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कहानी- स्पाइनलेस (Short Story- Spineless)

"… तुम्हारी सोच की सुई लोगों के बहकाने की दिशा में कैसे घूमने लगी? तुम्हारा अपना दिमाग़, सेल्फस्टैंड कहां गया? जानती हो, ऐसे ढुलमुल लोगों को क्या कहते हैं- स्पाइनलेस! मालती तुम्हारी अनुपस्थिति में आती तब भी तुम शक करती, वह नहीं आई तब भी तुम शक कर रही हो. इसने भड़काया तो तुम्हारे सोच की सुई इधर घूमने लगी, उसने भड़काया तो तुम्हारी सोच की सुई उधर घूमने लगी. तुम अपने विवेक से काम लेना कब सीखोगी?.."

दीदी के यहां आकर बहुत अच्छा लग रहा था. एक लंबे अरसे बाद हम दोनों बहनें मां के साथ इकट्ठा हुई थीं. दीदी ने अपनी किटी पार्टी भी इसी दरम्यान आयोजित कर ली थी. सभी लेडीज़ मां के हाथ की गाजर पिन्नी और दाल वड़ी का आनंद ले रही थीं. महिलाओं के चिर रुचिकर विषय ‘कामवाली बाई’ पर बात चल निकली थी. एक सदस्या अंजलि शर्मा बोलीं, “मैं तो अच्छी बाई ढूंढ़ते-ढूंढ़ते परेशान हो गई हूं. अब तो अख़बार में एक ऐड देने वाली हूं- ज़रूरत है एक सुंदर, सुघड़ बाई की.”
“ना ना ना! ऐसी ग़लती मत कर बैठना. बाई तो हमेशा बदसूरत और अधेड़ ही रखनी चाहिए.” एक दूसरी सदस्या अदिती ने टोका. उसका मंतव्य समझ सभी लेडीज़ ठहाके लगाकर हंस पड़ीं.
मेरी आंखों के सम्मुख अनायास ही अपनी बाई मालती की सूरत तैर गई. मैंने तो उसे कभी इस एंगल से जांचा-परखा ही नहीं. वह तो दिखने में अच्छी-खासी है, जवान भी है. उफ! यह मैं क्या सोचने लगी? पर… यदि वाक़ई ऐसा है तो चलो, अच्छा ही हुआ कि वह भी इस दौरान अपने गांव चली गई. कितना नाराज़ हुई थी मैं उस पर जब मुझे पता चला था कि वह भी मेरी अनुपस्थिति में गांव जा रही है. मैं उस पर बरस ही पड़ी थी.
“तुझसे सब बात हो जाने के बाद मैंने अपना आरक्षण करवाया था. तूने कहा था पीछे से बराबर आएगी, साहब का खाना, कपड़ा कर देगी. अब अचानक क्या हो गया?”
“मैडम, बहन का रिश्ता तय हो रहा है, मुझे जाना पड़ेगा.” मालती सफ़ाई पेश कर काम में लग गई थी. मानो उसे आगे कुछ नहीं सुनना है. मैं खीझती रह गई थी. पवन को बताया तो उन्होंने भी सामान्य तरी़के से लिया था, “ठीक है, कोई ख़ास बात नहीं. मैं कैंटीन में खा लूंगा या कुछ बना लूंगा.”
पार्टी ख़त्म हो गई थी, पर मेरे दिमाग़ में शक़ का कीड़ा घर कर गया था. मालती ने हां करके भी ऐन व़क्त पर मना क्यों कर दिया? क्या उसे पवन से ख़तरा…? नहीं-नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है? कुछ सोचते हुए मैंने अपनी सहेली रचना को फोन लगा दिया. उसके यहां मेहमान आए हुए थे.

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“अभी तो मालती भी नहीं है. तुझे दिक्कत आ रही होगी.”
“क्यूं, मालती क्यों नहीं है? वह तो बराबर आ रही है.” रचना ने आश्‍चर्य जताया. “क्या? लेकिन मुझे तो कहा था कि वह भी इस दौरान छुट्टी पर जा रही है और मेरे लौटने तक ही लौटेगी.” मैं भी आश्‍चर्यचकित थी. 
“लेकिन मुझे तो उसने कभी ऐसा कुछ नहीं कहा. ठीक है, आकर बात करते हैं.” मैंने फोन रख दिया था. दिमाग़ में घुसा शक़ का कीड़ा बुरी तरह बिलबिलाने लगा था. मालती को छुट्टी पर नहीं जाना था, तो मुझसे झूठ क्यों बोली? इसका मतलब वह मेरी अनुपस्थिति में बराबर घर जा रही है और… और क्या? मैं कल्पना नहीं कर सकी. बदन में झुरझुरी-सी दौड़ गई थी. मेरे ख़िलाफ़ इतना बड़ा षडयंत्र रचा गया और मैं मूर्ख बन गई.
रचना से बात न की होती तो मुझे कभी पता ही नहीं लगता कि मालती पीछे से आ रही थी. मैंने तुरंत लौटने का निश्‍चय कर लिया. मां और दीदी के सामने बहाना बना दिया कि उल्टा-सीधा खा लेने से पवन का पेट गड़बड़ हो गया है इसलिए मुझे लौटना होगा. जितनी ख़ुशी-ख़ुशी आई थी लौटते व़क्त मन उतना ही खिन्न था. यहां तक कि मैंने पवन को अपने आने की सूचना भी नहीं दी. घर की एक चाबी तो मेरे पास थी ही उसी से ताला खोलकर मैं अंदर प्रविष्ट हो गई. मन यह सोचकर आशंकित था कि जाते व़क्त जो घर मेरा था शायद अब मेरा नहीं रहेगा, पर लाख खोजने पर भी कोई सुराग हाथ नहीं लगा. बिस्तर पर अख़बार, कपड़े पड़े थे. सिंक में चाय के जूठे बर्तन थे. लग नहीं रहा था कि मालती पीछे से आई है. शक़ का कीड़ा कुलबुलाने लगा, यही तो उन्हें दिखाना था और आई भी होगी तो क्या सफ़ाई-बर्तन किया होगा? गुलछर्रे उड़ाकर चली गई होगी. मैंने रचना को फोन किया कि मैं आ गई हूं. मालती आए तो भेज देना. थोड़ी ही देर में वह आकर चुपचाप काम पर लग गई. मैंने किसी तरह अंदर के आक्रोश को जब्त किया, “गांव से जल्दी आ गई?”
“जाना ही नहीं हो पाया. बहन का रिश्ता आगे टल गया था.”
“तो फिर पीछे काम पर क्यों नहीं आई? सारा घर गंदा बिखरा पड़ा है.”
“ताला लगा था.”
“तूने किसी से कहा साहब से चाबी लेकर रखने को?”
“मैंने सोचा, कभी खुला दिखेगा तो कर दूंगी.” वह नल तेज़ खोलकर बर्तन धोने लगी. मुझे समझ नहीं आ रहा था उससे आगे बहस करूं, ग़ुस्सा करूं या चुप हो जाऊं? उसकी उपेक्षा साफ़ दर्शा रही थी कि वह इस बारे में आगे बहस नहीं करना चाहती. मैं कुढ़कर चुप हो गई.
शाम को पवन घर में घुसे तो मुझे देखकर आश्‍चर्यचकित रह गए.
“अरे! तुमने बताया क्यों नहीं? मैं लेने आ जाता.”
“दीदी की सहेली आ रही थी. घर तक का अच्छा साथ था तो मैं उसके साथ हो ली, वरना मां और दीदी तो आने ही नहीं दे रही थीं. अच्छा तुम चेंज कर लो, चाय चढ़ा दी है.”
चाय पीते-पीते मैंने बात छेड़ दी, “अच्छा तुम्हें पता है मालती छुट्टी पर नहीं गई थी, बल्कि वो तो यहीं थी और लोगों के घर काम भी कर रही थी.”
“हां, एक बार देखा तो था.”
“तो फिर उसे बुलाकर काम क्यों नहीं करवाया?”
“मैं ऑफिस के लिए निकल रहा था. वापस ताला खोलना पड़ता, रुकना पड़ता.”
“चाबी दे जाते.”

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“फिर तुम ही कहती कि उसके भरोसे घर छोड़ दिया. यहां ताला नहीं लगाया, वहां ताला नहीं लगाया. मैंने सोचा तुम आओगी उससे पहले एक छुट्टी वाले दिन बुलवाकर सब काम करवा लूंगा.” मैं पवन की आंखों में झांककर सच्चाई की तह तक जाने का प्रयास करने लगी, पर वे मोबाइल पर व्यस्त हो गए. शक़ का कीड़ा कुछ-कुछ शांत होने लगा था. यह सोचकर कि शायद मैं व्यर्थ ही शक़ कर रही हूं. अभी कीड़ा पूरी तरह शांत होकर बैठा भी नहीं था कि अगले दिन आए रचना के फोन से फिर कुलबुला उठा.
“मालती से बात हुई तुम्हारी? पता चला उसने झूठ क्यों बोला था?”
“कह रही है प्रोग्राम चेंज हो गया था.”
“पर हममें से तो किसी को उसने एक बार भी नहीं कहा था कि वह छुट्टी पर जाएगी. मेरी रंजना, मीरा से भी बात हुई थी. मीरा तो और भी कुछ बता रही थी, तुम्हारे आसपास कोई है तो नहीं न?’’ फुसफुसाते हुए मीरा कह रही थी कि मालती और उसकी खाना बनाने वाली बाई दया आपस में कुछ खुसर-पुसर कर रही थीं.
‘’बातचीत में 2-3 बार तुम्हारे हसबैंड का नाम भी लिया था.’’
मेरी सूरत फिर से पिचके टमाटर जैसी हो गई थी.
“ठीक है, आज आएगी तब फिर पूछूंगी.” मालती के आने पर मैं भरी बैठी थी. मैंने उसे काम को हाथ नहीं लगाने दिया और सब कुछ साफ़-साफ़ बताने को कहा. थोड़ी सख़्ती से ही वह लाइन पर आ गई.
मैंने साहब के लिए खाना बनाने और कपड़े धोने की बात दयाबाई को बताई तो वो कहने लगी, “इन मर्दों का कोई भरोसा नहीं होता. अकेली औरत पर टूट पड़ते हैं. मैंने कहा हमारे साहब ऐसे नहीं हैं, तो कहने लगी कि किसी की सूरत पर नहीं लिखा होता कि वह अंदर से कैसा है? पहले कब उसे तेरे साथ घर में अकेले रहने का मौक़ा मिला? आजकल तो स्कर्टवाली से लेकर साड़ीवाली तक कोई भी सेफ नहीं है. तू तो कोई बहाना मारकर व़क्त रहते निकल ले. उसकी बातों में आकर मैंने आपसे गांव जाने का बहाना बना दिया.”
मेरे दिल-दिमाग़ से मानो बोझ उतर गया था. शाम को मैंने सब बात पवन को बताई, तो वे फट पड़े, “मालती की बात तो समझ आती है कि वह ग्रामीण परिवेश की कम पढ़ी-लिखी, कम अक्ल है, किसी के भी बहकावे में आ सकती है. हो सकता है, दयाबाई ने उसे यह सोचकर पट्टी पढ़ाई हो कि खाना बनाने का काम वह लेना चाहती हो, लेकिन तुम्हारी अक्ल को क्या हुआ है? तुम तो अच्छी खासी पढ़ी-लिखी, समझदार हो. तुम्हारी सोच की सुई लोगों के बहकाने की दिशा में कैसे घूमने लगी? तुम्हारा अपना दिमाग़, सेल्फस्टैंड कहां गया? जानती हो, ऐसे ढुलमुल लोगों को क्या कहते हैं- स्पाइनलेस! मालती तुम्हारी अनुपस्थिति में आती तब भी तुम शक करती, वह नहीं आई तब भी तुम शक कर रही हो. इसने भड़काया तो तुम्हारे सोच की सुई इधर घूमने लगी, उसने भड़काया तो तुम्हारी सोच की सुई उधर घूमने लगी. तुम अपने विवेक से काम लेना कब सीखोगी? तुम्हारा अपना दिल और दिमाग़ क्या कहता है, वह सुनो और करो, वरना तुम में और कामवाली बाई में फ़र्क़ ही क्या रह जाता है?”
मैं इन आक्षेपों से अंदर तक सुलग उठी थी. मन ख़ुद को धिक्कारने लगा था, लेकिन किसे दोष दूं? पवन की नज़रों में मैंने ख़ुद को ख़ुद ही गिराया है.

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‘स्पाइनलेस’ की उपमा मुझे अंदर तक कचोटने लगी थी. यहां तक कि पवन के सामने आते ही मुझे अपनी आंखें तो क्या, कमर तक झुकी हुई महसूस होने लगती. इसी बीच एक रिश्तेदार की शादी में आगरा जाने का प्रोग्राम बन गया. पवन ने 2 टिकटें लाकर मुझे थमा दीं, “वैसे तो ऑफिस में काम है, पर अब तो यहां अपने घर में भी अकेले रहना ख़तरे से खाली नहीं है इसलिए मैं भी साथ चल रहा हूं.”
पवन की बातें मुझे भीतर तक आहत कर रही थीं. मेरी वजह से उनके ऑफिस का नुक़सान हो ये मैं बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी. न चाहते हुए भी मेरे आंसू बहने लगे. मेरे मन की व्यथा शायद पवन भांप गए थे. उन्होंने मुझे सीने से लगाते हुए कहा, “पति-पत्नी का रिश्ता आपसी प्यार और विश्‍वास पर टिका होता है. लोगों की बातों में आकर एक-दूसरे पर शक करने से रिश्ते की बुनियाद कमज़ोर होने लगती है. मुझे तुम पर पूरा विश्‍वास है और मैं जानता हूं, तुम्हें भी मुझ पर पूरा भरोसा है…”
पवन की बात को बीच में ही काटते हुए मैं बोल पड़ी, “अगर आपको मुझ पर भरोसा है, तो आप अपना टिकट वापस कर दीजिए. ऐसा न हुआ तो मैं ख़ुद को कभी माफ़ नहीं कर पाऊंगी. मेरी ग़ैर हाज़िरी में मालती आकर घर का पूरा काम करेगी. लोगों की बातों में आकर मैं अपने घर और रिश्ते को क्षति नहीं पहुंचने दूंगी.”
पवन ने मुस्कुराते हुए मेरा माथा चूमा और कहा, “वैसा ही होगा मैडम, जैसा आप चाहेंगी.” मैं भी मुस्कुराते हुए उनकी बांहों में समा गई. अचानक मुझे लगा जैसे मेरी झुकी कमर सीधी हो गई है.

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