले जा सकते हैं." इस कथन पर मैंने उसे अंदर बुलाया.
"बशर्ते दस हज़ार रुपया मुझे दे दीजिए." भद्दी सी मुस्कान उसके होंठों पर फैल गई. जी किया ऐसे ज़लील आदमी को अभी धक्के मार कर निकाल दूं, पर चुप ही रहा. उसे जाने को कह दिया.
वह चला गया. कुछ दिनों बाद रानी मेरे पास आई. उसका चेहरा ऐसा हो गया था मानो असमय किसी ने खेलने वाले फूल को मसल दिया हो. मेरा दिल पसीज गया. पूछने पर बताने लगी, "बापू अक्सर हम भाई-बहनों को पीटते हैं, ठीक से खाना नहीं देते हैं." उसकी आंखें छलछला आई. अलका से रानी की हालत देखी ना गई. बोली, "तू यहां रहा कर, जगत आएगा तो मैं उसे संभाल लूंगी." बापू के नाम से वो तनिक हिचकिचाई फिर भी वह मेरे इस आश्वासन पर, कि कुछ नहीं होगा वह रुक गई.
शाम के वक़्त मैं जैसे ही कचहरी से आकर कपड़े बदल रहा था, फाटक पर कुछ लोगों की भीड़ लगी हुई थी. वे लोग फाटक पीट रहे थे. हड़बड़ाकर शंकाग्रस्त मैं फाटक तक आया. देखा, आठ लोग लाठी लिए खड़े थे. भावी अनिष्ट की कल्पना मात्र से मैं सिहर उठा.
"वकील साहब, फाटक खोलिए…" एक ने कहा. उसके स्वर में आक्रोश स्पष्ट था.
"क्यों, आप लोग चाहते क्या हैं?" तब तक अलका भी आ गई. मैंने उसे अंदर रहने का इशारा किया.
"आप रानी को उठा लाए हैं!" भीड़ से आवाज़ उभरी.
"नहीं, वह स्वयं आई है." वे ऊंची आवाज़ में बोले.
तभी अन्य लोग भी फाटक ज़ोर-ज़ोर से पीटने लगे. वह फाटक खोलने के लिए मजबूर कर रहे थे. हारकर मैंने खोल दिया, जो होगा देखा जाएगा. सामने शिवराम, कलुआ और जगत थे. यह सब उसके पड़ोसी थे.
"हमारे बिरादरी की लड़की दूसरी बिरादरी में पलेगी!" शिवराम ग़ुस्से में बोला.
"हर्ज ही क्या है?" मेरा जवाब था.
"क्या हम इतने गए गुज़रे हैं कि अपनी बिरादरी की लड़की को भी ना पाल सके. यह हम सबके लिए डूब मरने वाली बात होगी, क्यों भाइयों." कलुआ की उत्तेजना भरे कथन पर सभी ने समवेत स्वर में सहमति जताई.
बेकार की जहमत मोल लेने से अच्छा मुझे बला टालना तर्कसंगत लगा. सभी जाने लगे. जगत रानी को ऐसे खींच रहा था, जैसे कसाई रस्सी को. वह तेज़ स्वर में रोए जा रही थी. हम दोनों विवश थे.
अलका और मैं अपने कमरे में आ गए. मेरा मन विषाद ग्रस्त था. यह सोचकर कि इनमें से कोई निमकी के बच्चों की मदद नहीं करेगा. सिर्फ़ जातिगत दंभ के चलते ये ऐसा कर रहे थे. यह कैसा इंसाफ़ है..? जिसमें एक निर्दोष बालिका पिसे. द्वेष मुझसे हो सकता है, लेकिन उस धर्म से क्यों… जो मानव हित से जुड़ा हो.
कई वर्ष गुज़र गए. इस बार जो महरी रखी थी, वह वक़्त की बड़ी पाबंद थी. समय से आती, समय से जाती. मानो यह पाबंदी उसके रक्त में घुली थी. उसके इस गुण का बखान जब मेरी बहू ने की, तो अनायास मेरे स्मृति पटल पर निमकी का चेहरा उभर गया.
"साहबजी दरवाज़ा बंद कर लीजिए. बर्तन मांज दिया है." कह ्कर जैसे ही वह मेरे सामने से गुज़री मेरे मुख से सहसा ही निकल गया, "रानी..!" अपनी उम्र से कहीं ज़्यादा लग रही थी रानी. ज़िम्मेदारियों ने उसे असमय बूढ़ी बना दिया था. उसकी सूनी मांग ने तो और भी मुझे वेदना से भर दिया. विश्वास नहीं हो रहा था कि यह वही रानी है, जिसे लेकर मैं व अलका ने उसके सुनहरे भविष्य के सपने बुने थे. सोचकर मैंने लंबी सांस ली.
"साहबजी, मैं तो आपको पहचानती थी…" तनिक मुस्कुराते हुए बोली.
"तो बोली क्यों नहीं?" किंचित मेरे स्वर में नाराज़गी का पुट था.
"ऐसे ही हिम्मत नहीं हुई." वह आगे कहने लगी, "बापू शराब के नशे में ट्रक से कुचले गए. तभी से मैं छोटे भाई-बहनों के पेट के लिए बर्तन मांजने लगी. बड़ा भाई था, जिसे पास-पड़ोस के लोगों ने गांजा की लत लगा दी. वह दिनभर नशे में धुत किसी कोने में पड़ा रहता. धीरे-धीरे उसका शरीर बगैर खुराक़ के गलने लगा. फिर एक दिन बापू की तरह वह भी चल बसा. घर में कोई मर्द ना रहने की वजह से पड़ोस के लोगों ने ज़मीन से भी बेदखल कर दिया. एक दिन तो…" कहकर वह शून्य में देखने लगी. मैंने उसका मौन तोड़ा, "क्या हुआ?"
उसकी आंखें पनिया गई. रुंधे कंठ से कहने लगी, "शिवराम का लड़का सोहन मेरी इज़्ज़त लेने पर उतारू था…"
"तेरी बहनों का क्या हुआ?"
"छोटी वाली तो टीबी से मर गई. मंझली किसी के साथ भाग गई. बच गई मेरे बाद वाली…" कहकर कुछ छुपाने की कोशिश करने लगी. मैंने उसे निःसंकोच भाव से अपनी बात कहने के लिए उकसाया, "वह बंगले वाले साहब के साथ कहीं चली गई."
"कहां?"
"साहब कहीं दूसरी जगह तबादला हो गया वहीं."
"जाने क्यों दिया जवान लड़की को?"
"क्या करें साहब, आने के लिए तैयार ही ना थी. बहुत समझाया. कहने लगी, "साहब के साथ रहूंगी तो दो जून का खाना व कपड़ा मिलता रहेगा."
"साहब की बीवी ने एतराज़ नहीं किया?" मुझे तनिक आश्चर्य हुआ.
"करती भी कैसे, साहब उन्हें जब-तब मारते-पीटते. वह दबी-सहमी उनसे बहुत खौफ खाती थी. एक दिन तो साहब उन्हें छोड़ने तक की धमकी दे दी. मेमसाब रोने लगी."
मैं सोचने लगा, 'एक स्त्री को पुरुष का संबल क्या सचमुच ज़रूरी है? क्या बगैर पुरुष अकेली स्त्री इस अश्लील समाज की कुदृष्टि से नहीं बच सकती?'
वह कहती रही, "साहबजी, हम तो अनपढ़ हैं, जाहिल हैं, लेकिन वह साहब तो पढ़े-लिखे हैं. उनकी मेमसाहब पढ़ी-लिखी हैं. वह क्यों नहीं उनका प्रतिरोध करती हैं? क्यों सहती हैं उनका ज़ुल्म?"
एक अशिक्षित, मगर समझदार रानी के कथन से मुझे लगा कि जैसे किसी ने मेरे पूरे शरीर को झकझोर कर रख दिया हो. मेरे सिर पर असंख्य हथौड़े बरसने लगे. इस कटु सत्य से मैं निरुत्तर था. मेरी ज़ुबान तालू से चिपक गई. क्या जवाब दूं? यही कि हमारा समस्त ज्ञान महज़ किताबों तक सीमित है. हमारी आधुनिकता एक स्वांग भर है. असल ज़िंदगी में हम हर पुरुष जगत है और हर स्त्री निमकी. कब टूटेगा यह रूढ़िवाद? कब हटेगी यह मिथ्या की चादर? जिसे ओढ़कर पुरुष सदियों से स्त्री का शोषण करता रहा है. बड़ी मछली को अपनी ही जाति की छोटी मछली को निगलने का हक़ कब तक मिलता रहेगा?
अधिक कहानियां/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां क्लिक करें – SHORT STORIES
Photo Courtesy: Freepik
अभी सबस्क्राइब करें मेरी सहेली का एक साल का डिजिटल एडिशन सिर्फ़ ₹599 और पाएं ₹1000 का गिफ्ट वाउचर.