कमरे में केसरिया किरणों के शुभागमन से पता चला कि रात बीत चुकी है. रातभर की जगी सुर्ख लाल आंखों में गुज़रे हर पल का खुमार अब भी बाकी था. नववधू की तरह लजाकर उठी, तो अनूप ने इशारे से मुझे अपने पास बुलाया और कान में फुसफुसा कर कहा, "हनीमून कैसा रहा?"
अनूप की बात सुनकर मैं ज़ोर से ठहाका लगा कर हंस पड़ी. बड़ी मुश्किल से हंसी काबू में रखते हुए बोली, "अनूप, तुम ये क्या कह रहे हो? हनीमून और इस उम्र में? तुम्हें पता है, तुम पूरे ६५ के हो गए हो और मैं ६० की. बेटे-बहू क्या कहेंगे. पोते-पोतियां तो ख़ूब हंसेंगे और मज़ाक बनाएंगे और पड़ोसी तो यही कहेंगे बुढ़ापे में सठिया गए हैं."
अनूप गंभीर स्वर में बोले, "अमिता, तुम्हें सबकी फ़िक्र है कि कौन क्या कहेगा? लेकिन तुमने कभी यह भी सोचा कि हम लोगों ने अपने वैवाहिक जीवन के ४० वर्ष के इतने लंबे समय में अपने सुख के लिए कभी ४० मिनट भी निकाले हों. तुम हर वक़्त घर-गृहस्थी के जंजाल में उलझी रहीं और मैं परिवार के पालन-पोषण, भाई-बहनों व बच्चों के उज्जवल भविष्य के लिए अर्थव्यवस्था सुदृढ़ करने में उलझा रहा."
अनूप की बातें सुनकर मेरा मन छलछला उठा. सच. हम लोगों ने अपने ४० वर्षीय वैवाहिक जीवन का कोई ऐसा सुखद क्षण नहीं जीया, जो सिर्फ़ हमारा अपना रहा हो. भरे मन से नम आंखों को मूंदा, तो ४० वर्ष पुराना अतीत सजीव हो उठा.
१६ साल पूरे होते ही अनूप से शादी हो गई. विवाह पूर्व अनूप को देखा भी न था. फेरों के वक़्त लंबे घूंघट से अनूप का चेहरा देखने का असफल प्रयास करती रही.
मेहमानों से खचाखच भरी ससुराल में एक छोटी सी अंधेरी कोठरी हमारा सुहागकक्ष बनी. सुहागकक्ष बनी इस कोठरी से बाहर बरामदे में मेहमानों की उच्च वार्तालाप और हंसी-ठिठोली की वजह से हम दोनों के मध्य वार्तालाप स्थापित ही न हो सका. चुपचाप दोनों एक-दूसरे को ताकते रहे. हमने इस भय से भी बातें नहीं की कि कहीं कोई सुन न लें. उस रात देह सुख तो दूर स्पर्श सुख का भी आनंद न ले सके हम. सुबह चार बजे ही बड़ी-बूढ़ियों ने अपनी ऊंची बातों के इशारे से संकेत दे दिया कि अच्छी बहुओं को सुबह जल्दी उठना चाहिए.
दूसरे दिन से शुरू हुआ वैवाहिक जीवन का अध्याय, सास-ससुर की सेवा, तीन देवर व दो ननदों की ज़िम्मेदारी, घर-गृहस्थी का सम्पूर्ण दायित्व, अपने बच्चों का पालन-पोषण, फिर सभी के शादी-ब्याह, तीज-त्योहार, नाते-रिश्तेदारी इन्हीं सबको निभाते-निभाते ४० वर्ष कब बीत गए पता ही न चला.
मेरा कंधा झिंझोड़कर अनूप ने मुझे वापस वर्तमान में ला पटका, हंसकर बोले, "हम अपना हनीमून आगरा में मनाएंगे, प्रेम के प्रतीक ताजमहल में हम भी अपने प्यार को जवां करेंगे."
मुझे शरारत सूझी, "मनाली में क्यों नहीं? क्या इस उम्र में हम लोग कुल्लू मनाली की हसीन वादियों में एक-दूसरे की बांहों में बांहे डालकर अपना हनीमून नहीं मना सकते? इस उम्र में बर्फ़ से खेलने का आनंद हमारे यौवनकाल को पुन: जीवित कर देगा."
मेरे कंधे पर प्यार से हाथ रखते हुए अनूप बोले, "पहले मेरा भी वहीं जाने का इरादा था, लेकिन तुम अस्थमा की मरीज़ हो और मैं उच्च रक्तचाप का, अत: अपने स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए हमारा वहां जाना उचित न होगा. आगरा पास ही है. मात्र तीन घंटे का सफ़र है. टैक्सी का प्रबंध करके आता हूं. तुम चलने की तैयारी करो."
मैं आगरा जाने की तैयारी एक नववधू की तरह करने लगी. अच्छी अच्छी सभी साड़ियां रख लीं. अपनी एक स्लीवलेस सिल्क की नाइटी भी रख ली, जी अनूप दिल्ली से काफ़ी साल पहले लाए थे. शर्म की वजह से कभी पहनी ही न थी. अनूप ने टैक्सी का प्रबंध कर लिया.
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घर में जब सबको बताया गया, तो वही हुआ, जिसकी मुझे शंका थी. बड़े बेटे ने कहा, "पापा, इस उम्र में आपका और मम्मी का घूमना उचित नहीं है. कहीं तबियत वगैरह बिगड़ गई तो?" बहुएं हंस रही थीं.
छोटी बहू बड़ी बहू से कह रही थी, "दीदी, मुझे तो लगता है मम्मी-पापा को बुढ़ापे में जवानी का जोश पुनः आ गया है."
नन्हीं पोती दादाजी को नसीहतें दे रही थी, "दादाजी, दादी का हाथ पकड़ कर चलना कहीं दादी खो न जाएं." बहुओं की असीम कृपा से कॉलोनी भर में यह ख़बर जंगल की आग की तरह फैल गई कि बुढ़ापे में अनूप हनीमून मनाने जा रहे हैं.
सभी के व्यंगबाण हमारे अटल निर्णय को डगमगा न पाए. लेकिन चलते समय फ़रमाइशी लिस्टों के ढेर लग गए. बहुओं ने अपनी मनपसंद चप्पलें व सैंडिल मंगवाई, तो बेटों ने जूते, पोते-पोतियों ने आगरे का पेठा. पड़ोसियों ने संगमरमर के ताजमहल के शोपीस, पेठा व नमकीन मंगवाए.
सुबह टैक्सी से आगरा के लिए रवाना हुए. ४० वर्षों में पहली बार हम दोनों अकेले पात्रा का आनंद ले रहे थे. ड्राइवर के ब्रेक लगाने के झटके से जब हमारे शरीर आपस में टकराते, तो उस क्षणिक स्पर्श सुख से हमारे आनंद में दोगुनी वृद्धि हो जाती.
तीन घंटे के सफ़र के बाद आगरा पहुंच गए. अनूप ने अपने बजट के अनुसार एक अच्छा होटल तलाश किया. कमरे में आकर, थकान मिटाने के लिए चाय का ऑर्डर कर दिया. इस दौरान अनूप ने मुझे अपनी बांहों में भरकर चूम लिया. उस स्नेहित चुम्बन से बुढ़ापे के शरीर में भी एक रोमांच हो उठा. लजाकर बड़ी अदा से बोली, "छोड़ो भी, कोई देख लेगा."
बांहों में समेटते हुए अनूप बोले, "पगली यहां कौन देख लेगा."
चाय पीकर अनूप बोले, "तुम जल्दी से तैयार हो जाओ आज पूरा दिन ताजमहल में गुज़ारेंगे. कल लाल किला और दयाल बाग और परसों फतेहपुर सीकरी घूमेंगे." कहते हुए पूरे भावी कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत कर दी.
लेकिन मैंने सुझाव दिया, "पहले बाज़ार चलकर ख़रीददारी कर लेते हैं, जिसने जो कमरे मंगाया वह आज ही ख़रीद लेते हैं. बाद में कहीं ख़रीद नहीं पाए, तो सभी लोग नाराज़ हो जाएंगे."
अनूप को मेरा सुझाव पसंद आ गया. शॉपिंग बैग लेकर निकल पड़े बाज़ार. पूरा दिन ख़रीददारी करते रहे. जूते-चप्पलों की नाप, रंग और डिज़ाइन के लिए सैकड़ों दुकानों के चक्कर काटने पड़े. शाम होते ही थकान महसूस होनी लगी. अस्थमा की वजह से मुझे खांसी शुरू हो गई, साथ ही अनूप का भी रक्तचाप बढ़ गया. वापस होटल आ गए.
अपने साथ लाई दवा ली, लेकिन फ़ायदा न हुआ. उच्च रक्तचाप की वजह से अनूप को सिरदर्द और घबराहट महसूस हो रही थी. अंततः अनूप ने होटल मैनेजर से कहकर डॉक्टर को बुलवाया.
डॉक्टर ने चेकअप करने के बाद हमें उचित सलाह देते हुए कहा, "अगर आप लोग आगरा घूमना ही चाहते हैं, तो यह दवाइयां लेकर यहीं ८-१० दिन आराम करने के बाद ही घूमिएगा. इस हालत में घूमने से आप दोनों की तबियत और बिगड़ सकती है."
अनूप उदास हो गए. बोले, "८-१० दिन रुकना तो नामुमकिन होगा, क्योंकि यह हमारे बजट से बाहर है." मेरे हाथों को अपने हाथों में दबाकर बोले, "मैं भी कैसा पति हूं, जो ज़रा सी भी ख़ुशी न दे पाया."
मैने अनूप के मुंह पर हाथ रखते हुए कहा, "कैसी बातें कर रहे हो. हम दोनों ने आज पूरा दिन एक साथ बिताया यह क्या कम है?"
अनूप की आंखें भर आईं. मुझे अपनी तरफ़ खींचकर सीने से लगा लिया. पूरी रात ढेरों प्यार की बातें होती रहीं. भविष्य के सुनहरे सपने बुने. अस्वस्थ्य होने के बावजूद भी पूरी रात हर क्षण को भरपूर उल्लास, उत्साह, उमंग और तन्मयता से जिया. कमरे में केसरिया किरणों के शुभागमन से पता चला कि रात बीत चुकी है. रातभर की जगी सुर्ख लाल आंखों में गुज़रे हर पल का खुमार अब भी बाकी था. नववधू की तरह लजाकर उठी, तो अनूप ने इशारे से मुझे अपने पास बुलाया और कान में फुसफुसा कर कहा, "हनीमून कैसा रहा?"
मैं लाज से दोहरी होकर अनूप के सीने से पुनः लग गई.
- डॉ. अनिता राठौर मंजरी
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