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कहानी- बस्ती में देवदूत (Short Story- Basti Mein Devdoot)

मीनू त्रिपाठी

वह किताबों की ओर लपका और फिर उन्हें सीने से लगा लिया एकदम वैसे जैसे सलोनी लगाती है. वह प्यार से एक-एक किताब को यूं सहलाने लगा जैसे सलोनी सहलाती है. बाबू के चेहरे पर राहत के भाव थे, जबकि अम्मा सलोनी को खा जाने वाली नज़रों से घूर रही थीं.

चटाई पर तरह-तरह की कॉपी-किताबें फैली थीं और सलोनी उन किताबों में खोई हुई थी.
किताबों में छपे अक्षरों को देखकर वह एक घिसे हुए पेन से उसकी आकृति उकेरती, तो लगता कोई चींटी स्याही में डुबकी लगाकर पन्ने पर चली हो. किताबों को पढ़ना उसे नहीं आता है, फिर भी उसमें छपे शब्दों की बुनावट करने में उसे ख़ूब मज़ा आता है.
देर तक किताबों में खोए रहने के बाद सलोनी की नज़र अपने घर की छोटी सी खिड़की पर पड़ी, तो चौंक उठी. दोपहर का सूरज खिड़की के बीचोंबीच आने को ही था. यह समय तो अम्मा के काम से वापस आने का है, प्रचंड धूप में चलकर वह आती ही होंगी. आते ही वह खाना खाएंगी और पड़कर सो जाएंगी. पर खाना अभी तक नहीं बना है, तिस पर चटाई पर फैली किताबें जो अम्मा ने देख लीं, तो उसकी अच्छी ख़बर ली जाएगी.
“दो-तीन किलो की रद्दी से चार पैसे आते, किताबें घूरने से तुम विद्वान न हो जाओगी. इतना ही पढ़ने का शौक था, तो किसी अमीर के घर जन्म लेती.” कुछ ऐसी ही चुभने वाली अतार्किक बातें ही वह कहेंगी.
उन्हें कुछ कहने का मौक़ा मिले, उससे पहले ही उसने फटाफट सारी किताबें समेटी और चारपाई के नीचे रखी उस फटी अटैची में डाल दी, जिसे बाबू कबाड़ में लाए थे.
बाबू जब भी कबाड़ लाते हैं, वह भंगार वाले के पास जाने से पहले ठेला खोली में ही ले आते हैं.


अम्मा ठेले से काम की चीज़ें बीन लेती हैं डिब्बा, कनस्तर, टूटे-फूटे बर्तन… पर उसका मन तो रद्दी में आई किताबों और कापियों में अटक कर रह जाता है. चित्रों वाली, गैर चित्रों वाली मोटी-पतली कैसी भी पुस्तक हाथ में लेने को मचल उठती है.
चित्रों वाली किताबें वह घंटों निहार सकती है. अक्षर ज्ञान न होने के बावजूद वह उसे घंटों उलट-पलट कर देखती है.
क्या लिखा होगा? यह वह बराबर सोचती  है, पर किसी से पूछ नहीं पाती, क्योंकि अम्मा-बाबा की क्या कहें, उसकी पूरी बस्ती का पढ़ाई-लिखाई से कोई नाता नहीं है. बड़े-बच्चे किसी ने भी काले आखर नहीं बांचे हैं.
बच्चे भी बच्चे बस नौ-दस साल तक ही रहते हैं. जहां थोड़ी क़द-काठी पुख्ता हुई, बस बड़े करार दे दिए जाते हैं और निकल पड़ते हैं काम पर. उसके भी काम पर जाने के दिन आने ही वाले हैं, बस तभी तक वह किताबों के साथ समय व्यतीत कर सकती है.
एक दिन उसे कबाड़ में कुछ पेन मिल गए. लगभग सभी स्याही रहित थे, पर एक-दो में कुछ रोशनाई थी, सो घिसने पर चल पड़े. पेन को आज़माने के लिए उसने रद्दी से कापियां भी उठानी आरंभ कर दीं. अब वह कापियों के बचे-खुचे सादे पन्नों की खोज में रहती है, ताकि उनमें अक्षरों की ऊटपटांग आकृतियां बना सके.
बाबू उसे कापी-किताबों में उलझा देखकर प्रसन्न हो अम्मा से कहते हैं, “ज़रा देखो तो अपनी सलोनी को कापी-किताबों से घिरी एकदम लाट साहब लग रही है.”

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बाबू के उत्साह पर अम्मा घड़ों पानी यह कहकर डाल देती हैं, “लाट साहब की साहबी धरी रह जाएगी, जब कोई काम न देगा. ढंग से न झाड़ू-फटका होगा, न साफ़-सफ़ाई. कम्मो की बिटिया जब से उसके साथ काम पर जाने लगी है, तब से उनके घर दूध-साग सब आने लगा है. दो नावों पर पैर धरना सही न है.”
बाबू अम्मा की बात सुनकर चुप्पी साध लेते और वह भी कापी-किताबें समेटकर चुपचाप घर के कामों में जुट जाती, पर अम्मा के आंखों से ओझल होते ही फिर से किताबें उसे बुला लेती हैं.
बाबू कबाड़ लाते, तो वह रद्दी में से फिर कुछ नया खोज लेती. कोई और किताब और उसमें छपी बोलती आकृतियां.
पर इन दिनों तो अम्मा उसकी किताबों की जानी दुश्मन बनी हुई हैं. हुआ यूं कि उस रोज़ जब वह काम से वापस आईं, तो उनके हाथों में एक बड़ा सा पैकेट और होंठों पर मुस्कुराहट थी.
पैकेट से दूध की थैली और सब्ज़ियां निकालते हुए वह प्रसन्नता से बोली थीं, “आज मालकिन छुट्टी पर गांव गई हैं. ये देख, कितनी सारी सब्ज़ियां और दूध दे दिया. कह रही थीं सब ख़राब हो जाएगा, तो तुम ले जाओ.”
“अरे वाह फिर तो दावत होगी. आज बढ़िया सी तरकारी और मीठे में खीर बनाओ.” बाबू बोले, तो अम्मा ने झट से खीर के लिए एक मुट्ठी चावल भिगोकर दूध चूल्हे पर चढ़ा दिया.
उस वक़्त वह किताबों में खोई थी. वह सुन ही नहीं पाई कि अम्मा बोल गई हैं, “इसे चम्मच से लगातार चलाती रहना. मैं बगल वाली काकी के यहां जा रही हूं. ज़रा देर में आती हूं.”
अम्मा वाकई ज़रा देर में आईं, पर उस ज़रा देर में ही पतीले का दूध उबल-उबल कर बाहर आ गया था. चावल के बर्तन की तली में लगा रंग बदल रहा था. क्रोधित अम्मा तो उसकी किताबें उसी वक़्त चूल्हे में ही झोंक देतीं, पर बाबू ने यह कहकर हाथ पकड़ लिया कि रद्दी में गईं, तो एक थैली दूध आ ही जाएगा.
तब से अम्मा और उसकी किताबों में ठनी है. अम्मा को उसका किताब प्रेम तनिक न भाता.
बाबू बेचारे तो अम्मा के ही कहे पर चलने वाले जीव. जब तक उसकी अब तक की बटोरी सारी की सारी किताबें भंगार वाले के पास नहीं ले गए, उन्हें चैन से बैठने नहीं दिया.
कुछ दिनों तक अम्मा उस पर नज़र रखे रहीं कि वह किताब ठेले से न उठा पाए, पर एक दिन अम्मा की नज़र बचाकर कुछ किताबें उठा ली गईं. बाबू ने देखकर अनदेखा किया हो, उसमें कोई बड़ी बात नहीं है. बस, आजकल उन्हीं किताबों से वह मन बहलाती है.
विचारों के भंवर में उलझी सलोनी अनमने मन से रोटी बनाने में जुट गई. अम्मा को नाराज़ होने का मौक़ा वह देना नहीं चाहती. जाने कब रौद्र रूप धारण कर लें और उसकी बांह पकड़ कर अपने साथ काम के लिए ठरठरा ले चलें.
वैसे ही आजकल अम्मा को उसे साथ ले जाने की धुन चढ़ी है. कहती हैं वो साथ गई तो मदद हो जाएगी. एक और घर काम के लिए पकड़ सकती है. चार पैसे बढ़ जाएंगे, तो अपनी खोली (घर) ख़रीदने का सपना पूरा हो जाएगा. खोली का मालिक रोज़ किराया बढ़ाने की बात करता है.


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अपनी खोली के लिए अम्मा के साथ काम पर तो जाना ही पड़ेगा. बाबू के कबाड़ वाला काम भी ज़्यादा अच्छा नहीं चल रहा है. लोहा-लक्कड़ कम ही निकलता है, प्लास्टिक का बोलबाला है, जिसमें बहुत ही कम पैसा है. रद्दी भी पहले सी नहीं निकलती. किताबें तो कभी कभार ही. किताबों से उसे याद आया कि वह अम्मा के साथ काम पर जाने लगी, तो किताबों को कब देखेगी.
उधेड़बुन में डूबी सलोनी सहसा चौंकी, बाहर कोई दरवाज़ा खड़का रहा था. शायद अम्मा आई हों, सोचकर वह दरवाज़े की ओर बढ़ी कि तभी बाबू की आवाज़ आई, “सलोनी, ए सलोनी…”
बाबू के आवाज़ लगाते-लगाते ही उसने कुंडी खोल दी. देखा तो बाबू सिर पकड़े कह रहे थे, “बड़ी धूप है बाबा. तबियत भी कुछ सही नहीं है. दो किलोमीटर भटक आया, तब जाकर एक घर से कबाड़ मिला. जल्दी से पानी पिला.” कहते हुए बाबू चारपाई पर लेट गए.
सलोनी की नज़र दरवाज़े से होती हुई ठेले पर जा पड़ी, तो मन हुलस उठा. अख़बारों के साथ एक बंडल में कुछ किताबें रखी थीं.
उसने कौतूहल से भरकर बंडल देखा. वाह! कितनी रंग-बिरंगी सुंदर किताबें जिनके मुख्य पृष्ठ पर नन्हें बच्चे बने थे.
उसने चुपके से किताबें उलट-पलट कर देखीं. आम, औरत, ऐनक, इमली, गन्ना जाने क्या-क्या बना था.
दूसरी किताब में बिल्ली, गेंद, कुत्ता, घोड़ा, मछली बनी थी और तीसरी को देखकर उसने सिर खुजाया. अजीब-अजीब से निशान और चौथी-पांचवीं वह खोलती उससे पहले ही बाबू की आवाज़ आई, “ए सलोनी, कुछ खाने को दे, तो भंगार वाले के यहां दे आऊं.” वह चेती और झटपट पूरा का पूरा बंडल उठा लिया.
बाबू आंखें मूंदें लेटे थे, इसलिए वह जान ही नहीं पाए कि उसने पूरा बंडल चारपाई के नीचे सरका दिया है.
रोटी खाकर जब बाबू चले गए, तब अम्मा आईं और वह भी खाना खाकर बेसुध लेट गईं.
शाम को चार बजे जब वह फिर से काम पर निकलीं, तो सलोनी ने फुर्ती से किताबें निकालीं. रंग-बिरंगी, “अहा! कितनी सुंदर किताबें.” उसका मन प्रफुल्लित हो गया.
एक मोटी सी किताब उसने खोली, तो देखा, उसके पहले पन्ने पर एक तस्वीर चिपकी हुई थी. सचमुच की रंगीन तस्वीर, जिसमें दो गोलमटोल बच्चे के साथ उनके  माता-पिता. किताब में रंगीन तस्वीर क्यों लगाई है, वह सोच ही रही थी कि दरवाज़ा खड़का.
उसने फुर्ती से किताबें चारपाई के नीचे धकेल दीं. दरवाज़ा खोला, तो देखा एक भद्रजन खड़ा था. उसके साथ था पड़ोस की खोली में रहने बालक संजू.
“ये अंकल तुम्हारे बाबू के बारे में पूछ रहे थे.” संजू ने भद्रजन की ओर इशारा किया, तो सलोनी ने ध्यान से उन्हें देखा. कपड़ों से वह रईस लगते थे, उम्र बाबू जितनी या शायद उनसे ज़्यादा थी.
“जी कहिए?” सलोनी ने कुछ विस्मय से पूछा.
“तुम्हारे घर से कबाड़ कौन ले जाता है.”
“हमारे बाबू, पर वो इस समय…” आधी बात ही मुंह से निकली कि देखा सामने से बाबू चले आ रहे हैं और साथ में अम्मा.
“क्या हुआ सलोनी?” बाबू ने पूछा, तो वह आदमी उन्हें देख उत्तेजना में चिल्ला पड़ा, “अरे, तुम्हीं तो आए थे न आज कबाड़ लेने.”
“जी, क क क्यों क्या हुआ?” बाबू  अटपटाए और अम्मा आशंकाग्रस्त नज़र से उस आदमी को ताकने लगीं, जो बेसब्र होकर पूछ रहा था,
“आज जो हमारे घर से कबाड़ ले गए थे, वो कहां है?”
“भंगार वाले के पास साहब.” बाबू विस्मय से बोले.
“चलो जल्दी ले चलो मुझे वहां.”
“पर क्यों? क्या कबाड़ में कुछ क़ीमती सामान निकल गया.”
“हां, बहुत क़ीमती.” वह आदमी उतावले पन से बोला.
“मैं ले तो चलूं, पर भूसे में सुई ढूंढ़ने जैसा होगा. उसके पास मेरे जैसे बहुत लोग कबाड़ देते हैं. अब तो सबका कबाड़ अलग-अलग थैलों में बंद हो गया होगा.”
“अरे, तुम चलो तो भाई, रद्दी में किताबें दिख जाएंगी. इतना मुश्किल नहीं होगा ढू़ंढना.”


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“रद्दी किताबें!” सलोनी के बाबू अचकचाए और अम्मा ने सिर पकड़ लिया, पर उस आदमी के चेहरे पर अफ़सोस के भाव तिर आए थे.
“दरअसल, आज रद्दी में ग़लती से मेरे बच्चों की किताबें चली गई हैं. उनकी नर्सरी और पहली कक्षा की किताबें आज तक संभालकर रखी थीं. पत्नी बहुत दुखी हो रही हैं, कह रही हैं कहीं से भी ढूंढ़कर लाओ.”
सलोनी की अम्मा और बाबूजी मुंह बाए सुन रहे थे और वह अपनी व्यथा कह रहा था.
“बच्चे अब बड़े ओहदों पर हैं, पर हम उनके छुटपन की यादों को संजोए हैं. कभी कभार देखकर मन तृप्त कर लेते हैं. उनके स्कूल की पहली वर्दी, किताबें अब तक संभालकर रखी थीं, पर आज गड़बड़ हो गई. घर की सफ़ाई में उनके बचपन की धरोहर कब रद्दी में आ मिली और बेध्यानी में कब कबाड़ में निकल गई, जान ही नहीं पाए.”
सलोनी के बाबू माथे को रगड़ते हुए बेवजह के सिर आ पड़ी मुसीबत से छुटकारा कैसे पाए सोच ही रहे थे कि तभी सलोनी की आवाज़ आई, “अंकलजी, ये किताबें तो नहीं हैं?”
“अरे, हां यही तो हैं.”
वह किताबों की ओर लपका और फिर उन्हें सीने से लगा लिया एकदम वैसे जैसे सलोनी लगाती है. वह प्यार से एक-एक किताब को यूं सहलाने लगा जैसे सलोनी सहलाती है. बाबू के चेहरे पर राहत के भाव थे, जबकि अम्मा सलोनी को खा जाने वाली नज़रों से घूर रही थीं.
उस आदमी ने तत्परता से जेब में हाथ डालकर सौ रुपए का कड़क नोट निकाला और सलोनी के बाबू की ओर बढ़ाया, तो वह हिचकिचाए.
“साहब इसके हक़दार हम नहीं हमारी बिटिया है. इसे आदत है ठेले से कापी-किताबें उठाने की.”
“बेटी हम तुमको नई किताबें दिलवा देंगे.” वह आदमी बोला, तो सलोनी की अम्मा बोली, “क्या कीजिएगा नई किताबें देकर. इसके लिए काला अक्षर भैंस बराबर है. इसके लिए ही क्या, हमारी पूरी बस्ती में कोई पढ़ना-लिखना नहीं जानता है.”
“फिर इसने ये किताबें क्यों लीं!”
“शौक है साहब. पर ये बावली यह नहीं जानती कि किताबें छूने से ज्ञान नहीं आता. पढ़ने के लिए गुरु भी चाहिए.”
“ओह!” उस आदमी ने कुछ सोचा और फिर नोट सलोनी की ओर बढ़ा दिया.
“बिटिया तुम ही ले लो, मिठाई खा लेना.”
पर ये क्या सलोनी ने मुंह बनाया और भीतर चली गई.
भद्रजन धन्यवाद देकर जा चुके थे. अम्मा ने भी सलोनी को कुछ नहीं कहा. शायद सौ रुपए पा जाने की उन्हें ख़ुशी रही होगी.
पर सलोनी उदास थी. रातभर आंखों के सामने वह रंग-बिरंगी किताबें नाचती रहीं.
सुबह-सुबह दरवाज़ा फिर खड़का और  खुला. सलोनी कल शाम वाले अंकल को देख हैरान थी. आज तो उनके साथ एक आंटी भी थीं.


“मेरी पत्नी अभिलाषा.” सबको कौतुक से ताकते देख उन्होंने पत्नी का परिचय करवाया.
“क्या हुआ साहेब.” आशंका से भरकर सलोनी के बाबूजी ने पूछा, तो आंटी अंकल की तरफ़ इशारा करके बोलीं, “ये बता रहे थे कि आपकी बिटिया को पढ़ने का बहुत शौक है.”
सलोनी के अम्मा बाबूजी असमंजस में भरकर एक-दूसरे को देखने लगे, तो अंकल बोले, “हम दोनों कुछ दिनों पहले तक काम करते थे. अब रिटायर् हो गए हैं. कई दिनों से सोच रहे थे कि कुछ ऐसा करें, जिसमें हमें संतोष मिले और समाज का भला हो.”
प्रतियुत्तर में सलोनी के अम्मा-बाबूजी मौन ही रहे, तो आंटी बोली, “समाज से अब तक बहुत लिया है. अब लौटाना चाहते हैं.” अभिलाषाजी की बातें सुनकर उनके चेहरे पर उलझन की रेखाएं गहराईं, तो वह हंसकर बोलीं, “क्या हम बस्ती के बच्चों को पढ़ाने के लिए आ सकते हैं.”
“अम्मा हमें पढ़ने नहीं देंगी.” सलोनी तपाक से बोली, तो उसकी अम्मा उसे आंखों ही आंखों में घुड़की देते हुए कहने लगीं, “मेम साहेब बहुत नेक विचार हैं. हम जैसों के लिए सपना है बच्चों को पढ़ाना.”
“पर अम्मा तुम तो…”
“हां चिढ़ती थी, जब किताबों को तुम बस घूरा करती थी. तू क्या जाने मन कैसा-कैसा होता था. तेरी हाथ में किताबें देखकर…”
“तो फिर ग़ुस्सा क्यों होती थीं.”
“ग़ुस्सा तुझ पर नहीं, ख़ुुद पर आता था, क्योंकि जानती थी कि चाहकर भी पढ़ा न पाऊंगी… पर जब सामने से देवदूत आए हैं तुझे पढ़ना-लिखना सिखाने तो फिर किस बात की शिकायत.”
अम्मा की आंखों से आंसू ढुलकते उससे पहले ही सलोनी उनसे लिपटकर रो पड़ी.
“ये लो ख़ुशी के मौ़के पर भी इन्हें रोना आता है. साहब आप लोगों का उपकार. हमारी मदद की दरकार हो, तो कहिए.” बाबू हाथ जोड़ कर बोले, तो अभिलाषाजी हंसकर कहने लगीं, “बच्चों की शत प्रतिशत उपस्थिति सुनिश्‍चित कीजिएगा बाकी हम संभाल लेंगे.”
सुबकते सलोनी के सिर पर हाथ फेरकर वह यह भी बोले, “बेटी शायद तुम्हें और हमें मक़सद देने के लिए मेरे बच्चों की किताबें तुम्हारे पास आईं.”
उत्तेजना से कांपते हुए सलोनी के बाबू के मुंह से निकला, “ईश्‍वर हमारे साथ इस बस्ती के बच्चों को भी एक मौक़ा दे रहा है. हमें इसे जाया नहीं करना है.”
“आप इसे पढ़ाएंगे, तो ये ख़ूब मन लगाकर पढ़ेगी. है न सलोनी…” अम्मा भी  बोलीं, तो सलोनी ने मुस्कुराकर हां में गर्दन हिला दी और दौड़ गई अपने साथियों को बताने कि बस्ती में देवदूत आए हैं.

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