उसे देख कुछ अचरज हुआ, वो चेहरा कुछ परिचित-सा लगा. कहां देखा है उसे? कुछ याद नहीं आ रहा, तभी मुझे उसमें अपने स्वप्नलोक की नायिका रश्मि की झलक-सी दिखाई दी. मैंने ख़ुद को संभाला. कहां वो तीखे नैन-नक्श, कोमल काया और कहां ये स्थूल देह? मगर चेहरा तो... कभी-कभी दो अलग-अलग व्यक्तियों के चेहरे में समानताएं भी तो हो सकती हैं.
आज ही महाबलेश्वर पहुंचा हूं. ताज रिसॉर्ट में अपने कमरे में पहुंच, पलंग पर पसरकर सुकून की सांसें ले रहा हूं. अमूमन, जो सुकून कुछ व्यक्तियों को किसी व्यावसायिक दौरे से थक-हारकर घर लौटने पर मिलता है, वही सुकून, वही राहत मैं घर से दूर किसी ऐसे ही होटल के कमरे में पाता हूं. तब ये कमरा मुझे नितांत निजी लगता है. ये कमरा मुझे एक ऐसा स्पेस देता है, जहां मैं स्वयं से संवाद कर सकूं. अपनी कल्पनाओं में विचर सकूं. अपने अतीत को जी सकूं. ऐसा करना मेरे लिए ज़रूरी है. शायद मैं स्वप्निल लोक में जीनेवाला इंसान हूं. एकांत और महाबलेश्वर जैसे मनोरम प्राकृतिक सौंदर्य का साथ मेरे लिए प्राणदायिनी ऑक्सीजन का काम करता है. यहां आकर मैं आनंदित होता हूं, ख़ुद को तरोताज़ा महसूस करता हूं. मैं तो आरंभ से ही सौंदर्य का पुजारी रहा हूं, चाहे वो प्राकृतिक हो या मानवीय.
पता नहीं क्यों? मगर यह सच है कि ऐसा आनंद मुझे मेरे घर पर नहीं मिलता. वह घर, जहां मेरी ब्याहता पत्नी रहती है, जिसके साथ फेरे लिए मुझे पूरे नौ साल हो चुके हैं. उसका नाम अर्पिता है.
कभी-कभी लगता है कि मुझे उसके प्रति पूर्णतया समर्पित होना चाहिए था. एक आदर्श भारतीय ब्याहता की छवि को पूर्णतया चरितार्थ करती वो घर और मेरे प्रति पूर्णतः समर्पित है. फिर भी न जाने क्यों? मुझे उस घर और रोज़-रोज़ की आपाधापी से दूर जाकर सुकून मिलता है.
मेरा यहां एक सप्ताह रुकने का प्रोग्राम है. काम है मगर कुछ ख़ास नहीं. बस, समझिए कंपनी की मेहरबानी है, जो रोज़ाना कुछ घंटों की ट्रेनिंग लेने का काम थमाकर इतनी ख़ूबसूरत जगह भेज दिया.
आज सुबह जल्दी आंख खुल गई, बाहर लॉन में बिछी हरी-हरी दूब और उगते सूरज की पहली किरणों का स्पर्श शरीर को बेहद सुखद लग रहा था. लॉन में एक सज्जन बैठे थे, शायद कुछ लिखने में तल्लीन थे, टहलता-टहलता मैं उनके पास से गुज़रा तो वह नज़र उठाकर मुझे देखने लगे और एक परिचित-सी मुस्कान बिखेरते हुए बोले, “हैलो.”
उन्होंने मुझे अपने साथ बैठने का निमंत्रण दिया. हमारे बीच औपचारिक परिचय हुआ. बातों-बातों में पता चला कि उनका नाम राकेश है और वे लेखक हैं. बाल-बच्चेदार हैं, मगर यहां अकेले ही आए हैं, शहरी कोलाहल और पारिवारिक व्यवधानों से दूर, एकांत में कुछ नया लिखने.
हम सुबह की चाय और रात का खाना साथ लेेने लगे. कहीं न कहीं वे मुझे मेरे प्रतिरूप से नज़र आते, मेरी ही तरह एकांत प्रिय, कल्पनाओं में विचरनेवाले. हम दोनों में अच्छी मित्रता हो गई. हर स्तर पर खुलकर विचार-विमर्श, वार्ताएं होने लगीं.
आज हम डिनर लेकर बाहर टहलने निकले. थोड़ा टहलकर एक ख़ूबसूरत व्यू पॉइंट पर बैठ गए.
“आजकल आप क्या लिख रहे हैं?” मैंने उनसे पूछा.
“एक रोमांटिक उपन्यास लिख रहा हूं. इसीलिए तो यहां आकर जमा हूं. इस अनुपम सौंदर्य के बीच, ठंडी हवा के झोंकों के स्पर्श से ही रोमांटिक अनुभूति हो सकती है और किसी प्रेम कहानी को जन्म दिया जा सकता है, वरना मुंबई की तेज़ ऱफ़्तार, मशीनी दिनचर्या और पारिवारिक जद्दोजेेहद के बीच रहकर तो बस, इंसान की मजबूरियों और उसकी दीन-हीन परिस्थितियों पर ही लिखा जा सकता है. ऐसे में तो प्रेम जैसा सुखद एहसास भी एक मजबूरी, एक रूटीन-सा लगने लगता है. सच कहूं तो लेखन एक बहाना है, मैं तो अपनी नीरस ज़िंदगी और बीवी-बच्चों की चिकचिक से भागकर यहां आता हूं, ताकि अपनी ज़िंदगी के कुछ पल ख़ुद के साथ बांट सकूं.”
उनकी बातें सुन मुझे सुखद आश्चर्य हुआ. कोई और भी है, जो मेरी तरह वास्तविकताओं से भाग कल्पनाओं में सौंदर्य तलाशता है. अब तो मुझे उन लेखक महाशय का साथ और भी सुखद लगने लगा. तभी उस व्यू पॉइंट पर एक किशोरवय प्रेमी युगल अठखेलियां करता हुआ आ पहुंचा. वो जोड़ा सबसे बेख़बर, हाथों में हाथ डाले, बेपरवाह-सा घूम रहा था, चुहलबाज़ियां कर रहा था. उनकी मीठी हंसी की आवाज़ें हम तक आने लगीं तो हमारी नज़रें उन्हीं पर टिक गईं.
“यही दोनों तो हैं मेरे उपन्यास के नायक -नायिका.” लेखक ख़ामोशी को तोड़ते हुए बोले.
“क्या आप इन्हें जानते हैं?”
“व्यक्तिगत रूप से तो नहीं, मगर हां... जानता ज़रूर हूं. ये हमारे ही रिसॉर्ट में रुके हैं, लड़की अपने परिवार के साथ आई हुई है और लड़का... शायद उसके पीछे-पीछे. लड़की के परिवारजन उसकी इस प्रेम कहानी से अनभिज्ञ हैं, क्योंकि उनकी उपस्थिति में दोनों अपरिचितों की तरह पेश आते हैं और एकांत पा एक-दूसरे में खो जाते हैं. उनकी प्रणयलीला में अपनी कल्पनाओं के कुछ रंग मिलाकर काग़ज़ पर उतार रहा हूं.”
बस, उसके बाद तो मेरी ऩज़रें भी उस प्रेमी युगल का परछाईं की तरह पीछा करने लगीं. उनका यह प्रेमालाप मुझे आनंदित करने लगा, स्पंदित करने लगा. मेरे सामने जीवंत करने लगा अतीत के उन मधुर पलों को, जब मैंने भी प्रेम की इस मीठी अनुभूति को बड़ी शिद्दत से महसूस किया था. अपने सपनों को किसी की चाहत के सच्चे रंगों से भरा था. रश्मि नाम था उसका. नाम लेते ही लगता है, जैसे प्रत्यक्ष सामने आ खड़ी हुई हो. तीखे नैन-नक्श, सुराहीदार गर्दन, सौंदर्य की साक्षात् मूरत. चूड़ियां खनखाती कनखियों से मुझे देख मुस्कुराहट बिखेरती षोडशी नवयौवना.
मेरी उम्र भी कुछ 18-19 साल की रही होगी उस व़क़्त. उस नाज़ुक उम्र में लगा पहला प्रेम बाण क्या निकल पाता है कभी कलेजे से? आज भी आंख बंदकर उस सुखद समय का एक-एक पल जी सकता हूं.
धीरे-धीरे उसके पीछे चलना और फिर पास से थोड़ा सटकर गुज़र जाना. कैसी मादकता, कैसे कंपन से भर जाता था मैं उसके आंचल या हाथ के छू जाने मात्र से ही. कितनी जीवंत है वो अनुभूति मेरे भीतर, जब मैंने पहली और आख़िरी बार उसका हाथ थामा था. कुछ व़क़्त के लिए जैसे मेरा समस्त अस्तित्व ही उस हाथ में समाहित हो गया था. आह! मेरे जीवन के कितने मधुरतम पल थे वो. ऐसा एहसास कभी अपनी पत्नी के पूर्ण समर्पण में भी नहीं पाया.
एक और सुबह, कुछ ख़ामोश-सी... मैं अपने लेखक दोस्त के साथ बैठा चाय पी रहा था. लेखक महोदय कुछ गुमसुम, खोए-खोए-से लगे.
“क्या बात है मित्र? कुछ परेशान नज़र आ रहे हो...” मैंने ख़ामोशी तोड़ी.
“लगता है मेरा उपन्यास इस प्रवास में पूरा नहीं हो पाएगा.”
“मगर क्यों?” मैंने उत्सुकता से पूछा.
“मेरी कल्पनाओं को छिन्न-भिन्न करने मेरी श्रीमतीजी आ रही हैं आज रात.” स्वर बेहद दुखी था. उनका लाचार चेहरा देख मैं मन ही मन हंस पड़ा.
“मन अभी से घबरा रहा है आनेवाले संकट की कल्पना कर.”
“ऐसा क्यों कह रहे हैं? यहां आकर आपने कोई अपराध तो किया नहीं और फिर वो आपकी पत्नी है, कोई जेलर नहीं.”
“यहां आना तो नहीं, मगर उसे बिना बताए आना अवश्य जघन्य अपराध की श्रेणी में आता है और ऐसे अपराध होने पर वो ऐसी जेलर हो जाती है, जिसकी डिक्शनरी में क्षमा नाम का शब्द नहीं होता.”
“बिना बताए, मगर क्यों?” उनके इस दुस्साहस पर मैं भी स्तब्ध रह गया.
“तो क्या करूं? लिखना छोड़ दूं? अगर बताकर आता तो क्या वो मुझे अकेले आने देती, मेरे साथ बच्चों को लेकर वो भी टंग लेती और फिर वही सब क्लेश, मुझे ये दिलाओ... मुझे ये खिलाओ... मुझे यहां घुमाओ... मुझे वहां ले चलो... उसकी बातों में कोई रोमांस नहीं होता. कभी बच्चों की तो कभी रिश्तेदारों की, कभी उसकी सहेलियों की और उनके पतियों की बातें होती रहती हैं और मैं मूक श्रोता की भांति बस सुनता रहता हूं. घर पर कितनी बार कोशिश की थी, इस उपन्यास का शुभारंभ करने की, मगर हर बार असफल रहा. जब कभी अपनी कहानी के रंग खोजने रोमांटिक कल्पनाओं के इंद्रधनुष पर सवार होता तो एक कर्कश आवाज़ कल्पनाओं को बेंध देती... ‘अजी, सुनते हो... दूध ख़त्म हो गया, ज़रा ले आओ’, ‘पप्पू की स्कूल बस नहीं आई, ज़रा उसे छोड़ आओ’, कभी कल्पना किया करता था कि जीवन में एक ऐसी संगिनी आएगी, जो सुबह-सुबह इठलाती-बलखाती घर में घुसेगी और अपनी पायल की मीठी रुनझुन से कानों में अमृत-सा घोल देगी. जब रात होगी तो तारों को अपने आंचल में समेटे मेरी राह देखेगी और मेरे रोम-रोम को अपने मादक प्रेम के स्पर्श से सराबोर कर देगी, मगर ऐसे हसीं सपने यथार्थ में परिवर्तित होते हैं कभी? तभी तो भागकर आया था यहां, पर मेरा दुर्भाग्य, जाने कहां से पता चल गया उसे.”
लेखक महाशय की व्यथा सुन उन पर थोड़ा तरस आया. मैं भगवान को धन्यवाद करता हूं कि शुक्र है, मेरी पत्नी ऐसी नहीं. मुझे बाहर जाने के लिए कभी उससे झूठ बोलने या अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं पड़ी. मुझ पर अथाह विश्वास है उसे. उसका यही विश्वास तो यहां एकांत में मेरे सुकून को और बढ़ाता है.
आज यहां मेरे कार्य का अंतिम दिन है, लेकिन सोच रहा हूं कि दो दिन और रुक जाऊं. आज तो अकेले ही डिनर करना पड़ेगा, लेखक महाशय की श्रीमतीजी जो आ पहुंची होंगी. इस व़क़्त तो उनकी जमकर क्लास हो रही होगी.
मैं अकेले बैठा डिनर करने लगा, मगर मस्तिष्क लेखक महाशय की ओर ही लगा हुआ था. मन में एक तीव्र उत्कंठा उभर रही थी उनका हालचाल जानने की, साथ ही उनकी श्रीमतीजी को नज़र भर देखने की. सोच रहा था आख़िर वो क्या बला है, जिसने लेखक महाशय को भागने पर मजबूर किया होगा?
डिनर ख़त्म होने पर मेरे क़दम उनके कमरे की ओर चल पड़े. कमरे के आसपास चहलक़दमी करने लगा. कान और आंखें कमरे की खुली खिड़की पर जम गए. भीतर से रोष और प्रताड़ना भरे कर्कश स्वर आ रहे थे. लग रहा था लेखक महाशय किसी तूफ़ान की चपेटे में हैं.
खिड़की से दूर एक छवि भी नज़र आ रही थी. एक आम-सी गृहिणी की छवि, थुलथुल काया, भरी ग्रीवा, मध्यम क़द, बिखरे बालों को बेतरतीबी से इकट्ठाकर कसकर बांधा गया जूड़ा, लापरवाही से लपेटी गई साड़ी. वो छवि खिड़की के थोड़ा निकट आ रही थी. भरा-भरा-सा चेहरा... कुछ स्पष्ट होता जा रहा था.
उसे देख कुछ अचरज हुआ, वो चेहरा कुछ परिचित-सा लगा. कहां देखा है उसे? कुछ याद नहीं आ रहा, तभी मुझे उसमें अपने स्वप्नलोक की नायिका रश्मि की झलक-सी दिखाई दी. मैंने ख़ुद को संभाला. कहां वो तीखे नैन-नक्श, कोमल काया और कहां ये स्थूल देह? मगर चेहरा तो... कभी-कभी दो अलग-अलग व्यक्तियों के चेहरे में समानताएं भी तो हो सकती हैं.
“चुप करो रश्मि, बहुत हुआ. तुम्हारे इसी व्यवहार के कारण मैं तुमसे भागता फिरता हूं...” मैं ख़ुद को समझाने का प्रयास कर ही रहा था कि लेखक महाशय के मुंह से निकले इस नाम ने मुझ पर जैसे वज्रपात कर दिया. मैं अवाक् लगभग निष्प्राण-सा हो गया.
ये रश्मि कैसे हो सकती है? वो अतुलनीय रूप की धरोहर... वो अंग-प्रत्यंग से अदाएं बिखेरती मेरी प्रेयसी, जिसका संग पाने की ललक आज भी मेरा पीछा नहीं छोड़ती, जिसके सामने अपनी पत्नी के अथाह प्रेम को भी तुच्छ समझा मैंने. वो प्रेम की देवी रश्मि... इस रूप में.
मेरे मस्तिष्क में लेखक महाशय की करुण व्यथा गूंजने लगी, जिसके साथ मैं कल्पनाओं के आकाश पर उन्मुक्त हो विचरता था. यथार्थ में उसके पतिदेव उससे पीछा छुड़ा भाग रहे हैं. ये कैसी विडम्बना है? सोलह साल पुराने प्रेम की परिणति हुई भी तो किस रूप में?
एक बड़ी प्रचलित उक्ति है, सभी पुरुष एक जैसे होते हैं, तो क्या सभी स्त्रियां भी एक-सी होती हैं? अपने यौवनकाल में अप्रतिम सौंदर्य और मादक अदाओं से युक्त रति देवी, पर जब समय और गृहस्थी की ज़िम्मेदारियां परत-दर-परत चढ़ती हैं, तो उनका स्थूल रूप भी बदल जाता है. वो प्रेयसी से पत्नी, फिर एक मां बनती हैं, कभी परिचायिका बन सेवा करती हैं, कभी आंसू बहा-बहाकर सैलाब ले आती हैं और कभी अपने अधिकारों का हनन होता देख शेरनी की तरह चिंघाड़ती हैं. ठीक वैसे ही जैसे रश्मि इस व़क़्त चिंघाड़ रही है.
मैंने यह कैसे सोचा कि सोलह साल पहले की वो सुंदरी, आज भी अपनी उसी छवि को सहेज रही होगी. मुझे भी तो कितना बदल दिया है इस समयांतराल ने.
मैं अपने कमरे में चला आया. किस मानसिक स्थिति में हूं, इसकी इससे ज़्यादा व्याख्या नहीं कर सकता. अपनी समस्त कल्पनाओं को वहीं बाहर एक कोने में दफ़न कर आया हूं. इस व़क़्त अपना सामान पैक कर रहा हूं. पहली बार बाहरी दौरे पर अपनी पत्नी को मिस कर रहा हूं. उसकी याद आ रही है. उसी के पास जा रहा हूं और हां, मैंने कल्पनाओं में जीना छोड़ दिया है. पहली बार कल्पना से अधिक यथार्थ अच्छा लग रहा है मुझे.
दीप्ति मित्तल
अधिक कहानी/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां पर क्लिक करें – SHORT STORIES