"क्या ऐसा करना उचित होगा? धर्म सम्मत होगा? समाज क्या कहेगा? ख़ासकर जाति-बिरादरी वाले?"
"समाज और जाति-बिरादरी वाले हमारे न रहने पर उसे सहारा देने नहीं आएंगे. तब तक उसकी उम्र भी निकल जाएगी. रहा सवाल धर्म का, तो धर्म हम सबको सुख-सुविधापूर्वक जीना सिखाने के लिए है, जीते जी मौत के घाट उतारने के लिए नहीं!" सुमेधा की सास का वज़नदार तर्क था.
सुलभा और दिवाकर घर पहुंचे. रो-रोकर सूजी हुई आंखों के साथ सुलभा जानकी से लिपट गई. दिवाकर खाली-खाली आंखों से बस चारों ओर देखे जा रहा था. जानकी निःशब्द सुलभा की पीठ कर हाथ फेरती रही. सांत्वना के शब्द बेमानी थे, स्पर्श की ऊष्मा ही शायद सुलभा के बिलखते मातृहदय को कुछ राहत पहुंचा सकती थी.
उस शोकसंतप्त वातावरण में कुछ वाक्य या कुछ वाक्यखंड जानकी तक पहुंचते, तो वह समझने का प्रयत्न करती, अपनी ओर से कुछ न कहती. इतना समझ में आ गया कि सुमेधा के ससुरालवालों ने उसके घायल मन को संभाला है. घाव तो कभी न भरनेवाला है, पर अपनों ने उसकी वेदना की तीव्रता को कम करने की कोशिशें की हैं. राहत की बात तो यह है कि सुमेधा पहले से ही नौकरी करती है, परंतु सर्वाधिक अच्छी बात यह है कि उसके ससुर ने उसे आश्वस्त किया है कि वह अपने आपको कभी अकेला न समझे. आज से वे उसे बेटी का दर्जा देंगे. कुछ कुत्सित स्वभाव के रिश्तेदार भी उनके इस रुख के कारण सुमेधा को अपशगुनी, फुलक्षणी कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाए,
इतनी स्नेह वर्षा पाकर निश्चय ही सुमेधा अपने भाग्य द्वारा दी गई खरोंचों को धो सकेगी, इस बात से आश्वस्त हो सुलभा और दिवाकर लौट आए.
जानकी को पंद्रह दिन पहले की यह मनहूस सुबह याद आई, जब सुबह की उज्ज्वलता पर कालिख पुत गई थी. सुबह साढ़े पांच बजे आदतन उसकी उंगलियां जप की माला फेर रही थीं कि फोन की घंटी बजी. दिवाकर और सुलभा सो रहे थे, इसलिए उसी ने फोन उठाया. ख़बर सुनकर तो उसके पैरों तले ज़मीन खिसक गई.
"किसका फ़ोन है दीदी?" दिवाकर ने उनींदी स्वर में पूछा. जानकी के मुंह से भर्राई सी आवाज़ निकली, "दामादजी नहीं रहे…"
"क्या… कैसे..?" दिवाकर और सुलभा भागकर आए, लेकिन जानकी के पास किसी बात का कोई जवाब नहीं था. वह आगे कुछ सुन ही नहीं पाई थी. रिसीवर हाथ से छूट गया था.
दिवाकर ने फोन उठाया.
खबर देनेवाला अभी लाइन पर था, "सुबह पांच बजे वे रोज़ की तरह स्कूटर से कोचिंग क्लास जाने के लिए निकले थे." अभी साल भर ही तो हुआ था सुमेधा की शादी को. जानकी को वह दिन आज भी याद है. शादी की गहमागहमी में भी सुमेधा जानकी के आसपास डोल रही थी. बड़े रहस्यमय अंदाज़ में उसने लिफ़ाफ़े में से प्यारी सी प्योर सिल्क की साड़ी निकाली और ठुनकते हुए कहने लगी, "बुआजी, आपको मेरी क़सम, आज आपको यह साड़ी पहननी ही होगी."
सुनकर फीकी सी हंसी हंस दी.
"देखिए तो, कितनी सुंदर लग रही है यह आप पर…"
जानकी उसकी बात पर कुछ कहती कि उसने आसमानी रंग की बारीक जरी बॉर्डर की साड़ी उसके कंधे पर दुशाले की तरह डाल दी, तो जैसे बिजली का नंगा तार छू लिया हो.
"पगली कहीं की. क्यों मेरा धरम घष्ट करने पर तुली हुई है? तेरे ससुरालवाले क्या कहेंगे?" डर तो अपने मायकेवालों से भी था, पर यह बात न कह पाई.
"उफ़! हर वक़्त दूसरो का ही डर. साडी सुंदर है कि नहीं? रंग भी कितना प्यारा है."
"निस्संदेह रंग सुंदर है, पर क्या तू जानती नहीं कि संसार की सारी सुंदर चीज़ें मेरे लिए वर्जित है…"
"हुहं…" मुंह बनाकर उठ गई सुमेधा, ऐन शादी के दिन सुमेधा का दिल दुखाना उसे अच्छा तो नहीं लगा, पर क्या करती. उसका बालहठ पूरा भी तो नहीं किया जा सकता था. थोड़ी देर बाद वैसे ही रूठी रूठी सी सुमेधा लौट आई. साड़ी उठाकर वापस लिफ़ाफ़े में रखते हुए बोली, "ठीक है, यह साड़ी में आपकी याद समझकर रख लेती हूं."
"नहीं नहीं." किसी अनिष्ट की आशंका से जानकी का मन घबरा गया, उसे छुआई हुई साड़ी वह सुमेधा को अपनी सुहाग पिटारी में कैसे रखने दे?
"ला, मुझे दे दे." उसने तत्परता से कहा, "तू इतने प्रेम से लाई है, तो मैं दीदी को दे दूंगी. वह पहन लेंगी."
"बड़ी बुआ को!" उसने अनमने ढंग से साड़ी वहीं रख दी.
वह साड़ी उसे सुमेधा क्या, संसार की किसी भी सुहागन को नहीं देनी थी. अपनी पुरानी साड़ियों के बक्से में सहेजकर रखनी थी, जैसे विगत जन्म की याद हो. उसकी शादी की यादें भी इतनी ही धुंधली थीं.
पंद्रह साल की उम्र में ही ब्याह दी गई वह. ब्याह उस समय गुड्ड़े-गुड़ियों का खेल ही तो था. मनोहर गांव में उसकी मौसी के पड़ोस में रहता था. पिछली गरमी की छुट्टियों में वह मौसी के घर गई थी, तब मनोहर के घरवालों ने उसे देखा था. चंपई रंग की सुंदर-सलोनी जानकी उन्हें मनोहर के लिए पसंद आ गई.
पढ़ने में वह तेज़ थी. आगे पढ़ने का चाव था, लेकिन घरवालों ने उसकी एक न सुनी. एक साल पहले बड़ी दीदी की शादी बहुत जूते चटकाने के बाद हुई थी. दीदी के साधारण रंग-रूप को दामी दहेज की चौखट में जड़कर उन्हें ससुराल भेज दिया गया था. जानकी का हाथ वरपक्ष ने ख़ुद मांगा था. ऐसे में भला जानकी के माता-पिता को क्या ऐतराज़ होता!
जानकी के भीतर चहकते पंछी की छटपटाहट को शहनाई की गूंज में अनसुना कर दिया गया.
प्रथम मिलन रात्रि को सिर से पांव तक गहनों से लदी लावण्य प्रतिमा को देखकर इक्कीस वर्षीय मनोहर बावरा-सा हो गया. उसने उसके गाल पर चुंबन अंकित कर दिया.
"छिः गंदे कहीं के!" रगड़-रगड़ कर गाल पोंछती, आंसू बहाती जानकी को देखकर मनोहर अपनी जल्दबाज़ी पर पछताने लगा. "मुझे माफ़ कर दो जानकी." वह गिड़गिड़ाने लगा, तो मासूम बच्चे जैसी जानकी बेफ़िक्री से हंस पड़ी. उसकी हंसी से ऐसा लगा जैसे कमरे में उज्ज्वल चांदनी छिटक आई है. मनोहर उसे मंत्रमुग्ध-सा देखता ही रह गया.
"अब सो जाओ!" मनोहर ने उसके माथे पर हौले से हाथ रखते हुए कहा. विवाह की रस्मों से थकी-हारी जानकी पलभर में ही सो गई.
दूसरे दिन सुबह चाचा के साथ मनोहर खेत पर गया था, वहीं उसे सांप ने डस लिया, घर लौटा तो तड़प-तड़पकर बेहाल हो चुका था.
मासूम जानकी फटी-फटी आंखों से देख रही थी. अपनी छोटी-सी जिंदगी में मौत से यह उसका पहला साक्षात्कार था. वह व्यक्ति, जो एक दिन पहले ही उसकी जिंदगी में आया था, अपने साथ उसकी सारी ख़ुशियां और उमंगें लेकर अनंत की यात्रा कर चला गया. इस बात का एहसास उसे उस समय तो नहीं हुआ. धीरे-धीरे पूरा समाज, परिवार उसे ज़हर की एक- एक बूंद तब तक पिलाता रहा, जब तक उसका मन निष्प्राण नहीं हो गया.
"अरे, उसे सांप ने नहीं डसा, डसा है इस नागिन ने." सास हाथ नचा-नचाकर, चीख-चीखकर उसके कुलक्षणी होने का ऐलान करती रही. ससुरालवालों ने उसे रात-दिन ताने देने और कोसने में कोई कसर नहीं छोड़ी, फिर भी वह निर्लज्ज-सी वहीं बनी रही. बीसियों नौकरों के होते हुए भी कभी ख़त्म न होने वाले काम से जूझती रही. वैधव्य का अर्थ भी नहीं समझ पाई कि वैराग्य धारण करना पड़ा. घर की धुली सफ़ेद साड़ी पहनना, एक कंबल ओढ़ना, ज़मीन पर सोना…
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उस रात कड़ाके की ठंड पड़ रही थी, एक कंबल की गरमी अपर्याप्त लगने लगी, तो जानकी ने हिम्मत जुटाकर जेठानी के कमरे के दरवाज़ा खटखटाया.
"दीदी, एक और कंबल चाहिए. बहुत ठंड लग रही है." उसने कंपकंपाती आवाज़ में पुकारा.
खटाक से दरवाज़ा खुला और किसी ने उसे भीतर खींचकर बांहों में भींच लिया.
"ठंड लग रही है? इतनी गर्मी दूंगा कि पिघल जाएगी."
अपरिचित-सी देह गंध ने उसकी समूची चेतना हर ली. उस कसे जा रहे बाहुबंधन में उसकी देह बेसुध-सी होने लगी. फिर भी रोकते-रोकते उसकी चीख निकल गईं.
सारा घर इकट्ठा हो गया.
"यहां क्या करने आई थी तू?" सास गरजी.
"जी… दीदी से कंबल मांगने आई थी." किसी तरह हकलाते हुए उसने कहा.
"झूठ बोलती है! तुझे पता नहीं, आज ही जमुना के बाबूजी आकर उसे मायके लिवा गए."
जानकी को लगा, काश! यह धरती फट जाती और वह उसमें समा जाती. सुबह से रात तक वह काम में इतनी व्यस्त रही कि उसे जेठानी के मायके जाने का पता ही नहीं चला. उफ़! यह क्या कर बैठी वह… इतना बड़ा लांछन लेकर वह कहां जाएगी. जेठ मूंछों पर ताव दे रहा था. उसे देखकर तो आग लग गई उसके तन-बदन में, यह नराधम आज न जाने क्या कर बैठता.
उसे मायके भेज दिया गया. मां के गले से लिपटकर जानकी ख़ूब रोई.
"मैं जानती हूं तू ग़लत नहीं हो सकती, लेकिन कमज़ोर को ही तो सताया जाता है न!"
मायके में भी परिस्थितियां कुछ ज़्यादा बदली हुई नहीं थीं. वे लोग समाज-धर्म के खोखले नीति-नियमों से बंधे हुए थे. अतः जानकी के बंधन उतने ही कसे हुए थे. मां की तबीयत ख़राब रहती थी, अतः जानकी ही उनकी गृहस्थी में खटती रहती. दस साल का अबोध दिवाकर जानकी के पुनरागमन से प्रसन्न था, पर दीदी के बदले हुए रूप से बेहद क्षुब्ध था.
बड़ी दीदी कभी-कभार आतीं, तो उनके स्वागत में घर बिछ-बिछ जाता. उन्हें लेने दामादजी आते तो मां-बाबूजी, दिवाकर सब उनके सत्कार में जुट जाते.
उस दिन जीजाजी को चाय देकर जानकी चौके में सब्ज़ी छौंकने लगी. मां बाहर के कमरे में उनका हालचाल पूछने गई, तो देखा उनका ध्यान कहीं और है. अपनी कुर्सी को थोड़ा आगे खिसकाकर वे चौके के दरवाज़े की तरफ़ एकाग्रता से देख रहे थे. श्वेतवसना जानकी के गुलाबी चेहरे पर पसीने की बूंदें चमक रही थीं. घुंघराली लटें माथे पर चिपक गई थीं. इस अद्वितीय रंग-रूप को वे अनिमिष नेत्रों से मानो पी रहे थे.
उस समय तो मां कुछ नहीं बोलीं, लेकिन दीदी-जीजाजी के जाने के बाद उसने जानकी को सख़्त ताकीद कर दी कि वह जीजाजी के सामने बिल्कुल न आया करे. जानकी हतप्रभ रह गई. वह समझ गई कि उसका सौंदर्य ख़तरे की घंटी बन गया है. फिर तो वह स्वयं ही सबसे कटने लगी. जीजाजी से तो वह एक शब्द भी न बोलती. वह आ जाते तो वह मुंह पर पल्लू लपेटकर अपने कमरे में रामायण की चौपाइयां पढ़ती रहती, मां कहती, "पोथी पढ़, जाप कर, पूजा-पाठ में मन लगा, वही एक रास्ता है
मन पर काबू पाने का."
लेकिन मन को वश में रखना क्या इतना सहज है? बड़े-बड़े साधु-महात्मा जिसे वश में नहीं कर पाए, वह कैसे कर पाएगी! कभी-कभी मन नदी की बाढ़-सा उफन पड़ता. अतृप्त इच्छाओं-कामनाओं के स्वप्न उसे रात-रात भर जगाकर सहलाने लगते. जानकी का हाथ अनजाने में अपने गाल से छू जाता. न जाने मनोहर क्या चाहता था उससे! उसी अव्यक्त अपूर्ण कामना का उफनता ज्वार आज वह अपने भीतर भी पा रही है. मुंह सहस्रनाम बुदबुदाने लगता. मन अनियंत्रित कुलांच का प्रत्येक शब्द हवा के बुलबुलेसर… सतह पर आकर विलीन होने वाले
नीरस-शुष्क जीवन में समय भी मानो अपनी गति खो बैठा था. हिस्से में आया प्रत्येक पल काटना मानो कोई मजबूरी थी. दिवाकर की शादी तय हुई, तो मृतप्राय मन. में जैसे जीवन की चिंगारी कौंधी, विवाह की तैयारी करने के लिए मन उतावला हो गया. आज सुबह हल्दी पीसी जाने वाली थी.
"मां, हल्दी निकाल दूं?" वह पूछने लगी.
"रुक.. रुक, मैं निकाल लूंगी. बड़ा शुभ शगुन होता है. पांच सुहागिने पीसने आएंगी." मां ने झट से रोक दिया. जानकी स्तब्ध रह गई. यह क्या करने जा रही थी वह? क्या वह जानती नहीं कि विवाह जैसे शुभ आयोजनों की तैयारी में उसका स्पर्श भी निषिद्ध है.
विवाह के गीत गाने के लिए मचली जिह्वा को उसने स्वयं लताड़ा और कानों में पड़ते गीतों के स्वरों को अनसुना करने की कोशिश कर वह अपने कमरे में दुबक गई.
दिवाकर की पत्नी सुलभा को पूरा मान-सम्मान देती. "आप हमारे लिए शुभ सोचती हैं, तो बाकी बातें बेकार हैं." सुलभा की सोच उसे बड़ी अनूठी लगती.
सुलभा उससे सोलह-सत्रह वर्ष छोटी थी. जानकी सुन रही थी, ज़माना धीरे-धीरे बदल रहा है, पर उससे क्या होता है, उन लोगों की सोच तो वहीं की वहीं थी.
सुलभा का पहला बेटा हुआ, तो उसने झिझकते हुए उसे हृदय से लगा लिया. उफ़! न जाने वह कैसा अनुभव था. उसकी छाती में कुछ उमड़ने-घुमड़ने लगा था. मन बार- बार प्रश्न करने लगा था, कैसा लगता होगा मां बनकर! एक अपूर्व अनुभव, एक अद्भुत सृजन! एक विस्मयकारी आनंद! कांपते होंठों से उसने नन्हें का माथा चूम लिया. दूसरे बेटे के जन्म के आठ वर्ष बाद सुमेधा का जन्म हुआ. सबसे छोटी सुमेधा को पाकर तो जानकी का वात्सल्य मानो सहस्त्र धाराओं में फूट पड़ा.
कभी-कभी सुलभा उसे हंसकर उलाहना देती, "दीदी, इतनी ममता आपने कहां छिपाकर रखी थी इतने दिन?" सुनकर जानकी फीकी हंसी हंसकर रह जाती. मानव जीवन के ये विभोर होने के क्षण, ये आवेग कठोर आवरण में न छिपाए रखती, तो अब तक शायद पागल हो जाती.
सुमेधा ने भी उसकी ममता का वैसा ही प्रतिदान दिया. इस बीच मां-बाबूजी का देहावसान हो गया, परंतु वैधव्य के कड़े नियमों की बेड़ियां अब उसकी विवशता नहीं, बल्कि आदत में शुमार हो चुकी थीं. बाहर जाने के नाम पर बस गली के दूसरे छोर पर स्थित मंदिर में जाना… नाम, जप, पोथी-पाठ आदि नित्यक्रम का हिस्सा बन गए.
दिवाकर अब गृहस्वामी बन गया था- घर का मुखिया, लेकिन उसने दीदी के बंधनों को ढीला करने की कोशिश नहीं की. सुलभा भी उससे डरती थी, अतः अपनी बात मनवाने की चेष्टा नहीं करती थी. बचपन के दिवाकर की तो एक-एक रेखा भी उसमें ढूंढ़े नहीं मिलती थी. अब वह दीदी की हर बात मानने वाला छोटा-सा दिवाकर थोड़े ही था. अब वह दीदी का आश्रयदाता था. यह संबंध भाई-बहन के रिश्ते का सारा माधुर्य लील गया था.
आज तो दिवाकर के पास घर के मुखिया का अधिकार भी है, पर उसमें परिवर्तन के लक्षण तो जानकी बहुत पहले से परिलक्षित कर रही थी. उन दिनों दिवाकर की शादी नहीं हुई थी.
एक दिन ऑफिस से लौटा, तो ग़ुस्से से तमतमा रहा था. "हद है बेशर्मी की मां, ज़रा दीदीं से कह दो कि मेरे ऑफिसवालों के सामने न आया करें. हमारे ऑफिस के निरंजन बाबू बस एक बार घर आए थे, जनाब की पत्नी को मरे दो साल हो गए हैं. न जाने कब उन्होंने दीदी को देख लिया और कहने लगे, "अगर उचित समझो तो मैं अपना प्रस्ताव स्वयं तुम्हारे मां-बाबूजी के सामने रखूंगा…"
"घोर कलयुग आया है." मां की अपेक्षित प्रतिक्रिया थी. "विधवा से शादी की बात! कह दो उनसे, हम शरीफ़ लोग हैं, हमारे यहां लड़की को हल्दी सिर्फ़ एक बार लगती है."
"ये हिमाकत!" बाबूजी रोष से उठ खड़े हुए,.
पाप! महापाप! जानकी का हृदय चीत्कार कर उठा.
बहुत देर तक घर में गर्जन-तर्जन चलता रहा. लेकिन झूठ नहीं कहेगी जानकी, कम से कम एक बार उस अनदेखे व्यक्ति को देखने का कौतुहल उसके मन में जागने लगा, जो उसे पत्नी का सम्मान देने को इच्छुक था. आंखों से, स्पर्श से विधवा का अपमान करने वाले तो बहुत मिलते हैं… फिर दिवाकर की बात याद आई. आख़िर उसके इस व्यवहार का क्या मतलब था. छीः सोचते हुए भी शरीर पर कांटे ऊग आए…
दोनों भतीजों और ख़ासकर सुमेधा का प्यार न होता, तो इस रेतीली ज़िंदगी में बचता ही क्या. विनोद और विवेक तो नौकरियों के सिलसिले में दूर चले गए थे. उनकी पत्नियां भी उससे ज़्यादा नहीं जुड़ पाईं. बस, सुमेधा एक अनजानी स्नेह से उससे जुड़ी हुई थी. शादी के बाद भी फोन पर उसके साथ बात करने के लिए उसके पास दो-तीन मिनट अवश्य होते. उसी लाड़ली सुमेधा को विधवा के रूप में देखना कितना कष्टकर है. फिर भी उसे सीने से लगाकर रोने का बहुत मन करता. कभी- कभी उससे फोन पर बात होती तो लगता, उसने यत्नपूर्वक स्वयं को संभाल लिया है.
"बुआ मेरी चिंता मत करो. यहां मम्मी-पापाजी मेरा बहुत ध्यान रखते हैं. हां, आपसे मिलने का बहुत मन करता है. यहीं आ जाओ न बुआ… मैं तो छुट्टियों के पहले नहीं आ पाऊंगी."
पगली लड़की! उसकी पराधीन बुआ अपनी मर्ज़ी से कहां कहीं आती-जाती है.
छुट्टियों में सुमेधा आई, लेकिन अकेली नहीं, अपने सास-ससुर के साथ. तीनों बिल्कुल सामान्य लग रहे थे और यत्नपूर्वक समीर के विषय से कतरा रहे थे, ताकि वातावरण म्लान न हो.
सुमेधा ने सदा की तरह अच्छी सी साड़ी पहनी हुई थी. गले में सोने की चेन, हाथों में सोने की चूड़ियां और हां, माथे पर एक छोटी-सी बिंदिया भी थी. वैसी ही, जैसे शादी के पहले लगाया करती थी.
जानकी का ध्यान अनजाने में अपने ठूंठ से हाथों पर चला गया.
खाना खाते-खाते सुमेधा के ससुरजी गला खंखारकर बोले, "दरअसल हम आपसे सुमेधा की शादी की बात करने आए है… आप लोगों की अनुमति के बिना हम यह कदम नहीं उठा सकते. हमारे एक परिचित का बेटा है… बैंक में मैनेजर है. उनकी पत्नी प्रथम प्रसव में कुछ जटिलताएं होने से गुज़र गई. उन्होंने हमसे सुमेधा के लिए पूछा था. हमें तो कोई आपत्ति नहीं है, बस आपकी अनुमति चाहिए."
कमरे में एक सन्नाटा छा गया. दिवाकर और सुलभा एक-दूसरे का मुंह ताकते रह गए. सुमेधा खटकते हुए बोली, "इन्हें समझाइए. आप ही बताइए, ऐसा कैसे हो सकता है. वैसे ही कितना बड़ा दुख उठा रहे हैं मम्मी-पापा! मैं भी चली जाऊंगी, तो इनका ध्यान कौन रखेगा…"
"पगली कहीं की! हमारे बुढ़ापे के लिए तुम्हारी पूरी उम्र बिगाड़ें, ऐसे स्वार्थी नहीं हैं हम! तुम्हारे सामने पूरी ज़िंदगी पड़ी है. हम दोनों तो एक-दूसरे के सहारे भी जी लेंगे. और फिर क़िस्मत में सहारा ही लिखा होता, तो समीर ही क्यों चला जाता हमें छोड़कर?"
उनका स्वर आंसुओं में डूब गया. दिवाकर हतप्रभ रह गया. ऐसे किसी प्रस्ताव की, तो उसने कल्पना भी नहीं की थी. सुलभा के मुंह पर राहत के भाव उभरे. दिवाकर घोर असमंजस में था.
"क्या ऐसा करना उचित होगा? धर्म सम्मत होगा? समाज क्या कहेगा? ख़ासकर जाति-बिरादरी वाले?"
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"समाज और जाति-बिरादरी वाले हमारे न रहने पर उसे सहारा देने नहीं आएंगे. तब तक उसकी उम्र भी निकल जाएगी. रहा सवाल धर्म का, तो धर्म हम सबको सुख-सुविधापूर्वक जीना सिखाने के लिए है, जीते जी मौत के घाट उतारने के लिए नहीं!" सुमेधा की सास का वज़नदार तर्क था.
उनके मुंह से यह बात सुनकर स्तब्ध रह गई जानकी. जीवनभर व्रतस्थ रही वह. सचमुच धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य के झूठे भय से उसका समूचा जीवन गल गया. मन के प्राकृतिक भावों को विकारों की श्रेणी में रखना पड़ा.
"समधनजी ठीक कह रही हैं." सहसा जानकी बोल पड़ी. "दूसरों की देहरी पर अपना सुख नहीं तलाशा जाता. ऐसी कोशिश करने पर सिर्फ़ ठोकरें ही मिलती हैं. इंसान को हंसने के लिए किसी के साथ की ज़रूरत हो न हो, रोने के लिए किसी अपने के कंधे की ज़रूरत अवश्य होती है. इस प्रस्ताव को मत फेरना सुमेधा… जीवन में सौभाग्य बार-बार द्वार नहीं खटखटाता."
पता नहीं, इतना सब कैसे कह गई वह. सभी मुंह बाए उसकी ओर देखते रहे. दिवाकर का मन अपराधबोध से भर गया.
"दीदी, मैं ज़माने के बदलने का इंतज़ार करता रहा, लेकिन पहल मैं भी तो कर सकता था. तुम्हारे लिए मैं कुछ नहीं कर पाया."
"मेरे लिए बुरा मत मानो दिवाकर. मेरी तो अब संध्याबेला है. उसकी सोचो, जिसके द्वार सूर्य अभी भी ठिठक कर खड़ा है. असमय उसे अस्त मत होने दो."
- स्मिता भूषण
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