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कहानी- पछतावा… (Short Story- Pachhtava…)

मैंने तो सासों के गढ़े-गढ़ाये सांचे देखे थे. निर्मम, क्रोधी, असहिष्णु, संकीर्ण… यहां जो मिला, वह न्यारा था. उसे समझना उस पर विश्वास कर पाना कठिन था. समय की ज़रूरत थी और समय ही नहीं मिला था. शेष रह गया पछतावा…

आज बरसी थी मम्मी की. राहुल उदास बैठे थे. यूं तो पिछले पूरे वर्ष उनके चेहरे पर मुस्कान नहीं दिखी. सुबह नहा कर फूलों की माला फोटो पर चढ़ा रहे थे, तो एक टीस सी उठी थी मेरे कलेजे में… इस तरह की टीस पिछले दिनों अक्सर उठती रही है.
उनके रहते मैं कभी नहीं जान पाई कि उनकी शख्सियत इस घर के लिए कितनी अहम् थी. चारों तरफ़ सूनापन पसर गया है… सन्नाटा सा… वे अलग थीं… बिल्कुल अलग… तभी तो नहीं समझ पाया कोई उन्हें, वह भी कहां कद्र कर पाई उनकी भावनाओं की. उसे हर वक़्त वे जो कहतीं या करतीं, उसमें सच्चाई कम और खोखले आदर्शवाद का भ्रम ज़्यादा बना रहा, कितना ग़लत सोचती थी वह…
याद है मुझे वह पहली मुलाक़ात… वे अपने इकलौते बेटे के लिए देखने आई थीं मुझे. बड़े ध्यान से देख रही थीं. जो कुछ उन्होंने मुझसे पूछा… अमूमन बेटे की मांएं वह सब नहीं पूछा करतीं. चूंकि मेरे पापा डॉक्टर हैं, उनका पहला प्रश्न था, "तुम डॉक्टरी के प्रोफेशन को किस रूप में लेती हो? पिछले वर्ष की दो-तीन राष्ट्रीय स्तर की घटनाएं क्या थीं… खाली वक़्त में क्या करना चाहोगी?" मां ने कहा 'पढ़ना' तो बोलीं, "कैसी पुस्तकें, कौन सी पत्रिकाएं?"
सगाई होने के बाद आईं, तो उन्होंने एकांत में बात करने की इच्छा ज़ाहिर की. मैं बिल्कुल घबरा गई… न जाने उस वक़्त अच्छा लगा था मेरे प्रति प्यार का अथाह सागर हरहरा रहा या उनकी आखों में…
"अंजू बेटी, जितना तुम्हें देख कर समझ पाई हूं, उससे तुमने मुझे मोह लिया है. आज एक अहम् बात पर तुमसे सलाह करनी है. देखो यह तो नहीं कहती कि हमारे पास दौलत के ख़ज़ाने है. मगर तुम्हें कभी कोई अभाव नहीं रहेगा. दूसरी बात कि जितना एक मां अपनी बेटी की ज़रूरतों को समझकर पूरा कर पाती है, कदाचित उतना में न कर पाऊं. इस पर भी मेरे विचार में भौतिक वस्तुओं के चाह की कोई सीमा नहीं होती. नित नई आती हैं और इच्छाएं मचल पड़ती हैं. इंसान की अनंत इच्छाएं ही उनके पतन का कारण बनती है. असल में हम दहेज नहीं लेना चाहते, मगर सिर्फ़ हमारे चाहने भर से तुम्हें वंचित होना पड़े और बाद में तुम्हें इसका मलाल रहे. तुम समझ रही हो न में क्या कहना चाहती हूं. आख़िरकार तुम्हारी राय जान लेना सबसे ज़रूरी है, क्योंकि इसका सीधा असर तुम पर पड़ने वाला है."

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मेरी समझ में ठीक ठीक तो कुछ नहीं आया था. मैं उनके व्यक्तित्व तथा नपे-तुले शब्दों में बोलने के अंदाज़ में कुछ आतंकित हो गई थी या फिर उनकी आत्मीयता, सहजता, मेरे देखे सास-बहू के रिश्ते के ठंडेपन से कहीं मेल नहीं खा रही थी. उस वक़्त मैंने यही कहा था, "जैसा आप चाहें, मुझे कोई एतराज़ नहीं, बल्कि यह तो ख़ुशी की बात है."
ख़ुशी कहां हुई थी मुझे..? हुई हो अन्दर-ही-अन्दर शायद… उनके इस निर्णय के पीछे स्पष्ट दिखती द्रव्य की अनासक्ति को कहां देख पाई थीं मेरी आंखें. कैसी अजीब बात थी, जो अच्छाई शीशे की तरह सामने थी, उसमें भी सभी को खोट नज़र आया था उस वक़्त. किसी ने कहा, "उन्हें अपनी प्रशंसा करवानी है… तभी ऐसा कर रही हैं…"
पर यह कोई नहीं सोच पाया कि पहले त्याग करना होता है, तब प्रशंसा पाने का हक़ बन पाता है.
उनके अपने रिश्तेदारों को यह निर्णय अटपटा लगा. जो कार्य लीक से घटकर हो, वह अटपटा तो लगना ही था. मुझे उन्होंने लाखों की भीड़ से छांट कार अपने बेटे के लिए चुना, उसका कारण मेरी शिक्षा, मेरा व्यक्तित्व भले वह साधारण ही रहा हो, परंतु उन्हें मुझमें अंतहीन संभावनाएं नज़र आई थीं, उसकी अहमियत में ही नहीं जान पाई.
मुझे थोड़ा उदास देखते ही राहुल से कहतीं, "घुमा लाओ इसे या मम्मी से कलकत्ता बात कर लो. उदास मत रहो."
बाद में मां-बेटे पीछे पड़े कि मुझे पढ़ाई वापस शुरू करनी चाहिए. मैं पढ़ना चाहती थी. पढ़ भी सकती थी, लेकिन नई ज़िम्मेदारियां और पढ़ाई साथ-साथ किस तरह हो सकेगी, इस बात से आंशकित थी.
बहरहाल, एडमिशन हो गया. मुझे सुबह छह बजे कॉलेज जाना होता था, लौटती तब तक तीन-चार बज गए होते थे. नींद पूरी न हो पाती कि उठने का वक़्त हो जाता. दिनभर बाहर रहने के कारण घर के पूरे काम मम्मी को करने पड़ते, यह बात मुझे अक्सर कचोटती रहती. उन्होंने एक बार भी ज़ाहिर नहीं किया कि इससे उन्हें कोई तकलीफ़ है, बल्कि अपनी सहमती व सहयोग में कभी कमी नहीं आने दी.
कॉलेन का पहला दिन था. राहुल को कोई काम निकल आया था. मैं मुंबई के लिए नई थी. यहां के रास्ते, यहां की लोकल गाड़ियों से मेरा विशेष परिचय नहीं हो पाया था. मम्मी मुझे कॉलेज छोड़ने गईं. राहुल ने हम दोनों की साथ जाते हुए फोटो ली. राहुल कितने गहरे हैं. जानते हैं ये लम्हे शायद कम लोगों के नसीब में होते हैं कि कोई सास बहू को कॉलेज छोड़ने जाए. मैं अपने मनोगत भावों को छुपा लेने में सिद्धहस्त हूं, परंतु उस दिन राहुल के साथ न जा पाने की झुंझलाहट ऐसी थी कि यह न सोच पाई कि उनके साथ जाने के अवसर आते ही रहेंगे… याद नहीं, पर मैंने कुछ ऐसी प्रतिक्रिया दिखाई कि मम्मी एकदम बुझ सी गईं.

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परीक्षा के दिनों में घर के किसी कार्य को न करके पढ़ाई करने की कड़ी ताकीद थी उनकी. मेरे मन में एक अपराधबोध था, जो मुझे करना था, वह नहीं कर पा रही थी. अतः अक्सर झुंझला जाती. वे मेरी इस झुंझलाहट को समझ गई थीं. अंतः मेरी किसी बचकानी प्रतिक्रिया का बुरा न मानतीं. काश! में समझ पाती कि उन्हें बहू लाकर काम से निजात पाने से ज़्यादा ज़रूरत बेटी बनाकर मुझे अपने क़रीब लाने की है.
कभी पड़ोसन से कहते सुना था मैंने, "तुम्हारी नीता कॉलेज से आती है, तो क्या तुम उसके भरोसे घर के काम बाकी रखती हो? उलटे जूस का ग्लास तैयार रखती हो. अपने सामने बैठाकर नाश्ता करवाती हो. फिर वह वहीं सोफे पर पसर जाती है. टीवी देखती है, फोन पर गप्पे मारती है. ये भी तो वैसी ही है. क्या फ़र्क़ है. इसमें और नीता में?" पता नहीं, मम्मी की सीधी-सच्ची बात भी मुझे क्यों छू नहीं पाई? मैं इतनी असंवेदनशील कैसे हो गई? वे जो प्रेमवश दे रही थीं, मेरे अंदर उतर ही नहीं पाता था, कदाचित सास के ऐसे निश्छल व्यवहार को मैंने देखा-सुना नहीं था.
परीक्षा देकर में कलकत्ता चली गई.
"अंजू तुम्हें फर्स्ट क्लास मिली है…" ख़ुशी से फोन पर कांप रही थी उनकीं आवाज़.
शादी के बाद प्रथम नव वर्ष की शाम घूमने जा रही थी, मम्मी ने अपनी साड़ी पहनने को दी. मुझे नकली गहने पहनते देख कर टोका, "इसके साथ वह हीरे का कंगन मैच करता है."
होटल, पिक्चर रास्ते में न जाने कंगन कहां गिर गया. बहुत ढूंढ़ा. डर रही थी मैं. मैंने तो शीशे का एक ग्लास तक टूट जाने पर सासों को डांटते देखा है. न जाने क्या करेंगी… आधी रात को लौटे थे. फिर सो नहीं पाई थी. रातभर में आंखें रो-रो कर सूज गई थीं… सुबह डरते-डरते किचन में खड़ी मम्मी से बोली थी, "मम्मी, वह कंगन गिर गया… कल…" सुन कर दो पल के लिए चुप रह गई थीं. फिर मेरे उतरे चेहरे व सूजी आंखों पर नज़र डालकर, ठहरे हुए शब्दों में बोली थीं… "जो गिर गया, वह वापस आने से रहा, मन ख़राब करने से क्या फ़ायदा ?" उनकी बात सुनकर मेरी जान में जान आ गई थी. इस वाक्य के पीछे छिपी उनकी उदारता को आक पाने की सामर्थ्य मेरे पास नहीं था.
पिछले दिनों वे अस्वस्थ चल रही थीं. कभी बुखार, दर्द, सर्दी… राहुल के अड़ जाने पर डॉक्टर को दिखातीं, वरना यूं ही चलता रहता. दिनभर में चार-पांच घंटे वे हमेशा पत्र-पत्रिकाएं पढ़ती. हिन्दी साहित्य में उनकी गहरी रुचि व समझ थी. बहुत पढ़ते रहने के कारण उन्हें प्रत्येक क्षेत्र की जानकारी थी. फिर भी मुझसे ही पूछतीं, "अंजू, यह दवाई ले लूं…" या किसी को उपहार देना है तो "क्या ठीक रहेगा," मेहमान आते तो "क्या बनाया जाए मेनू बताओ." ख़ुद के मन में कुछ और होता, मगर जो मैं कह देती वह कभी न टालती. इन रोज़मर्रा की छोटी-छोटी बातों से मेरे प्रति उनका विश्वास छलकता था… या फिर वे स्वयं आश्वस्त होना चाहती थीं.
ऐसा भी नहीं था कि उन्हें कभी क्रोध आता ही न हो. पापा से, राहुल से उनकी‌ तकरार होती. वे नाराज़ हो जातीं. रोतीं खाना नहीं खातीं, मगर मुझे उन्होंने उसे शब्दों में कभी कुछ नहीं कहा. राहुल इस पक्षपात की वजह पूछता, तो कहतीं, "वह ऐसा कुछ करती ही नहीं कि कुछ कहने की गुंजाइश रहे." मेरे और राहुल के बीच भी कोई बात होती, तो हमेशा मेरा पक्ष लेतीं. मेरे जन्मदिन पर भी राहुल के जन्मदिन से ज़्यादा तामझाम करतीं. राहुल तुनकता, तो उनका जवाब होता, "तू पगला हे रे.. इसे आज के दिन ऐसा न लगे कि मायके में यह होता था, वह होता था…" और ये सब सुन कभी मैं तटस्थ बनी रहती, मेरा भी मन करता कि वे सभी ज़िम्मेदारियों से मुक्त होकर आराम करें. मैं उनकी सेवा करूं, मगर यह सब कहना ही नहीं आया मुझे… नहीं कह सकी कभी… मुझे गुड़ियों का बड़ा शौक था बचपन में.
एक सुंदर गुड़िया दी थी मासी ने मुझे. मम्मी एक दिन बाज़ार से हरे रंग का ऊन ले आईं. गुड़ियों की घेरदार फ्रॉक, छोटे-छोटे जूते, फुवने बाली टोपी बनाने में २-३ दिन जुटी रहीं. बेटियों की गुड़िया को सजाना-ब्याहना न कर पाने की भरपाई की छोटी सी कोशिश थी शायद वो. मेरे मायके से बुलावे का फोन आते ही मुझे भेजने को बैचेन हो जातीं. कभी इंकार नहीं किया.


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हमारे बीच कभी मन मुटाव नहीं हुआ, इस पर भी उनके प्यार से छलकते निःस्वार्य को मैंने समझा होता, तो कम-से-कम कुछ तो लौटा पाती जो उनका वाजिब पावना था मुझसे… अब पछताने से क्या फ़ायदा.
उन्हें समझता था राहुल. अक्सर राजनीति, संगीत, साहित्य, सिनेमा व सामाजिक घटनाओं पर मां-बेटे बातें करते रहते. राहुल को नींद देरी से आती और मम्मी को गोली लेने पर, जबकि मुझे तकिए पर माथा रखते ही नींद आ जाती.
राहुल देर रात तक मम्मी के साथ बातें करता रहता. वे बीच-बीच में टोकती, "जा कमरे में ना, अंजू इंतज़ार कर रही है." कई बार ख़ुद उठ कर सोने चली जातीं. तब राहुल उठता, मैं पता नहीं क्या महसूस करती. अब मुझे समझ आया कि मम्मी के साथ होनेवाली बहसें राहुल की मानसिक व बौद्धिक खुराक़ थीं. मम्मी कितना चाहती थीं कि मैं भी साथ बैठूं और पूरी स्वतन्त्रता के साथ अपने विचार रखूं, पर मैं नहीं बन पाई उनकी गोष्ठी की सदस्या.
तभी राहुल साल भर से अनमने है. बिल्कुल चुप से. मां का चला जाना असहनीय तो है ही, साथ ही वे लम्बी बहसे, मतभेद और पूरी संजीदगी से अपने पक्ष को स्पष्ट कर पाने व सुन लेने वाला अब कोई नहीं है. कोई ऐसा भी नहीं कि क्रोध से उबलते राहुल को दुगुने क्रोध से डपट कर शांत, कर दे. मां-बेटे के लाख चाहने पर भी उनकी बातों में मैं रस नहीं ले पाई. यदि ले पाती, तो आज राहुल को संवेदनात्मक सहारा दे पाती. पर दोष मेरा कितना था… मैंने तो सासों के गढ़े-गढ़ाये सांचे देखे थे. निर्मम, क्रोधी, असहिष्णु, संकीर्ण… यहां जो मिला, वह न्यारा था. उसे समझना उस पर विश्वास कर पाना कठिन था. समय की ज़रूरत थी और समय ही नहीं मिला था. शेष रह गया पछतावा…

- निर्मला डोसी

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