मां मनसा का स्मरण करती श्वेता अपनी धुन में आगे बढ़ रही थी. तभी अचानक पानी वाला गुब्बारा फूटने की आवाज़ के साथ उसकी तन्द्रा भंग हुई. देखा कि उसके सूट पर जामुनी रंग के छींटे फैल गए थे. उसका चेहरा तमतमा गया. यहां-वहां नज़रें घुमाई, तो बगल में मौजूद कच्ची दुकानों के पीछे से झांकता एक नटखट चेहरा नज़र आया. ग़ुस्से से आगबबूला श्वेता उस तरफ़ भागी.
होली मनाना तो दूर, श्वेता को होली के नाम से ही चिढ़ हो गई थी. वह कैसे भूल पाती भला कि बरसों पहले दोस्तों के साथ होली खेलने गए उसके इकलौते बड़े भाई की किसी ने ज़हरीली शराब पिलाकर जान ले ली थी. बस, तब से श्वेता के दिल में इस त्योहार के प्रति दुर्भावना भर गई थी, जो शादी के बाद भी कायम थी.
पति सुशील अपने नाम के अनुरूप थे. दोनों के बीच हर मामले में एक राय होने से दांपत्य जीवन भी खुशहाल था. नन्हें आदित्य के जन्म ने उनकी ख़ुशी में चार चांद लगा दिए थे. फिर भी होली पर श्वेता व सुशील के बीच नोंकझोंक हो ही जाती. कारण ये कि श्वेता को जहां यह पर्व नीरस लगता, वहीं सुशील होली का इस कदर मुरीद था कि साल भर इस त्योहार का बेसब्री से इंतज़ार करता था.
शादी के बाद पहली होली पर जब सुशील व उसकी छोटी बहन सुरभि ने श्वेता को रंग लगाना चाहा, तो श्वेता ने रोते हुए ख़ुद को एक कमरे में बंद कर लिया था. उसके दिल का दर्द जानकर फिर किसी ने उसे होली खेलने पर मजबूर नहीं किया. सुशील ने भी अपनी हसरत को दिल में दबा लिया था.
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इस बार आदित्य की दूसरी होली थी. सुशील नहीं चाहते थे कि इस बार भी होली पर श्वेता पुरानी यादों के सहारे उदास हो जाए. अतः उन्होंने ऑफिस से दो दिन की छुट्टी लेकर हरिद्वार घूमने का कार्यक्रम बना लिया. जब इस बारे में श्वेता को बताया तो वह मारे ख़ुशी के उछल पड़ी, क्योंकि हरिद्वार-ऋषिकेश उसके मनपसंद पर्यटन स्थलों में से एक थे. उसने फौरन वहां जाने की हामी भर दी.
होली के दिन तड़के ही सुशील, श्वेता और आदित्य घर से रेलवे स्टेशन के लिए निकल गए. उनका नसीब अच्छा था कि हरिद्वार पहुंचने तक उन्हें किसी ने नहीं रंगा. हरिद्वार रेलवे स्टेशन से वे सीधे हर की पौड़ी पहुंचे. श्वेता ने तय किया कि सबसे पहले गंगा स्नान करेंगे, फिर आगे का कार्यक्रम बनाया जाए. सुशील ने भी सिर हिला दिया. आसपास सारे होटल तथा धर्मशालाएं बुक पाकर उन्होंने किसी होटल में कमरा दिलाने का ज़िम्मा अपने रिक्शाचालक को सौंप दिया.
“बाबूजी, आप चिंता न करें. यहां से थोड़ी दूरी पर एक होटल है. मैं सुबह ही वहां पर आप जैसे एक जोड़े को छोड़कर आया हूं. वहां आपको कमरा ज़रूर मिल जाएगा.” वह तेज़ी से पैडल मारता हुआ मेन रोड पर स्थित एक शानदार होटल पल्लवी जा पहुंचा. उसका अनुभव रंग लाया. होटल में बस दो कमरे ही खाली बचे थे. कमरे का भाड़ा तय कर सुशील रिक्शावाले को बख्शीश देना नहीं भूला.
कमरे को ताला लगाकर वे वहां से पैदल ही हर की पौड़ी पर वापस पहुंचे. गंगा के शीतल जल में डुबकियां लगाने के बाद सफ़र की सारी थकान जैसे छूमंतर हो गई. आदित्य को गोद में लिए श्वेता गंगा के अलौकिक सौंदर्य में खो गई.
“सुशील, मुझे यहां लाने के लिए शुक्रिया! यहां पहुंचकर मुझे सच्ची शांति का अनुभव होता है.”
“ऐसी अनुभूति तुम्हें मथुरा-वृंदावन में भी नहीं हुई थी न?”
“हां, जाने मुझे ऐसा क्यों लगता है कि इन पावन नगरों से मेरा जन्म-जन्मांतर का संबंध है.”
सुशील ने कुछ जवाब नहीं दिया. बस, बलखाती गंगा की लहरों को देखते रहे. फिर श्वेता ने उठने का उपक्रम किया, “चलो सुशील, माता मनसा देवी के मंदिर में भी अभी दर्शन कर आते हैं. कल सुबह हम पर्यटन बस से हरिद्वार-ऋषिकेश के बाकी स्थान भी देख लेंगे.”
“ये तुमने ख़ूब कहा." सुशील ने आदित्य को श्वेता से लेकर ख़ुद उठा लिया.
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मनसा देवी मंदिर को जाने वाले बिजली हिंडोले को उस दिन किसी ख़राबी के कारण न चलते देख सुशील का मुंह उतर गया. श्वेता ने उनका हौसला बढ़ाया, “जनाब, पैदल सफ़र करके मां के दर्शन का जो आनंद है, वो भला हिंडोले में कहां? मंदिर ज्यादा दूर नहीं है. बस, मां का जयकारा लगाओ और शुरू कर दो चढ़ाई.” अपनी पत्नी का अंदाज़ देखकर सुशील के होंठों पर मुस्कान तैर गई.
थोड़ा आगे चलने पर वो नींबू पानी बनवाने बैठ गए, जबकि श्वेता आगे बढ़ गई. हल्के नीले रंग का सूट श्वेता के आर्कषण में चार चांद लगा रहा था. नया सिलवाया सूट उसने ख़ास यहां घूमने के लिए पहली बार पहना था. अपनी पत्नी के सौंदर्य पर मुग्ध सुशील उसे एकटक निहारते रह गए. श्वेता का उत्साह देख उन्हें ख़ुद पर गर्व हुआ कि होली पर पत्नी को यहां लाकर उन्होंने सराहनीय काम किया है.
मां मनसा का स्मरण करती श्वेता अपनी धुन में आगे बढ़ रही थी. तभी अचानक पानी वाला गुब्बारा फूटने की आवाज़ के साथ उसकी तन्द्रा भंग हुई. देखा कि उसके सूट पर जामुनी रंग के छींटे फैल गए थे. उसका चेहरा तमतमा गया. यहां-वहां नज़रें घुमाई, तो बगल में मौजूद कच्ची दुकानों के पीछे से झांकता एक नटखट चेहरा नज़र आया. ग़ुस्से से आगबबूला श्वेता उस तरफ़ भागी. लगभग 12-13 साल का बच्चा हाथ में पिचकारी और पानी का गुब्बारा थामे हुए था, श्वेता को अपनी ओर आते देख उसने भागना चाहा, पर वह एकदम उसके आगे आ खड़ी हुई.
“तुम…शैतान बच्चे..! तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझ पर रंग डालने की? ठहरो, तुम्हें अभी मज़ा चखाती हूं.” उसका स्वर कांप रहा था. बच्चे के सामने आते ही उसने तड़ाक से उसे दो-तीन चांटे जड़े और उसकी पिचकारी तोड़कर फेंक दी. बच्चे की आंखों में आंसू आ गए, जबकि श्वेता ग़ुस्से में उफनती सांसों के साथ उसे देखती रही.
“क्या करें बीबीजी, हमने इसे बहुत समझाया कि आने-जाने वालों पर रंग न फेंके, पर इ बबुआ समझता इ नहीं. इसे लगाई दो और दुई-चार चांटे.” एक कोने में दुबकी बैठी उस बच्चे की मरियल सी मां ने अपनी आवाज़ में ज़ोर देकर कहा.
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श्वेता को जवाब देते देख बच्चे की मां ने आगे कहा, “बीबीजी, इस बबुआ की छोटी बहन थी राधा, ये उसके साथ ख़ूब खेलता, उधम मचाता था, उसके साथ ख़ूब ख़ूब होली, रंग खेलता था. पिछले बरस हमारी बिट्टो बुखार के बाद ज़िंदा न रही, तबसे बबुआ अकेला पड़ गया है. अब तो इ बहुत शरारती हो गया है. हम का करी इसका बापू भी सिर पर नहीं, हमारा तो कतई कहना नीं मानता. लगाई दो इके चांटे कि ज़रा समझे.”
तब तक आदित्य को कंधे पर चढ़ाए सुशील भी वहां आ पहुंचे थे और हैरत से सारा दृश्य देख रहे थे. उन्हें लग रहा था कि बच्चे ने जो दुस्साहस कर दिखाया है, अब उसकी खैर नहीं समझो.
बबुआ सिर झुकाए खड़ा सुबक रहा था. उसे घूरती श्वेता मुड़ी. दो-चार क़दम चलने के बाद फिर उसकी तरफ़ बढ़ गई, “तुझे होली खेलनी है न? चल, मैं खेलूंगी तेरे साथ होली. तू अकेला नहीं है, तेरी बड़ी दीदी है तेरे साथ, समझा..!”
बबुआ सिर झुकाए खड़ा रहा. श्वेता नीचे झुक गई और उसे चूमते हुए कहा, “नाराज़ हो मुझसे?”
उसने सिर हिलाया. श्वेता ने पास ही गिरा गुब्बारा उठाया और बोली, “नाराज़ है शैतान..? मैं भी देखती हूं कि कब तक दीदी से नाराज़ रहेगा.” बबुआ तपाक से बोला, “गुब्बारा नी फेंकना, मैं नी नाराज़… दी…दी.”
अब श्वेता कहां मानने वाली थी. बबुआ भागा, तो उसने खींचकर उस पर गुब्बारा फेंका. बबुआ ने नीचे झुककर ख़ुद को बचाया और ही-ही करके खुलकर हंस दिया. फिर उसने अपनी मां के पास रखा गुलाल उठाया और श्वेता की बांहों पर मल दिया.
श्वेता ने उससे गुलाल लिया और वहां पहुंच चुके सुशील के गालों पर मल दिया. अपनी पत्नी में आए परिवर्तन को देखकर सुशील की आंखें भी नम हो चुकी थीं.
श्वेता बबुआ की मां के पास गई और पूछा,“ये स्कूल जाता है?”
“जब से राधा चल बसी है न, इसने इस्कूल जाना भी छोड़ दिया.” उसके न में सिर हिलाने पर वह बोली, “अब से इसे रोज़ स्कूल भेजना. ये कुछ पैसे रख लो.” सुशील ने कुछ नोट उसके हाथ में रख दिए.
उस महिला ने बहुत ना-नुकर की, लेकिन श्वेता और सुशील उसे रुपए देकर ही माने. वहां से जाते हुए बबुआ भी मां मनसा देवी के दर्शन के लिए उनके साथ हो लिया.
“सुशील, इतनी ख़ुश मैं इससे पहले कभी नहीं हुई. आज मुझे एक छोटा सा भाई भी मिल गया. मैंने कोई ग़लती तो नहीं की न?” श्वेता की आंखों में आंसू छलक रहे थे.
“भला पला-पलाया साला पाकर किसे ख़ुशी न होगी.” मज़ाकिया लहज़े में सुशील ने कहा, “सबसे ज़्यादा ख़ुशी तो मुझे इस बात की है कि होली को लेकर तुम्हारे दिलोदिमाग़ से वो डर दूर हो गया.”
“हां सुशील, अब मैं भी हमेशा ख़ूब मस्ती से होली मनाऊंगी.”
“वो देखो, मंदिर आ गया. माथा टेककर अपना सूट बदल लेना बेग़म.”
श्वेता ने उन्हें घूरा तो सुशील ने कुछ इस अंदाज़ से मुंह बनाकर ‘जय माता दी’ कहा कि श्वेता, बबुआ समेत आदित्य भी खिलखिलाकर हंस पड़ा.
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