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कहानी- मुस्कान का उजास (Short Story- Muskan Ki Ujas)

“देखना एक दिन मैं भी बहुत पैसा कमा कर दिखाऊंगी. हम भी ख़ूब पटाखे छुड़ाएंगे. जी भर कर मिठाई खाएंगे. हमारी टीचर जी कहती हैं, मेहनत से पढ़ाई करने पर मैं भी डॉक्टर-इंजीनियर बन सकती हूं. देखना मैं भी कुछ बन कर रहूंगी. फिर हम सब भी इन रंजू-टीनू की तरह धूम-धड़ाके के साथ दिवाली मनाएंगे.”

“ये देखो बच्चों, ये अनार! ये दूसरा और ये तीसरा… ये और एक…" शगुनी ने बिजली की गति से ख़ूब सारे अनारों को एक के बाद एक जला दिया और उनको लगभग एक साथ एक कतार में रुपहली उजास भरी रोशनी छोड़ते देख उसका मन मयूर मानो अपूर्व आह्लाद से नाच उठा.
“दीदी… मुझे तो बम चाहिए.”
“मुझे सुतली बम.”
“मुझे ख़ूब सारी फुलझड़ियां.”
“मुझे रॉकेट.“
“और मुझे चकरी…”
कच्ची बस्ती के बच्चे शगुन से पटाखे मांग रहे थे और वह सब को उन्हें थमाती जा रही थी.
तभी उसकी मां ने उसे पुकारा, “अरे शगुनी, अब बस भी कर. चल भीतर आ, लक्ष्मी पूजा का समय हो गया.”
“आई मां.” और हंसती-खिलखिलाती वह भीतर चली गई. अपनी पहली पहली तनख़्वाह से लाई गई लक्ष्मी जी गणेश जी की चांदी की प्रतिमाओं के सामने उसके मां, बापू और तीन बहनों और भाई ने मन‌से विधिवत पूजा-अर्चना की.
सब ने जी भर के पटाखे जलाए और फिर रात को स्वादिष्ट पकवान और मिठाई खाई और सब सोने चले गए.


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शगुन ने भी अपने बिस्तर पर अपनी आंखें मूंद लीं.
आज उसका उद्भ्रांत चित्त बेलगाम घोड़े की तरह अतीत की पगडंडी पर सरपट दौड़ लगाने लगा. जब ज़िंदगी एक दिशाहीन स्याह सफ़र से अधिक न थी.
आज की सफल आईटी प्रोफेशनल शगुनी दिल्ली के पास एक गांव की पटाखा फैक्ट्री में कंगाली के अंधेरे में गुम मजदूर माता-पिता की सबसे छोटी संतान थी.
कुछ बरसों पहले की दिवाली की कड़वी कसैली यादें आज भी उसके मानस में मानो ज्यों की त्यों छपी हुई हैं.
वह भी दिवाली की ही एक रात थी. वह अपनी पटाखा फैक्ट्री के मालिक के घर के सामने ही रहती थी. अपने घर की खिड़की से वे पांचों भाई-बहन उसांसें भरते मालिक के बच्चों को हंसी-ख़ुशी पटाखे छोड़ते देख रहे थे. उन्हें अपने ही बनाए पटाखों को छुड़ाते देख उसके कच्चे मन में जैसे नश्तर चलने लगे थे. उसने अपनी सबसे बड़ी बहन से कहा था, “बहनी, दिन-रात हाड़ तोड़ कर ये पटाखे हम बनाते हैं और हमें ही इन्हें आज के दिन भी छू नहीं सकते. ऐसा क्यों?”
“चुप कर री सगुनी! ये ठहरे मालिक जमींदार लोग. हम तो इनके टुकड़ों पर पलते हैं री. हमारा इनका क्या मुक़ाबला? आज तो कह दी ये बात… ख़बरदार फिर कभी तेरी ज़ुबान पर न आए.” और यह सुन कर उसका किशोर मन इस अन्याय पर चीत्कार कर उठा था. “देखना एक दिन मैं भी बहुत पैसा कमा कर दिखाऊंगी. हम भी ख़ूब पटाखे छुड़ाएंगे. जी भर कर मिठाई खाएंगे. हमारी टीचर जी कहती हैं, मेहनत से पढ़ाई करने पर मैं भी डॉक्टर-इंजीनियर बन सकती हूं. देखना मैं भी कुछ बन कर रहूंगी. फिर हम सब भी इन रंजू-टीनू की तरह धूम-धड़ाके के साथ दिवाली मनाएंगे.”
वह एक बेहद संवेदनशील किशोरी थी. बचपन से ही वह अपने घर के ठीक सामने रहने वाले फैक्ट्री मालिक व उनके बच्चों और अपने तथा अपने परिवार के जीने के ढंग में अंतर को शिद्दत से महसूस कर तिल-तिल घुटती रही है.
शगुनी कुशाग्र बुद्धि की थी. उसके सभी भाई-बहन पढ़ाई में अरुचि के चलते मात्र पांचवीं-छठी कक्षा तक पढ़ कर स्कूल छोड़ मां-बापू के साथ पटाखा फैक्ट्री में मजदूरी करने लगे थे. लेकिन वह फैक्ट्री में काम के साथ साथ कक्षा दर कक्षा उत्कृष्ट परिणाम देते हुए बारहवीं तक पहुंच गई. उसके परिवार की बदहाली उसे सतत बेहतरीन प्रदर्शन करने के लिए प्रेरित करती. वह बारहवीं की बोर्ड परीक्षा में पूरे जिले में प्रथम आई और उसे छात्रवृति मिलने लगी.
मां तो उससे कुछ न कहती, पर उसके पिता उसकी पढ़ाई से नाराज़ रहते. हमेशा उसे तंज कसते, “कितना भी पढ़ ले, कुछ नहीं होने वाला…”
पिता जितना उसे हतोत्साहित करते, उसका कुछ बनने का संकल्प उतना ही दृढ़ होता जाता.
पिता ज़बर्दस्ती उसे शाम की पारी में मजदूरी करवाने फैक्ट्री अपने साथ ले जाते. वहां सफेदी लिए स्लेटी रंग के रसायनों से पटाखे बनाना उसे बिल्कुल रास न आता. अंधेरे से सीलन भरे एक लंबे से हॉल में अपने जैसे कामगारों के साथ घंटों रसायनों से पटाखे बनाते हुए उसका दम घुटता और वह मुंह बनाए किसी तरह बेमन से अपना काम निबटाती.
एक बार उसे रसायनों से एलर्जी हो गई और उसके चेहरे पर छोटे छोटे फोड़े निकल आए. डॉक्टर ने उसके पिता से कहा कि उसे पटाखे बनाने वाले रसायनों से एलर्जी है और जब तक वह फैक्ट्री जाना नहीं छोड़ेगी उसके फोड़े ठीक नहीं होंगे. उसकी लगातार दवाएं और महंगी इलाज की वजह से हार कर पिता को उसे अपने साथ फैक्ट्री ले जाना बंद करना पड़ा और इस नीरस काम से उसे छुटकारा मिला.
अब वह मालिक और बस्ती के कुछ खाते-पीते परिवारों के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने लगी थी, जिससे ज़िंदगी अपेक्षाकृत सहज हो चली थी.
वह बेहद ख़ुश थी और उसने अपने आपको इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा की तैयारी में जी जान से झोंक दिया.
उसकी एक टीचर ने उसे अपना एक पुराना मोबाइल दे दिया था, जिसमें नेट की मदद से वह पढ़ाई संबंधित सभी ऑनलाइन काम निबटाती.
उसकी और उसके परिवार की ख़ुशी का ठिकाना न रहा, जब वह प्रवेश सूची में मेरिट में आई और उसे छात्रवृति के साथ आईआईटी, दिल्ली में दाखिला मिल गया.


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इसके बाद उसने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. वक़्त के साथ उसकी छत्तीस लाख वार्षिक के पैकेज पर दिल्ली में एक नामी एमएनसी में नौकरी लग गई.
तभी मां-बापू उसके पास आ गए. मां उससे बोली, “मेरी तो नींद ही भाग गई. क्यों री, क्या सच में तुझे हर महीने तीन लाख रुपये मिलेंगे.”
“हां मां, सच में. समझो अपने दुख-दारिद्रय ख़त्म हो गए. बहुत हाड़ तोड़ लिए आप लोगों ने. अब आप लोग मेरे साथ ही रहोगे. अगर आप लोगों की काम करने की इच्छा होगी, तो वहां कुछ काम ढूढ़ेगे आपके लिए और दीदी और भैया फिर से अपनी पढ़ाई शुरू कर सकेंगे.”
मां-बापू के चेहरों पर सुकून भरी मृदु मुस्कान का उजास खिल उठा.

रेणु गुप्ता

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Photo Courtesy: Freepik

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