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कहानी- एक टेबल दो कप कॉफी (Short Story- Ek Table Do Cup Coffee)

विनीता राहुरीकर

“ऐसी बात नहीं है अनुराग, लेकिन मुझे पसंद होने से क्या होता है. मैं ही किसी को पसंद नहीं आती.” रागिनी की आंखें नम हो गईं.
“लेकिन मैं तो कह रहा हूं कि मुझे तुम पसंद हो.” अनुराग ने कहा.
“पर मेरी सच्चाई जानने के बाद शायद तुम भी मुझे पसंद न करो.” रागिनी हिचकते हुए बोली.

नवंबर के अंतिम सप्ताह की सर्द दोपहरी थी. रात से ही हल्की बूंदा-बांदी ने ठंड को और बढ़ा दिया था और समूचे नैनीताल को कोहरे की घनी परत से ढंक लिया था. कल तक जो हरी-भरी पहाड़ियां बड़ी शान से सिर ऊंचा किए आसमान को चुनौती देती हुई खड़ी थीं, आज कोहरे की चादर में सकुची-सिमटी दुबक गई थीं कि कहीं उनके अस्तित्व की एक झलक तक देखने को नहीं मिल रही थी.
घंटे भर तक आसपास पैदल घूमकर एक कॉफी शॉप में बैठा अनुराग शीशे की दीवार के उस पार नैनीताल शहर और चारों तरफ़ फैली पहाड़ियों को देखने की कोशिश कर रहा था, लेकिन सिवाय स़फेद धुंध के कुछ भी नज़र नहीं आ रहा था. दस-बारह फीट के बाद बस धुंध ही धुंध थी. यहां तक कि आसमान में सूरज की चमक तक नहीं थी.
गरम कॉफी के मग को दोनों हथेलियों में थाम कर उसने कॉफी का एक लंबा घूंट पिया. स्वेटर, उस पर मोटा जैकेट… तब भी पसलियों में लगातार ठंड का कंपकंपाता एहसास हो ही रहा था. गर्म कॉफी कुछ पलों के लिए राहत देती, फिर जैसे वह भी कोहरे में ठिठुर कर ठंडी पड़ जाती.
अनुराग पहाड़ों पर हमेशा गर्मी के मौसम में ही आया था. इस बार उसका मन किया सर्दियों में पहाड़ घूमने का. उसने एक कॉफी का ऑर्डर और दिया. सामने कच्ची पगडंडी से होकर लोग आ-जा रहे थे, जो अचानक ही धुंध में से निकलते और धुंध में ही मिल जाते.
शाम के चार बजे वह गले के चारों तरफ़ मफलर को अच्छे से लपेटकर कॉफी शॉप से बाहर आ गया. धुंध अब लगातार बढ़ती जा रही थी और ठंड भी. वह समय पर होटल पहुंच जाना चाहता था.
पिछले चार-पांच दिनों में उसे आसपास की पहाड़ी पगडंडियों का थोड़ा-बहुत अंदाज़ा हो गया था. उसी अंदाज़े पर वह धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था, क्योंकि हवा तेज़ हो गई थी और उसकी आंखों में भी चुभ रही थी. ज़रा सा दूर तक ही गया था कि अचानक पैर जैसे किसी गड्ढे में चला गया और इससे पहले कि वह लड़खड़ा कर गिर जाता, किसी ने हाथ पकड़कर उसे थाम लिया.
“संभलकर, ये पहाड़ी पगडंडियां बारिश से बहुत फिसलन भरी हो जाती हैं. अभी बीस फिट नीचे जा गिरते.”

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हाथ पर कोमल स्पर्श के साथ ही मधुर कंठ ध्वनि ने उसे गिरने से बचाकर गड्ढे से दूर खींच लिया. रजनीगंधा और गुलाब के फूलों की मिली-जुली गंध अनुराग की सांसों में समा गई.
“अभी मौसम ख़राब है. अच्छा यही होगा कि आप चार बजे से पहले ही अपने होटल वापस लौट जाया करिए.” उसका हाथ थामे वह उसके पीछे चल रही थी.
अनुराग उसका चेहरा नहीं देख पा रहा था, लेकिन आवाज़ से वह लड़की सी ही लग रही थी.
“अरे, आपने कैसे जाना कि मुझे होटल जाना है, घर नहीं?”
“क्योंकि यहां के स्थानीय निवासी पगडंडी पर पहाड़ की तरफ़ सटकर चलते हैं, इस तरह बीच में नहीं कि गिर पड़ें.” वह हंसती हुई बोली.
“पहाड़ी से सटकर ही चलते जाइएगा, बस कुछ ही दूर पक्की-चौड़ी सड़क मिल जाएगी.”
इससे पहले कि अनुराग पलटकर उसे देख पाता, वह उसका हाथ छोड़कर एक दुकान में चली गई. यह एक फ्लोरिस्ट शॉप थी, जहां चारों तरफ़ फूल ही फूल और फूलों के ख़ूबसूरत बुके रखे हुए थे. वह काउंटर पर खड़े लड़के से कुछ बात कर रही थी. उसकी पीठ ही दिखाई दे रही थी. कमर तक चोटी में बंधे बाल, सलवार-सूट पर कार्डिगन ऊपर से गले में गर्म स्टोल लपेटा हुआ. कुछ क्षण कांच के दरवाज़े पर खड़े रहने के बाद अनुराग वहां से आगे बढ़ गया. पहाड़ी से सटकर पगडंडी पार की और पक्की सड़क पर आ गया.
होटल पहुंचकर उसने हीटर चालू किया और कंबल में घुस गया. बड़ी देर बाद जाकर हाथ-पैर गर्म हुए. टीवी देखते हुए उसे जाने क्यों फिर वही लड़की याद आ गई, जिसने उसे गड्ढे में गिरने से बचाया था. जाने कौन थी, कैसी थी… लेकिन रजनीगंधा और गुलाबों की ख़ुशबू जैसे अभी तक सांसों को महका रही थी. हाथ पर एक कोमल स्पर्श अब तक बसा हुआ था और ख़्यालों में एक अनदेखा चेहरा.


रात खाना उसने कमरे में ही मंगवा लिया. ढेर सारे लोगों के बीच बैठकर अकेले खाना खाने से अच्छा है कमरे में अकेले ही खाया जाए. डायनिंग हॉल में सबको परिवार के साथ या हनीमून कपल्स को एक-दूसरे में डूबे हुए खाना खाते देखकर भीतर का अकेलापन दूना हो जाता है. टेबल के सामने वाली खाली कुर्सी को देख जीवन का खालीपन डसने लगता है.
पिता बचपन में ही चल बसे थे. मां ने चार भाई-बहनों को बड़े संघर्ष से पाल-पोस कर बड़ा किया था. बड़ी दो बहनों का ब्याह हो गया और बड़ा भाई पत्नी-बच्चों के साथ विदेश में बस गया. मां अक्सर बीमार रहने लगी थी. तन की बजाय बच्चों के स्वार्थपूर्ण व्यवहार से मन अधिक ही टूट गया था. सबसे छोटा अनुराग मां की व्यथा को समझता था. रात-दिन मां की सेवा में उसने ख़ुद को भुला दिया. न किसी से शादी की, न प्यार किया. मां को और दुख नहीं देना चाहता था वो. जब भी मां शादी की बात करती, वो टाल जाता. एक तो ज़िम्मेदारी भरी नौकरी, उस पर मां की देखभाल, वक़्त ही कहां मिला अपने बारे में सोचने का. जब दो साल हुए मां चल बसी, तब तक वह 38 का हो चुका था.
जान-पहचान में सभी लड़कियां एक-दो बच्चों की मां बन चुकी थीं.
हर छह महीनों में छुट्टी लेकर अनुराग आसपास के पहाड़ी इलाकों में घूमता रहता. कभी गढ़मुक्तेश्‍वर, रानीखेत, मसूरी, शिमला और इस बार नैनीताल. छह-आठ दिनों तक नए-नए लोग और जगहों को देखकर अपना अकेलापन भुलाने की कोशिश करता. लेकिन अब घर का, जीवन का, अपना खालीपन चुभने लगा था. तरसता रहता मन किसी के साथ को.
जाने क्यों दूसरे दिन अनुराग फिर उसी कॉफ़ी शॉप में जा बैठा. टेबल पर बैठ कॉफी पीते हुए एकाएक ही मन में ख़्याल आया, ‘काश उसके सामने वाली कुर्सी पर भी कोई बैठा होता.’ टेबल पर रखा कॉफी का कप भी उसके जैसा ही एकाकी है. उसके लिए भी कोई साथी होता. कॉफी पीकर वह कल वाली पगडंडी पर ही चलने लगा.
आज कोहरा काफ़ी कम था, इसलिए पगडंडी आराम से दिख रही थी. थोड़ी दूरी पर ही शीशे की बनी फ्लोरिस्ट शॉप दिखाई दी. सामने से निकलते हुए उसने देखा एक लड़की बुके उठाकर शेल्फ पर तरतीब से रख रही थी. देखने से तो कल वाली ही लग रही थी. लेकिन चेहरा नहीं देखा होने से कुछ पता नहीं चल रहा था. पर पीछे मुड़ती तो वही लगती. जाने क्या सोचकर अनुराग भीतर चला गया. उसकी सांसें फूलों की ख़ुशबू से भर गईं. दरवाज़े की आहट से उसने मुड़कर पीछे देखा और मुस्कुराते हुए पूछा, “जी कहिए, क्या चाहिए आपको?”
आवाज़ पहचान गया अनुराग. यही थी वो. उसने नज़र भर देखा उसे. गोरा रंग, गालों की गुलाबी रंगत, पहाड़ों की निर्मल सुंदरता के सांचे में ढले नैन-नक्श. उम्र 30 के ऊपर की, लेकिन चेहरे पर लड़कीपने की झलक अब भी थी. लड़की से नज़र हटाकर वो शेल्फ में सजे फूलों को देखने लगा.

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“ये क्लियोम, ये कॉस्मॉस, ये लैसिनियेटा, ये बुरांश, चेरी के फूल…” वह बताती जा रही थी. अनुराग एक नज़र उसे देखता, एक नज़र फूलों को. इतने सारे फूलों के बीच निश्छल मुस्कुराहट के साथ वह ख़ुद एक प्यारा सा फूल लग रही थी.
अनुराग की सांसों में अचानक गुलाब और रजनीगंधा महक गए.
“मुझे रजनीगंधा और गुलाबी गुलाब चाहिए.” उसके मुंह से निकल गया.
“कितने फूल लगेंगे, बंच चाहिए या बुके.” उसने पूछा.
“जी, कल किसी ने मुझे गड्ढे में गिरने से बचाया था, उन्हीं को थैंक्स कहना चाहता हूं. आप ही बताइए बुके ठीक रहेगा या बंच?” अनुराग ने उसकी आंखों में देखते हुए पूछा.
“जी?” हैरत से उसकी आंखें फैल गईं. फिर हंसते हुए बोली, “अच्छा तो वह आप थे.”
फूलों की वादियों में वह हंसी अनुराग को किसी बहते हुए झरने सी लगी.
“आज फिर गिरने का इरादा है क्या?”
“अगर आप फिर बचाने को आ जाएं, तो हां…” अनुराग ने कहा.
आंखें नीची किए वह शरमा गई. अनुराग  शॉप के बारे में बातें करने लगा. औपचारिक बातों के बाद अनुराग ने सच में ही रजनीगंधा और गुलाबों का एक बंच बनवाकर उसे ही गिफ्ट किया.
फिर तो रोज़ ही अनुराग उसकी शॉप पर आने लगा. दोनों कभी आसपास की पहाड़ी पर घूमते, कभी किसी कॉफी शॉप में बैठ कॉफी पीते. उसका नाम रागिनी था. नाम के ही अनुरूप उसे संगीत का बहुत शौक था. पिताजी ने उसे संगीत की शिक्षा दिलवाई थी और वह बहुत अच्छा सितार बजाती थी.
अनुराग ने अपनी छुट्टी दस दिन और बढ़ा ली. रागिनी का साथ उसे बहुत अच्छा लगता. जिस साथ की उसे तलाश थी, उसे लगता कि रागिनी वही थी. कितनी सहज, कितनी सरल तब भी जीवन से भरपूर. नैनीताल की वादियों में जैसे उसकी निश्छल हंसी के झरने बहते रहते. तब भी आचरण में बहुत संस्कारी थी. रिश्तों को, जीवन को कितनी गहराई से समझती थी.
एक ही बात अनुराग को खटकती थी कि इतनी सुंदर और संस्कारी होने के बाद भी अब तक रागिनी की शादी क्यों नहीं हुई. वह कुंवारी क्यों है. फिर ख़ुद ही सोचता कि अच्छा है, वह शायद अनुराग के लिए ही अब तक कुंवारी है. अब उसे अकेले कॉफी पीना अखरने लगा था. दोनों के बीच अच्छी दोस्ती हो गई थी.
आख़िर एक दिन जब दोनों कुहरे से भरे दिन में कॉफी शॉप में बैठे थे, तब बहुत संजीदगी से अनुराग ने उसे अपने मन की इच्छा बताई. रागिनी का चेहरा अचानक ही सफ़ेद पड़ गया. वह स्तब्ध सी रह गई. हमेशा हंसी से खिला हुआ उसका मुख आहत सा लगने लगा.


“क्या तुम्हें मैं पसंद नहीं हूं. नहीं हूं, तो कोई बात नहीं.” उसका गंभीर मुख देखकर अनुराग को लगा शायद उसने कुछ ग़लत बात कह दी है.
“ऐसी बात नहीं है अनुराग, लेकिन मुझे पसंद होने से क्या होता है. मैं ही किसी को पसंद नहीं आती.” रागिनी की आंखें नम हो गईं.
“लेकिन मैं तो कह रहा हूं कि मुझे तुम पसंद हो.” अनुराग ने कहा.
“पर मेरी सच्चाई जानने के बाद शायद तुम भी मुझे पसंद न करो.” रागिनी हिचकते हुए बोली.
“कैसी सच्चाई?” अनुराग ने पूछा.
“अनुराग आज से आठ साल पहले मुझे ब्रेस्ट कैंसर हो गया था. समय पर पता चल जाने से मेरी जान तो बच गई, लेकिन उस कैंसर को हटाने के लिए मेरे शरीर का एक हिस्सा काट कर अलग करना पड़ा था. अब मैं अधूरी स्त्री हूं. कोई भी पुरुष ऐसी पत्नी नहीं चाहता. तुमसे दोस्ती हुई, बहुत अच्छा समय बीता तुम्हारे साथ. ये दिन हमेशा याद रहेंगे. चलती हूं.” एक फीकी सी मुस्कान के साथ रागिनी उठकर वहां से चली गई.
दूसरे दिन अनुराग फिर फ्लोरिस्ट शॉप पर था. रागिनी ने आश्‍चर्य से उसे देखा. शायद उसे उम्मीद नहीं थी कि वह फिर आएगा, या शायद अलविदा कहने आया है. अनुराग ने देखा कि रागिनी का चेहरा आज बहुत मुरझाया हुआ है.
“जी मुझे कुछ फूल चाहिए.” अनुराग ने कहा.
“जी किस तरह के फूल चाहिए, बुके या बंच?” रागिनी ने पूछा.
“एक लड़की को शादी के लिए प्रपोज़ करना है. आप ही बताइए कि बंच ठीक रहेगा या बुके?” अनुराग ने शरारत से मुस्कुराते हुए कहा.
“जी?” रागिनी को मानो अपने कानों पर विश्‍वास नहीं हुआ.
“अरे पगली, मैं तुम्हारे मन की सुंदरता से प्यार करता हूं. और मुझे तो तुम्हारे शरीर में भी कोई कमी नहीं लगती. जो लड़की कैंसर को हरा सकती है, वो जीवन की हर कठिनाई में मेरा दृढ़ता से साथ देगी. मुझे ऐसा ही मज़बूत साथी चाहिए.” अनुराग ने रागिनी का हाथ थामते हुए कहा.
रागिनी की आंखों से ख़ुशी के आंसू बहने लगे. अनुराग ने एक लाल गुलाब उठाया और रागिनी को देते हुए कहा, “कॉफी टेबल पर मैं भी अकेला हूं और मेरा कप भी. क्या तुम मेरे कप के अकेलेपन को दूर करोगी, जीवनभर एक कप कॉफी मेरे साथ पीकर?”


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गुलाब को हाथ में लेकर रागिनी उसके अजीब से प्रपोज़ल पर मुस्कुराकर अनुराग के सीने से आ लगी.
“आज चल कर तुम्हारे माता-पिता से बात कर लेंगे. सच बहुत अधूरा था तुम्हारे बिना. तुम्हारा साथ पाकर मैं पूरा हो गया.” कॉफी शॉप में अनुराग ने रागिनी का हाथ थामते हुए कहा.
रागिनी के चेहरे पर वही प्यारी सी मुस्कान खिल उठी. कोहरा दूर हो रहा था. सुनहरी धूप की किरणों में उसका रंग दमक रहा था. कॉफी टेबल पर कॉफी के दो कप भी साथ पाकर जैसे मुस्कुरा रहे थे.

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