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कहानी- रिश्तों की इबारतें… (Short Story- Rishton Ki Ibaratein…)

अब इस स्पर्श में कुछ नहीं है. सब कुछ बदल गया था. अब हमारे रिश्ते बदल गए थे, जिनका कोई दूसरा नाम नहीं था. नए सिरे से हमें लिखनी होगी जीवन के रिश्तों की इबारतें. क्यों हुआ ऐसा? एकदम पसंद की मिठास को पीते-पीते कोई बेहद फीका-सा स्वाद हमारे बीच आ गया था.

मुझे घर छोड़कर पापा के यहां आए 15 दिन हो गए, पर न जाने क्यों इस बार ये 15 दिन युगों की तरह कटे. न मां से बात करना अच्छा लगता, न पापा का सामना करना.
एक अपराधबोध सा हमेशा बना रहता, जैसे मैंने अपनी लापरवाही से उनकी किसी बहुमूल्य वस्तु को खो दिया हो. पूरी तत्परता से मां और पापा मेरा ख़्याल रख रहे हैं, जिसके पीछे झांकती हुई उनकी संशय की चिंताएं मुझे स्पष्ट दिखाई देती हैं. उन्हें डर है कि कहीं मैं डिप्रेशन में कुछ कर न लूं. कैसा दुर्भाग्य है यह? मां-पापा को इस उम्र में मेरी तरफ़ से चिंतामुक्त होना चाहिए, ब्याहता बेटी अपने घर-संसार में सुखी रहे; यही तो वे चाहते थे, पर उन्हें चिंता है मेरे भविष्य की, अब क्या होगा?
एक तीखा सा खेद मन में जागा, अपने आपको कोसा भी, क्यों अभय के प्यार में उलझी? इससे अच्छा शायद वही रिश्ता रहता, जो बड़ी चाची के मायके से आया था, पर अब? तब तो अभय ही दुनिया-जहान में सबसे अच्छा, सबसे निराला लगता था, एकदम विश्‍वासपात्र. उसी अंधे प्यार और विश्‍वास के कारण उसे सहर्ष अपनी ज़िंदगी सौंपी थी. मेरे उस निर्णय से चाची थोड़ी नाराज़ भी रही थीं, पर मुझे विश्‍वास था कि प्रेम-विवाह ही सफल रहेगा. बड़े-बड़े दावों के साथ मैं अपने निर्णय पर अटल थी, पर रेत के महल साबित हुए मेरे दावे, उसी ने तोड़ दिया विश्‍वास.
कुछ दिन तो मेरे भीतर अभय के प्रति एक अंधक्रोध था, जो स़िर्फ अभय के अलावा कुछ और देख ही नहीं पा रहा था. लावे की तरह पिघलता वह क्रोध जो अभय का कुछ नहीं बिगाड़ सकता था, पर मुझे भस्म किए जा रहा था. एक माह में ही वह क्रोध अपने आवेगात्मकता के अनुपात में शांत भी होने लगा और मुझे अपनी नहीं, मां और पापा की चिंता होने लगी. उनके बुढ़ापे को यूं बिगाड़ देना ठीक नहीं है, मैं सोचने लगी कि मुझे स्वयं को संभालना होगा. एक तेज़ प्रवाह की तरह अभय मेरे जीवन में आकर चला गया. एक ज्वारभाटा ही तो था उसका आना और जाना.
मैं उठ खड़ी हुई एक नए निर्णय के साथ. एक ठोस निर्णय ने मेरे अंदर के ज्वालामुखी को शांत कर दिया था. मैंने मां के सामने जाकर दृढ़ विश्‍वास के साथ कहा, “मां, मैं कल जाना चाहती हूं.”
“कहां?” मां चौंक उठीं.
“वहीं, वापस अपने उसी घर में.”
“क्यों, यहां तकलीफ़ है क्या?” मां ने थोड़ा ग़ुस्से से कहा.


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“हां..! यहां रहते हुए मुझे ऐसा लगता है जैसे मैं छोड़ी हुई औरत हूं. यह एहसास मुझे डंक मारता है. वह घर मैंने नहीं छोड़ा है, वह मेरा घर है. मैं वहीं रहकर आगे पढ़ाई करूंगी और कुछ नया काम शुरू करूंगी. मुझे आपका और पापा का आशीर्वाद चाहिए. पिछले पांच सालों से वहां रहते-रहते वहां की आदत सी हो गई है. इस घर में तो मैंने उम्र के बीस वसंत देखे थे, पर वह घर मेरे सपनों से जुड़ा था, मेरा अपना घर.”
“क्या वहां अभय के बग़ैर रह पाओगी?” मां का सहज सा प्रश्‍न था.
“क्यों नहीं? उस घर के एक-एक तिनके को मैंने ही तो संजोया है. क्या हक़ है उस पर अभय का?” मैं मां पर ही भड़क उठी थी.
“अच्छा, तेरे पापा से बात करूंगी.”
“हां, मां! पर कुछ दिन तुम दोनों भी चलो मेरे साथ. वह घर हमारा है. उसे मैं यूं ही बनाए रखूंगी, चाहे वह मेरे लिए यादों का कब्रिस्तान ही क्यों न बन जाए. अभय को जीवन में एकरसता पसंद नहीं थी, वह बदलाव चाहता था, अब मैं ऐसे बदलाव लाना चाहती हूं कि वह देखता रह जाए.”
मां और पापा के साथ मैं फिर लौट आयी थी अपने उसी घरौंदे में, जहां अब केवल गृहस्थी का सामान था. एक बिखरे रिश्ते का वर्तमान अपने सुखद दांपत्य की यादों के अतीत के साथ मौजूद था. घर में सब कुछ वैसे ही मौजूद था, पहले की तरह अपने पूरे वजूद के साथ, नहीं था तो केवल मेरा अपना वजूद. अभय के साथ मैं भूल गई थी कि मैं एक अलग व्यक्तित्व हूं. मैंने ढाल लिया था स्वयं को अभय के वजूद में.
मैं शायद सोचना ही भूल गई थी अपने बारे में. नहीं-नहीं, मैं जो सोचती थी, जो करती थी, उसके केंद्र में ही अभय होता था. क्या बनाना है? क्या सजाना है? क्या पहनना है? सब कुछ अभय की पसंद के अनुसार करने लगी थी, जैसे मैं कहीं थी ही नहीं. क्यों इतना निर्भर हो गई थी उस एक शख़्स पर? अभय की पसंद-नापसंद इतनी हावी थी मुझ पर कि लगा जैसे अब तक मैं खोल के अंदर जी रही थी अंडे के अंदर पनपे उस चूज़े की तरह, जो समझता है बस, इतना सा ही है संसार, पर आज अचानक उस खोल के टूट जाने पर मैं आश्‍चर्यचकित हूं.
घर में लौटने के वे क्षण बड़े कठिन थे. दरवाज़े पर टंगी नेमप्लेट अभय-मीनू से पहला साक्षात्कार एक मीठी सी कसक की तरह लगा, पर जाने कहां से एक हिम्मत आ गई थी और मैंने हाथ बढ़ाकर अभय शब्द उखाड़ दिया. अब वहां केवल मीनू नाम था. मैंने देहरी के अंदर प्रवेश किया और शुरू किया अपने बिखरे वजूद को समेटने का काम.
रातभर सोचती रही, सो नहीं पायी थी. साथ वाली खाली जगह जीवन में आई रिक्तता का एहसास कराती रही रातभर. अपने आप में बुदबुदाती रही, तुम पागल हो मीनू, एकदम पागल, पर मैं पागल भी कहां हूं! कितना अच्छा होता अगर मैं पागल हो जाती. तब कोई ज़िम्मेदारी, कोई लोकलाज न होती, चीखो-चिल्लाओ कोई डर नहीं, पर पागल होने जैसी भाग्यवान मैं कहां? मैं तो चीखकर, चिल्लाकर अपनी भड़ास भी नहीं निकाल सकती, सुनकर मां या बाबूजी को कुछ हो गया तो? जीवन में अभय के साथ ब्याह के निर्णय के बाद शायद ही कोई निर्णय मैंने लिया हो. अभय अक्सर मज़ाक में कह ही देता था, “तुम कभी अपने लिए निर्णय नहीं लेती, कब तक यूं ही मेरे निर्णय में हां करती रहोगी?”


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“तुम्हें क्या तकलीफ़ होती है?”
“मैं तुम्हें अपनी छाया बनाकर नहीं रखना चाहता. मैं डरता हूं मीनू.”
तब मैं उसे चिढ़ाते हुए कहती, “छाया कभी पीछा नहीं छोड़ती इसलिए डरते हो?”
“नहीं, मैं चाहता हूं कि तुम ख़ुद को मुझसे अलग पहचानो, क्योंकि ज़िंदगी में केवल अपना वजूद ही काम आता है, समझी?”
यादों के ऐसे कितने ही टुकड़े हैं, जो दिन-रात याद आते हैं, पर यादें कितनी पीड़ा देती हैं! कानों में अब भी गूंजती है अभय की वह चुनौती. मैं जुट जाना चाहती हूं अपने उस वजूद के लिए जिसे मैं अभय के साथ होने पर पता नहीं कब, कहां, किस मोड़ पर छोड़ आई थी.
मैं समझती थी, ब्याह के बाद जो कुछ है वह पति के लिए ही है. पति प्रेम एक ऐसी जादू की छड़ी है, जो जीवन में दुख-दर्द आने ही नहीं देती, पर मैं ग़लत थी. मात्र कुछ वर्षों में मैं स्वयं को भूल गई थी. स़िर्फ एक समर्पिता बन कर रह गई थी, जो अपना अस्तित्व तलाशती थी, कभी पति की बांहों में, कभी पति के चरणों में, तो कभी पति के घर में.
मेरा समर्पण इतना व्यर्थ निकला कि अभय उस एकरसता से कब बोर हो गया, ऊब गया मुझसे, मुझे पता ही नहीं लग पाया. जब पता लगा तब तक बहुत देर हो चुकी थी. पिछले कुछ समय से मुझे लग ज़रूर रहा था कि अभय परेशान है, खोया-खोया रहता है. कभी लंबे समय तक हाथ पकड़े बैठा रहता, जैसे डर रहा हो कि कहीं मेरा हाथ छूट न जाए. हो सकता है, हमारा प्यार उसके अंदर चल रहे द्वंद्व में उसे डराता हो या फिर वह छोड़ देने से पहले की पकड़ थी. जाने कैसा ठंडापन था उन दिनों के स्पर्श में. तब मैं समझी, अभय परेशान होगा किसी बिज़नेस प्रॉब्लम में. उसके चेहरे से लगता था कि वह घुटन महसूस कर रहा है, कहीं उलझा हुआ है. कभी मैं समझती, वह कहीं दूर है, मुझसे हज़ारों मील दूर, वह केवल शरीर से मेरे साथ है.
कभी-कभी अभय प्रगाढ़ अंतरंगता में डूबता-उतराता रहता, पर अब लगता है, वह भुलावा था या छलावा? मैं कहती, “आपको आजकल क्या हो गया है? इतने चुप, इतने खोए-खोए क्यों रहते हो?”
अभय कहते, “कुछ नहीं! फिर कभी बताऊंगा.” मैं ज़्यादा परेशान भी नहीं करती थी. अभय कुछ मूडी है, बात का सीधा जवाब कभी नहीं देता. फिर लंबा-चौड़ा कारोबार, हज़ारों उलझनें हो सकती हैं, पर पिछले एक साल से अभय अक्सर दिल्ली टूर पर रहता. अब तक हर दौरे पर मुझे भी साथ ले जाता रहा था, पर पिछले एक साल से दिल्ली टूर पर मुझे चलने को नहीं कहा था.
इस बार जाते व़क्त वादा किया था अभय ने, शादी की वर्षगांठ पर वह मुझे दिल्ली ले जाएगा और एक ख़ूबसूरत तोहफ़ा भी देगा. मैं उसी वादे पर अटकी इंतज़ार कर रही थी. दो माह का अकेलापन था. इतना लंबा टूर अभय ने पहले कभी नहीं किया था. मैं कोशिश करती ख़ुद को व्यस्त रखने की. कभी शॉपिंग करती, फिल्म देखती, कभी सेल में जाती, किचन का नया सेट, बेड कवर, परदे, पौधे बदलती रहती. यूं भी अभय को बदलाव चाहिए. उसे घर की सजावट में चेंज पसंद है. वह अक्सर कहता, बदलती रहा करो ये चादर, ये कवर, ये परदे. मैं बोर हो जाता हूं एक सी व्यवस्था से, पर अभय, तुमने इस हद तक बदलाव पसंद किया, यह तो मैं सपने में भी नहीं सोच सकती. तुमने तो मुझे भी बदल डाला. शायद तुम मेरे अस्तित्व को पलंग पर बिछी चादर की तरह समझ बैठे. मैं कोई तुम्हारे ड्राइंगरूम में रखा फूलदान नहीं थी. उस दिन शाम मिसेज़ कांत के घर गृह प्रवेश की पार्टी थी. न चाहते हुए भी मुझे अकेले ही जाना था. वहीं मुलाक़ात हो गई कांत की दिल्ली वाली बुआजी से.
“अरे बुआजी, आप? मैं चहक उठी थी.” वे मुझे अच्छी लगती हैं, पहले कई बार मिल चुकी थीं.
“कैसी हो मीनू?”
“एकदम ठीक!” मैं बोल गई, “दिल्ली आने वाली हूं. अभय वहीं है आजकल” मैंने उत्साह से कहा.
“क्या अक्सर वहीं रहने लगा है?” पूछते हुए उनका चेहरा एकाएक गंभीर हो गया. उनकी आंखों में एक अजीब सा भाव था जिसमें व्यंग्य भी था, दया भी.
“मीनू! तुमसे बात करनी है. चलो, ऊपर बालकनी में बैठते हैं.” वे सहज होते हुए बोलीं.
“हां-हां, चलिए.” मैं आगे चलने लगी.
वे बात का सूत्र जमाते हुए बोलीं,
“दुबली लग रही हो.”
“नहीं तो, सारा दिन खाती रहती हूं, अकेली जो हूं.”
“हां! मैं जानती हूं, पर तुम विरोध क्यों नहीं करती?” वे कहने लगीं.
“किस बात का?”
“अभय के दिल्ली जाने का. तुम रोकती क्यों नहीं उसे?”
“दिल्ली जाने से क्यों रोकूं भला!”
“तुम्हें नहीं मालूम? तुम अकेली क्यों रहती हो, यही समझाना चाहती हूं, पर तुमसे कैसे कहूं? तुम मुझे बुआ कहती हो, इस नाते तुम मेरी बच्ची जैसी हो, तो मेरा फ़र्ज़ बनता है.” वे चुप हो गईं.
मैं विस्मय भरे नेत्रों से उन्हें देखती रही.
“मीनू!”
“जी!”
“क्या तुम सचमुच नहीं जानती?”
मैंने उनका हाथ पकड़ लिया,
“क्या बात है?”

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“बेटी! अभय दिल्ली बिज़नेस के काम से कम और कुछ दूसरे ही कारण से ज़्यादा जाता है. अभय के साथ एक लड़की रहती है. मैंने समझा, तुम्हें पता होगा.”
“नहीं तो!” मैंने कहा, “ऐसा तो हो ही नहीं सकता. अभय मुझसे प्यार करता है… वह मेरे बग़ैर जी नहीं सकता.”
“हमने अपनी आंखों से देखा है. वे सामने वाले फ्लैट में रहते हैं. शायद वहां के लोग उन्हें पति-पत्नी ही समझते हैं.”
मैं असहज थी उस व़क्त. मन में लावा उगलती एक खीझ थी. मैं बुदबुदाने लगी, बुआ! क्यों मेरे सुख-चैन को यूं छिन्न-भिन्न करना चाहती हो! न ही बतातीं तो अच्छा था. मैं अपने इस खोल में जी रही थी, क्यों अभय और मेरे रिश्ते का सच अनावृत कर दिया! मेरे जीवन का भ्रम, जिसे मैं सच समझे बैठी थी, क्यों तोड़ दिया! तुम्हारे एक सच से मेरे सारे सुख किन अदृश्य छिद्रों से बाहर निकल गए, मैं नहीं जानती. कितना सुख था अभय की पसंद के अनुसार घर की सजावट में बदलाव लाने का. बदलाव… बदलाव… बदलाव… इस शब्द का बोझिल भार मुझ पर लदने लगा.
मैं ख़ामोश थी, सजल नेत्रों से किसी के सामने सरलता से खुलती-बिलखती नहीं हूं मैं. शायद यूं खुल पाना मेरा स्वभाव ही नहीं. मैं अपनी पनीली आंखों को झुकाती भी नहीं, क्योंकि पानी टपक गया तो कमज़ोर पड़ जाऊंगी.
“तुम जानती होगी, हम तो यही समझे थे.”
“नहीं.”
बुआ ने फिर मेरा हाथ पकड़ा था. वे कोमल स्वर में मुझे सांत्वना दे रही थीं, “मुझे क्षमा करना मीनू, मैंने तुम्हारा दिल दुखाया. तुम्हारे पत्नी व्रत को चोट पहुंचाई. तुम एक अदृश्य विश्‍वास के सहारे खड़ी थी, जिसे मैंने जाने-अनजाने तोड़ दिया.” वे चली गईं.
मन में डर की नींव शायद उसी शाम पड़ गई थी. रात का भयावह अंधेरा मेरे मन में भी भरा था. उस रात अभय के बदलाव की हद जानने के बाद मन चकनाचूर था. क्यों मैं भी बदल दी गई, कैलेंडर के पन्ने की तरह?
अगले दिन सुबह-सुबह ही अभय ने दरवाज़े पर दस्तक दी थी. मैंने अनमने भाव के साथ दरवाज़ा खोला.
“क्यों, तबीयत ख़राब है क्या?” मैं चुप रही.
“तुम्हारा चेहरा इतना उतरा हुआ क्यों है?”
“चाय पिओगे?”
“हां…”
चाय का प्याला देते वक़्त मैंने महसूस किया था कि अभय फिर उलझन में है.
“क्या बात है मीनू? मैं तुम्हें यूं उदास नहीं देख सकता.”
“तो देखना ही छोड़ दो.” मैं आवेश में बोल गई. अभय बिना हिले-डुले अपनी जगह बैठा रहा.
“कल दिल्ली वाली कांत की बुआजी मिली थीं, तुम्हारे फ्लैट के सामने वाले फ्लैट में ही रहती हैं.
“ओह! तो यह बात है!”
मेरे होंठ थरथराने लगे थे और आंखें आंसुओं से लड़ रही थीं, “तुमने कभी कुछ बताया क्यों नहीं अभय?”
“क्या?”
“यही कि दिल्ली में तुम्हारे समर्पित व्यवहार की एक ताक़त, एक शक्ति है, जो तुम्हें रोक देती है मुझे वहां बुलाने से.” कहते-कहते अपने बिखर पड़ने के क्षण को समेट लेती हूं मैं.
“चलो, अच्छा हुआ, तुम्हें पता चल गया! तुम्हें बताने और समझाने के एक कठिन द्वंद्व से बच गया मैं.”
“फिर?”
“फिर क्या, मैं उसके साथ रहना चाहता हूं.” चुप रही मैं.
“तुम चाहो तो ये घर, ये सामान सब तुम्हारे पास ही रहेगा. तुम्हें कोई तकलीफ़ नहीं होगी. जितना रुपया चाहोगी, तुम्हें मिलता रहेगा. मुझे समझने की कोशिश करो मीनू!”
“अभय, यह दान कर रहे हो?”
“नहीं.”
“तो फिर?”
“मैं तुम्हें परेशानी में नहीं डालना चाहता.”

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“अभय, तुम भूल गए. यह घर… यह तो पहले से मेरा है, मेरे पापा का दिया हुआ, और जो रुपया है उसका मूल भी मेरा ही था. मेरे ख़्याल से तुम तो तब भी खाली हाथ थे और अब भी.”
अभय की आंखें भी छलछलाती हुई लबालब हो रही थीं. उसने एक बार फिर मेरा हाथ पकड़ने के लिए अपना हाथ बढ़ाया, पर मैं हट गई.
अब इस स्पर्श में कुछ नहीं है. सब कुछ बदल गया था. अब हमारे रिश्ते बदल गए थे, जिनका कोई दूसरा नाम नहीं था. नए सिरे से हमें लिखनी होगी जीवन के रिश्तों की इबारतें. क्यों हुआ ऐसा? एकदम पसंद की मिठास को पीते-पीते कोई बेहद फीका सा स्वाद हमारे बीच आ गया था.
शाम होते-होते अभय चला गया था बग़ैर बताए, फोन के पास एक पत्र छोड़कर, जिसमें लिखा था, ‘मुझे माफ कर देना मीनू! मैं जा रहा हूं, शायद लौटकर न आऊं. न ही आऊं तो बेहतर रहेगा, क्योंकि तुम्हारी आंखों में उठते प्रश्‍नों के उत्तर मेरे पास नहीं हैं. ऐसा क्यों हुआ, कब हुआ, मैं नहीं जानता.’
पत्र तह करते व़क्त मैं बोल गई थी, “तुम एक दिन ज़रूर आओगे अभय, पर अब बदलाव मेरे होंगे, मेरे अपने.
दस साल बाद एक दिन फिर अभय मेरे सामने खड़ा था. दस सालों का यह अंतराल कैसे कटा, यह बताना अब ज़रूरी नहीं रहा. हां, मैं ज़िंदा रही, मैंने आत्महत्या नहीं की, पर बदलाव की हद मैंने भी पार कर ली थी. आज मैं उस शहर में जज के पद पर प्रमोशन के साथ पदस्थ हूं. जी हां, उसी शहर में. कभी अपने लिए सही निर्णय न कर पाने वाली मैं मीनू उसी कुर्सी पर हूं, जहां दूसरों के लिए भी निर्णय देने होते हैं. ऐसे निर्णय जो जीवन के मायने बदल सकते हैं.
एक दिन कोर्ट पहुंची तो आंखें विस्मय से फटी रह गईं. सामने चालीस साल की उम्र में ही साठ साल के प्रौढ़ की तरह अभय खड़ा था. फाइल सामने थी. मिसेज सुमन सान्याल अपने पति अभय से तलाक़ चाहती हैं. केस में आरोप था कि अभय बाप बनने में सक्षम नहीं है और सुमन मां बनना चाहती है. अभय आश्‍चर्यचकित था. मुझे देखकर उसकी आंखें प्रश्‍नोत्सुक थीं. शायद ख़ुश भी थीं मुझे सामने देखकर. बदलाव चाहने वाला अभय शायद बदलाव के क्रम में मुझे फिर पसंद कर रहा हो!
आज मुझे निर्णय देना था, पर अभय तो मेरे मन के कठघरे से बहुत पहले ही मुक्त हो गया था. आज वो एक पत्नी के नहीं, एक जज के कठघरे में खड़ा था और निर्णय करने वाली थी मीनू, जिसे अभय निर्णय लेने में कमज़ोर कहता था. सुमन सान्याल भी सामने थी- सांवली, दुबली सी बंगालन लड़की, जिसने मेरे जीवन में यह बदलाव ला दिया था. मेरे अपराधी तो शायद दोनों ही थे. एक तेजस्वी एकाग्रता लाते हुए मैंने आंखों पर चश्मा चढ़ाया, पर सुमन के वकील के न आने पर केस मुल्तवी हो गया. अभय और सुमन चले गए. मैं शाम पांच बजे तक अनमनी सी कोर्ट में ही बैठी रही. शाम को जाने के लिए बाहर निकली तो अभय सामने खड़ा था.
“कैसी हो मीनू?”
“अच्छी हूं.”
“मीनू, अब तो तुम्हें पता चल गया होगा कि मैं…”
“अभय, मुझे तो तब भी पता था. तुम्हें याद है, मां के कहने पर हमने एक बार मेडिकल चेकअप करवाया था? उस दिन भी रिपोर्ट यही थी, पर मैंने तुम्हें नहीं बताया, यह सोचकर कि तुम सच स्वीकार नहीं कर पाओगे.” बोलते-बोलते मैं रुआंसी हो गई.”
“और मैंने तुम्हें इसलिए धोखा दिया, क्योंकि मैं पिता बनना चाहता था. मैंने  समझा कि कमी तुम्हारे में है, तुम कभी मां नहीं बन सकती. मीनू, मुझे क्षमा कर दो, प्लीज़…”
तभी मेरे पति विजय गाड़ी लेकर मुझे लेने आ गए और मेरी चार वर्षीया बेटी दौड़कर मम्मी-मम्मी कहते हुए मुझसे लिपट गई.
“मीनू… यह तुम्हारी बेटी…”
“हां अभय, बदलाव की एक हद यह भी है. इनसे मिलो, ये मेरे पति हैं- विजय.”
“मीनू, जल्दी चलो, हमारी टिकट बुक है और हम लेट हो रहे हैं.” कहते हुए विजय मुझे खींचकर ले गए, बिना अभय की तरफ़ कोई ध्यान दिए.
हां, यही सच है… मैं उनके साथ गाड़ी की ओर तेज़ी से क़दम बढ़ाते हुए सोच रही थी.

- डॉ. स्वाति तिवारी

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