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कहानी- सवाल आसमां के… (Short Story- Sawal Aasman Ke…)

प्रीति सिन्हा

“वे सही कह रहे हैं. तुम इतनी दुर्बल नहीं हो जितना तुम अपने आपको समझ रही हो. तुम बहुत मज़बूत थी और आज भी हो. अपनी ख़ुशी और स्वेच्छा से आसमां से उतरकर सीधे धरातल पर आना आसान नहीं होता. फिर भी तुम्हारा मन और शरीर कभी मुरझाया नहीं…”

आंखें खुली थीं, होंठ कुछ कहने को थरथरा रहे थे, किंतु आवाज़ गुम हो गई थी. कमरे में पीले लैंप की रोशनी में वेद को देखा था नीलांजना ने. उनकी आंखें निस्तेज थीं. सूनी आंखों से वह उसे देख रहे थे. पूरा कमरा मौन था किंतु… नभ की बातें दीवारों से बार-बार टकराकर शोर मचा रही थीं. वह कमरे में नहीं था. लगभग एक घंटे पहले बाहर निकल चुका था. नीलांजना वेद के हाथों को पकड़े जड़वत अब भी पलंग पर बैठी थी.
एक घंटे पहले की बात थी.
“मम्मी तुम क्या जानो, करियर क्या होता है. मां-बाप अपने बच्चों के लिए सपने देखते हैं, मैं मानता हूं उन सपनों को पूरा करने के लिए अथक परिश्रम करते हैं, किंतु यह तो हर पैरेंट्स करते हैं.”
उसका शरीर कांपा था. उसने ज़ोर से दरवाज़े के हैंडल को पकड़ लिया, वरना गिर जाती. “ज़रा हमारे बारे में सोचिए. जिस समय हमें सबसे ज़्यादा घर और आप लोगों की ज़रूरत होती है, उस समय हम कहीं दूर होस्टल में बिता देते हैं. सारी सुख-सुविधाओं से वंचित हो, हम किताबों की दुनिया में गुम हो जाते हैं और आज जब करियर के उस मुक़ाम पर पहुंच गया हूं, तो क्या मैं पीछे लौट जाऊं?”
नभ ने अपनी आंखें बड़ी करते हुए पूछा था. “मम्मी, घर-परिवार और रसोई ही जिसका जीवन होगा, वह क्या जाने कि बड़ा आकाश या करियर होता क्या है. बहुत त्याग और परिश्रम की ज़रूरत होती है.”
नीलांजना के कंठ सूख रहे थे. आंखें भी सुखी थीं शायद. उन्हें नम होना मंज़ूर नहीं था.
“बेटा स़िर्फ एक महीने की ही बात है. आगे मैं संभाल लूंगी.”
“बात एक महीने की नहीं है. जिसके लिए मैं सालों से प्रयासरत था. आज वह मिला, तो मैं उसे छोड़ दूं? आप मेरे उत्साह, जोश और जुनून पर बांध बना रही हैं. शायद एक महीने बाद वह जुनून रहे ही नहीं.”
पांव पटकता हुआ नभ कमरे से बाहर निकल गया.
वेद उठकर बैठ चुके थे, तकिए का सहारा लेकर.
नीलांजना के झुके चेहरे को ऊपर उठाया, “कुछ मत बोलो नीलांजना. मेरा विश्‍वास है तुम्हारे पास बहुत हिम्मत और साहस है. कमज़ोर नहीं हो तुम. अकेली ही सब कुछ संभाल लोगी. एक आईआईटी टॉपर… बड़े पद की नौकरी… एक पल भी नहीं लगा था तिलांजलि देने में. इससे ज़्यादा मज़बूत और कौन हो सकता है?”
आईआईटी टॉपर…?


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इस धुंध भरे गलियारे में जाना नहीं चाहती थी नीलांजना. इस गलियारे का किवाड़ उसने सालों पहले बंद कर दिया था. किंतु वेद ने उस किवाड़ को आज खोल दिया था.
बचपन से ही गुड़ियों से ना खेलकर चीज़ों को तोड़ने और जोड़ने के क्रम में ही एक सपने ने जन्म लिया और इसी सपने के साथ नीलांजना बड़ी हो गई. माता-पिता ने उसकी प्रतिभा को पहचान लिया. इंजीनियर बनने की चाहत ने उसे जी तोड़ मेहनत पर मजबूर किया और आईआईटी टॉपर के तमगे से नवाजी गई. जीवन एक ख़ूबसूरत मोड़ पर था. इकलौती बेटी नीलांजना का बड़ा आकाश माता-पिता की ख़ुुशियों से आच्छादित था.
नीलांजना के जीवन में वेद का प्रवेश होना उसके ख़ूबसूरत आकाश में सितारों के भर जाने जैसा था. समय का पाखी इस कदर उड़ चला कि चार साल कैसे बीत गया, पता ही नहीं चला. पेशे से पति-पत्नी दोनों इंजीनियर… ना कोई उतार ना कोई चढ़ाव… दिन रेशमी… रातें मखमली…
नियति को जीवन की यह परिभाषा रास नहीं आई. दिन-दुनिया से बेख़बर नीलांजना एकाएक चौंक पड़ी, जब उस पर बच्चे के लिए दबाव बनाया गया.
“उम्र निकल जाएगी, फिर आगे मुश्किल होगी.” सास ने उसे बड़ी सहजता से समझाया था.
उस दिन नीलांजना की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था, जब वह जुड़वां बच्चों की मां बनी थी. नौकरी के साथ-साथ उसने बच्चों को भी संभाल लिया था सास के सहयोग से. परंतु जन्म से ही शरीर से कमज़ोर दोनों बच्चों का बार-बार बीमार होना उसे सोचने पर मजबूर कर गया. सास की भी उम्र हो चली थी और फिर… ममत्व के सागर के सामने सपनों का आकाश छोटा पड़ गया. उस दिन जब नीलांजना ने वेद को अपना निर्णय सुनाया, तो वेद की आंखें फटी रह गईं. मन-मस्तिष्क इस बात को स्वीकार करने की स्थिति में नहीं था.
“नीलांजना हम कोई आया रख लेंगे देखरेख करने के लिए. इसमें क्या परेशानी है. और फिर मां तो हैं ही. घर लौटने के बाद हम दोनों का सारा समय तो बच्चों के लिए ही होगा. तुम्हें नौकरी छोड़ने की ज़रूरत नहीं. एक महीने के बाद वैसे भी तुम्हारा प्रमोशन लेटर आने वाला है. इस तरह का निर्णय तुम कैसे ले सकती हो.”
“इन्हें मेरी ज़रूरत है और मैं इन्हें समय नहीं दे पा रही. नौकरी के कारण कहीं मैं इन्हें खो ना दूं. नौकरी के अवसर मुझे आगे भी मिल जाएंगे, किंतु मेरे बच्चे नहीं मिलेंगे.” नीलांजना के वात्सल्य की दृढ़ता ने वेद को झुकने पर मजबूर कर दिया.
विवाह के पांच साल बाद नीलांजना का जीवन पूरी तरह से बदल चुका था. सपने, आकाश सब कुछ बदल चुके थे. आज त्यागपत्र देते व़क्त ना ही नीलांजना के हाथ कांपे थे, ना ही चेहरे पर कोई शिकन. क्षोभ, ग्लानि कुछ भी नहीं.
नभ और नील को गोद में लिए वह सोच रही थी, ‘इनके बिना मेरी दुनिया इतनी ख़ूबसूरत हो ही नहीं सकती थी.’


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ना कोई सपना, ना कोई आकाश… नीलांजना पूर्णतः मां बन चुकी थी. आईआईटी टॉपर कहीं दूर निढाल पड़ी थी.
समय निकल गया. बच्चों के पालन-पोषण, उनकी शिक्षा-दीक्षा और करियर में वह इतना उलझ गई कि उसे नौकरी का कभी ख़्याल ही नहीं आया. ना ही कभी उसने बच्चों के सामने यह ज़िक्र किया. एक मां को ही बच्चों के सामने हमेशा रखा. अपने अतीत को उसने बहुत पीछे छोड़ दिया.
नीलांजना उस दिन आश्‍वस्त हुई, जिस दिन दोनों बच्चों ने बड़े आकाश में पैर रखा था. आज उसे अपने आकाश से बच्चों के आकाश में विचरना अधिक अच्छा लग रहा था. पूर्ण तृप्ति से वह जीवन का आनंद ले रही थी. किंतु काले बादलों को स्वच्छ आकाश कहां रास आया था.
नीलांजना को उस दिन लगा था कि नदी के बीच बिना पतवार के किसी नाव पर बैठी हुई है. नदी के दोनों किनारों को वह सूनी आंखों से निहार रही थी. एक तरफ़ वेद को हार्ट अटैक आना और दूसरी तरफ़ दोनों बेटों को विदेश की बड़ी कंपनियों में प्लेसमेंट मिलना. मानो ख़ुशी और दुख दोनों ने किसी षड्यंत्र के तहत आपस में तालमेल बिठा लिया हो. व्यक्ति कितना भी मज़बूत रहे, किंतु उम्र और विपरीत परिस्थितियां यदि आपस में मिल जाएं, तो वह व्यक्ति को तोड़ने की कोशिश में लग जाते हैं. नीलांजना के भीतर दरारें पड़ी थीं, जो उसे कमज़ोर बना रही थीं. वेद के हार्ट सर्जरी के बाद उन्हें बहुत देखभाल की ज़रूरत थी. दवा, हॉस्पिटल, डॉक्टर की भाग-दौड़ और इसके साथ ही घर को देखना. एक महीना बीत चुका था.
अगले महीने दोनों बच्चों को विदेश जाना था. नीलांजना अपने आपकको बहुत ही संयत करने का प्रयास कर रही थी, किंतु उसके भीतर एक घबराहट सी थी और इसी का परिणाम था कि उसने नभ को स़िर्फ एक महीने रुकने को कहा था.
“बेटा मैं जानती हूं तुम्हारे भविष्य का सवाल है, किंतु तुम्हारे पास डिग्री और प्रतिभा दोनों है. फिर से प्रयास करोगे, तो इसी कंपनी में या फिर इससे भी बड़ी कंपनी में तुम्हें नौकरी मिल जाएगी. वैकेंसीज तो हमेशा निकलते रहते हैं, स़िर्फ एक महीने की बात है. पापा को मैं अकेली संभाल नहीं पाऊंगी. मुझे तुम्हारी ज़रूरत है बेटा.”
“नील से क्यों नहीं कहतीं वह रुक जाएगा.” नभ ने सपाट सा उत्तर दिया.
“मैंने उसे भी कहा था. उसका भी वही जवाब है, जो तुम्हारा है.” उदास हो नीलांजना ने कहा था.
“अब तो पापा हॉस्पिटल से घर आ गए हैं. डॉक्टर ने कहा है कि उन्हें अधिक देखरेख की ज़रूरत है और आपसे ज़्यादा पापा की देखभाल और कौन कर सकता है. हम तो रह कर भी कुछ नहीं कर पाएंगे.” नभ ने सफ़ाई दी. 
तब तक नील भी आ चुका था.
“मम्मी हम लोग वह सारा कुछ मैनेज करके जाएंगे, जो आपसे नहीं होगा.”

नीलांजना की असुरक्षा के भाव ने उसे बच्चों से ज़िद करने पर मजबूर कर दिया और फिर अचानक से नभ का इतना रूखा प्रतिकार.
करियर..? आकाश..? मैं कुछ भी नहीं जानती?.. घर-परिवार और रसोई में ही मेरा जीवन बिता है?
उसका मन-मस्तिष्क इन सवालों के तीर से बिंधता चला जा रहा था. नीलांजना के हाथों से अपना हाथ छुड़ा कर वेद ने नीलांजना के कंधे पर हाथ रखा, तो वह अतीत छोड़ वर्तमान में लौट आई.
“वे सही कह रहे हैं. तुम इतनी दुर्बल नहीं हो जितना तुम अपने आपको समझ रही हो. तुम बहुत मज़बूत थी और आज भी हो. अपनी ख़ुशी और स्वेच्छा से आसमां से उतरकर सीधे धरातल पर आना आसान नहीं होता. फिर भी तुम्हारा मन और शरीर कभी मुरझाया नहीं.
दोनों बच्चों में तुम्हें दुनिया की सारी ख़ुशियां और ताक़तें मिल गईं. उन ख़ुशियों को समेटे हुए तुम और भी ख़ूबसूरत हो गई. दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत और ताक़तवर मां. बच्चों को जाने दो. हम दोनों एक-दूसरे की ताक़त बनेंगे.”
रात में बालकनी में बैठी नीलांजना आसमान को निहार रही थी. बिल्कुल स्वच्छ, बादल नहीं थे, तारों से भरा आकाश…सोच रही थी वह… असंख्य तारों को तुमने अपने हृदय में समेट रखा है. मानो ये सारे तुम्हारे बच्चे होें. बिल्कुल एक मां की तरह… कभी कुछ इनसे मांगा नहीं. क्या मैं नासमझ और स्वार्थी थी, जो बच्चों से कुछ मांग रही थी? या फिर मैं अपने त्याग या ममता का हिसाब-किताब कर रही थी. क्या मुझे इन सबका रिटर्न चाहिए था?
नीलांजना ने एक गहरी और लंबी सांस ली.
माता-पिता को अपने प्रेम, स्नेह, त्याग, वात्सल्य का कभी भी बच्चों से रिटर्न नहीं मांगना चाहिए. यह सब कुछ तो उनका फ़र्ज़ होता है. नीलांजना का चेतन मन उसे लगातार समझा रहा था.
नभ और नील विदेश जा चुके थे. नीलांजना ने वेद की देखभाल में अपने को रमा लिया था. वेद अब धीरे-धीरे रिकवर कर रहे थे. डॉक्टर के निर्देशानुसार वह हर दिन वेद को लेकर टहलाने के लिए पार्क में जाती थी. आज वह बहुत ख़ुश थी. बच्चों से बात हुई थी. दोनों ठीक थे. वेद भी पहले से स्वस्थ थे. सुबह का समय था. पार्क के बेंच पर बैठी आज फिर से वह आसमान को देख रही थी. पर यह क्या? सुबह का समय और आसमान मलिन?
चौंक पड़ी वह. यह सचमुच है या मेरा भ्रम?.. उसने पास बैठे वेद का हाथ कसकर पकड़ा और आसमान को फिर से निहारने लगी. स्तब्ध रह गई वह… आज उसे आसमान उदास दिखाई पड़ा…
सवाल किया था आसमां ने…


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“क्या बच्चे तुम्हारे त्याग को पूरे जीवनकाल में क्षण भर के लिए भी महसूस कर पाएंगे?”
“कैसे कर पाएंगे? मैंने तो उन्हें कभी बताया ही नहीं. इसमें उनकी क्या ग़लती है? मैंने महसूस कराने की कभी कोशिश ही नहीं की और महसूस कराऊं भी तो क्या?
मैं मां बनी. मुझे नया जीवन मिला. बच्चे मेरे ही अंश थे. मैंने अपने ही अंशों के साथ जिया. वे मेरे ही शरीर का हिस्सा थे. अपने ही शरीर की देखभाल करती हुई मैं पल-प्रतिपल आनंदित होती रही. फिर आनंद की उस पराकाष्ठा को मैं त्याग का नाम कैसे दूं. जिस दिन बच्चे माता-पिता बनेंगे, उस दिन उन्हें भी इस त्यागरूपी आनंद की परिभाषा समझ में आ जाएगी.
वात्सल्य से ओतप्रोत एक मां की आवाज़ गूंजी थी.

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