कहीं 3-4 साल की मासूम बच्चियां, तो कहीं डॉक्टर और नर्स, कहीं कॉलेज की छात्रा, तो कहीं बहन और दोस्त…. स्कूल, कॉलेज, हॉस्पिटल, घर या फिर चलती बस, क्या कोई जगह है, जहां महिलाएं सुरक्षित हैं? महिलाओं के ख़िलाफ़ अत्याचार और दरिंदगी की हद पार करते ये मामले कई सवाल खड़े कर रहे हैं…
क्या विश्व में पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला हमारा देश बतौर सभ्य समाज फेल हो रहा है? क्या एडवांस होती टेक्नोलॉजी सुरक्षा की बजाय असुरक्षा का माहौल बढ़ा रही है? क्या हम अपने बच्चों को सही परवरिश दे पा रहे हैं? क्या पुलिस, प्रशासन और न्याय व्यवस्था महिलाओं को सुरक्षित रख पाने में फेल हो रहे हैं? या फिर हम बतौर इंसान ही फेल हो रहे हैं? कौन और क्या है महिलाओं के ख़िलाफ़ बढ़ते इन जघन्य अपराधों के लिए ज़िम्मेदार, आज यह सवाल पूरा देश पूछ रहा है.
हर दिन बलात्कार के 86 मामले
महिलाओं के ख़िलाफ़ बढ़ रहे बलात्कार के मामलों की बात करें, तो आज देश में स्थिति इतनी भयावह है कि नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक़ 2012 में बलात्कार के 24 हज़ार 923 मामले दर्ज़ हुए थे यानी हर दिन औसतन 68 मामले सामने आए थे, जबकि वहीं साल 2022 में यह आंकड़ा बढ़कर 31 हज़ार 516 पहुंच गया यानी हर रोज़ लगभग 86 मामले सामने आए. यानी घंटे के हिसाब से देखें, तो हर एक घंटे में 3 मामले और हर 20 मिनट में एक महिला इस जघन्य अपराध की शिकार हो रही है. इसका मतलब यह भी कि इस समय जब आप यह लेख पढ़ रही हैं, उस समय देश के किसी कोने में कोई महिला शायद इस अपराध की शिकार हो रही हो.
96% से ज़्यादा मामलों में आरोपी जान-पहचानवाले
इस अपराध से जुड़ा यह एक बहुत कड़वा सच है कि बलात्कार के 96% से ज़्यादा मामलों में आरोपी पीड़ित महिला का कोई नाते-रिश्तेदार, पड़ोसी, दोस्त या जान-पहचानवाला ही होता है. साल 2022 के आंकड़ों के मुताबिक़ 31 हज़ार 516 मामलों में से 30 हज़ार 454 मामलों में आरोपी जान पहचानवाले ही थे. इसे विडंबना कहकर टाला भी नहीं जा सकता, क्योंकि यह हमारे समाज का वह घिनौना चेहरा दिखाता है, जहां अपने ही अपनों की इज़्ज़त लूट रहे हैं.
यह भी पढ़ें: विमेन सेफ्टीः ख़ुद करें अपनी सुरक्षा (Women Safety: Top Safety Tips Which She needs to Follow)
क़ानून हैं सख़्त, पर सज़ा की दर बहुत कम
बलात्कार के मामलों में फांसी तक की सज़ा का प्रावधान है, पर पिछले 24 सालों में सिर्फ़ 5 दोषियों को ही फांसी की सज़ा मिली है. हमारे देश में शायद लोग सज़ा से इसलिए भी नहीं डरते, क्योंकि बलात्कार के मामलों में सज़ा की दर यानी कन्विक्शन रेट लगभग 27 से 28 प्रतिशत ही है यानी 100 में से केवल 27-28 दोषियों को ही सज़ा मिलती है और बाकी बरी हो जाते हैं. भारत के मुक़ाबले दुनिया के दूसरे देशों में बलात्कार के मामलों में सज़ा की दर 60% से ज़्यादा है.
क़ानून बदले, पर बदलाव नहीं
साल 2012 में निर्भया कांड के बाद आईपीएसी की धारा 375 में संसोधन कर बलात्कार की परिभाषा का दायरा बढ़ाया गया. पहले जहां बलात्कार के मामले में ज़बर्दस्ती और असहमति पर ज़्यादा ज़ोर दिया गया था, उसे बदलकर पेनिट्रेशन पर ज़्यादा ज़ोर दिया गया. इसके साथ ही जुवेनाइल की उम्र को भी घटाया गया, ताकि 18 साल से कम उम्र के अपराधियों के साथ भी वयस्कों जैसा व्यवहार किया जाए. ऐसा इसलिए किया गया था, क्योंकि निर्भया का एक अपराधी नाबालिग था, जो तीन साल की सज़ा के बाद रिहा हो गया था. क़ानून में बदलाव के बावजूद अपराध के आंकड़े साल दर साल बढ़ते ही जा रहे हैं, जो अच्छा संकेत नहीं है.
नए क़ानून में नाबालिग से बलात्कार के लिए मृत्युदंड
हाल ही में देश में 3 नए क़ानून बने हैं, जिनमें महिलाओं के ख़िलाफ़ हो रहे अपराध को रोकने के लिए कई महत्वपूर्ण बदलाव किए गए हैं. हालांकि जैसा आईपीसी की धारा 376 में बलात्कार की सज़ा का प्रावधान था, उसमें कोई बदलाव नहीं किया गया है. नए क़ानून भारतीय न्याय संहिता में भी बलात्कार की सज़ा कम से कम 10 साल है, जिसे बढ़ाकर उम्रकैद तक किया जा सकता है. लेकिन पहली बार इस नए क़ानून की धारा 65 में नाबालिग यानी 12 साल से कम उम्र की बच्ची के साथ दुष्कर्म का दोषी पाए जाने पर मृत्युदंड की सज़ा का प्रावधान शामिल किया गया है. पर हैरानी की बात है कि मृत्युदंड के इस कठोर क़ानून के आने के बावजूद देश में नाबालिग के साथ बलात्कार के मामलों में कोई कमी नहीं आई है, बल्कि कोई सप्ताह ऐसा नहीं बीतता होगा, जब ख़बरों में हमें रेप, गैंगरेप और मर्डर के मामले सुनाई नहीं देते.
यह भी पढ़ें: हर वर्किंग वुमन को पता होना चाहिए ये क़ानूनी अधिकार (Every Working Woman Must Know These Right)
बलात्कार के कारण हुई मौत, तो मिलेगी मौत की सज़ा
आईपीसी की धारा 376-ए और भारतीय न्याय संहिता की धारा 66 में साफ़ दिया गया है कि अगर बलात्कार के कारण महिला को ऐसी चोट लगती है, जिससे वो कोमा जैसी स्थिति में चली जाती है या फिर उसकी मौत हो जाती है, तो दोषी को कम से कम 20 साल की जेल होगी, जिसे बढ़ाकर उम्ऱकैद या फिर सज़ाए मौत भी किया जा सकता है. यह अच्छी बात है कि दिन-ब-दिन क़ानून को कठोर बनाने पर ज़ोर दिया जा रहा है, पर जब तक इसे अमल में नहीं लाया जाता, इसका असर दिखाई नहीं देगा. सज़ा का होना ज़रूरी नहीं है, उसका लोगों को नज़र आना भी ज़रूरी है कि अपराध करने पर सज़ा मिलती है. हमारा समाज बेहतर तभी हो पाएगा, जब लोगों में क़ानून का डर होगा.
मानसिकता बदलने की है ज़रूरत
हाल ही में महाराष्ट्र के बदलापुर में 3-4 साल की मासूम बच्चियों से हुए सेक्सुअल असॉल्ट मामले में बॉम्बे हाई कोर्ट ने पुलिस से लेकर प्रशासन तक सबको अपने काम में कोताही बरतने के लिए फटकार लगाई है. लेख के शुरुआत में हमने जो सवाल उठाए हैं, उनमें से एक की तरफ़ बॉम्बे हाई कोर्ट की जज जस्टिस रेवती डेरे ने हमारा ध्यान खींचा है. बलात्कार की बढ़ती घटनाओं के मद्देनज़र उन्होंने मामले की सुनवाई के दौरान कहा कि हमें लड़कों को छोटी उम्र से ही महिलाओं के प्रति मान-सम्मान और लैंगिक समानता के बारे में सिखाना चाहिए, ताकि इस समय जो मानसिकता है, उसे बदला जा सके. आज भी हमारे समाज में महिलाएं अबला और कमज़ोर हैं और यह पुरुष प्रधान समाज है, इस सोच की गहरी पैठ है. इस सोच को बदलने की ज़िम्मेदारी पुरुषों से ज़्यादा हम महिलाओं की है, क्योंकि बच्चों पर पिता से ज़्यादा मां का प्रभाव पड़ता है.
यह भी पढ़ें: महिलाओं के लिए क्या कुछ नया है, नए क़ानून में? (What Is New For Women In The New Law?)।
किसे ठहराएं ज़िम्मेदार?
कोई पुलिस के ढीले रवैय्ये को, कोई न्याय व्यवस्था की कमज़ोरियों को, कोई आसानी से उपलब्ध होनेवाले पॉर्न वीडियोज़ को, तो कोई लचर सामाजिक व्यवस्था को इसका ज़िम्मेमदार बताता है. दूसरों की तरफ़ उंगली उठाना आसान है, पर हम भी तो इसी सिस्टम और समाज का हिस्सा हैं, हम क्यों भूल जाते हैं कि समाज हम जैसों से ही बनता है. हम कितनी भी कोशिश कर लें, अपनी ज़िम्मेदारियों से पल्ला नहीं झाड़ सकते. एक सही पुलिस अधिकारी, एक सही सरकारी अफसर, एक सही वकील, एक सही टीचर और एक सही मां बनकर हम समाज की सोच को बदलने में मदद कर सकते हैं. हमें अपने साथ-साथ आनेवाली पीढ़ी की सोच को भी बदलना होगा. अब समय आ गया है कि बेटी पढ़ाओ, बेट बचाओ की जगह ’बेटों को सिखाओ और समझाओ’ जैसे राष्ट्रीय मुहीम की हमें शुरुआत करनी होगी. ख़ासकर महिलाओं को ख़ुद को कमज़ोर समझना बंद करना होगा, क्योंकि जब तक आपकी सोच नहीं बदलेगी, आप दूसरों की सोच नहीं बदल पाएंगी. तो शुरुआत ख़ुद से करें, अपने घर से करें. एक-एक घर से ही समाज बनता है, इसलिए जितने घरों में बदलाव होगा, सामाजिक बदलाव उतनी ही तेज़ी से नज़र आएगा.
- एडवोकेट अनीता सिंह
Photo Courtesy: Freepik
अभी सबस्क्राइब करें मेरी सहेली का एक साल का डिजिटल एडिशन सिर्फ़ ₹599 और पाएं ₹1000 का गिफ्ट वाउचर.