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कहानी- छुट्टी (Short Story- Chhuttee)

बच्चों के इंकार से जानकी आपे से बाहर हो गईं. चिढ़कर बोली, "मैं कब तक घर का बोझ इस तरह उठाती रहूंगी. मेरा भी मन करता है कि कभी फ़ुर्सत में मायके जाकर या जेठानी के घर जाकर दो घड़ी रहूं. उनसे सुख-दुख साझा करूं. नौकरीपेशा बहुएं लाकर मैंने बहुत भारी ग़लती की…"

सुबह पांच बजे टेलीफोन की घंटी बजी और उस मनहूस ख़बर को सुन ग़मगीन हो गई. उन्होंने अपने दोनों बेटों को बेड टी देते हुए उदास स्वर में कहा, "बुद्धो ताई गुज़र गई हैं, सुबह-सुबह चंदर का फोन आया था. आज ही शाम चार बजे जाना है." दोनों लड़के सन्न रह गए.
बड़े ने सोफे पर पसरते हुए लंबा सा घूंट भरकर चाय की प्याली टेबल पर रख दी. अपने पिता की अचानक हार्ट अटैक में हुई मौत के बाद घर के मुखिया के पद के लिए अपनी विधवा मां जानकी से उसे ही शक्ति संघर्ष करना पड़ता था. छोटा भाई उससे सात साल छोटा था और उसका विवाह अभी-अभी हुआ था, इसलिए अपनी बहू के चाव-लगाव में ही मस्त रहता था.
छोटे ने उत्सुकता जताई, "कैसे हुई मौत? कोई बीमारी तो नहीं थी ताई जी को." जानकी दीवान पर बैठते हुए बोली, "चन्दर ने बताया कि नेचुरल डेथ हुई है. चन्दर के डैडी सुबह-सुबह चार बजे उठ जाते हैं, मंदिर जाने के लिए. आज भी जल्दी उठे, तो उन्होंने देखा कि ताई चुपचाप सोई हुई हैं, जबकि ताई को लम्बे-लम्बे खरटि लेकर सोने की आदत थी. चन्दर के डैडी का माथा ठनका, उन्होंने फटाफट ताई को हिलाया-डुलाया, नब्ज़ देखी. लेकिन सब कुछ शांत था. ताई पता नहीं रात के किस पहर में गुज़र गई होंगी. भगवान ऐसी आराम की मौत क़िस्मतवालों को ही देता है."
बड़े बेटे को हरेक चीज़ में कुछ नुक्स हमेशा नज़र आता था. कुछ तो उसकी पैदाइशी आदत ही ऐसी थी और कुछ अपने पेशे के कारण अब वह ज़्यादा शक्की स्वभाव का होता जा रहा था. वह ऑडिट विभाग में था, उसका पूरा दिन यही काम था- बिलों, फाइलों तथा रिकॉर्ड पर आपत्तियां लगाना. इसीलिए घरवाले ससुरालवाले, पड़ोसी तथा मित्र या रिश्तेवार उसे शक्की समझने लगे थे तथा उससे कम ही उलझते थे.

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बड़े ने अपने पुराने परिचित लहजे में कहा, "ऐसा कैसे हो सकता है?" वह हर आदमी को हरेक बात में बार-बार इसी प्रश्न में उलझाता था, जिससे अगला आदमी झुंझलाहट तथा अजीब सी उकताहट से भर जाता था.
बड़े ने इस बार भी पहली आपत्ति उठाई, "ऐसा कैसे हो सकता है. नेचुरल डेथ की वजह या तो ब्रेन हेमरेज हो सकती है या हार्ट अटैक…" उसने अपनी बात अभी और ज़ारी रखनी थी, मगर बीच में व्यवधान पड़ गया. छोटे के हाथ से चाय का कप छूट कर फ़र्श पर जा गिरा. थोड़ी सी बची हुई चाय बिखर गई थी. कारपेट के गंदे होने का तीनों को बेहद अफ़सोस हो रहा था.
ये तीनों का सामान्य रूटीन था. जानकी सुबह पांच-सवा पांच बजे उठ जाती थी. पहले बेड टी, फिर वह अख़बार पढ़ने बैठ जाती थी. बहुएं देर से सोती थीं, इसलिए वे थोड़ा लेट उठती थीं. जानकी तथा उसके दोनों बेटे उठकर घर, बिरादरी तथा समाज पर अच्छी-खासी बहस करते थे. छोटा अक्सर चाय पीकर पुनः सो जाता था. बड़े और जानकी में ख़ूब तकरार होती थी.
बड़े ने घोषणा की, "अम्मा, मैं आधी छु‌ट्टी लेकर दफ़्तर से ही शव यात्रा में शरीक हो जाऊंगा. फिर कियाकर्म पर आप हो आना." मगर जानकी तो किसी और ही सोच में थी. बोलीं, "नहीं बेटे, बुद्धो ताई की शोक सभा पर सारी बिरादरी इक‌ट्ठी होगी. मेरा सारा ससुराल परिवार वहां पहुंचेगा. लोकल मौत है, आसपास चर्चा होती है. ख़ुशी में बेशक न पहुंचो, मगर ग़म में न जाओ, तो थू-थू होती है. मैं न जाऊं, तो मेरे भाई-भाभी क्या सोचेगे."
छोटा अपनी चाय में लीन था. कुछ तो घरवाले भी उसे ख़ास अहमियत नहीं देते थे और कुछ उसका रुख भी बेफिक्री का रहता था कि टालते रहो जब तक टलता है. बड़े ने दूसरा पैंतरा बदला. छोटे पर तो उसका पूरा जादू चलता था. अम्मा भले उसकी बहुत सी बातें काटते रहती थी.

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बड़े ने दहाड़ मारी, "तू छुट्‌टी लेने पंकज, दोपहर बाद अम्मा को मोटरसाइकिल पर शक्ति नगर छोड़ आना."
छोटे ने तपाक से रक्षात्मक स्वर में कहा, "आज तो छुट्टी नहीं ले सकता, क्योंकि ऑफिस में स्टॉक की पड़ताल हो रही है. आज सात तारीख़ जो है." और वह उठकर अपने कमरे में जाकर चादर ओढ़कर पुनः सो गया.
तब तक बहुओं के उठने का समय हो गया था. वे भी ड्रॉइंगरूम में हाज़िर हुईं. वे दोनों दफ़्तर जाती थीं और दोनों ही छुट्टी लेने को तैयार न हुई. दोनों अपने-अपने बॉस की सख्ती का रोना लेकर बैठ गईं. अतः सारी ज़िम्मेदारी बड़े बेटे तथा अम्मा पर छोड़ दी गई कि वे चाहे जैसे करें, जाएं, न जाएं उनकी बला से.
पोते-पोतियां दो बजे स्कूल से आ जाते थे. सफ़ाई-पोछे वाली तथा बर्तन-कपड़े वाली बाइयां अपना-अपना काम निपटाकर बारह बजे ही चली जाती थीं. दोनों बहुएं तो सुबह सात बजे से पहले-पहले दफ़्तर के लिए चली जाती थीं और बेटे भी. बच्चों की पूरी देखभाल करना, उन्हें समय पर खाना खिलाना, सुलाना, होमवर्क करवाना आदि ये सब जानकी का जिम्मा था. फिर शाम के खाने के लिए मंडी से जाकर सब्ज़ी लाना, सौदा, पैसा, ख़र्च सब कुछ जानकी के हाथों में था. बहुओं की डयूटी तो बस सुबह-शाम खाना बनाना ही थी.
अब आज उसे बुद्धो ताई के गुज़र जाने का उतना अफ़सोस नहीं हो रहा था, जितना इस बात का दुख था कि घर-गृहस्थी के मामले में वह बुरी तरह फंस चुकी है- दलदल में फंसी गाय की तरह. बच्चों के इन्कार से जानकी आपे से बाहर हो गईं. चिढ़कर बोली, "मैं कब तक घर का बोझ इस तरह उठाती रहूंगी. मेरा भी मन करता है कि कभी फ़ुर्सत में मायके जाकर या जेठानी के घर जाकर दो घड़ी रहूं. उनसे सुख-दुख साझा करूं. नौकरीपेशा बहुएं लाकर मैंने बहुत भारी ग़लती की. पहले अपने बच्चों का गू-मूत साफ़ किया, अब उनके लाड़लों का करना पड़ रहा है.

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आख़िर तुम सब मुझे ग़म-ख़ुशी के मौक़ों पर जाने से क्यों रोकते हो. सिर्फ़ अपने स्वार्थ के लिए ही ना, इसलिए न कि तुम्हारे बच्चों को ताज़ा खाना मिले, घर की रखवाली होती रहे. कभी मैं भी टें बोल गई, तो मेरा मुर्दा संभालने के लिए मजदूर लाने पड़ेंगे. कोई नहीं आएगा तुम्हारे दरवाज़े पर. सारी उम्र तुम्हारे लिए मर-खप कर क्या मिला मुझे. तुम लोग मेरे लिए एक दिन की छु‌ट्टी तक नहीं ले सकते. तुम्हें शर्म भी नहीं है. तुम्हारे पापा की सगी ताई है, जिनकी मौत हुई है."
जानकी ने सारा गुबार निकाल दिया. सभी के चेहरे खिंच गए. शोर-शराबा सुनकर छोटा बेटा भी अपने कमरे से निकल आया, फिर स्थिति को देखते हुए वह अपने विनोद स्वभाव में बोला "अम्मा, ऐसा करते हैं हम चारों अपने-अपने नाम की पर्ची डालते हैं. जिसकी पर्ची निकलेगी, छु‌ट्टी उसे ही करनी होगी." एक कुटिल मुस्कान सबके चेहरे पर दौड़ गई.

- जसविंदर शर्मा

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