Close

कहानी- गेंदा या गुलाब (Short Story- Genda Ya Gulab)

मेरे मन में विचारों की भीषण आंधी चल पड़ी. कहां गई भाभी की वो संवेदना? पेड़-पौधों को प्यार करनेवाली, उनकी भाषा को समझनेवाली शीला भाभी, आज मानव अंकुर के प्रति इतनी क्रूर कैसे हो गई? यदि पौधा ही नहीं चाहिए था, तो बीज बोया ही क्यों था?

जब से सामनेवाले घर में सक्सेना जी का परिवार आया है, घर गुलज़ार बन गया है. घर के सामने कच्ची ज़मीन पर सक्सेना जी की पत्नी ने न जाने कितने पौधे लगा दिए हैं. हां, शीला भाभी सचमुच कुशल है हर क्षेत्र में. अभी इस मकान में आए दो महीने ही हुए हैं और अच्छा-खासा बाग विकसित कर लिया है उन्होंने. इतनी सर्दी में भी जब लोग सुबह-सुबह रजाई में बैठकर अख़बार पढ़ना पसंद करते हैं, तो वो खुरपी लिए दिख जाती हैं. कभी पौधों की गुड़ाई, कभी सिंचाई, तो कभी खाद-पानी आदि देने में मशगूल रहती है. बागवानी उनका शौक है और पौधों को पालने की उनकी अलग तकनीक है,;वो है स्पीच थेरेपी, वो कैसे भला?
हुआ यूं कि एक दिन मैं एक स्वेटर का नमूना सीखने उनके पास गई, तो मुझे भाभी की आवाज़ सुनाई दी, "तुझे क्या चाहिए? पानी दूं या प्यार करूं?" मैं समझ नहीं पाई कि शीला भाभी किससे बात कर रही हैं. उनकी दोनों बेटियां तो स्कूल गई हैं, फिर वे बातचीत किससे कर रही हैं? यह सोचते-सोचते मैंने गेट खोला, तो भाभी प्रकट हुई.
"आओ सुमि." मुझे वहां कोई ऐसा व्यक्ति नहीं दिखा, जिससे वे बात कर रही हो. मैं पूछ बैठी, "अरे, किससे बात कर रही थीं? क्या नेहा व मीता स्कूल नहीं गई हैं?"
"अरे नहीं, मैं तो पौधों से बात कर रही थी." शीला भाभी बोली.
"पौधों से." मैं आश्चर्यचकित रह गई.
"हां, ये स्पीच थेरेपी है."
"स्पीच थेरेपी! मुझे कुछ समझ में नहीं आया भाभी."
"आओ बैठो तो सही." दालान में बिछी चारपाई की ओर इशारा करके शीला भाभी ने मुझे बैठा लिया.
"दरअसल सुमि, मैं ही क्या, सभी वैज्ञानिक भी मानते हैं कि पौधों में जान होती है."
"हां, वो तो होती है." मैं बोली.
"वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि पौधों से बातचीत की जाए, उनका स्पर्श किया जाए, तो पौधे जल्दी बढ़ते है, इसलिए मैं‌ दिन में एक बार तो इनसे अवश्य बात करती हूं. पता है, आसाम के एक उद्यान में तो सुबह के समय अनूप जलोटा के भजन सुनाए जाते है…" वो अनवरत बोल रही थी.


यह भी पढ़ें: हर महिला को पता होना चाहिए रिप्रोडक्टिव राइट्स (मातृत्व अधिकार)(Every Woman Must Know These Reproductive Rights)

मैं हैरानी से शीला भाभी की बातें सुन रही थी. कितनी संवेदनशील महिला है. पौधों के प्रति भी कितनी भावनाएं रखती हैं. बाद में उन्होंने स्वेटर का नमूना भी बड़ी कुशलता से मुझे सिखाया.
मैं घर आई, तो मेरी बिटिया पूर्वा स्कूल से घर आ चुकी थी. उसके कपड़े बदले, खाना खिलाया और फिर उसके स्कूल का होमवर्क देखने बैठ गई. अपनी तुलना शीला भाभी से करने लगी. कितनी चुस्त-दुरुस्त महिला है. एक मैं हूं, जिसे पूर्वा के अलावा और कुछ देखने का समय ही नहीं मिलता. सारा दिन यूं ही घर के काम में कट जाता है, पौधे तो दूर, घर का काम भी बिखरा-बिखरा रहता है.
पूर्वा को थोड़ी देर खेलने को कहा और ख़ुद चौका-बर्तन समेटने में लग गई. काम जल्दी निबटा कर पूर्वा को होमवर्क भी तो कराना है, फिर देवेश भी आ जाएंगे ऑफिस से. बस अपनी तो यही दिनचर्या है. शीला भाभी की दिनचर्या और अपनी दिनचर्या को लेकर हमेशा अंतर्द्धंद चलता रहता. मै भी उनकी जैसी दिनचर्या चाहती थी. फिर कई बार सोचती, उनके बच्चे बड़े है. शायद इसलिए उन्हें अधिक समय मिलता है. उनकी १० वर्षीया मीता और ६ वर्षीया नेहा अपने आप बस स्टॉप तक जाती है. ख़ुद ही कपडे बदलती है. अपने आप खाना खाती है. ख़ुद से ही होमवर्क करती हैं. मेरी पूर्वा अभी ४ वर्ष की है. मुझे उसको सब काम करवाना पड़ता है, शायद इसीलिए मुझे समय नहीं मिलता.
शीला भाभी को देखकर मुझे भी अपनी खाली ज़मीन पर पौधे लगाने की इच्छा जागृत हुई. आख़िर कौन नहीं चाहता उसके घर-आंगन में रंग-बिरंगे फूल खिले.
कई दिनों के कशमकश के पश्चात् मैंने शीला भाभी से मिलने का फ़ैसला किया. सोचा, उनसे कुछ मार्गदर्शन भी मिलेगा और उनके बाग से कुछ पौधे भी ले आऊंगी. बारह बजे तक घर का काम निबटा कर बालों में कंघी की. चेहरे को ठीक किया, माथे पर बिंदिया लगाई और गले में दुपट्टा डाल कर एक दृष्टि शीला भाभी के मकान पर डाली, कोई हलचल नहीं दिखी. सोचा, अंदर होंगी. जल्दी से बाहर के दरवाज़े पर ताला लगाकर पॉलीथीन की थैली हाथ में लेकर शीला भाभी के घर चल दी.
सचमुच शीला भाभी का दरवाज़ा बंद था. कॉलबेल पर हाथ रखा, तो मधुर धुन सुनाई पड़ी. कुछ देर तक कुछ हलचल नहीं हुई, तो मैंने सोचा शीला भाभी घर पर नहीं है. मैं मुड़ने को हुई, तो कदमों की आहट सुनाई दी. थके कदमों से शीला भाभी ने दरवाज़ा खोला.
उनको देखते ही मैं हैरान रह गई, "अरे भाभी, क्या तबियत ख़राब है?" शीला भाभी का पीला चेहरा उनके अस्वस्थ होने की कहानी कह रहे थे.
"आओ सुमि, अन्दर आओ." उन्होंने थकी आवाज़ में कहा.
"बुखार है भाभी?"
"अरे नहीं, वो… क्या है…. कि… एबॉर्शन के कारण…"
"उफ़!" मुझे बेहद अफ़सोस हुआ. पेड़-पौधों की सार-संभाल करनेवाली भाभी के साथ ऐसा हुआ. "भाभी, क्या बात है? ध्यान नहीं था क्या?"


यह भी पढ़ें: अनमोल हैं बेटियां जीने दो इन्हें (don’t kill your precious daughter)

"नहीं. ऐसी बात नहीं थी…" भाभी कुछ झिझक रही थीं. फिर एकदम बोल पड़ीं, "डॉक्टर ने जांच की, तो लड़की बता दिया… तब सोचा कि…" आगे के शब्द गुम हो गए.
मेरा सिर चकरा गया. ये क्या हुआ? पौधों के प्रति इतनी संवेदनशील और मानव प्रति ऐसी भावना… बेटे की चाह में बेटी का गला घोंट दिया. फूल तो फूल ही है चाहे गुलाब का हो या गेंदे का. मैं तो उनसे पूछने गई थी कि बाग की सार-संभाल कैसे की जाती है और कुछ पौधे भी लेने थे. परंतु ऐसी बात सुनकर तो पूछने का मन ही नहीं किया, बस औपचारिक बातचीत करके उठी और पॉलीथीन बेग खाली ही लेकर लौट आई.
मेरे मन में विचारों की भीषण आंधी चल पड़ी. कहां गई भाभी की वो संवेदना? पेड़-पौधों को प्यार करनेवाली, उनकी भाषा को समझनेवाली शीला भाभी, आज मानव अंकुर के प्रति इतनी क्रूर कैसे हो गई? यदि पौधा ही नहीं चाहिए था, तो बीज बोया ही क्यों था?
भाभी का असली चेहरा सामने आ गया था. मैं तो शीला भाभी की बागवानी का अनुकरण करने चली थी. लेकिन आज मैंने निर्णय कर लिया था कि फूल कोई भी हो, परंतु मेरे घर-आंगन में फूलों के दो ही पौधे होंगे, चाहे वो गेंदे के हो या गुलाब के.

- संगीता सेठी

अधिक कहानियां/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां क्लिक करें – SHORT STORIES

अभी सबस्क्राइब करें मेरी सहेली का एक साल का डिजिटल एडिशन सिर्फ़ ₹599 और पाएं ₹1000 का गिफ्ट वाउचर.

Share this article