मैं आहत थी, थोड़ा कट गई… उसे भी जुड़े रहने में हानि ही दिखी होगी, दूरियां बढ़ती गईं. दिनभर संदेशों के आदान-प्रदान से बीतने वाले दिन, अब सूने थे… उसका पता नहीं, मैं जितना रो सकती थी, रो चुकी थी…
हम दोनों की आवाज़ आंसुओं से भीगी हुई थी, वो बोलता जा रहा था और मैं अपना रोना रोकते हुए बस 'हां' 'ना' में जवाब दिए जा रही थी.
"सुबह से आपके फोन का इंतज़ार कर रहा हूं, आपके आशीर्वाद के बिना बर्थडे अधूरा है मेरा! आप तो बड़ी हो ना दीदी, आप ही मुझे डांट देतीं, आकर एक थप्पड़ लगा देती… ऐसे एकदम से बात ही करना छोड़ दिया?"
"बात मैंने करना छोड़ा?" मैं भर्राए गले से बोली, "बात करना तो तुमने छोड़ा था ना विभु... है ना? बताओ, बताओ ना."
कोई मेरा गाल थपथपा रहा था, मैंने हड़बड़ाकर आंखें खोलीं... देखा, जलज सामने खड़े थे.
"सपना देख रही थी ना? हालत देखो अपनी, चेहरा आंसुओं से तर-बतर है." जलज ने मेरे आंसू पोंछे, "सपने मे भी 'विभु विभु' बड़बड़ा रही थी. मुझे तो तुम भाई-बहन का ये नाटक समझ नहीं आता, पता नहीं किस बात पर लड़ बैठे हो दोनों आपस में, लड़ाई नहीं ख़त्म करनी है बस रोती रहेंगी यहां बैठकर. तुमने आज वैभव को विश भी नहीं किया ना? मैंने फोन किया था, तो पूछ रहा था कि दीदी कहां हैं? अब कुछ बोलोगी भी…"
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मैं इनका हाथ झटककर बाथरूम की ओर भागी और अंदर जाकर फफक कर रो पड़ी. क्या बताऊं इनको कि राई जैसी बात थी और पहाड़ जैसी दूरियां हो गईं. विभु मुझसे हर बात साझा किया करता था, चाहे बिज़नेस के उतार-चढ़ाव से उपजी आर्थिक समस्या हो या जीवनसाथी से मनमुटाव के बाद उपजी भावनात्मक, जब तक मुझसे बात नहीं कर लेता था.. परेशान सा घूमता रहता था.
" दीदी, आप भी ना हमेशा प्रीति की तरफ़दारी करती हैं, मुझे ही समझाती रहती हैं… उसको कभी कुछ नहीं कहती हैं."
"भाभी है ही इतनी अच्छी, तू ही है नालायक, लड़ता रहता है उससे.. आज घर जाकर लड़ाई ख़त्म कर." मैं हर बार बात टाल जाती थी. हालांकि प्रीति के विद्रोह में दबी चिंगारी एक दिन आग बनकर सब कुछ तहस-नहस कर देगी, ये भी मुझे दिख गया था. बात-बात पर पापा-मम्मी को जवाब देना. वैभव से भी नाराज़ होकर हफ़्तों मुंह फुलाए रहना, घर के काम को भी बोझ की तरह ढोना, मुश्किल से सालभर भी नहीं हुआ था शादी को. ऐसे में ये रवैया खटकता तो मुझे भी था, लेकिन दो कारणों से मैंने मुंह पर चुप्पी लगाई हुई थी; पहला तो ये कि शादीशुदा ननद मेहमान की तरह ही आए, तो ही ठीक है और दूसरा कारण था कि भाई की अपनी पत्नी में आसक्ति 'भक्ति' का रूप लेती जा रही थी, जिसको टोकने की ग़लती एक बार करके मैं भुगत चुकी थी.
"विभु, तुम बुरा नहीं मानना, जैसा कि तुमने बताया… लेकिन पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लगता है कि एक बार मम्मी की जगह तुम खड़े रहकर देखो तो शायद…" एक सुबह की महाभारत में मम्मी से ज़्यादा मुझे प्रीति की ग़लती दिखी, तो हिचकते हुए मैंने अपनी बात रख दी.
"आप कहना क्या चाहती हैं दीदी, ग़लती मम्मी की नहीं थी? अरे प्रीति बेचारी तो बस इतना कह रही थी…" उसके बाद की सारे वृत्तांत में प्रीति 'बेचारी' ही बनी रही. फिल्मों की दुखियारी बहू के रूप में, और मैं अपने आपको दुष्ट ननद के रूप में देख-देखकर अपराधबोध में डूबती रही. उस दिन के बाद से ये शपथ ली कि चाहे कुछ भी हो जाए, अपना मुंह बंद रखना है, होती रहे दुनिया इधर से उधर.
"क्या बात है, आज बहुत सुबह सूरज निकल आया तेरा." एक इतवार को ठीक सात बजे विभु का फोन देखकर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ.
"रात भर सोया नहीं दीदी, बस लग रहा था, कब सुबह हो.. कब आपको फोन करूं." उसका स्वर भीगा हुआ था. मैंने देखा जलज अभी सो रहे थे. मैं बिना आवाज़ किए चुपचाप फोन लेकर बालकनी में आ गई.
"क्या हुआ? कुछ बात हुई है घर में? मम्मी-पापा से?"
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"पता नहीं दीदी… कौन ग़लत है, कौन सही है. मम्मी-पापा कुछ भी कहें, इसको ख़राब लग जाता है."
"कोई बात नहीं, ये सब तो हर घर में चलता रहता है, तुम ठीक हो?" मैं कहना तो बहुत कुछ चाह रही थी कि लेकिन पिछली बार की कटु स्मृति मेरा मुंह पकड़े हुए थी.
"मेरी किसको पड़ी है? ना मैंने कल सुबह कुछ खाया ना रात को. प्रीति की तरफ़ से बोल दिया, तो मां नाराज़ हैं, बात नहीं कर रही हैं. उधर प्रीति अपना बैग लगा रही है मायके जाने के लिए… जबकि मैं बुखार में हूं."
इसके बाद मुझसे रहा नहीं गया. पहले तो मां को फोन करके समझाया. फिर भाभी को. सब कुछ सामान्य होने के बाद फिर वैभव को फोन किया, "देखो विभु, प्यार और सम्मान अपनी जगह है, लेकिन हर बात की एक हद होती है कि नहीं? चलो, सास-बहू की आपस में नहीं बनती, भाभी को तुम्हारा ध्यान तो रखना चाहिए. तुम अपने संबंधों में अपनी इज़्ज़त तो बनाकर रखो..." भावावेश में पता नहीं मैं क्या-क्या बोलती जा रही थी, बिना ये याद रखे कि इनकी सुलह तो हो चुकी है और अब ये फिर से उसी 'भक्ति' मोड में जा चुका होगा.
"ऐसा नहीं है दीदी, प्रीति बहुत ध्यान रखती है मेरा... आप फ़ालतू ही ये सब मत सोचिए..."
"वो तो पता है कितना ध्यान रखती है…" क्रोध मेरी जिह्वा को भटका रहा था.
" एक बात बताऊं, जितना आप जीजाजी का रखती हैं ना, उससे तो ज़्यादा ही रखती है. मुझे याद हैं सारे क़िस्से..." एक ह्रदयबेधी वाक्य उधर से आया और कलेजा छलनी कर गया. अक्सर ऐसा होता था कि भाई-भाभी के संबंध सुधारने के लिए, भाभी की फूहड़ता को ढंकने के लिए मैं अक्सर मनगढ़ंत क़िस्से सुना दिया करती थी, जैसे- "आज तो मैंने इनसे भी यही कहा कि आप बहुत आलसी हो गए हैं" या फिर "अरे, मेरे यहां ख़ुद यही हुआ… इनके कपड़े प्रेस वाले को देना मैं भूल गई...", मुझे नहीं पता था कि इन शस्त्रों का उपयोग वो मेरे ऊपर ही करेगा.
मैं आहत थी, थोड़ा कट गई... उसे भी जुड़े रहने में हानि ही दिखी होगी, दूरियां बढ़ती गईं. दिनभर संदेशों के आदान-प्रदान से बीतने वाले दिन, अब सूने थे… उसका पता नहीं, मैं जितना रो सकती थी, रो चुकी थी... भाभी और मां से औपचारिक बातें होती थीं, लेकिन उसकी आवाज़ सुने एक अरसा बीत चुका था. अक्सर उसके पुराने संदेश पढ़कर रो लेती थी, कुछ लिखती थी, लेकिन भेज नहीं पाती थी.. आज फिर बहुत रोने की इच्छा हो रही थी, बहुत देर तक, बहुत तेज़.
"बाहर आओगी या अंदर ही रोती रहोगी?" इनकी आवाज़ सुनकर मैं बाहर आई, इन्होंने बहुत प्यार से मुझे कुर्सी पर बैठाया, "देखो, हालत देखो अपनी… तुम बड़ी हो ना, कोई बात ख़राब लग गई, तो माफ़ कर दो.. ये लो फोन, एक मैसेज ही भेज दो."
जलज कितना परेशान थे मुझे देखकर, मैंने कुछ सोचकर फोन लिया, एक जन्मदिन संदेश टाइप किया और भेज दिया… एक पल के अंदर जवाब आया.
"दीदी, मैं सुबह से बार-बार फोन देख रहा था… आप नाराज़ हैं ना, मुझे आपको बहुत कुछ बताना है, अभी बताऊं या फोन पर? मैं बहुत परेशान हूं."
मेरी आंखें डबडबा गईं, इतना अधीर हो रहा है.. सच में, मैं भी कहां नाराज़गी लिए बैठी थी, उसको फोन मिलाने लगी. अचानक हाथ रुक गए… जलज को देखकर अपराधबोध हुआ, इन सबमें ये कितना परेशान हुए, मेरे दुख से दुखी, मेरे सुख से सुखी…
मैंने एक लंबी सांस लेकर टाइप करना शुरू किया, "तुम बार-बार फोन देख रहे थे, तो ख़ुद फोन क्यों नहीं किया? मैं नाराज़ थी, तुम जानते थे, तुमने तो एक भी कोशिश नहीं की सब ठीक करने की. तुमने कहा, तुम परेशान हो… कौन परेशान नहीं है? अपनी समस्याएं ख़ुद सुलझाने की कोशिश करो, बच्चे नहीं हो अब तुम. और हां… अभी तो तुम्हारे जीजाजी के साथ बाहर जा रही हूं, रात में या कल फोन करूंगी."
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