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कहानी- रिश्तेदार (Short Story- Rishtedar)

कोई भी यह पत्र पढ़ता ती ताऊजी की विशाल हृदयता से गद‌गद हो जाता, मगर रंजन के मन में शंकाओं के सर्प फन उठाने लगे, आख़िर ताऊजी के मन में इतनी उदारता उपजी क्यों? मैने दस-पंद्रह हज़ार रुपए ब्याज पर मांगे तो 'खाने के लाले' पड़ रहे थे. अब स्वयं की फैक्टरी लगाने के लिए दस-बारह लाख कहां से आ गए?

अतुल से चर्चा कर रंजन बाहर आया. अभी सड़क पार कर ही रहा था कि अचानक उसे कुछ याद आया, उसका खुलासा करने के लिए वह वापस अतुल के बंगले की ओर मुडा. अतुल उसके रिश्ते के भाईजी (ताऊजी) का पुत्र था. हमउम्र होने के कारण रंजन उससे सलाह-मशवरा कर लिया करता.
साइकिल बाहर खड़ी कर अतुल को बुलाने के लिए उसने ज्यों ही घंटी की ओर हाथ बढ़ाया, भाईजी की तीखी आवाज़ सुन चौंक पड़ा. भाईजी अतुल से कटु अंदाज़ में कुछ पूछ रहे थे. उन्होंने अत्यंत घृणापूर्वक रंजन का नाम लिया, "आजकल ये रंजन क्यों आता है बार-बार?"
"ऐसे ही, उसे बैंक से लोन लेना था…"
"तुमसे तो नहीं मांगे कुछ रुपए-पैसे?"
"नहीं, अभी तो…"
"दे मत देना." भाईजी ने उसे बात भी पूरी नहीं करने दी और तेज आवाज़ में अपना निर्णयात्मक आदेश सुना दिया, "वापस मिलने मुश्किल हो जाएंगे."
रंजन ने सुना तो स्तब्ध रह गया. उसे काटो तो खून नहीं. अतुल ने अपने पिता की बात का क्या जवाब दिया, रंजन ने वह तो नहीं सुना, मगर अपने रिश्तेदार के मुख से अपने प्रति कटु शब्दों को सुन उसका मस्तिष्क सन्न सा रह गया. तो यह सम्मान है उसका अपने इन क़रीबी रिश्तेदारों की नज़रों में! यही मूल्यांकन है उसकी हैसियत, उसकी परिस्थिति और सच पूछो तो उसकी नीयत का…
उसके लिए वहां एक पल ठहरना भी दुश्वार हो गया. वो तत्क्षण पलटा और तीर की तरह बाहर निकल गया.
साइकिल चलाते हुए उसके नथुनों से गरमागरम लपटें निकल रही थी. सारा शरीर अपमान की ज्वाला से विदग्ध हो तप रहा था. उसका मन जल रहा था, मस्तिष्क जल रहा था, रोम-रोम सुलग रहा था. उसे यूं अनुभव हो रहा था मानो उसका सारा रक्त अपमान की दावाग्नि से तप्त हो शिराओं में खदबदा रहा है. यह सच है कि उसकी आर्थिक अवस्था इन दिनों अचानक बिगड़ गई है. मगर नीयत..? क्या नीयत भी दुर्दिन के थपेड़ों से ऐसी बेगै़रत हो गई है कि रिश्तेदारी से पैसा उधार लेगा तो वापस ही नहीं करेगा?
उसे अपने आपसे ग्लानि होने लगी. आख़िर भाईजी के मन में ऐसी कुशंका उठी क्यों? वह सामान्य वर्ग का है इसलिए? वह उनकी समकक्ष हैसियत का नहीं है, इसलिए? क्या ग़रीब रिश्तेदार अपने अमीर रिश्तेदारों के पास महज़ इसीलिए आते हैं- उनसे पैसा मांगने, उनका मुंह जोहने? उनसे मीठी-मीठी बातें कर उनकी जेब काटने? आज यदि कोई पराया अमीर व्यक्ति बार-बार आता अतुल के पास, उससे सलाह-मशवरा करता, क्या तब भी यही शंका पालते भाईजी? उसे भी टेढ़ी नज़रों से देखते? तब तो उसे प्रेम से बैठाकर चाय-नाश्ता, भोजन सब करवाते.
घर पहुंचने तक रंजन बुरी तरह हांफने लगा. साइकिल आंगन में खड़ी की और कमरे में आ धम्म से कुर्सी में धंस गया. उसे यूं लस्त-पस्त हालत में देख श्रुति घबरा गई. पंखा तेज़ कर वह पल्लू से उसका पसीना पोंछने लगी, "क्या हो गया? तबीयत तो ठीक है न?"
"हां."
"फिर ऐसे लस्त-पस्त क्यों हो? क्या बात है?"
जवाब देने के बदले वह आंखें मींच लंबी-लंबी सांसें लेने लगा.
श्रुति ने उसे नैपकिन देते हुए कहा, "आप पसीना सुखाइए. तब तक मैं शिकंजी बना कर लाती हूं."
रंजन आंखें मूंदें पड़ा रहा. तीन-चार मिनट में श्रुति शिकंजी बनाकर ले आई. कुर्सी के हत्थे पर बैठ उसने ग्लास रंजन के होंठों से लगा दिया, "पहले आप पी लीजिए, फिर आराम से बतलाइएगा."
उसके हाथों से ग्लास ले रंजन घुट-घूंट पीने लगा. श्रुति उसके बालों में उंगलिया फिराने लगी. रंजन के शिकंजी पी लेने के बाद उसने उसका मुंह अपनी ओर किया, "हां, अब बताइए क्या हुआ? आप तो अतुलजी के घर गए थे ना?"
"हां."
"हुआ नहीं बैंक का काम?"
"वो बात नहीं."
"फिर?"
"श्रुति!" रंजन का गला भर आया. उसने भरे गले से सब कह सुनाया. सुनकर श्रुति को भी भारी धक्का लगा. कुछ क्षणों के मौन के बाद उसने पति के हृदय पर मलहम लगाना चाहा, "खैर छोड़ो, मत ध्यान दो उनकी बातों पर."
"अरे! कैसे ध्यान न दूं? 'एक तरह से ये बेइज्जती नहीं है मेरी? मैंने तो कभी इशारे में भी रुपए नहीं मांगे थे अतुल से, फिर भाईजी ने ऐसा कैसे सोच लिया?"
"शायद अंकल जी के कारण."
अंकलजी! रंजन के सगे ताऊजी, उसके पिताजी के सगे बड़े भाईसाहब लगभग महीना भर पूर्व रंजन उनके शहर गया था. रिश्तेदारों में यह बात फैल गई थी कि रंजन जिस कपड़ा मील में नौकरी करता था, वह बंद हो गई है. पुनः प्रारंभ होने के कोई आसार नहीं. नई नौकरी के लिए तीन-चार जगह हाथ-पांव मार, अब वह अपने शहर लौट स्वयं का कोई छोटा-मोटा व्यवसाय आरंभ करना चाहता है. इन दिनों पूंजी का जुगाड़ करने की फिराक में है. उसे यूं बिना चिट्ठी-पत्री के यकायक आया देख ताईजी फौरन ताड़ गई. रंजन जब तक रिक्शा से सामान उतारता, उन्होंने ताऊजी को इशारा कर दिया. दोनों की आंखों ही आंखों में मंत्रणा हो गई, दोनों अख़बार फैला उसमें खो गए.
तब तक रंजन बरामदे में आ गया था. उसने कुछ सकुचाते हुए बैठक का परदा हटाया. दोनों ने चौंककर इस तरह देखा जैसे रंजन को अभी पहली बार देख रहे हों. रंजन ने आदरपूर्वक दोनों के चरण स्पर्श किए. कृत्रिम मुस्कान बिखेर दोनों उसे आशीष दे औपचारिक बातें पूछने लगे. रंजन विनम्रतापूर्वक उनके जवाब देता गया. इस दरमियान नौकर चाय-बिस्किट रख गया था. चाय के बाद ताईजी ने सस्नेह उसकी पीठ थपथपाई, "सफ़र में धक गए होगे. ऊपर नहा-धो लो, तब तक मैं रसोई की तैयारी करती हूं."


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नौकर के संग रंजन ऊपर आया. कमरे के एकांत में वह ताऊ-ताईजी के व्यवहार का विश्लेषण करने लगा. यद्यपि दोनों बोले प्यार-मोहब्बत से थे, मगर उनके व्यवहार में झीना सा शुष्क आवरण था. अपने हाव-भावों से उन्होंने स्पष्ट चेता दिया था कि बातों की घानी चाहे जितनी चला लो, इन तिलों से तेल निकलनेवाला नहीं.
वह मन-ही-मन पछताने लगा, व्यर्थ आया इतनी दूर. यहां आने के पूर्व उसके पिताजी ने बारंबार समझाया था, "देखो बेटे, किराए-भाड़े के चार-पांच सौ रुपए बिगाड़ने का कोई मतलब नहीं, मेरे भैया तुम्हारे वास्ते कुछ करनेवाले नहीं. उन्होंने कभी अपने मां-बाप को नहीं पूछा…" मगर रंजन ज़िद पर अड़ा रहा, "एक बार कोशिश करने में हर्ज ही क्या है?" मां ने भी समर्थन किया. बड़े प्रेम से उन्होंने ताऊ-ताईजी के लिए अचार, बड़ी, पापड़ बनाए, कुछ अन्य चीज़ें भी बनाई. मां के हाथ की बनी ये सारी चीज़ें ताऊ-ताईजी को बेहद पसंद आती थीं, मगर समस्त प्रलोभन निष्फल गए.
उसका दिल डूबने लगा. इस तंगी की हालत में इस यात्रा पर हुए ख़र्च ने उसे परेशान कर दिया.
तैयार होकर यह नीचे आया. ताऊजी टी.वी. देखने में व्यस्त थे. उन्होंने रंजन को भी अपने पास बैठा लिया. एक न्यूज चैनल लगा वे रंजन के साथ देश-विदेश की स्थिति पर चर्चा करने लगे. रंजन को इन सबमें रत्तीभर रुचि नहीं थी. उसका मन तो अपनी स्थिति में ही उलझा हुआ था. यह तो वह स्पष्ट रूप से समझ चुका था कि ताऊनी उसके लिए कुछ करनेवाले नहीं, फिर भी जब आ ही गया है, तो उसने 'विज्ञापन ब्रेक' के दरम्यान चर्चा छेड़ वी, "ताऊजी, मैं जिस फैक्टरी में नौकरी करता था, वह बंद हो गयी है." "अरे! कब?" ताऊजी ऐसे चौके जैसे उन्हें अभी पहली बार मालूम पड़ा.
"जी, पांच-छः महीने हो गए."
"क्यों?"
"मैनेजमेंट का कहना है उसके पास पैसा नहीं है फैक्टरी चलाने के लिए."
"अरे, तो बैंक से ले ले. 'बैंकों के पास बहुत स्कीमें हैं आजकल लोन देने के लिए." ताऊजी ने इतनी सहजता से सलाह उछाली जैसे लोन लेना रास्ते से कंकड़ उठाना हो.
थूक गटक रंजन ने मरी हुई-सी आवाज में कहा, "बैंक का कहना है, वह पहले ही काफी कर्जा दे चुका है फैक्टरी को. और नहीं दे सकता."
"ओह!" ताऊजी ने संवेदना से सिर हिलाया. कुछ क्षण गहरी सोच का अभिनय करते हुए उन्होंने अपने सलाहों के पिटारे से अगला रत्न निकाला, "मेरा खयाल है, फैक्टरी की लेबर यूनियन को खुत बैंक के पास जाना चाहिए. मैनेजमेंट फैक्टरी चलाने में असमर्थ है तो यूनियन खुद चला लेगी. यू नो, फॉरेन कंट्रीज में आजकल…"
फॉरेन रिटर्न ताऊजी अपनी नफीस विलायती अंग्रेजी में अपने अनुभवों का खजाना उस पर उडेलने लगे. हालात से मजबूर रंजन लाचारगी से उनकी बातें झेलता गया, उसके लिए इन अनुभवों और विदेशों में हो रहे सफल प्रयोगों का कोई अर्थ नहीं था. उसकी समस्या का निदान तो रुपयों में था और ताऊजी बस उसी की चर्चा नहीं करने दे रहे थे.
आखिर बेज़ार हो उसने (किंचित् बेशर्मी से) अपने मतलब की बात छेड़ वी, "मैं तो अब यही सोच रहा हूं ताऊजी, नौकरी में तो इस तरह की झंझटें आ ही जाती है इसलिए अब अपना स्वतः का कोई कारोबार आरंभ कर दूं."
"आपकी क्या सम्मति है? ठीक सोचा न मैंने?"
"अं?… अब मैं क्या बोलूं? मैंने तो जिंदगीभर नीकरी की है.."
तभी दरवाज़े की आड़ में खड़ी ताईजी झट से बैठक में आ गई. "भोजन तैयार है. टीवी बाद में देख लेना, पहले जीम लो."
ताऊजी तुरंत उठ खड़े हुए. मजबूरन रंजन भी उठा. डायनिंग टेबल तक जाते हुए ताईजी ने बतला दिया कि भोजन करते समय आजकल वे मौन रखते ही हैं. एक स्वामी जी के पास जाते हैं न उन्हीं की प्रेरणा से….!
रंजन के लिए यह स्पष्ट इशारा था, चुप रहने के लिए, वह अंदर-ही-अंदर कुढ़ गया. बड़ी मुश्किल से तो मुद्दे का सूत्र पकड़ पाया था….? ताईजी भी…. कैसे-कैसे दांव-पेंच खेलती हैं.

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बेचारगी से एक-एक कौर पानी संग गटकता गया, भोजन के तुरंत बाद ताऊजी मसनद पर पसर सो गये. ताईजी के पास पड़ोस के बंगलों की दो महिलाएं आ गई. महिलाओं के जाने के बाद वे नौकरों से घर के काम करवाने लगीं, मन मार रंजन गैलरी में बैठ अखबार-पत्रिकाओं के पन्ने पलटता गया. दोनों में से किसी ने पूछने की जहमत नहीं उठाई कि पांच-छः माह से बेरोजगार हो जाने के कारण रंजन का खर्च कैसे चल रहा है? आगे वह क्या करेगा? दोनों शायद इस बला के टलने का इंतज़ार कर रहे ये एक सो कर, दूजा गृह कार्य में व्यस्त होकर.
बेजार हो रंजन उठा और ऊपर कक्ष में गया, उसकी वापसी की ट्रेन शाम पांच बजे की थी. यह चूक जाता तो अगले दिन सुबह ११ बजे की थी, रुकने का कोई अर्थ न था, चार बज चुके थे, उसने अपना बैग उठाया और नीचे आया. ताऊजी उठ गए थे. उन्हें उसके लौटने की भनक लग गयी थी.
चाय पीते वक्त उसका दिल भर आया, उसे अपने उस खर्च का काफी मलाल हो रहा था, जो इस 'ऑपरेशन हेल्प' में खर्च हो गया था. ताऊ ताईजी के टालू व्यवहार को देख वह समझ तो चुका था कि वे उसकी रत्तीभर मदद नहीं करनेवाले, फिर भी उसने डूबते की तरह एक बार और हाथ-पैर मारने की कोशिश की, "ताऊजी… मैं सोच रहा था… म…. मतलब अर्ज करना चाह रहा था… यदि बिजनेस वास्ते आप… कुछ.. दस… पंद्रह… हजार… उधार दे…. देते तो…"
"बेटा!" ताऊजी के बजाय ताईजी ने अत्यंत मृदु- मीठे व्यथा भरे शब्दों में अपनी आंतरिक दुरावस्था का दुखड़ा उसके सामने रखा. "तुम तो जानते ही हो, तुम्हारे ताऊजी चार बरस पहले रिटायर हो चुके है."
"जी."
"और सुबह तुमने नौकरी का दुख-दर्द बतलाया था. नौकरी में भला क्या मिलता है?" "
"ह… हां!"
"बेटा, हम तुम्हारी मदद ज़रूर करते. बड़ी खुशी होती बेटा, मगर अब तुमसे क्या छुपाना? अभी तो हमको खुद को खाने के लाले पड़े हैं. मंहगाई इतनी, मगर पेंशन? लोग तो हमारे बारे में पता नहीं क्या-क्या सोचते हैं. हमारी हमीं जानते हैं बेटा…. इस बड़े शहर में कितनी मुश्किलें हैं… कुछ बचता ही नहीं."
रंजन सुनते ही स्तब्ध रह गया, खाने के लाले? टालने के लिए कितनी ओछी बात कह दी थी ताईजी ने, दादाजी-वादीजी को अपने पास बुलाने के नाम पर भी वह इसी तरह की घटिया बहानेबाजी करती थी. रंजन का हृदय व्यथित हो गया. उसने अपराधी की भांति हाथ जोड़ माफी मांगते हुए कहा, "अन्नपूर्णा सदैव प्रसन्न रहे ताईजी, मुझे किंचित भी आभास नहीं या, अन्यथा आपका दिल नहीं दुखाता. सचा खैर, आप मन में किसी तरह का संकोच मत पालना, आजकल बैंकों की ढेर सारी योजनाएं है. मैं वहां भी अर्जी दे रहा हू."
फुर्ती से वे दोनों भी खड़े हो गये, रंजन ने झुककर प्रणाम किया, विदा करने के लिए दोनों द्वार तक आये. नौकर तब तक रिक्शा ले आया था. पुनः प्रणाम कर रंजन स्टेशन रवाना हो गया.
ट्रेन में बैठते हुए वह गहरी चिंता में डूब गया. ताऊनी के पास वह एक झूठी आस लेकर आया था. एक झटके में बुझ गई. क्या हो जाता जो कुछ रुपया उधार दे देते? ब्याज देने का भी मैंने इशारा कर दिया था. इतना पैसा होने के बावजूद दोनों का दिल कितना छोटा है. न चाहते हुए भी उसकी आंखों से दो आंसु दुलक पड़े.
घर आने के बाद रंजन की चिंता और बढ़ गई. पास के रुपए धीरे-धीरे खर्च होते जा रहे थे. उसे चारों ओर अंधेरा-ही-अधेरा दिख रहा था. न कहीं नौकरी का आश्वासन मिल रहा था, न पूंजी का इंतजाम हो पा रहा था. उसकी रातों की नींद, दिन का चैन हराम हो गया. मां पिताजी, पत्नी, बच्चे.. कैसे पालेगा उन्हें? आस की हल्की-सी किरण भी कहीं से नजर नहीं आ रही थी.
दो हफ्ते बीत गए. तभी कुरियर से ताऊजी का पथ आया, हैरानी से उसने खोला, ताऊजी के शहर में सैकड़ों छोटी-बड़ी औद्योगिक इकाइयां थीं. इनमें मोल्डेड प्लास्टिक की अनेकों छोटी-छोटी आईटमें लगती थीं. ये आईटमें वे स्वयं न बनाकर, 'जॉब वर्क' से दूसरों से बनवाती थी. ताऊजी की योजना थी कि प्लास्टिक मोल्डिंग का एक लघु उद्योग डाल दिया काप रंजन विभिन्न उद्योगों में नियमित संपर्क कर मांडर कलेक्ट करेगा और माल तैयार कर सप्लाई करेगा. इसके अलावा, इसी कारखाने में वे प्लास्टिक के जूते-चप्पल की भी मशीनें डालना चाहते थे, इसकी खपत भी अच्छी थी उनके क्षेत्र में,
अत्यंत आत्मीयतापूर्वक उन्होंने रंजन को लिखा था "बेटा, सब कुछ तुम्हारे हाथ में रहेगा. सब तुम्हें ही संभालना होगा. हम तो सिर्फ पैसा लगा देंगे तुम अपने हिसाब से सब करना, तुम्हें तीन हजार रुपये महीने की मैनाजरी राहेगी, इसके अलावा प्रॉफिट में चार प्रतिशत कमीशन अतिरिक्त…"
कोई भी यह पत्र पढ़ता ती ताऊजी की विशाल हृदयता से गद‌गद हो जाता, मगर रंजन के मन में शंकाओं के सर्प फन उठाने लगे, आख़िर ताऊजी के मन में इतनी उदारता उपजी क्यों? मैने दस-पंद्रह हज़ार रुपए ब्याज पर मांगे तो 'खाने के लाले' पड़ रहे थे. अब स्वयं की फैक्टरी लगाने के लिए दस-बारह लाख कहां से आ गए? अपने जन्मदाताओं के लिए तो उनसे अपने घर के दरवाज़े कभी खोले न गए, उसके लिए तिजोरी के कपाट… एकदम से कैसे खुल गए?
वह समझ गया ताऊजी उसकी मजबूर परिस्थिति का फायदा उठाना चाह रहे हैं. उसकी ३२० ३३ वर्ष की उम्र… सरकारी नौकरियों में आवेदन कर नहीं सकता. प्रायवेट सेक्टर में जल्दी नौकरी मिलनी मुस्किल (कोशिश करके देख ही रहा है)… स्वयं का व्यापार करने के लिए पूंजी का अभाव और इधर भरी- पूरी गृहस्थी का भार? असहाय… निरुपाय रंजन करेगा क्या? थोड़ा-सा लालच देते ही फंस जाएगा, किसी पराए के भरोसे फैक्टरी लगाएंगे ताऊनी, तो धोखे का डर, यह 'घर का मजबूर छोकरा… जब चाहे धमकाते रहो और ब्याज में एहसान लावते रहो अलग से कि 'हमने रोजगार पर लगाया.' रिश्तेदारी के दबाव में बेईमानी भी नहीं कर सकता, इससे बेहतर 'मजबूर कर्मयोगी गधा' 'स्वामी भक्त कुत्ता' कहां मिलेगा? चौबीसों घंटे खटे भी और विरोध में चूं भी न करे. ताऊजी की ऐसी छुद्र, ओछी, स्वार्थी योजना पर वह तड़प उठा. ताऊजी का एक पुत्र आसाम में था, दूजा विदेश में, आसामवाले के पुत्र पढ़ रहे थे. रंजन ४-५ वर्ष मेहनत कर फैक्टरी का काम जमाता, ये बच्चे बड़े हो जाते. पोतों के तैयार होते ही, रंजन की मेहनते से जमा-जमाया व्यवसाय पोतों के हवाले हो जाता और रंजन को लात मारकर कर देते बाहर, उस ढलती उम्र में रंजन पुनः आरंभ करता अपनी बारह खड़ी नये सिरे से.
इत्तफाक से उसी दिन बाजार में अतुल मिल गया, आती-बातों में उसने बतलाया पिछली रात भाईजी के पास ताऊजी का फोन आया था कह रहे थे, रंजन तो ठन-ठन गोपाल है, उसे लाईन पर लगाने के वास्ते कारखाना डाल रहे है…"

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सुनते ही रंजन अवाक रह गया. ताऊजी अब रिश्तेदारों में ढोल पीटते रहेंगे अतुल को लाईन पर हमने लगाया?
उसका मन आकोश से भर उठा. जब सारी मेहनत मुझे ही करनी है, तो ताऊजी के कारोबार के लिए क्यों करूं, बैंक से कर्जा ले स्वत के लिए क्यों न करूं?
उसने उसी समय अतुल से चर्चा की. अतुल मार्गदर्शन करने के लिए सहर्ष राजी हो गया. इसी सिलसिले में रजन २-३ मर्तबा भाईजी के बंगले पर गया था. आज भी गया था, मगर भाईजी समझे…
रंजन का चित्त भारी हो गया.
"ओफ ओ" श्रुति ने उसकी उद्विग्रता शांत करनी चाही "क्यों इतनी गहराई से सोचते हो? भाईजी ने बोल दिया तो बोल दिया मत जाना अब उनके घर और भी रिश्तेदार है उनसे पूछकर."
"नहीं श्रुति नहीं." वह व्यथित हो गया, "अब किसी रिश्तेदार के घर जाने की इच्छा नहीं होती."
"अरे, तो क्या सभी रिश्तेदार एक जैसे है?"
"हां श्रुति!" उसका स्वर भीग गया, "पहले मैं ध्यान नहीं देता था, मगर अब लगता है कि मैं जिस रिश्तेदार के भी घर जाता हूँ.. मुझे देखते ही वे कन्नी काटने की कोशिश करते है…. धुकधुकी होने लगती है उनके मन में पता नहीं क्यों आया है यह हमारे पास? कुछ उधार तो नहीं मांगना चाहता? निठल्ला कहीं का."
"छी" श्रुति ने उसके होंठों पर तत्क्षण अपनी हथेली रख दी, "कुछ भी बोलते हो अपने आपको, कौन कहता है आप निठल्ले हो." "श्रुति।" उसका कठ अवरुद्ध हो गया, "अब जब तक पुनः काम-धंधे पर नहीं लग जाता, फालतू ही तो हूं मैं."
"ओफ ओ' फिर बही?" वह तुनककर बोली, "रिश्तेवार कुछ भी कहते रहे, ध्यान क्यों देना? जान-बूझकर तो नौकरी छोड़ी नहीं? हफ्ते-दस दिन की बात है. बैंक लोन मजूर होते ही…"
"लोन मंजूर होना इतना आसान नहीं श्रुति." उसकी बेचैनी एकदम बढ़ गई, "कई बार महीनों लग जाते है. सोचता हूं. इतने दिनों तक घर खर्च कैसे चलेगा? पास में थोड़ी बहुत जो पूजी थी, वह भी घर खर्च में धीरे-धीरे कम…"
"फिर एक बात बोलू?" श्रुति ने तत्क्षण एक निर्णय लिया
उसकी आखों में गजब की दृढता थी, "क्या?"
मेरे गहने बेच देते हैं" "
"तुम्हारा दिमाग़ तो ठीक है?" बह एकदम भड़क उठा, "फिर तुम पहनोगी क्या?"
"पहले मेरी बात शांति से सुन लो." उसने पूरी वृढता से उसकी आखों में झांका, "अभी तुम रिश्तेदारों को कोस रहे थे बुरे वक्त में कोई साथ नहीं देता. उल्टे मजबूरी का फायदा उठाना चाहते हैं."
"हा मगर… बिना गहनों के… तुम्हें रिश्तेदारी में कहीं आना- जाना पड़े."
"फिर वही रिश्तेदार रिश्तेवारी श्रुति भड़क उठी, "इन रिश्तेदारों में से कौन आहे वक्त में हमारी सहायता कर रहा है?… उल्टे बचना चाहते हैं हमसे, हमारी छांव से। फायदा उठाना चाह रहे है हमारी मजबूरी का? स्कीमें बना रहे है हमें गुलाम बनाकर रखने की? फिर हमी क्यों सोचें इन खुदगर्ज रिश्तेदारों के बारे में?"
"अ…" रंजन गहरे ऊहापोह में फंस गया.
"रिश्तेदार कोई सहायता नहीं करते रंजन, वे तो उल्टे तमाशा देखना चाहते हैं. हमारी मजबूरी का, हमारी बर्बादी का।" उसका स्वर भर्रा गया, "हमें अपनी सहायता आप करनी होगी. जरा सोचो, जब तक लोन स्वीकृत नहीं होता…. चार माह…. छः माह….. हमें अपनी जमा-पूजी में से ही घर खर्च चलाना होगा. इससे संचित पूंजी क्या कम न होगी? फिर लोन स्वीकृत होते ही उसके ब्याज की चिंता? किश्तों की चिता… गहने बेच देने से पूंजी हमारी स्वयं की होगी. न ब्याज का भार न किश्त चुकाने की चिता. साथ ही काम हाथों-हाथ शुरू हो जाएगा."
श्रुति की सलाह रंजन को जच गई, श्रुति रोजमर्रा में जो गहने पहनती थी, उन्हें छोड़ उसने बाकी सब गहने बेच दिए. इत्तफाक से उसी दिन श्रुति का ममेरा भाई ललित आ गया. उसका जनरल स्टोर था. रंजन की सीमित पूंजी देख उसने रजन को सीजनल धंधा करने की सलाह दी, जुलाई का महीना आने वाला था. ललित की राय के अनुसार रजन बच्चों की कॉपी-किताब, बस्ते इत्यादि ले आया. अगले महीने रक्षाबंधन पर राखिया, फिर दीपावली व दिसबर में ग्रीटिंग कार्डस… होली पर पिचकारियां छोटी पूंजी होने के कारण रंजन को सीजनल धंधे खूब रास आए, ललित की सलाह मान, रंजन ड्रोजमर्रा की गृह उपयोगी वस्तुए भी रखता. ललित के कारण उसे महीने भर की उधारी में 'भरपूर माल' मिल जाता, पूंजी की उसकी समस्या पल भर में हल हो गई. उसकी गाड़ी चलने लगी, अपने दम पर, अपनी बिछाई पटरियों पर.

- प्रकाश माहेश्वरी

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