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कहानी- कुंठा (Short Story- Kuntha)

यहां उस बच्चे की डायरी के पन्ने समाप्त हो गए हैं या फिर आगे क्या हुआ, क्योंकि आगे के पन्ने फटे हुए थे.
मैं इसलिए उसे ढूंढ़ रही हूं. इस कुंठाग्रस्त बचपन, अभावग्रस्त जीवन और अपने आपको दुनिया से छिपाता हुआ वह कैसे अपने भविष्य को संवारेगा? मैं अन्ना से मिलना चाहती हूं, ताकि उसके हीनभावना से ग्रस्त बचपन को आत्मविश्वासी बना सकूं.

आजकल जब भी मैं सड़क पर निकलती हूं, मेरी आंखें किसी को ढूंढ़ती हैं, विशेष तौर पर जब भी मैं कविनगर व राजनगर की उस रिंग रोड पर निकलती हूं, जहां सड़क के दोनों ओर झुग्गियां बनी हुई हैं. क्या आप कभी गाजियाबाद गए हैं? यदि जाएंगे, तब पाएंगे कि नए रेलवे स्टेशन के साथ-साथ राजनगर व कविनगर को जोड़ती हुई जो रिंग रोड है, उस पर तीन-चार किलोमीटर तक झुग्गियां ही बनी हुई हैं.
आम जनता, उच्च वर्ग के लोग व प्रबुद्ध जन, सबको ग़ुस्सा आता है उस सड़क पर चलते हुए, विशेष तौर पर यदि आप किसी वाहन में सवार हो तब. दूसरों की क्या कहूं मुझे स्वयं बहुत ग़ुस्सा आता है यहां से गुज़रते वक़्त और सरकार पर तो बहुत ही अधिक, वो वोटों के चक्कर में इस अतिक्रमण के प्रति जान-बूझकर लापरवाह बन गए है. चाहे किसी भी दल की सरकार क्यों न बने?
मैं ढूंढ़ती हूं उस ग्यारह साल के एक बच्चे को जिसका नाम भी मैं ठीक से नहीं जानती, पर वह इन्हीं झुग्गियों में रहता है. उसकी डायरी उस दिन र‌द्दी देते समय अकस्मात ही मेरे हाथ लग गई और मैंने एक रुपया देकर यह डायरी ख़रीद ली. उसकी डायरी से उसके विचार है और भावनाओं को जान गई हूं. काश, वह मुझे मिल जाता! क्या आप भी उत्सुक हैं उस डायरी को पढ़ने के लिए..?


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डायरी में लिखा था- अन्ना की डायरी.
कक्षा ६. ३० मार्च- मैं सरकारी स्कूल में पढ़ता हूं. अपनी कक्षा में प्रथम आया हूं, पर फिर भी पता नहीं क्यों, मास्टरजी मुझ से चिढ़ते हैं. कभी एक सवाल भी ग़लत हो जाता है, तो कहते हैं, "अरे चमट्टे, तू क्या पढ़ेगा. चल, जाकर अपना पुश्तैनी काम कर या फिर बाप की तरह रिक्शा खींच." सब लड़के सुनकर हंस देते हैं. बाद में चमार… कहकर चिढ़ाते भी हैं.
मैं इस स्कूल में नहीं पढ़ना चाहता. मैं बापू से कहूंगा कि कि मुझे किसी दूसरे स्कूल में दाखिला दिला दें. जैसे डी. पी. सी. या रोंट पॉल में. मेरा भी अच्छी-अच्छी ड्रेस पहन कर स्कूल जाने को दिल करता है. सफ़ेद मोजे और काले जूते मुझे भी बड़े अच्छे लगते हैं. मेरे बापू रिक्शा चलाते हैं. काश! वे भी कहीं नौकरी करते.
२० मई- मैंने बापू से ज़िद करके अच्छे स्कूल में दाखिला ले लिया है. डी.पी.सी. स्कूल में हालांकि प्रिंसिपल साहब ने आधी फीस ली, फिर भी बापू को फीस जुटाने में अपना प्यारा टू-इन-वन भी बेचना पड़ा, जो उन्होंने बड़ी मुश्किल से ख़रीदा था. बापू का सपना है कि मैं बड़ा आदमी बनूं.
३० मई- हमने अपने रहने की जगह बदल ली है. अब हमने राजनगर कविनगर की रिंग रोड पर झुग्गी डाल ली है. यहां से मेरा नया स्कूल बहुत पास पड़ता है. बापू मां से कर रहे थे कि उन्हें अब ज़्यादा मेहनत करनी पड़ेगी, मेरी फीस के पैसे जुटाने के लिए अब वह रोज़ रात को बहुत देर से आते हैं.
५ जून- झुग्गियों में बहुत गर्मी लगती है. ऊपर आकाश तपता है, नीचे धरती. मुझे ख़ूब ऊंची उड़ती हुई चीज़ें बहुत अच्छी लगती हैं. काश, में भी चील होता और खुले आकाश में ऊंचा उडता. पक्षी कितने अच्छे है. इनमें न कोई अमीर होता है और न ही गरीब. इनके घोंसले भी एक जैसे होते हैं. इनके बसेरों में महलों और झुग्गियों वाला अंतर नहीं होता.
२० जुलाई- मेरे स्कूल को खुले बीस दिन हो गए हैं. बाप रे, मेरी क्लास में तो बहुत बड़े-बड़े घरों के लड़कें पढ़ते हैं. पता नहीं, क्या क्या बातें करते हैं. मेरी तो कुछ समझ में नहीं आता. कोई कार में आता है, तो कोई स्कूटर पर. मेरा घर तो पास में ही है. मैं पैदल ही आता-जाता हूं, लेकिन घूम कर लंबा चक्कर लगाकर घर आता हूं. ऐसा इसलिए, ताकि कोई मुझे झुग्गी में घूसता हुआ देख कर मेरा मज़ाक न उड़ाए. इसलिए सब के चले जाने के बाद ही घर पहुंचता हूं.


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१५ अगस्त- मेरे क्लास में अच्छे नंबर आते हैं. मैं हमेशा एक्सीलेंट व गुड लेता हूं. कुछ लड़के मेरे दोस्त बनना चाहते हैं, पर मैं सबसे अपने को छिपाता हूं. कुछ लड़के जानना चाहते हैं कि में कहां रहता हूं, पर मैं उन्हें टालता रहता हूं. यदि उन्हें पता चल गया, तो वे मेरी हंसी उड़ाएंगे.
२५ अगस्त- मेरे बापू मुझे बड़ा आदमी बनता हुआ देखना चाहते हैं. पर मैं क्या करूं, पढूं कैसे? अंदर झुग्गी में अंधेरा रहता है और बाहर बैठने पर बच्चे तंग करते हैं. बहुत शोर भी रहता है. साथ ही कोई मुझे पहचान न ले, यह डर भी रहता है. बाहर जाकर नल पर नहाते समय, बाहर बैठकर खाना खाते हुए, हर वक़्त यही डर बना रहता है. पहले मैं हमउम्र बच्चों के साथ ख़ूब खेलता था, मस्ती करता था, पर अब झुग्गी से कम ही बाहर निकलता हूं. मां डांटती है. घर घुस्सू कहती है, पर मैं चुप रहता हूं, क्या करूं? कुछ समझ नहीं आता.
२५ अक्टूबर- मेरे स्कूल आजकल बंद है. मेरी पढ़ाई के कारण सब टीचर्स मुझे प्यार करते हैं. मेरे साथी मुझसे दोस्ती करना चाहते है, पर मुझे हमेशा लगता है कि उन्हें दोस्त बनाऊंगा, तो वे मेरे बारे में सब कुछ जान जाएंगे कि मैं कहां रहता हूं. मेरे बापू रिक्शा चलाते हैं.
मैंने अपने पड़ोस की झुग्गी के सोमा से दोस्ती कर ली है. हम दोनों दूर मैदान में जाकर खेलते भी हैं. झुग्गी के सामने की दीवार में मैंने एक छेद कर लिया है, जिससे रोशनी आती है और मैं दिन में उसके सामने बैठकर पढ़ लेता हूं. पता नहीं, बापू झुग्गी में कब बिजली का लट्टू लगवाएंगे.
१७ नवंबर- सब बच्चे छुटिटयों से लौट आए हैं और क्लास में बता रहे हैं कि उन्होंने दिवाली कैसे मनाई. किसी के पापा ने डेढ़-दो हज़ार रूपए के पटाखे लाकर दिए और किसी के पापा ने दो हज़ार रुपए से भी ज़्यादा के. मैं सबकी बातें सुनता रहा. जब से मैं इस स्कूल में आया हूं, मेरे भाई-बहनों को सुबह की चाय भी मिलनी बंद हो गई है मेरी फीस के कारण.
२० दिसंबर- अब मेरे बापू ने भी झुग्गी में बिजली का लट्टू लगा लिया है, क्योंकि अंधेरा जल्दी होने लगता है. इस लट्टू के लिए उन्हें बीस रुपया महीना देना पड़ेगा. सरकार को नहीं, बनवारी व अब्दुल को. सब बच्चे बोल रहे थे कि वे छुटिटयों में कहा-कहां जाएंगे घूमने, पर मैं क्या बोलता, बस चुप्पी साध लेता हूं. सब ने मेरा नाम मौनी बाबा रख दिया है.
१८ जनवरी- आजकल सब के सामने बोलते हुए मुझे घबराहट होने लगती है. हाथ-पैर कांपने लगते हैं. मैं हकला भी जाता हूं. पता नहीं मुझे क्या होता जा रहा है. १० फरवरी- मेरे घर में एक और भाई या बहन आने वाली है. पहले से ही हम चार भाई-बहन है. इतनी सी झुग्गी में वह कहां समाएगा. पता नहीं बापू क्यों ला रहे हैं यह बच्चा. अगर यह नया बच्चा आ गया, तो मैं कहां सोऊंगा. कहते हैं, जब ऑपरेशन हो जाता है, तब और बच्चा घर में नहीं आता.
२० मार्च- मेरी परीक्षा हो गई है और छुट्टियां भी हो गई हैं. मेरा क्लास में दूसरा स्थान आया है. पर में इस छिपी छिपी मुजरिमों वाली ज़िंदगी से तंग आ गया हूं. मैं तो अपने पुराने स्कूल में ही दाखिला ले लूं. इससे तो यही अच्छा है. वहां सब जानते तो हैं कि मैं कौन हूं? यहां तो मैं एक अपराधी की तरह अपने आपको छिपाता हूं. मेरा दम घुटता है. मैं बापू से कहूंगा कि वे मुझे पुराने स्कूल में ही पहुंचा दें या भगवान किसी के दल में बैठ जाएं और वो अपने घर में हमें जगह दे दे, या फिर मुझे कोई अमीर आदमी गोद ले ले, जिससे मैं पढ़-लिख कर बापू का सपना पूरा करूं और फिर वापस बापू के पास लौट जाऊं.


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यहां उस बच्चे की डायरी के पन्ने समाप्त हो गए हैं या फिर आगे क्या हुआ, क्योंकि आगे के पन्ने फटे हुए थे.
मैं इसलिए उसे ढूंढ़ रही हूं. इस कुंठाग्रस्त बचपन, अभावग्रस्त जीवन और अपने आपको दुनिया से छिपाता हुआ वह कैसे अपने भविष्य को संवारेगा? मैं अन्ना से मिलना चाहती हूं, ताकि उसके हीनभावना से ग्रस्त बचपन को आत्मविश्वासी बना सकूं. अपने घर में रखने का प्रस्ताव उसके सामने रख सकूं, जिससे वह आराम से पढ़-लिख सके. यदि आपको कहीं मिल जाए अन्ना, तो कृपया उसे बता दीजिएगा कि मैं अनुसूया, राजनगर में रहती हूं और उसे ढूंढ़ रही हूं, उसकी चाहत पूरी करने के लिए. कृपया भूलिएगा नहीं.

- डॉ. अनुसूया त्यागी

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