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कहानी- आंखों का तारा (Short Story- Aankhon Ka Tara)

- हृदय

जानती हूं, मेरी इस करनी के लिए मां अपने आपको ज़िम्मेदार समझती होंगी. लेकिन पापा, मां का कोई दोष नहीं है. एक मां अपनी रचना को जितने अच्छे से संवार सकती है, उतना और कोई नहीं. मां ने भी वैसा ही किया, हर कदम पर साथी बनकर, सच्ची सहेली बनकर, पर आज…

प्यारे पापा,
नमस्ते!
नहीं पापा, चौकिंए मत विश्वास कीजिए ये आपकी उसी लाड़ली गुड़िया का पत्र है, जिसे आपने हमेशा अपनी पलकों पर बिठाकर रखा था. जिसकी हर इच्छा को आपने, चाहे जैसे भी हो, पूरा किया था. जो आपकी दुनिया की केन्द्र थी, लेकिन आपकी दुनिया उजाड़ दी उसी गुड़िया ने.
पापा, घर से निकले दो महीने से ज़्यादा हो चुके हैं. आज अख़बार में आपकी घर लौट आने की प्रार्थना देखी, तभी से सोच रही हूं कि अगर आज आपसे कुछ कह नहीं पाऊंगी, तो शायद अपने आपको कभी माफ़ नहीं कर पाऊंगी.
पापा, आप जानना चाहेंगे न कि मैं घर से क्यों भागी? एक लोकप्रिय डॉक्टर की बेटी, जिसे घर-परिवार में कोई कमी नहीं थी, उसने ऐसा कदम क्यों उठाया? वजह मुझे ख़ुद नहीं मालूम. शायद इन दो महीनों में आपकी बेटी इतनी बड़ी हो गई है कि कह सकती है कि शायद यह इस उम्र का दोष है.
पापा, आपसे अच्छा दोस्त, अच्छा हमराज़ मुझे कहां मिलता? मैंने आपसे कभी कुछ नहीं छिपाया था. लेकिन जाने किस भावना ने मुझे इस रंग-बिरंगे सपने की बात आपसे छुपाने की प्रेरणा दे दी. सिर्फ़
सत्रह साल की उम्र और मुझे लगता था कि ज़िंदगी अपने ढंग से जीऊं. इतनी ऊंची उडूं कि कोई पकड़ नहीं पाए.
उस सर्द रात को कुछ सोचकर सोई और क़रीब सुबह चार बजे पचास हज़ार रुपए, कुछ कपड़े लेकर मैं चली आई मोहल्ले के ही एक लड़के के साथ. सपनीली दुनिया के लिए घर से बाहर निकला एक कदम ऐसा फिसला कि शायद संभलने का मौक़ा ही नहीं मिला.
नहीं पापा, उदास मत होइए… आप तो मेरे लिए दुनिया के सबसे अच्छे पापा हैं. आपने राहुल भइया से ज़्यादा मेरा ख़्याल रखा है. मेरी खातिर आपने मम्मी से कितनी झड़पें कीं. रात को दो-दो बजे तक, जब सब सो रहे होते और मैं पढ़ रही होती, आप मुझे कॉफी बनाकर दे जाते. आप सिर्फ़ मेरे लिए जागते थे, जबकि आपको तड़के ही उठना होता था. आख़िर आप मुझे भी तो अपने जैसा काबिल डॉक्टर बनाना चाहते थे.
पापा आप कहते थे ना, "बेटा, तुम तो मेरा अभिमान हो, मेरा गुरूर हो, मेरे सपनों की रूपरेखा हो, हम सबकी आंखों का तारा हो." शायद आपके प्यार की अतिशयोक्ति ने ही मुझे इतना उच्छृंखल बना दिया. प्यार की पराकाष्ठा ने स्वतंत्रता को मनमानी करने की पूरी छूट दे दी थी और इस मनमानी ने देखिए कहां ला पटका मुझे.


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मेरे हर टेस्ट के समय, मेरे हर प्रैक्टिकल परीक्षा के समय आप क्लीनिक छोड़कर आ जाते थे. मेरे प्रति आपका इतना मोह देखकर लोग कहते कि भगवान हर बेटी को ऐसा पिता दे और आप कहते थे कि भगवान हर बाप को ऐसी बेटी दे. अब वही लोग आपको देखकर कहते होंगे, "देखो, लड़की को इतना सिर चढ़ा लिया था, तभी तो एक आवारा लड़के के साथ भाग गई."
काश पापा… काश, ऐसा नहीं हुआ होता. काश मैं समय को उल्टा घुमा पाती…
प्लीज़ पापा, मत रोइए प्लीज़, जानती हूं, आपको आपकी दो चीज़ें बहुत प्यारी हैं आपकी बेटी और आपकी प्रतिष्ठा. मगर आपकी एक प्यारी चीज़ ने ही दूसरी को भी कहीं का नहीं छोड़ा. आपकी बेटी ने ही आपकी प्रतिष्ठा धूल में मिला दी. आपके स्नेह ने कभी मुझे ज़मीन पर उतरने नहीं दिया और मैंने आपको ज़मीन में कई फीट नीचे गाड़ दिया. आप मेरी चिंता में, सामाजिक बदनामी के भय से सिर्फ़ आंसुओं और तन्हाई के होकर रह गए होंगे. मुझे अब अधिकार तो नहीं है, फिर भी कह रही हूं मम्मी के लिए, राहुल भइया के लिए अपने आपको संभाले रखिए पापा…
आज लगता है मां से ज़्यादा समझदार, यथार्थवादी, शुभचिंतक कोई और नहीं होता. मां ने हर बार मुझे अनुशासन और कर्तव्यों का पाठ पढ़ाना चाहा, लेकिन आपके स्नेह ने उनको परास्त कर दिया. मां मेरे हर सुख-दुख की साथी थी. उन समस्याओं की राज़दार थीं, जो मैं आपसे नहीं कह सकती थी.
जब मैं बीमार होती, तो कितनी ही रातें मां ने जाग-जाग कर काटी. ख़ुद बीमार रहतीं, लेकिन कभी मुझे महसूस न होने देतीं. अपने शरीर पर हर रात मुझे मां के हाथों का स्पर्श महसूस होता था.
जानती हूं, मेरी इस करनी के लिए मां अपने आपको ज़िम्मेदार समझती होंगी. लेकिन पापा, मां का कोई दोष नहीं है. एक मां अपनी रचना को जितने अच्छे से संवार सकती है, उतना और कोई नहीं. मां ने भी वैसा ही किया, हर कदम पर साथी बनकर, सच्ची सहेली बनकर, पर आज…
काश, मैं मां के आंचल में छिप जाती, उनकी बांहों का घेरा मेरे चारों ओर फिर से कस जाता. काश, उनकी झिड़कियां, अनुशासन, सलाहें मुझे पहले वाली नेहा बना देते.


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राहुल भइया ज़रूर अपने कमरे में हमारा एलबम देखकर रो रहा होगा. उसके दोस्त मुझे "दीदी दीदी…" कहते नहीं थकते थे. मेरे एक बार कहने पर वह सिर के बल दौड़ा चला आता था. उसने कई बार मुझसे कहा था, "दीदी, तुम्हारे 'आइडियल' तो पापा हैं, लेकिन मेरी 'आइडियल' तुम हो." आख़िर मैंने उस बच्चे को क्या दिया? दोस्तों में जगहंसाई, मानसिक प्रताड़ना, उस निर्दोष, मासूम, निश्छल भाई को तो अब 'आइडियल' शब्द से नफ़रत हो गई होगी. काश, आज वो दिन फिर लौट आते जब वह खाना खाकर मेरे दुपट्टे में हाथ पोंछकर भाग जाता था और स्कूल से आकर अपनी जुराबें निकालकर शरारतवश मेरे ऊपर फेंक देता था और मैं चिल्लाकर उसको दौड़ा लेती थी.
पापा, मैं घर से एक चकाचौंध भरी दुनिया का सपना लेकर निकली थी, लेकिन ज्यों-ज्यों मानसिक, आर्थिक, शारीरिक शोषण होता रहा, त्यों-त्यों आपकी, आप सभी की यादें ताज़ा होती गईं. और अब तो मुझे पता चल गया है कि मैं जिस लड़के के साथ भागकर आई, उसके पिता को आपसे व्यक्तिगत ईर्ष्या थी. उसने अपने पुत्र के साथ मिलकर आपकी प्रतिष्ठा को धूमिल करने के लिए यह षडयंत्र रचा था और वो सफल हो गया.
पापा, आपकी बदनामी के लिए, मम्मी की ख़राब हालत के लिए, राहुल की सूनी आंखों के अंधेरों के लिए मैं, सिर्फ़ मैं ज़िम्मेदार हूं.
आपकी बेटी अब इस लायक नहीं रही कि वापस लौट सके. जानती हूं, आप सभी दिल से मुझे वापस बुलाना चाहते हैं और आपने मुझे ढूंढ़ने की बहुत कोशिश भी की होगी. लेकिन मैंने आपके प्यार का अपमान किया है. आप सभी की ख़ुशी छीनी है. एक ऐसी दुनिया मैंने ख़ुद उजाड़ दी, जिसकी मैं केन्द्रबिंदु थी. अब मुझे अपने आपसे घृणा हो रही है. अब मुझे ढूंढ़ने की कोशिश मत कीजिएगा, इसलिए यह नहीं लिख रही हूं कि कहां हूं. जानती हूं, वापस आने पर भी आप सभी पहले की तरह मुझे स्वीकार कर लेंगे, लेकिन इतने कम समय में मैंने आप लोगों को जीते जी मार दिया है, इसलिए अब मैंने ख़ुद की सज़ा निश्चित कर ली है.
ना ना पापा! पत्र पर पड़ी डाकखाने की मुहर आपको मेरा पता बता सकती है. आप मुझे तलाश करते यहां आ सकते हैं, इसलिए में सदा के लिए जा रही हूं.
जब तक आपको मेरा यह पत्र मिलेगा, में इस दुनिया में नहीं रहूंगी.


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हो सके तो आप सभी अपनी इस नासमझ लाड़ली को माफ़ कर दीजिएगा. भगवान से कहूंगी कि वो अगले जन्म में भी मुझे आपकी बेटी बनाकर भेजे.
अलविदा पापा…
आप सबकी दुलारी,
नेहा

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