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कहानी- दूसरा जन्म (Short Story- Doosra Janam)

सौतेली मां का रिश्ता सदियों से बदनाम रहा है, मैं सोचती थी कि तुम पर अपनी ममता लुटाकर मैं समाज के सामने एक उदाहरण रखूंगी, पर कुदरत को यह मंज़ूर नहीं था. तुम इतनी जल्दी मुझसे इतनी दूर चले नए कि मैं कुछ न कर सकी.

पुलिस लॉकअप में सुरजीत का अभी तीसरा दिन था. पुलिस उससे सच उगलवाने में लगी हुई थी. लेकिन सुरजीत ने तो जैसे होंठ ही सिल लिए थे. वह चुपचाप मार सहन कर रहा था. किसी भी प्रकार की धमकी या  लालच उसे अपने उद्देश्य में भटका नहीं सकते थे. पुलिसवाले आते और थडै डिग्री यंत्रणा देकर चले जाते. उसे सिर्फ़ एक ही बात खाए जा रही थी, आख़िर पुलिस वहां तक पहुंची कैसे? क्या कोई साथी ग‌द्दारी कर गया? वा जितना सोचता उतना ही उलझता चला जाता. हारकर उसने आंखें बंद कर‌ ली. उसकी तंद्रा को हवलदार ने भंग कर दिया, "सुरजीत ये ले, तेरा ख़त आया है."
"मेरा ख़त? कौन दे गया?"
"एक औरत दे गई थी."
हवलदार ने यह बताना ठीक नहीं समझा कि ख़त अंदर तक पहुंचाने के एवज में उसने उस औरत में १०० रुपए का नोट झटक लिया था.
सुरजीत ने ख़त ले लिया.
नाम देखते ही उसकी आखों में ग़ुस्सा उतर आया. दिल किया कि बिना पढ़ें पत्र के टुकड़े टुकड़े कर दें. ख़ुद पर किसी तरह काबू पाकर उसने दो-चार अक्षर पढ़े और पत्र को एक तरफ़ फेंक दिया. नफ़रत की आग से उसका मन झुलसने लगा. उसे याद आने लगा अपना अतीत.
कितने सुहाने थे वो दिन बस पढ़ों-लिखों और मौज करो. किसी बात की कोई फ़िक्र नहीं. पापा सरकारी सेवा में उच्च पद पर कार्यरत थे. मा स्कूल में पढ़ाती थीं  घर में पैसे या किसी भी सुख-सुविधा की कोई कमी नहीं थी.
खेती से ही इतनी आमदनी हो जाती थी कि पापा और मम्मी नौकरी न भी करते, तो भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता. दसवीं की परीक्षा पास करते ही पापा ने डीएवी कॉलेज, चंडीगढ़ में दाख़िल करवा दिया. एक तो खुला ख़र्च और दूसरी ओर चंडीगढ़ का उन्मुक्त वातावरण. फिर भी उसने बुरी आदतों को पास फटकने नहीं दिया. वह मौज-मस्ती करता, पर पढ़ाई में हमेशा अव्वल रहता.
फिर अचानक एक हादसा हो गया. उसे बताया गया कि
एक सड़क दुर्घटना में उसकी मां की अकाल मृत्यु हो गई. सुरजीत पर तो मानो दुखों का पहाड टूट पड़ा. १५ दिन रोता-बिलखता रहा था वह. फिर पापा के मनाने पर लौट आया था. अब जीवन में न उमंग बची थी, न तरंग. वह पढ़ाई में डूब कर अपना ध्यान इस हादसे से हटना चाहता था, पर मां को भूलना इतना आसान न था. ठीक ठीक एक महीने बाद पापा ने शादी कर ली थी. यह सुरजीत के लिए दूसरा झटका था. इसकी सूचना चाचा ने फोन पर दी. बाकी किसी बात को बताने की उन्होंने ज़रूरत न समझी.
वह छुट्टी लेकर घर आया था. वह पापा से पूछना चाहता था कि आख़िर उन्होंने इतनी जल्दी मम्मी को कैसे भुला दिया?.. क्यों की उन्होंने शादी? ऐसी क्या मजबूरी थी?.. पर कहां पूछ पाया था वह यह सब? नई मां को उससे बात तक करने का समय नहीं था. दो दिन रहकर लौट आया था, जैसे किसी लाश को घसीटकर लाया हो. मां की मृत्यु और पिता के बदले व्यवहार ने उसे विद्रोही बना दिया था. उसकी हंसी को जैसे ग्रहण लग गया था.
सारे इंसानी रिश्तों पर उसे स्वार्थ की चादर नज़र आने लगी थी. तभी एक उड़ती-उड़ती खबर उस तक पहुंची थी, जिसने आग में घी का काम किया था. एक दूर का रिश्तेदार बता गया था कि उसकी मां की मौत महज़ एक दुर्घटना नहीं थी. शायद उसमें सौतेली मां का हाथ था. यह सुनते ही सुरजीत ग़ुस्से से पागल हो गया था.
जब उसने यही बात फोन पर पापा से की थी, तो उन्होंने उसे डांट दिया था. इससे उसका शक यक़ीन में बदल गया था. अब वह वही काम करना चाहता था, जिससे पापा को तकलीफ़ पहुंचे.
सबसे पहले उसने बाल कटवाकर एक फोटो पापा की भेज दिया. कुछ ही दिनों बाद पापा ने हॉस्टल में आकर कई लड़कों के सामने उसे थप्पड़ मारा था. वे कह गए थे कि उसे घर में घुसने नहीं देंगे, पर वह घर जाना ही कब चाहता था. घर से पैसे आ जाते थे और कोई संबंध बचा ही नहीं था.
सिगरेट, शराब व जुआ अब उसकी दिनचर्या का हिस्सा बन गए थे. पैसा कम पड़ता, तो वह सिनेमा की टिकटें ब्लैक में बेचता, हॉस्टल में लड़के उससे खौफ खाने लगे थे. अब पढ़ाई के लिए वक़्त कहां था. वह फेल हो गया था. टॉप करनेवाला सुरजीत फेल हो गया था. प्राचार्य ने प्रवेश देने से मना कर दिया था. इसी दौरान उसकी मुलाक़ात कुछ उग्रवादियों से हुई. तब उसके विद्रोही मन को हवा मिल गई थी. रहने की व्यवस्था हो गई थी. पैसों की कोई चिंता नहीं थी. कुछ ही दिनों में हथियार चलाने की कला में भी पारंगत हो गया था वह.
वह दिन सुरजीत की जिंदगी का सबसे खतरनाक दिन था, जब वह अपने एक साथी के साथ सब्ज़ी मार्केट में बम रख आया था. उन कांपते हाथों की सिहरन आज भी याद है उसे. अगले दिन सभी अख़बारों की सुर्ख़ियों में उस सब्ज़ी मार्केट के दिल दहला देनेवाले दृश्य थे. १० आदमियों की मौत और ३० को घायल करने का सेहरा उसके सिर बंधा था. फिर तो उसे इस खेल में मज़ा आने लगा था. कई राज्यों की पुलिस उसे ढूंढ़ रही थी, पर सब की आंखों में धूल झोंककर वह बच निकल जाता,  पकड़ा भी गया तो विचारों की श्रृंखला टूटी. उसने ग़ुस्से में आकर पानी का घड़ा फोड़ डाला. कोने में पड़ा ख़त जैसे उसे चिढ़ा रहा था. सुरजीत ने ख़त उठाया, आख़िरी बार पढ़ने के लिए.
प्रिय पुत्र,
आशीर्वाद! वाहे गुरु तुझ पर कृपा करें. मैं जानती हूं कि तुम मुझसे नफ़रत करते हो. मुझे अपनी दुर्दशा के लिए ज़िम्मेदार मानते हो. मेरी तुमसे सिर्फ़ इतनी विनती है कि इस ख़त को एक बार नहीं, कई बार पढ़ना, फिर ठंडे दिमाग़ से सोचना और फ़ैसला करना.
सबसे पहले यह जान लो कि तुम्हारी मां की मौत में मेरा
नहीं, बल्कि किसी उग्रवादी का हाथ था. वह तुम्हारे पापा को लगातार धमकियां दे रहा था. वे लोग १० लाख रुपए चाहते थे. तुम्हारे पापा के लिए ये रकम कुछ भी नहीं थी. पर वे जानते थे कि एक बार रुपए दिए तो बार- बार देने पड़ेंगे. वह धमकियों के आगे झुकना नहीं चाहते थे. लेकिन उन्हें इसकी क़ीमत चुकानी पड़ी. यह बात वह इसलिए हजम कर गए, ताकि तुम्हारे अबोध मन पर नफ़रत का ज़हर न फैले. इस हादसे ने उन्हें बुरी तरह तोड़कर रख दिया था. रिश्तेदार २-४ दिनों बाद अपने घर चले गए थे.
सदमे की हालत में वह बहुत ज़्यादा शराब पीने लगे थे. मैं उनके साथ १५ सालों से काम कर रही थी. मैं ही नहीं, बल्कि पूरा विभाग उनके दुख से दुखी था. मैंने उन्हें भावनात्मक स्तर पर सहारा दिया. वह संभलने लगे. इस दौरान लोगों ने छींटाकशी शुरू कर दी. वह मेरी बदनामी नहीं चाहते थे. उन्होंने शादी का प्रस्ताव रखा और मैंने हां कर दी. जानते हो क्यों? सिर्फ़ एक नेकदिल इंसान को बचाने के लिए. मुझे तुम्हारे पापा की दौलत में न तब कोई रुचि थी, न हीं आज.
है. मेरे पिताजी मेरे नाम बेहिसाब दौलत छोड़ गए हैं, बेटा, लालच उसे होता है जिसे ज़रूरत हो. वह सारी दौलत तुम्हारी ही है और रहेगी भी.
सौतेली मां का रिश्ता सदियों से बदनाम रहा है, मैं सोचती थी कि तुम पर अपनी ममता लुटाकर मैं समाज के सामने एक उदाहरण रखूंगी, पर कुदरत को यह मंज़ूर नहीं था. तुम इतनी जल्दी मुझसे इतनी दूर चले नए कि मैं कुछ न कर सकी. तुम्हारे पापा सोचते थे कि वक़्त के साथ सब ठीक हो जाएगा, पर ऐसा नहीं हुआ.
ग़लतफ़हमियां बढ़ती गई़ और जब उन्हें महसूस हुआ कि अब तुम्हे समझाया नहीं जा सकता, वे पीछे हट गए, पर मैंने हिम्मत नहीं हारी.
मैंने पुलिस से लगातार संपर्क बनाए रखा था. उन्हें तुम्हारी तस्वीर भी दी. मैं चाहती थी कि तुम पकड़े जाओ, जानते ही क्यों? ताकि पुलिस तुम्हें किसी मुठभेड़ में न मार सके. जिस धर्म की दुआई तुम्हारे आका देते हैं, उसमें कही यह नहीं लिखा कि निर्दोष लोगों की हत्या करो. हमारे गुरुओं ने तो सदा समाज की रक्षा का पाठ पढ़ाया है. समाज को नई राह दिखाई है.
बेटे, हो सकता है कि तुम्हें मेरी ज़रूरत न हो, लेकिन इस मां को अपना बेटा वापस चाहिए. मुझे मेरा सुरजीत लौटा दो. मैं तुमसे भीख मांग रही हूं. इस बदनसीब मां की अरदास स्वीकार कर लेना. पुलिसवाले जो भी पूछे, बता देना. तुम्हें कड़ी सज़ा से बचाने के लिए जी जान लगा दूंगी, ये मेरा वादा है. और हां, ख़त बंद करने से पहले बता दूं कि तुम्हारी मां को सुक्खे नाम के उग्रवादी ने मारा था. हो सकता है तुमने उसका नाम सुना हो.

- सिमरन
आख़िरी पंक्ति पड़ते ही सुरजीत को लगा जैसे वह पागल हो जाएगा, जिस सुक्खे ने उसे बदूक थमाई, वही उसकी मां का क़ातिल था. और जिस औरत से वह नफ़रत करता रहा वो उसे अपनी ममता की छांव में सहेजने के लिए बेताब है… काफ़ी सोच-विचार करने के बाद उसने सरकारी गवाह बनने का फ़ैसला कर लिया. अब उसे सज़ा की कोई चिंता नहीं थी. पर वह अपनी मा को किसी भी क़ीमत पर खोना नहीं चाहता था. अपना दूसरा जन्म वह मां के आंचल तले बिताना चाहता था, यह विचार आते ही उसके छटपटाते मन को शांति मिल गई.

- आर. के. वशिष्ठ

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