"मुझे तो उसी समय तेरे कायर होने का विश्वास हो गया था, जब तू मुझे अकेला छोड़कर अपने पिता के डर से शहर से भाग गया था. फिर रछपाल से मेरा ब्याह हुआ, तो तूने पलटकर मेरी ख़बर भी नहीं ली. तू कायर है मरजानिए, तेरी जगह कोई मर्द बच्चा होता तो मेरी डोली रछपाल के आंगन में न उतरती."
गुरदीप कौर उर्फ गुड्डी ने जब पंद्रह साल पूरे करके सोलहवें साल की दहलीज़ पर कदम रखा, तो भजनपुरा में ही नहीं, बल्कि ज़िले के ५२ गांव, पाच तहसीलों में केवल दो हस्तियों के नाम का डंका बज रहा था.
जमींदार ख़ुशहाल सिंह की ज़मीन और बागान न सिर्फ़ भजनपुरा, बल्कि कोसों तक फैले हुए थे. कहते हैं, धन-दौलत कैंसर की तरह हैं, जो एक बार फैले, तो फैलती ही चली जाती है. ख़ुशहाल सिंह ने ज़मीन-जायदाद के अलावा कुलैथी गांव में चीनी के बर्तन ढालने की एक फैक्टरी और एक खंडसार भी खोल ली थी, यही नहीं, वो गुवाल चक में कंबल बनाने का एक बहुत बड़ा कारखाना भी लगाने वाला था.
भजनपुरा के बड़े-बुज़ुर्गों का कहना था कि धन और ख़ुशहाली किसी वफ़ादार कुतिया के समान कई पीढ़ियों से ख़ुशहाल सिंह की १२ चौबारों वाली हवेली के आंगन में ऐसे चौकड़ी मारकर बैठी थी कि जाने का नाम ही नहीं ले रही थी.
ख़ुशहाल सिंह की तरह मग्गर सिंह भी भजनपुरे में ही जन्मा और पला-बढ़ा था. लेकिन मग्गर सिंह ने जिस दिन से हल छोड़कर अपने स्वर्गवासी पिता जवाहर सिंह की राइफल हाथ में ली थी, उसी दिन से ज़िले के ५२ गांवों, पांच तहसीलों में मग्गर सिंह का नाम भय की निशानी बन गया था. हर व्यक्ति का यही कहना था कि मग्गर सिंह बर्बाद कर देने वाला कोई श्राप है, जो पूरे इलाके को लग गया था.
किन्तु गुरदीप कौर ने जब किसी तलवा-जली मैना की तरह फुदककर उम्र की सोलहवीं सीढ़ी पर पांव रखा, तो उसकी सुंदरता और यौवन के चर्चे ख़ुशहाल सिंह की प्रसिद्धि और मग्गर सिंह के भय से भी चार कदम आगे बढ़ गए.
गुरदीप के पिता छतर सिंह कई वर्ष पहले किसी फौजी मोर्चे पर वीरगति प्राप्त कर चुके थे, उस समय गुरदीप केवल ९ वर्ष की थी. उसकी मां परविन्दर कौर ने बड़े जतन और देख-रेख से गुरदीप का पालन-पोषण किया था. परविन्दर कौर बहुत साहसी भी थी. कोई दूसरी होती तो भरी जवानी में विधवा होने का दुख पाकर टूट कर रह जाती, किंतु उसने बहुत साहस से इस घाव को सहा था. गांव की दूसरी बेसहारा नारियों की तरह अपनी ज़मीन ख़ुशहाल सिंह के हाथ बेचने या बटाई पर उठाने की बजाय उसने खेती-बाड़ी का सारा काम ख़ुद संभाल लिया था.
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लेकिन पकती हुई फसलों के साथ-साथ जब गुरदीप भी बढ़ी होती गई, तो परविन्दर कौर की आंखों में चिंता के साये गहरे होने लगे. फिर वो समय भी आया, जब गुरदीप मां से दो मुट्ठी ऊपर निकल गई. उसका लंबा कद, भरी-भरी कलाइयां, कसा हुआ शरीर और बड़ी-बड़ी चंचल आंखों से छलकती मस्ती को देखकर परविन्दर कौर आप ही सहम जाती.
कहते हैं, जब सुंदरता और जवानी एक जगह हो जाए, तो बड़े-बड़े फन्ने खां के होश उड़ने लगते हैं. लेकिन ये भी सच है कि यदि सुंदरता और यौवन किसी गरीब के घर पर हो, तो लुटेरों का साहस बढ़ जाता है. गुरदीप की सुंदरता की कहानियां भी भजनपुरा के खेत-खलिहानों से आसपास के गांव-खेड़ों तक जा पहुंची थी. किसी गांव का कोई मेला-ठेला होता, तो अनगिनत गबरू जवान यह आस लेकर मेले में जाते कि शायद गुरदीप नाम की वो परी भी अपनी सहेलियों के साथ मेला घूमने आई होगी.
वो भी मेले वाली रात ही थी, जब हर वर्ष की तरह इस बार भी सयालों की बस्ती के बाहर वाले मैदान में बैसाखी का मेला लगा था. दूर-दूर के गांव खेड़ी से औरतें-मर्द, बच्चे, बूढ़े सभी मेला देखने आए थे. गुरदीप ने भी इस बार अपनी मां से बहुत ज़िद और खुशामद के बाद अपनी संगी-सहेलियों के साथ मेला घूमने की आज्ञा ली थी. मेले में हर गांव का अपना एक अलग तम्बू था. गुरदीप भी अपने गांव की तरफ़ से लगाए गए तम्बू में ठहरी थी, इसके अतिरिक्त जो धनी व्यक्ति थे, उन्होंने अपनी छोलदारियां अलग लगा रखी थी.
मेला चढ़ते चांद की ११ तारीख़ से शुरू हुआ था और चंद्र माह की चौदह की समाप्त होने वाला था. आज मेले की आख़िरी रात थी. आज की रात तो मेले में बहार थी. गैस की अनगिनत हंडों की जगमग करती रोशनी दूर-दूर तक फैली हुई थी. एक ओर लाठी, कुश्ती, कबड्डी के खेलों में भाग लेने के लिए नवयुवकों के अखाड़े आए थे, तो दूसरी ओर नौटंकी वालों के डेरे थे. ख़ुशहाल सिंह का बेटा, निहाल सिंह भी अपने यार-दोस्तों के साथ मेले में पहुंचा था. उसने अपनी छोलदारी बाग के सिरे पर लगाई थी. चांद चढ़ते-चढ़ते जब निहाल सिंह अपने मित्रों के साथ हरी बूटी वाली केसरी लुंगी और सिल्क के सफ़ेद कुर्ते पर गुलाबी पगड़ी बांध कर मेला घूमने निकला, तो मेले में घूमती-फिरती कितनी लड़कियों की आंखों में चाहत के रंग लहरा गए थे. वो अपने यार-बेलियों के बीच झूमता हुआ चल रहा था और उसकी गुलाब पग का तुर्रा हवा के नर्म-नर्म झोकों के साथ उल्लाहरें मार रहा था.
अभी निहाल सिंह की टोली बीजवाड़ों की नट्नियों के डेरे तक ही पहुंची थी कि निहाल सिंह के पैरों को मानो मैदान की कच्ची घरती ने थाम लिया. उसकी दृष्टि मनिहारी की एक दुकान पर खड़ी उस हिरनी जैसी आंखों वाली लड़की पर ठहर गई. वो अपनी गोरी-गोरी कलाइयों में हरे कांच की चूड़ियों को घुमा-घुमा कर बहुत चाव से देख रही थी. इधर उसके यार-बेलियों की निगाहें भी निहाल सिंह की दृष्टि का पीछा करती उस लड़की पर पड़ी, तो जैसे सब ही बुत ही बन गए.
निहाल सिंह को बचपन में ही उसके पिता ने अपनी बहन के पास होशियारपुर भेज दिया था, इसी कारण वो भजनपुर में बहुत कम रहा. यदि उसकी बुआ अचानक परलोक न सिधार जाती, तो वह अब भी भजनपुरे न लौटता. इसी कारण फ़ैज़ मोहम्मद ने जब धीमे स्वर में निहाल सिंह से कहा कि यह लड़की गुरदीप कौर है, तो निहाल सिंह बड़बड़ाया, "पता नहीं किस गांव की है?"
उसके दोस्तों ने पहले तो उसे आश्चर्य से देखा, फिर सारे एक साथ बोले, "अपने ही गांव भजनपुर की है."
"भजनपुरे की?"
"हां, मासी परविन्दर की बेटी है." रघुवीर बोला.
निहाल सिंह को याद आया कि उसने भी गुरदीप की सुंदरता के बहुत चर्च सुने थे, किन्तु जब उसकी दृष्टि दुबारा मनिहारी की दुकान पर गई, तो गुरवीप वहां से जा चुकी थी. निहाल सिंह उनकी छवि को अपने मन के दर्पण में उतार लाया था. दूसरे दिन भी भजनपुरे लौटकर आया, तो उस यात्री के समान था, जिसका सब कुछ मेले में लुट गया हो. महीनों बीत गए, किन्तु हज़ार कोशिशों के बाद भी वो गुरदीप कौर की एक झलक न देख सका. मासी परविन्दर अपनी बेटी को ऐसे छुपाकर रखती थी कि मजाल है किसी की नज़र पड़ जाए.
उन्हीं दिनों निहाल सिंह की बहन गौरी के ब्याह की तैयारियां शुरू हो गई, गुरदीप भी बारात आने से हफ़्ता भर पहले ही अपनी मां के साथ ख़ुशहाल सिंह की हवेली
में चली गई. यूं भी वो और गौरी बचपन की सहेलियां थीं. ऊपर जमींदारनी ने मासी परमिन्दर पर ब्याह के काम की ऐसी ज़िम्मेदारी डाली कि उसका ध्यान गुरदीप की तरफ़ से हट गया. हवेली में पूरे गांव की औरतें और लड़कियां उमड़ पड़ी थी. रात दिन हवेली के बड़े से आंगन में ढोलक और नाच-गाने का माहौल होता. ऐसी ही हंगामे वाली रात में गुरदीप कौर निहाल सिंह से टकरा गई. वो रसोई से अपनी सहेलियों के लिए पिस्ते-बादाम वाले चुरी मलीदे की थाल लेकर आ रही थी, तभी चौबारे की सीढ़ियों के पास निहाल सिंह उससे टकरा गया.
गुरदीप बहुत क्रोध में त्यौरियां चढ़ाकर निहाल सिंह को घूरती रही, पर निहाल सिंह जैसे गुरदीप को देखते ही मंत्रमुग्ध हो गया था. गुरदीप को लगा, जैसे निहाल सिंह की आंखें उसकी काया के एक-एक परत को खंगाले जा रही है. अब उसकी क्रोध उगलती आंखों में लाज लहराने लगी थी. पता नहीं कैसे निहाल सिंह ने अपने दोनों हाथ गुरदीप की ओर फैला दिए, एक पल के लिए गुरदीप चकित रह गई. किन्तु दूसरे ही पल उसकी चंचलता लौट आई और उसने अपने सामने फैले हाथों की चौड़ी हथेलियों पर पिस्ते-बादाम वाले मलीदे की मुट्ठी भर चुरी रख दी.
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"यह क्या?" निहाल सिह के मुंह से निकला.
गुरदीप चंचल स्वर में बोली, "मिट्ठू राजा, घी-मेवे की चुरी खाओ और रास्ता छोड़ो.
निहाल सिंह को लगा, मानो चांदी की थाली में सच्चे मोतियों की माला टूटकर गिर गई हो, भला ऐसी सुरीली आवाज़ उसने पहले कब सुनी थी. अब वो इतना बेवकूफ़ भी न था, जो यह जानता कि कोई जवान लड़की किसी नवयुवक की हथेली पर चुरी-मलीदा रखकर उसे मिट्ठू राजा कहे ती उसका क्या मतलब होता है.
धीरे धीरे निहाल सिंह और गुरदीप की मुलाकात बढ़ती गई. वो हर रात निहाल से साई वाली टेकरी के पास मिलने लगी, कहते हैं, जब चांद बढ़ता है, तो दुनिया देखती है. गुरदीप और निहाल सिंह के प्रेम का चांद भी ऐसी चमक-दमक के साथ चढ़ा कि पूरा भजनपुरा उसकी रोशनी में नहा गया.
निहाल सिंह का तो खैर क्या बिगड़ता? वो जमींदार ख़ुशहाल सिंह का सपूत था, पर सारी बदनामी और रूसवाई गुरदीप के हिस्से में आई.
ख़ुशहाल सिंह के कानों में जब यह ख़बर पड़ी कि एक गरीब विधवा की बेटी उसके बेटे पर डोरे डाल रही है, तो ख़ुशहाल सिंह के अंदर का जमींदार किसी सोए शेर की तरह जाग उठा. उसने तुरंत ही मासी परमिन्दर को बुलाकर ऐसी खरी-खोटी सुनाई कि परमिन्दर कौर की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई, ख़ुशहाल सिंह ने साफ़-साफ़ कह दिया कि अगर गांव में मान-मर्यादा से रहना है, तो शीघ्र ही अपनी बेटी का रिश्ता किसी भले मानस से कर दे.
"और यदि तेरे पास बेटी के हाथ पीले करने को कुछ भी नहीं, तो मैं तेरे मुह पर दो-चार हज़ार की सहायता का जूता मारने को भी तैयार हूं." ख़ुशहाल सिंह के नश्तर चुभोते शब्द परमिन्दर मासी को इस कदर आहत कर गए कि घर आते ही उसने गुरदीप को रूई की तरह धुनकर रख दिया.
फिर वही हुआ, जो इस तरह के क़िस्सों में होता है. मासी ने अपनी सामर्थ्य के अनुसार भागदौड़ करके एक सीधे-सादे नवयुवक किसान से गुरदीप के विवाह की बात पक्की कर दी. २० दिन बाद विवाह की तारीख़ तय हुई और परमिन्दर बेटी के हाथ पीले करने की तैयारियों में जुट गई.
इस बीच गुरवीप ने निहाल सिंह को कई संदेश भेजे, किन्तु मिट्ठू राजा ने तो जैसे आंखें ही फेर लीं, फिर वो दिन भी आ गया, जब गुरदीप ब्याह करके विदा हो गई.
यूं तो गुरदीप का घरवाला एक मेहनती किसान था और गुरदीप को दिलोजान से चाहता था, किन्तु गुरदीप के मन में तो निहाल सिंह के प्यार की फांस गड़ी थी. उसकी आत्मा हर पल निहाल सिंह के नाम की रट लगाए रहती, समय बीतता रहा, जब फसलें पककर कट गई, तो गांव-गांव बैसाखी के मेले की तैयारिया होने लगीं, इस बार बड़ा मेला सियाल गांव की बजाय दुर्गापुर के मैदान में लगा. रछपाल सिंह भी गुरदीप को मेला घुमाने ले गया, किन्तु मेले में घूमते हुए भी गुरदीप की आंखें निहाल सिंह को ही खोज रही थी.
उसी रात अचानक पूरा मेला घोड़ों की टापों से गूंजने लगा, साथ ही गोलियां भी चलने लगी. देखते ही देखते चुकानी तम्बुओं से आग के शोले उठने लगे. चारों ओर से चीख-पुकार की आवाज़ें आ रही थीं, "डाकू आ गए, डाकू आ गए?" इसी भागदौड़ में जिसका मुंह जिधर उठा, वो उधर भाग निकला. गुरदीप कौर एक तम्बू के पास अपने पति रछपाल सिंह का हाथ थामे खड़ी थी कि जाने किस ओर से एक सनसनाती हुई गोली आई और रछपाल की छाती चीर गई, गुरदीप एकदम ज़मीन पर बैठ गई. उसने अपने पति का सिर अपनी गोद में लेना चाहा, लेकिन उसी पल घायल रछपाल ने आंखें खोली और हिचकी लेकर सदा के लिए बंद कर लीं.
अचानक कई घुड़सवार इधर-उधर गोलियां चलाते हुए गुरदीप के समीप आकर ठहर गए. वह घबराकर खड़ी हो गई. इन घुड़सवारों में जो सबसे ऊंचा लंबा था, वो ही बहुत तीखी नज़र से गुरदीप को घूर रहा था.
नारी चाहे जितनी सीधी या शरीफ़ हो, किन्तु मर्द की उस दृष्टि को ख़ूब पहचानती है, जो दृष्टि उसके शरीर को टटोलने की कोशिश करती है. गुरदीप ने भागना चाहा, तो उस घुड़सवार ने झुककर गुरदीप की कमर में हाथ डालकर उसे किसी हल्की-फुल्की गुडिया के समान उठाकर अपने आगे घोड़े की पीठ पर बिठा लिया. घुडसवार ने अपना पूरा चेहरा छुपा रखा था, किन्तु उसकी आंखें गुरदीप के अंदर उतरी जा रही थी. गुरदीप बहुत ज़ोर से चिल्लाने वाली थी कि घुडसवार ने अपनी चौड़ी हथेली गुरदीप के मुंह पर रख दी. दूसरे ही पल घोड़ा हवा से बातें कर रहा था.
डाकुओं का सरदार व साथी सवेरा होते-होते यहां पहुंच गए थे. सवेरे की हल्की धुंध में गुरवीप कौर बस इतना ही देख पाई थी कि उसे एक मकान की कोठरी में बंद कर दिया गया. कोठरी में केवल ढीली-ढाली सी चारपाई थी, जिस पर गिरकर वह ऐसी बेसुध हुई कि जाने कब तक यूं ही पड़ी रही. काफ़ी देर बाद जब उजाला फैल गया, तो वह उठकर कोठरी की दाहिनी ओर वाली खिड़की के पास आ खड़ी हुई. खिड़की में लोहे की मोटी-मोटी सलाके लगी हुई थी.
गुरदीप को यह बात रास्ते में ही मालूम हो गई थी कि उसे मेले से उठाकर लाने वाला बदनाम डाकू मग्गर सिंह है.
मग्गर सिंह ने गुरदीप को रात को ही यह बात जता दी थी, "देख, अब यहां से निकल भागने का तू गुमान भी ना करना, और सुन, मुझे यह रोना-धोना पसंद नहीं. यदि मैं तुझे उठाकर लाया हूं, तो इसका यह अर्थ नहीं कि मैं तेरी बेइज्जती करूंगा. औरतें उठाना मेरा काम नहीं, मगर तेरे में कोई ऐसी बात थी कि मैं अपने आप पर काबू न रख सका. मैं तेरे साथ कोई ज़बरदस्ती भी नहीं करूंगा. ब्याह करूगा तुझसे, ख़ूब अच्छी तरह विचार कर ले. जो काम राजी-ख़ुशी से हो जाए, वो काम अच्छा रहता है."
गुरदीप ने साफ़-साफ़ कह दिया कि वह निहाल सिंह के सिवा किसी की नहीं हो सकती, लेकिन मग्गर सिंह को उसका यह रवैया बर्दाश्त नहीं हुआ. उसने उसके मुंह पर ज़ोर से तमाचा मारा और क्रोध से दहाड़ उठा, "कान खोलकर सुन ले, मैं शेर मर्द हूं. अपने जीते जी अपना शिकार किसी दूसरे को नहीं सौंप सकता."
गुरदीप ख़ूब रोई गिड़गिड़ाई, दया की भीख मांगी, पर मग्गर सिंह ने उसकी एक न सुनी और कहा, "चाहे तो आदर से घरवाली बनकर रह, वरना रखैल बनकर रहना पड़ेगा."
गुरदीप ने आंसू पोंछते हुए कहा, "मैं तेरी हर बात मान लूंगी मग्गर, किन्तु मेरी एक शर्त है."
"बोल." मग्गर सिंह छाती पर हाथ मारते हुए बोला, "में अपनी जान देकर भी तेरी हर शर्त पूरी करूगा."
गुरदीप कौर ने मग्गर सिंह को सिर से पांव तक यूं देखा, जैसे उसे आंखों ही आखों में तौल रही हो. फिर दृढ़ता से बोली, "मुझे एक बार, केवल एक बार निहाल से मिला."
"निहाल कौन?" मग्गर सिंह एकदम चौंक गया.
"जमींदार ख़ुशहाल का बेटा- निहाल सिंह."
"क्यों?" मग्गर सिंह ने गुरदीप को प्रश्नात्मक दृष्टि से देखा. फिर एकदम ठहाका लगाकर बोला, "उससे कोई अट्टा-सट्टा था तेरा?"
"मैं वचन देती हूं. निहाल से मिलने के बाद जो तू कहेगा, मैं वही करूंगी."
मग्गर सिंह कुछ समय तक बिना पलक झपकाए गुरदीप को देखता रहा, फिर बोला, "देख सोहनिए, मेरे गुरु ने कहा था कि कभी यार वाली नारी पर विश्वास मत करना, पर मैं जान-बूझकर आग से खेल रहा हूं. चल तेरे वास्ते यह जुआ भी सही. किन्तु एक बात का ध्यान रखना, गद्दार मेरा बाप हो या भाई, मैं धोखा देने वाले को कभी माफ़ नहीं करता हूं."
आज फिर एक और अंधियारी काली दरवाज़े पर दस्तक दे रही थी. यूं भी अपनी रात थी कुलैची गांव के समीप बाला नारंगियों का बगीचा पार करते-करते धुआंधार वर्षा आरंभ हो गई, किन्तु इस आंधी-तूफान में भी मग्गर सिंह अपनी मुश्की बक्खी को भजनपुरे की ओर उड़ाए ले जा रहा था, उसके पीछे बैठी गुरदीप. मग्गर सिंह की कमर से लिपटी हुई थी. मग्गर सिंह के गले में कारतूसों की पेटी और पेटी से जुड़े चमड़े के केस में ३८ बोर का विलायती रिवॉल्वर लटक रहा था.
भजनपुरे के समीप पहुंचकर मग्गर सिह ने साई बान्नी कोठरी का मोड़ काटा और ख़ुशहाल सिंह की हवेली की बजाय अपने घोड़ों को खेतों की ओर मोड़ दिया, जिस पर जमींदार का डेरा था. मग्गर सिंह ने एक दिन पहले ही पता कर लिया था कि आजकल निहाल सिंह किसी नटनी के चक्कर में है और हवेली की बजाय डेरे पर ही सोता है. घोड़ी को टीले के नीचे ही रहट के पास रोककर उसने छलांग मारी और घोड़ी से नीचे आ गया, फिर उसने सहारा देकर गुरवीप को घोड़ी से नीचे उतार लिया.
गुरदीप ने आंखों-ही-आंखों में टीले की ऊंचाई को नापा और बिना कुछ कहे टीले पर चढ़ने लगी. चंद मिनट बाद वो डेरे का आंगन पार कर ली.
शादी से पहले वो कई बार निहाल सिंह से मिलने इस डेरे पर आ चुकी थी, इसलिए बिना किसी कठिनाई के वो निहाल सिंह के कमरे तक पहुंच गई, उसकी आशा के अनुसार दरवाज़ा खोलने वाला निहाल सिंह ही था. लालटेन की मद्धिम रोशनी में भी उसने गुरदीप को पहचान लिया. ऐसी तूफानी रात में गुरदीप को इस तरह अकेला और अचानक देखकर वह चकित रह गया.
"गुरदीप तू?"
निहाल सिंह उसका हाथ थामकर उसे डेरे के पिछवाडे बाले टप्पर में ले आया. छाती से लगाता हुए बोला, "सब ठीक तो है?"
"हां-हां ठीक ही है." गुरदीप ने अपनी आखों से उमड़ते आंसुओं की बाढ़ को बहुत कठिनाई से रोका. फिर शादी के बाद से मग्गर सिंह की बखाल में पहुंचने तक की सारी कहानी निहाल सिंह को सुना दी.
"इसका मतलब तू मग्गर सिंह को साथ लाई है."
"हां, वो नीचे रहट के पास खड़ा है."
"मगर उसे यहां लाने की क्या आवश्यकता थी?"
गुरदीप ने निहाल को शिकायत भरी दृष्टि से देखा, फिर अपने शरीर से लिपटी चादर के अंदर से मग्गर सिंह वाली दो धारी छुरी निकाल कर निहाल सिंह की ओर बढ़ाते हुए बोली, "ले ये छुरी, थाम और मग्गर सिंह पर जाकर टूट पड़. टुकड़े कर दे उसके, वो मुझे तुझसे छीनकर अपनी घरवाली बनाना चाहता है."
निहाल सिंह की आंखों में उलझन के साए तैर गए, वो बेचैनी से अपने हाथ मलते हुए बोला, "अगर उसके पास रिवॉल्वर हुआ तो?"
"एक अंग्रेज़ी तमन्चा था उसके पास, लेकिन उसे मैंने उसकी कमर से बंधे केस से निकालकर रास्ते में कहीं फेंक दिया, फिर उसकी छुरी भी निकालकर ले आई हूं. मग्गर को पता भी नहीं कुछ…. निहत्था है अब वो."
निहाल सिंह सोचने लगा. डर और चिंता उसके चेहरे पर साफ़ झलक रही थी.
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"किन्तु मेरा और एक डाकू का क्या जोड़? वो लड़ाई के हज़ार पैंतरे जानता होगा." निहाल सिंह ने चिंता भरे स्वर में कहा, फिर बोला, "तू इधर ही ठहर, मैं डेरे में सोए हुए नौकरों को उठाता हूं, उनके पास लाठी, बर्छियां और ठुकवा बंदूक भी है, वो सब एक साथ मिलकर मग्गर पर टूट पड़ेंगे."
"नहीं." गुरदीप निहाल के सामने तनकर खड़ी हो गई और बोली, "अगर तेरे मन में मेरी चाहत है, तो तुझे मग्गर से अकेले निपटना होगा."
"तू पागल हो गई है? उसके साथी उसके पीछे-पीछे आए होंगे. विश्वास कर, वो अकेला नहीं होगा. मैं अभी अपने नौकरों को उठाता हूं." इतना कहकर निहाल सिंह दरवाज़े की ओर बढ़ा, तो गुरदीप ने उसकी बांह थाम ली. लेकिन निहाल सिंह ने गुरदीप का हाथ झटक दिया, तो गुरदीप ने आश्चर्य से निहाल को देखा और व्यंग्य भरे स्वर में बोली, "मुझे तो उसी समय तेरे कायर होने का विश्वास हो गया था, जब तू मुझे अकेला छोड़कर अपने पिता के डर से शहर से भाग गया था. फिर रछपाल से मेरा ब्याह हुआ, तो तूने पलटकर मेरी ख़बर भी नहीं ली. तू कायर है मरजानिए, तेरी जगह कोई मर्द बच्चा होता तो मेरी डोली रछपाल के आंगन में न उतरती."
"चल, अब बकबक ना कर." निहाल सिंह ने उसे अपने सामने से धकेलकर आगे बढ़ना चाहा, तो गुरदीप उसकी कमर से लिपट गई. निहाल सिंह ने वहीं से अपने आदमियों को आवाज़ दी.
"ओए रहमते, श्याम सिंह." किन्तु उसे तीसरी बार बोलने का अवसर न मिला. गुरदीप ने अपने पूरे बल से मग्गर सिंह वाली दो धारी छुरी निहाल सिंह में उतार दी. निहाल सिंह ने पलटकर गुरदीप को देखा, उसकी फटी-फटी आंखें आश्चर्यचकित थीं.
गुरदीप अब भी पागलों की तरह निहाल सिंह पर वार-पर-वार करते हुए उसे बुजदिल और कायर कहती जा रही थी. निहाल सिंह का बेजान शरीर गुरदीप कौर के पैरों में जा गिरा और तड़प कर ठंडा हो गया.
कुछ देर बार ही गुरदीप अपने रक्त भरे हाथों और लहू भरी छुरी सहित मग्गर सिंह की छाती से लगी फूट-फूट कर रो रही थी.
- शाहिद परवेज़
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