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कहानी- अनचाही बेटी (Short Story- Anchahi Beti)

जीवन में पहली बार बाबूजी के सामने मेरा मुंह खुला, "मैंने बचपन से कभी कुछ नहीं चाहा बाबूजी, अपनी ज़िंदगी का कुछ हिस्सा मैं अपने ढंग से जीना चाहती हूं."
ज़िंदगी की हर लड़ाई मैंने अकेले ही लड़ी थी, न मेरी कोई इच्छा थी न पसंद.

"नासपीटी, कमबख़्त से हज़ार बार कहा है कि किसी अच्छे काम से जा रहे हो, तो अपनी मनहूस सूरत मत दिखाया कर." दादी अपनी तीखी आवाज़ में चिल्लाई, मैं अपनी आंखों में ढेर सारा आश्चर्य भरे दादी की सूरत देखती रही. दादी की आवाज़ सुनकर मां साड़ी से अपने हाथ पोंछती रसोई से निकली और मेरा नन्हा सा हाथ पकड़ कर अन्दर ले जाकर बोली, "तुझे कितनी बार कहा है मन्नू, दादी और बाबूजी कहीं बाहर जा रहे हों, तो अपनी सूरत उन्हें मत दिखाया कर."
मैं ज़िद करते हुए कहती, "लेकिन मां, अजय और विजय भैया भी तो उनके साथ जाते हैं, फिर मैं क्यों नहीं?"
मां अपने आंसू पोंछते हुए कहती, "तू समझा कर मन्नू, वे लड़के हैं. तुझे पैदा करके तो जैसे मैंने कोई अपराध किया है."
अजय और विजय भैया के पैदा होने पर सारे घर में ख़ुशी की लहर दौड़ गई थी. कई दिनों तक ख़ुशियां मनाई गई, लेकिन मेरे जन्म लेने पर दादी और बाबूजी के चेहरों पर एक मायूसी छा गई. मां को छोड़कर सारे घर की उपेक्षाएं ही मेरे हिस्से में आई थीं. मन रुक-रुक कर अपनी परतें खोलने लगा. परत-दर-परत अतीत वर्तमान का रुप लेने लगा.
मेरे दोनों भाइयों के मुंह से निकलने से पहले ही उनकी सारी इच्छाएं पूरी कर दी जातीं.
और मैं, मैंने तो कभी जाना ही नहीं कि चाह क्या होती है?.. ज़िद क्या होती है.. न‌ अच्छे कपड़ों में, न खिलौनों में.
आज भी जब बाज़ार में किसी शोरूम में कोई सुन्दर गुड़िया या कोई सुन्दर फ्रॉक देखती हूं, तो बचपन फिर से जी उठता है. मैं अपने पिता पर कभी अपना अधिकार ही नहीं समझ पाई कि कुछ माग सकूं.
जब मेरी उम्र के सारे बच्चे गुड्डे-गुड़ियों का ब्याह रचाते, खेलते रहते, उस समय में ख़ामोशी से एक कोने में बैठकर सोचती, "काश मैं भी अपनी मां की कोख में लड़का बनकर पैदा होती, तो सारे घर का स्नेह-दुलार मेरे हिस्से में आया होता…" यदि उस समय भी सोनोग्राफी जैसे टेस्ट हुए होते, तो मेरे पिता ने भी डॉक्टरों की मदद से मुझे गर्भ में ही मार दिया होता."
इन्हीं उपेक्षाओं के रहते ज़िंदगी बिना मंज़िल की राहों पर आगे बढ़ती रही.
सबसे बड़ा बवाल तो मेरी पढ़ाई को लेकर खड़ा हुआ. बाबूजी का दबदबा सारे घर में था, उनके सामने कोई
मुंह नहीं खोल सकता था. मेरे एडमीशन की बात सुनते ही वे भड़क उठे, "कोई ज़रूरत नहीं है स्कूल जाने की. घर का कामकाज सीखो. तुम्हें कौन सी नौकरी करनी है. दूसरे के घर का चूल्हा ही तो फूंकना है. अजय और विजय तो मेरे दो फल देनेवाले पेड़ों की तरह है. इन पर पैसा ख़र्च करूंगा, तो बड़े होकर इनमें फल लगेंगे."
मां ने बात संभालते हुए धीरे से कहा, "ठीक है जी, लडकी की इच्छा है तो किसी सरकारी स्कूल में डाल दो, भाइयों की किताबों से पढ़ लिया करेगी."
जब फर्स्ट डिवीजन में पास होने पर मैं अपना रिपोर्ट कार्ड ले कर उत्साह से भरी हुई बाबूजी के पास जाती, तो वे बुझी सी आवाज़ में कहते, "अच्छा, पास हो गई तू." मेरा सारा उत्साह साबुन के झाग की तरह बैठ जाता. अजय और विजय भैया पढ़ाई में मेरा मुक़ाबला
कभी नहीं कर पाए.
शादी-ब्याह की बात को लेकर भी बाबूजी की इच्छा ही सर्वोपरि थी. वो गांव के ठाकुर के बिना पढ़े-लिखे लड़के से मेरी शादी करना चाहते थे. उनका विरोध घर में कोई नहीं कर सकता था.
मां ने एक दिन हिम्मत करके डरते हुए कहा, "मैं सोच रही थी जी कि इस लड़के से मन्नू का ब्याह न किया जाए, शहर का कोई पढ़ा-लिखा लड़का देखकर मन्नू का ब्याह करें तो…" सुनकर बाबूजी बिगड़ते हुए बोले, "तुम्हारा दिमाग़ तो ठीक है अजय की मां, लड़के आजकल मिलते कहां है? देखा-भाला लड़का है, ज़मीन-जायदाद है, लड़की रानी बनकर रहेगी. पढ़ाई-लिखाई में आजकल रखा ही क्या है. आजकल पढ़-लिख कर नौकरी मिलती किसे है? और क्या किसी कलेक्टर से ब्याह करेगी?" लेकिन में भी अपनी ज़िद पर अड़ी रही. जीवन में पहली बार बाबूजी के सामने मेरा मुंह खुला, "मैंने बचपन से कभी कुछ नहीं चाहा बाबूजी, अपनी ज़िंदगी का कुछ हिस्सा मैं अपने ढंग से जीना चाहती हूं."
ज़िंदगी की हर लड़ाई मैंने अकेले ही लड़ी थी, न मेरी कोई इच्छा थी न पसंद.
मैंने बचपन से ही ये बात अपने मन में अच्छी तरह बैठा ली थी कि मेरी इच्छाएं तभी जन्म लेगी, जब मैं स्वयं उन्हें पूरा करने लायक बनूंगी. मैं भी अपने पिता से और बच्चों की तरह ज़िद कर सकती थी, लेकिन मुझे बचपन से ही यह एहसास कराया गया था कि मैं अनचाही हूं, मेरी किसी की आवश्यकता नहीं है.
मुझे शहर के एक कॉलेज में लेक्चररशिप मिल गई थी. मेरे दोनों भाई अभी बेरोज़गार ही थे. गांव की ज़मीन बेचकर शहर में दोनों ने बिज़नेस शुरू कर दिया था.
बाबू‌जी की नाराज़गी की वजह से मैं साल में एक-दो बार ही घर जा पाती थी. उस दौरान भी वे खिंचे-खिंचे से रहते. कल ही अजय भैया का फोन आया था कि बाबूजी को शरीर के दाहिने हिस्से में लकवा हो गया है.
बस कंडक्टर के टिकट मांगने पर विचारों की श्रृंखला टूटी. घर पहुंचने पर देखा एक कोठरीनुमा कमरे में बाबूजी की चारपाई पड़ी थी.
मुझे देखकर मैंने उनकी आंखों में आज पहली बार अपने लिए स्नेह देखा. अपना कांपता‌ हुआ हाथ उठाने की कोशिश कर रहे थे. मैंने बमुश्किल अपने आंसू रोकते हुए पूछा, "कैसे हैं‌ बाबूजी?"
बाबूजी धीमे से हंस दिए, घोंसले में पड़े बूढ़े असहाय पंछी की तरह.
"ठीक हूं मन्नू. मेरे दोनों फलदार पेड़ों की छाया मुझे नहीं मिली बेटा. मेरा शरीर तो जेठ की दुपहरी में झुलस गया." इतना कहते ही उनके आंखों से आंसू बहने लगे.
भैया का पांच वर्षीय बेटा आकर मुझसे लिपट गया. पीछे से भाभी दौड़ती हुई आईं और बोलीं, "कितनी बार कहा है पिंटू यहां मत आया कर. ख़ुद तो दिनभर बिस्तर पर पड़े खांसते रहते हैं, अब बच्चे को भी बीमार करने का इरादा है."
मां ने सहमते हुए कहा, "नाराज़ क्यों होती हो बहू बीमारी कहकर तो आती नहीं."
शाम को दोनों भाइयों से बात हुई. मैंने कहा, "भैया, बाबूजी को किसी अच्छे डॉक्टर को दिखाते तो अच्छा रहता."
अजय भैया बिगड़ते हुए बोले, "तुम क्या सोचती हो मन्नू, हमें उनकी परवाह नहीं है. दिखाया था डॉक्टर को. दवा भी ला दी थी. अब बीमारी एक दिन में तो ठीक होने से रही."
जी में आया, कह दूं कि बचपन में तुम्हारे बीमार होने पर बाबूजी किस तरह डॉक्टरों की पूरी फौज खड़ी कर देते. घंटों तुम्हारे सिरहाने खड़े रहते. वही आदमी आपके लिए आज एक बोझ बन गया, जिसने बचपन में उंगली पकड़ कर चलना सिखाया.
रात को मां-बाबूजी के कमरे में ही मैंने अपना बिस्तर लगवा लिया था.
रात में मा की दम तोड़ने को तत्पर खांसी कलेजे में फांस बन कर चुभने लगती. ठाकुरजी के नीचे वाले ताक में रखी दवा की शीशी जिसे मां सरकारी दवाखाने से लाती थी. उसे ही धनवंतरी के अमृत कलश में छलकी संजीवनी धारा मान कर गला तर करके यम से लड़ती रहती.
धीमे प्रकाश के टिमटिमाते बल्ब की रोशनी में मां को ठीक से कुछ दिखाई न देता. रात में पिताजी को दवा-पानी देना होता, तो मां अंधेरे में उड़ेलते हुए बडबडाती, "इन मरी आंखों से अब तो कुछ दिखाई भी नहीं देता. इतना पैसा आ रहा है, लेकिन ये नहीं होता कि बल्ब ही लगवा दें "
एक निर्णय लेते हुए सुबह मैंने भैया से कहा, "भैया मेरी इच्छा है कि मैं मां-बाबूजी को अपने साथ ले जाऊं."
"लेकिन मन्नू, लोग क्या कहेगे. बेटों के होते हुए भी मां-बाप बेटी के यह पड़े हैं."
मैंने कहा, "लेकिन भैया, लोगों के कहने के डर से मैं अपने पिता को मरने के लिए तो नहीं छोड सकती."
चलते समय भैया ने कहा, "बाबूजी ठीक होने पर चले आना."
बाबूजी ने कहा, "हां, तुम दोनों तो मेरे अच्छे समय के साथी हो बेटा. आज उसी के हाथ मुझे सहारा देने की उठे हैं, जिसके हाथों को मैंने हमेशा झिड़क दिया."
मेरे कंधे पर हाथ रख बाबूजी धीर-धीरे चल रहे थे उनके चेहरे पर सुकून झलक रहा था और आंखों से मेरे लिए अश्रुधारा बह रही थी, जिसने मेरे बचपन की कड़वी यादों और दर्द को अपने साथ बहा दिया.

- प्रियंका रघुवंशी

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