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कहानी- सज़ामुक्त (Short Story- Sazamukt)

"यही सच है मां. हम दोनों ने सज़ा भोगी है. तुम्हारी सज़ा ये है कि तुमने मुझे विधवा के रूप में देखा और मेरी सज़ा ये थी कि मैं सुहागिन के रूप में तुम्हारे सामने आ नहीं सकती थी."

ट्रेन की सीटी की तेज़ आवाज़ वातावरण में गूंज उठी. गाड़ी धीर-धीरे प्लेटफार्म से सरकने लगी. मनोज ने सरिता के चरण स्पर्श करते हुए कहा, "भाभी, पहली बार घर छोड़कर जा रही हैं, अपना और दोनों बच्चों का ध्यान रखिएगा."
"हां." सरिता ने आंचल से आंसू पोंछते हुए कहा.
गाड़ी अपने गंतव्य की ओर बढ़ी चली जा रही थी. पर सरिता का मन तो उससे भी द्रुत गति से अतीत की गलियों में विचरने लगा था. 'अठारह साल बाद आज मैं अपने मायके जा रही हूं. पता नहीं मां कैसी होंगी? दोनों छोटी बहनें और तीनों छोटे भाई तो शायद मुझे पहचान भी नहीं पाएंगे. इन अठारह वर्षों में क्या कुछ नहीं भोगा है मैंने. कोई अनजान व्यक्ति सुनेगा, तो एक कपोल-कल्पित कथा ही मानेगा. सब कुछ एक सपने की तरह ही तो गुज़र गया."
सरिता ने एक ठंडी सांस लेकर सीट की पुश्त पर अपना सिर टिका दिया, बंद आंखों में विगत मानो वर्तमान बनकर फिर से साकार हो उठा.
बी.ए. पास करते ही पिता ने धूमधाम से सरिता का विवाह प्रकाश के साथ कर दिया. प्रकाश के मामा सरिता के पिता के दोस्त थे. उन्होंने ही इस विवाह में मध्यस्थ की भूमिका निभाई थी. मामा प्रकाश की प्रशंसा करते नहीं अघाते थे, "बड़ा ही होनहार है मेरा प्रकाश, कोई भी केस नहीं हारता, उसके जैसे वकील तो विरले ही होते हैं."
सरिता के पिता सुनकर फूले नहीं समाते थे. शादी के दूसरे दिन सरिता विदा होकर ससुराल आ गई. ढेर सारे रस्मो-रिवाजों के बाद सरिता को एक सजे-सजाए कमरे में बैठा दिया गया. प्रकाश ने उसका घूंघट उठाते हुए कहा, "सरिता, आशा करता हूं सुन्दरता के साथ-साथ अपने मधुर व्यवहार से भी तुम घर के सभी सदस्यों का दिल जीत लोगी."
प्रेम, मनुहार और समर्पण में कब रात बीत गई, पता ही नहीं चला. सुबह मीठी नींद में सोई सरिता का सुंदर मुखड़ा देखकर प्रकाश अभिभूत हो उठा, "सच, कितनी सुंदर जीवनसंगिनी मिली है मुझे!"
सहसा प्रकाश की सोच को झटका लगा. सरिता की गर्दन पर एक बड़ा-सा सफ़ेद धब्बा था. प्रकाश ने ध्यान से देखा, तो अवाक रह गया. ल्युकोडर्मा? उसने झकझोर कर सरिता को उठा दिया और पूछा,
"ये दाग़ कब से है तुम्हें?"
"जी… वो…" सरिता सहम गई.
"बताओ कब से है ये दाग़ तुम्हें?" प्रकाश लगभग चीख सा पड़ा.
"जब मैं दस वर्ष की थी… तब से है. बांह और पीठ पर भी छोटा-सा दाग़ है. बहुत इलाज करवाया, पर…"
"उफ़… इतना बड़ा छल?" प्रकाश अवाक था.
"आपके मामा तो सब जानते थे. उन्होंने मेरे पिता से कहा था कि सब कुछ जानकर भी आप मुझसे शादी करने के लिए तैयार है." सरिता रो पड़ी.


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"मामा ने ऐसा कहा? तुममें ऐसे कौन से सुर्ख़ाब के पर जड़े हैं, जो इतना होने पर भी मैं तुम्हीं से शादी करता? तुम्हारे पिता ने मुझसे बात क्यों नहीं की? मुझसे क्यों छिपाया?" प्रकाश का ग़ुस्से से बुरा हाल था.
थोड़ी ही देर में पूरे घर में ये बात फैल गई, जो बहू कल रात तक सौन्दर्य की प्रतिमा लग रही थी, वही सुबह अस्पृश्य लगने लगी. सब उसे ऐसे देखने लगे मानो वो नारी नहीं, कोई अजूबा हो.
"इसे इसके मायके ही भेज दो. रखें वो धोखेबाज़, अपनी बेटी को अपने ही पास." सास बिफर उठी.
"दूसरों को क्यों दोष देती हो? अपने भाई को क्यों कुछ नहीं कहतीं?" प्रकाश के पिता ने झल्लाकर पत्नी से कहा.
प्रकाश की मां ने तुरंत भाई को फोन करके पूछा. उसने बेशर्मी से कहा, "जीजाजी ने मेरा टेन्डर रुकवाया था न. सबके सामने बुरी तरह जलील भी किया था मुझे. मेरे गाल पर जो थप्पड़ मारा था, ये उसी का जवाब है बहना."
"क्या?" प्रकाश की मां हतप्रभ रह गईं. घर में जैसे सभी को साप सूंघ गया.
"प्रकाश कल ही इसे मायके छोड़ आ, हमें रोगिणी बहू नहीं चाहिए."
"नहीं मां, ये वहां नहीं जाएगी. किसी दूसरे की ग़लती की सज़ा ये क्यों भोगे?"
"पर…"
"मैं किसी निपराध को सज़ा देने का पक्षधर नहीं. ये अब मेरी पत्नी है. इसे इसी घर में रहना होगा. यहां पूरा सम्मान मिलेगा इसे. हां, सज़ा भी मिलेगी, इसके पिता और मेरे मामा को. मैं उन जैसे ओछे लोगों से कोई रिश्ता रखना नहीं चाहता. इसके पिता की सज़ा यही है कि वो जीते जी अपनी बेटी का मुख कभी नहीं देख पाएंगे. न ये वहां कभी जाएगी, न इसके मायके का कोई सदस्य यहां मेरे जीते जी पैर धरेगा बस…" प्रकाश आवेश में आकर बोलता चला गया.
'सरिता अवाक रह गई. "इतनी बड़ी सज़ा? पर ये सज़ा तो मुझ पर भी लागू होती है. मैं अपने पति के जीते जी अपने मायके के किसी भी व्यक्ति से मिल नहीं सकती.'
उसका सिर घूमने लगा और वो बेहोश होकर गिर पड़ी. कुछ दिन बेहद असमंजस और लाचारी में बीते. धीरे-धीरे सरिता ख़ुद को घर के अनुसार ढालने लगी. समय बहुत बड़ा मरहम है, जो बड़े से बड़े घाव को भी भर देता है, सरिता ने अपनी सेवा और मधुर स्वभाव से सबका दिल जीत लिया.
प्रकाश ने सरिता को कई अच्छे डॉक्टरों को दिखाया. डॉक्टरों ने स्पष्ट कह दिया, "ये स्थिर ल्युकोडर्मा है. इसका ठीक होना बहुत मुश्किल है. हां, इसे बढ़ने से रोका जा सकता है.
ये‌ सत्तर के दशक की बात थी. उस समय मेडिकल साइंस उतनी उन्नति पर नहीं था. प्रकाश और सरिता ने ख़ुद को नियति के हवाले कर दिया. सरिता की दवा चलने लगी. सरिता को घर में सारे सुख उपलब्ध थे. मनचाहा पहनना, मनचाहा खाना, घूमना-फिरना. पर यही तो ज़िंदगी नहीं होती. जब तक पति-पत्नी में सामंजस्य न हो, तब तक सारे सुख व्यर्थ ही तो होते हैं. प्रकाश का निर्लिप्त भाव सरिता के सारे सुखों को जैसे अवसाद से धो डालता था और वहां बच जाता था केवल हृदयगत पीड़ा का अवशेष.
शादी के दूसरे दिन से ही प्रकाश ने न जाने कैसी चुप्पी साध ली कि लोग उसकी हंसी को भी तरस गए. ख़ुद को कोर्ट के काम में बेहद मसरूफ़ कर लिया प्रकाश ने. सरिता पति की उपेक्षा का विष पीने को मजबूर हो गई. रात के अंतरंग क्षणों में पति के आलिंगन में प्रेम की उष्मा नहीं, उपेक्षा का ठंडापन ही महसूस होता उसे. उसके मन के दर्द को समझनेवाला कोई नहीं था. प्रकाश उससे प्रेम भी कर्त्तव्य समझकर करता था. यही बात सरिता को भीतर तक छलनी कर जाती थी.
समय बीतता रहा. जब सरिता को पहली बेटी हुई, तो घर भर में ख़ुशी की लहर दौड़ गई. सरिता के पिता ने सोचा, अब तक दामाद का क्रोध ठंडा हो गया होगा, इसलिए बच्ची और सरिता के लिए ढेर सारा सामान अपने बड़े बेटे के हाथ भिजवा दिया, पर प्रकाश ने अपने साले को दरवाज़े से ही लौटा दिया.
सरिता भाई की एक झलक मात्र देख सकी. बिलख-बिलखकर रोई, पर प्रकाश नहीं पसीजा, उल्टे सरिता को बुरी तरह डांटते हुए कहा, "मैं सिद्धांतवादी व्यक्ति हूं. एक बार जो कह दिया, बस कह दिया. अगर मेरे साथ रहना है, तो अपने मायके को भूलना होगा." इस घटना के कुछ दिनों बाद सरिता को अपने पिता का पत्र मिला. ऐसा लगा मानो कोई उसके दिल को मुट्ठी में भींच रहा हो. पिता ने लिखा था- "हमारी परवाह मत करो बेटी, तुम ठीक से हो, यही हमारे लिए सबसे बड़ी बात है. पर कभी-कभी बचपन की वो नन्हीं सरिता याद आ ही जाती है, जो अपने बाबूजी के बिना एक पल नहीं रह पाती थी… खैर सुखी रहो. मैं ये दुआ करता हूं कि हम सबको भूलने में ईश्वर तुम्हारी मदद करे."

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वक़्त गुज़रता जा रहा था, पर प्रकाश का स्वभाव वैसा ही था. प्रेम, समर्पण, सेवा और धैर्य से उसने पति का दिल जीत लिया था. पर उस समय उसकी सारी जीत हार में बदल जाती, जब प्रकाश मायके जाने के नाम पर उसे बुरी तरह फटकार देता. सरिता का अन्तःकरण रो उठता.
प्रकाश की मां बेटे को समझाती, "जो हुआ, सो हुआ. इतनी अच्छी बहू तो हमें चिराग़ लेकर ढूंढ़ने से भी न मिलती. मां-पिता का मुंह देखने को कितना तड़पती है बेचारी… जाने दे इसे इसके मायके, सब भूल जा…"
"ठीक है जाए, पर उसके बाद मुझे अपने लिए मरा हुआ ही समझे." प्रकाश दो टूक फ़ैसला सुना देता.
इस बीच सरिता को एक बेटा भी हुआ. पर पुत्रमोह भी प्रकाश को अपने फ़ैसले से डिगा नहीं पाया. सरिता ने भी कुछ कहना ही छोड़ दिया. उसे लगा प्रकाश का दिल वो पत्थर है, जिससे टकराकर उसके मन की इच्छा हमेशा चकनाचूर होती रहेगी. इच्छा की चरम आर्द्रता, जो उसके रूदन के रूप में फूटती है, वो भी इस पाषाण
को पिघला नहीं सकती.
एक दिन सरिता को पिता की मृत्यु का टेलीग्राम मिला. पिता का चेहरा अंतिम समय में भी न देख पाने का दुख उसे भीतर ही भीतर जैसे खाए जा रहा था.
इस बार प्रकाश का दिल भी पिघल गया. उसने सोचा, सरिता वहां जाने को कहेगी ही… वो उसे जाने देगा. ख़ुद जाने के लिए कहने से उसके पुरुषत्व को, उसके अहं को ठेस लगती थी.
पर सरिता ने एक बार भी नहीं कहा. केवल भीगी पलकों से एक बार प्रकाश की ओर देखा, पता नहीं क्यों, पहली बार प्रकाश जैसे कठोर व्यक्ति का मन भी कांप उठा. वो पत्नी से नज़रें नहीं मिला पाया. पहली बार सरिता के हृदय में पति के लिए घृणा के अंकुर फूटे, पर नारी की यही तो विडम्बना है कि उसे अपनी घृणा को भी सहनशीलता के आंचल तले ढंककर रखना पड़ता है.
वो कई दिनों तक बेचैन रही. हर घड़ी बाबूजी का चेहरा ही आंखों के सामने आ जाता.
बचपन में उसे स्कूल पहुंचाते बाबूजी… टॉफी की दुकान पर ठिठकती बेटी की आंखों में लालच देखकर खिलखिलाकर हंसते, उसे चूमते बाबूजी… कन्यादान करते हुए बिलखते बाबूजी और विदाई के वक़्त माथे पर स्नेह स्पर्श धर रूंधे कंठ से आशीष देते बाबूजी. उफ़! काश एक बार उन्हें देख पाती. उसका मन वेदना से विकल हो उठता.
धीरे-धीरे सोलह वर्ष बीत गए, कभी-कभी सरिता सोचती, 'राम का वनवास भी चौदह वर्षों में टूट गया था. पता नहीं मेरा मिलन कब अपने स्नेहपात्रों से होगा?'
समय वो धारा है, जिसके मार्ग में कोई अवरोधक नहीं. निसर्गतः वह अपने अनवरत प्रवाह में सुख-दुख को समेटे बहते जाता है… अनंत की ओर.
सरिता की बेटी आभा पंद्रह वर्ष की हो गई थी और बेटा मन्नू दस वर्ष का था. सरिता बेटी को देखकर सोचती, 'अगर किसी कारणवश इसकी ससुरालवाले भी इसे यहां न आने दे तो? उसकी भीगी आंखों में एक साथ दो तस्वीरें तैर उठतीं, एक अपनी और एक अपनी मां की. उसका रोम-रोम कांप उठता. वो अचानक सामने खड़ी आभा को कलेजे से भींच लेती. आभा की आंखों में आश्चर्य कौंध उठता, "क्या हुआ मां?"
"कुछ भी तो नहीं." सरिता सहज होने की नाकाम कोशिश करती.
कुछ दिनों से प्रकाश की तबियत ख़राब रहने लगी थी. कभी बुखार, कभी उल्टियां. हाथ-पैर में थोड़ी सूजन सी रहने लगी थी. डॉक्टर ने कुछ टेस्ट करवाए और रिपोर्ट आने पर सरिता के सिर पर मानो वज्रपात सा हुआ. प्रकाश की दोनों किडनियां ख़राब थीं.
कुछ दिन उसे डायलिसिस पर रखा गया. बाद में डॉक्टर ने ने स्पष्ट कह दिया, "किडनी प्रत्यारोपण ही ज़िंदगी बचाने का एकमात्र उपाय है."
प्रकाश हमेशा की तरह अड़ गया, "में किसी दूसरे का जीवन ख़तरे में नहीं डाल सकता." घर के सब लोगों ने समझाने की कोशिश की, पर नाकाम रहे.
एक दिन प्रकाश ने भावुक होकर कहा, "सरिता, मैंने अपने जीवन में एक ही पाप किया है. शायद उसी पाप की सजा मिली है मुझे."
"पाप?"
"हां, मैंने तुम्हारा मायका छुड़वा दिया न."
"छोड़िए, पुरानी बातों को…"
"तुम… अगर चाहो तो… बच्चों को लेकर… मां से मिल आओ…" प्रकाश ने सकुचाते हुए कहा.
सरिता चौंक पड़ी. उसके होंठों पर एक विद्रूप सी मुस्कान कौंध उठी. उसने प्रतिप्रश्न किया, "आजीवन कारावास की अवधि पच्चीस वर्ष होती है न?"
"हां, पर क्यों?"

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"अगर क़ैद के चौबीस वर्ष गुज़र चुके व्यक्ति को ये कहकर रिहा कर दिया जाए कि तुम्हारा कोई दोष नहीं था. तुम आज़ाव हो… तो क्या उसे आज़ादी अच्छी लगेगी? बीते हुए स्वर्णिम वर्षों की याद और तड़प उसे भीतर तक दहला नहीं देगी? उसके लिए तो क़ैद ही बेहतर होगी…" सरिता की आंखें छलक उठी. प्रकाश लज्जित सा बैठा रहा. उसने फिर कुछ नहीं कहा. बहुत कष्ट भोगने के बाद एक सुबह नश्वर काया को त्याग कर उसकी आत्मा अनंत में विलीन हो गई.
प्रकाश की तेरहवीं के बाद सरिता के भाई ने उसे अपने साथ ले जाना चाहा. उसकी सास उसके सिर पर हाथ फेरती हुई बोली, "जा, चली जा बहू… रोकनेवाला… अपनी क़सम देनेवाला अब है कहां?"
"दीदी, स्टेशन आ गया." सहसा सरिता को भाई ने झकझोर दिया. वो जैसे नींद से जागी. प्लेटफार्म पर घर के सारे सदस्य खड़े थे. वो बेतहाशा दौड़ती हुई मां से लिपट गई. मां-बेटी के करुण-रूदन से सबकी आंखें नम हो गईं.
"बेटा, तुझे एक दिन विधवा के रूप में देखूंगी, ऐसा तो सपने में भी नहीं सोचा था." मां की आत्मा कराह उठी. वर्षों से दबी पड़ी वेदना सहस्त्रधाराओं में प्रवाहित हो उठी.
"यही सच है मां. हम दोनों ने सज़ा भोगी है. तुम्हारी सज़ा ये है कि तुमने मुझे विधवा के रूप में देखा और मेरी सज़ा ये थी कि मैं सुहागिन के रूप में तुम्हारे सामने आ नहीं सकती थी." सरिता रो पड़ी. "मेरी बच्ची… न जाने किस पाप की सज़ा पाई है तूने."
"सज़ा? सज़ा तो आज ख़त्म हो गई मां! मैं सज़ामुक्त हो गई… सज़ामुक्त." सरिता का रूदन सारी सीमाएं तोड़ गया. ठीक उसी तरह जिस तरह बाढ़ का पानी सारी हदें तोड़कर बह निकलता है और पीछे छोड़ जाता है अवसाद… सिर्फ़ अवसाद.

- डॉ. निरुपमा राय

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