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कविता- उम्र की दहलीज़ पर… (Poetry- Umar Ki Dahleez Par…)

आज उम्र की इस दहलीज़ पर खड़ी हूं
मैं जाऊं उधर, या कि अंदर लौट आऊं?

चलती रही अब तक नियति के संग ही
सोचती हूं अपनी भी राह एक बना जाऊं,
मैं जाऊं उधर, या कि अंदर लौट आऊं?

मैंने किए त्योहार वल्लभ सब अपने अपनों के वास्ते
शगुन का सतिया ख़ुद के लिए बना जाऊं,
मैं जाऊं उधर, या कि अंदर लौट आऊं?

कभी सिर ढका, कभी ओढ़ी सतरंगी चुनर
चलूं बिंदास, जेब एक कुर्ते में सिल्वा लाऊं,
मैं जाऊं उधर, या कि अंदर लौट आऊं?

कमी नहीं कोई है, भरा-पूरा घर का आंगन
खोल खिड़की चांद से बातें हज़ार बना आऊं,
मैं उधर जाऊं, या कि अंदर लौट आऊं?

मेरे सावन सभी गुज़रे घर की चाकरी में ही
लिखूं कविता मनचाही, बारिशों में भीग जाऊं,
आज उम्र की इस दहलीज़ पर खड़ी हूं
मैं उधर जाऊं, या कि अंदर लौट आऊं?..

- नमिता गुप्ता 'मनसी'


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Photo Courtesy: Freepik

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