उस रात फिर वही भयानक स्वप्न… पंखे से लटकी उलाहने भरी आंखों से उसे देखती लाश, उसे लगा कि वो इस चेहरे को रोज़ देखती है. इतना जाना-पहचाना है कि… फिर वही दबी घुटी सी चीख..!
मनीष फिर उसके चीखने पर उठा और उसके क्षुब्ध चेहरे पर एक उड़ती सी नज़र डालकर करवट बदलकर सो गया. उस दिन छह वर्षों के संतुलित कहे जाने वाले दांपत्य जीवन में पहली बार अनुराग की यादों का झोंका शिद्दत से हिला गया था.
स्मिता एक अंधेरे कमरे में जाती है. जब रोशनी की हल्की सी किरण आती है, तो पंखे से लटकती एक लाश दिखती है. वो उसके पैरों से लिपटकर रोने लगती है. वो क्यों रो रही है? इस लाश से उसका क्या रिश्ता है? ये भी सोचती जा रही है और रोती भी जा रही है. तभी कमरे में उजाला होता है. दहशत के बावजूद लाश का चेहरा देखने की जिज्ञासा को वो दबा नहीं पाती. पर ये क्या? चेहरा स्पष्ट होते ही एक हृदय विदारक चीख गले में अटक जाती है और वो भय से दबी घुटी चीख के साथ उठ बैठती है. नहीं…!!!
उफ्..! फिर वही स्वप्न. इस भयावह स्वप्न को जाने कितनी बार देख चुकी है वो. हर बार दिलोदिमाग़ पर दहशत सी छा जाती है. पर आज..? आख़िर आज उसने उस लाश का चेहरा ठीक से देख ही लिया और रोंगटे खड़े हो गए. मृत चेहरा पंखे पर लटका उसे व्यंग्य और उलाहना भरी निगाहों से देख रहा था.
आज सहानुभूति की चाह दिल में दबाना असंभव हो गया. उसने मनीष के चारों ओर बांहों का घेरा कसा, तो उसकी नींद खुल गई. उसके चेहरे पर झल्लाहट आई और स्वर कटु हो गया, “ये क्या तरीक़ा है? तुम किसी मनोचिकित्सक को क्यों नहीं दिखाती? नींद ख़राब कर दी. अब से मेरा बिस्तर अलग कमरे में लगा दिया करो.”
छलछलाई आंखों के साथ उठकर उसने पसीना पोंछा, फ्रिज से एक ग्लास ठंडा पानी निकालकर पिया और स्टडी रूम में जाकर सेटी पर बैठकर दोनों हाथ सिर के पीछे फंसाकर पलकें मूंद लीं.
अपने बारह साल के ख़ुशहाल कहे जाने वाले दांपत्य जीवन में पहली बार उसने मनीष को आत्मीयता की चाह में छुआ था और उसने… शरीर की चाहत को शादी सिद्ध अधिकार का नाम देकर अनगिनत बार मनीष ने उसकी नींद ख़राब की है, पर इतनी बेरुखी से बोल पाई कभी वो? सारे जीवन को संघर्ष बनाकर यही समानता अर्जित की है उसने?
काश! एक बार मनीष ने प्यार से बांहों में लेकर कहा होता, ‘डरो मत, मैं हूं ना!’ अगर मनीष की जगह अनुराग होता तो..? मगर कैसे होता? उसने स्वयं ही तो… फिर क्यों आजकल अनुराग का नाम इतना याद आने लगा है उसे? पहली बार उसी दिन तो आया था ये स्वप्न जब…
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अतीत की परछाइयों का घेरा कसता जा रहा था. वो समझ गई कि अब अपने अतीत को टटोले बिना वो इस सपने से मुक्ति नहीं पा सकेगी. उसने एक ठंडी सांस लेकर अतीत के पन्ने पलटने शुरू किए, तो पहला अक्षर दिखाई पड़ा- अनुराग… और पलकों में दबा दहकता लावा गालों पर ढुलक आया.
कितनी प्रफुल्ल रहा करती थी उन दिनों वो जब इस शहर में एक छोटी सी नौकरी मिली थी और सहकर्मी के रूप में मिला था अनुराग का साथ. मितभाषी, भावुक और अपने जीवन से पूरी तरह संतुष्ट अनुराग कब सहकर्मी से बहुत अधिक हो गया उसे पता ही नहीं चला. अक्सर संघर्ष की धूप अधिक कड़ी होने पर वो अनुराग को समाधान की छांव बनकर खड़ा पाती.
फिर एक दिन अनुराग ने इस अनकहे रिश्ते को नाम देने की रस्म भी पूरी कर दी. पलकें झुक गई थीं उसकी और कपोल आरक्त हो गए थे. हृदय तुरंत अनुराग के साथ हो लेना चाहता था, पर मस्तिष्क ने उसका हाथ थाम लिया और सोचने का समय मांग लिया था उसने.
तभी एक पार्टी में मुलाक़ात हुई मनीष से. पद और वेतन में उससे बहुत बेहतर, स्मार्ट, वाकपटु और ग़जब का महत्वाकांक्षी. अस्मिता उसके पद, वेतन की गरिमा से प्रभावित हुए बग़ैर न रह सकी और मनीष उसके रूप से. उनके कार्यालय एक ही इमारत में हैं, जानकर तुरंत दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया था मनीष ने. मुलाक़ातों का सिलसिला बढ़ा, तो उसकी महत्वाकांक्षी बातों ने अस्मिता की अलसाई हुई अभिलाषाओं को झिंझोड़ कर जगा दिया, तभी तो प्रमोशन की लालसा वाली मन की दराज़ मनीष के सामने खोल दी थी उसने.
“इस पद पर किसी महिला को रखा जाना है और मेरी प्रतियोगिता जिनसे है, मैं उन सबमें नई हूं.”
“और सबसे कम उम्र की व सबसे ख़ूबसूरत भी.” मनीष ने उसका अधूरा वाक्य बड़ी परिपक्व और गंभीर मुस्कान के साथ पूरा किया. फिर थोड़ा ठहरकर उसके चेहरे पर प्रश्नवाचक भाव पढ़ने के बाद अपनी बात को आगे बढ़ाया, “देखो अस्मिता, आगे बढ़ने के लिए थोड़ी राजनीति आनी ज़रूरी है, जिसकी तुममें कमी है. ख़ैर! वो तो स्वभाव का अंग होती है, सीखी नहीं जा सकती. लेकिन इस पद के लिए जिस प्रेज़ेंटेबल पर्सनैलिटी की ज़रूरत है, उसे डेवलप करना तुम्हारी जैसी ख़ूबसूरत और प्रतिभाशाली लड़की के लिए कठिन नहीं है.”
फिर क्या था, मनीष ने फिटनेस और आर्ट ऑफ कॉन्वर्सेशन के महंगे कोर्सेज़ का मार्ग प्रशस्त किया और एक महीने बाद ही डिज़ाइनर सूट पहन, पेंसिल हील ठकठकाती, आकर्षक और आधुनिक ढंग से कटे बालों को प्रशिक्षित मॉडल की तरह झटकती हुई पहुंची, तो सबके होंठ प्रशंसा में गोल हो गए थे. प्रतिभा और अध्ययनशीलता को अथक परिश्रम से अर्जित आत्मविश्वास और होंठों पर चिपकाई रासायनिक मुस्कान का साथ मिला, तो उसके व्यक्तित्व में वो चुंबकीय आकर्षण आ गया, जिससे प्रमोशन तो बचकर कहीं जा ही नहीं सकता था.
उस उपलब्धि पर मनीष को महंगे रेस्टॉरेंट में ट्रीट देने गई, तो मनीष ने अपने भी प्रमोशन की ख़ुशख़बरी सुनाते हुए शादी का प्रस्ताव रख दिया. चकित अस्मिता के चेहरे पर अगर-मगर पढ़कर बड़े ही सपाट और व्यावहारिक अंदाज़ में मनीष ने दिमाग़ खोलकर परोस दिया था, “अगर हम दोनों मिलकर रहें तो ये शहर हमें ग्रोथ की अनलिमिटेड अपॉर्च्युनिटीज़ दे सकता है. तुम्हें सोचने के लिए समय चाहिए तो ले लो. एक सप्ताह चलेगा?”
बुद्धि तुरंत मनीष के साथ हो ली थी, पर इस बार हृदय ने हाथ थाम लिया. उसमें जगह थी ही नहीं, देता कैसे? पर फिर पाया कि बहुत ऊंचाई तक जाने का, हाई सोसाइटी में अपना स्थान सुनिश्चित करने का सपना कब और कैसे मन में पला और सारे सपनों से बड़ा हो गया, उसे पता ही नहीं चला. फिर तो जैसे मन एक अखाड़ा बन गया था जिसमें मनीष का पद, वेतन, दायित्व और हस्तक्षेप विहीन जीवन और अनुराग के प्रति अपने माता-पिता का झुकाव, उसकी निश्छल सहायताएं और सहृदयता मल्ल युद्ध करते रहे थे… और आख़िरकार जीत बुद्धि की हुई.
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परिवार की अनुमति के विरुद्ध विजातीय मनीष से विवाह का निर्णय अथक परिश्रम से अर्जित स्वातंत्र्य की सबसे बड़ी उपलब्धि था. पर जाने क्यों ये निर्णय लेते समय उसे लग रहा था जैसे अपने हृदय में सहेजकर रखी कोई बहुत कोमल चीज़ बड़ी बेरहमी से निकाल फेंकी है उसने.
और उस रात पहली बार देखा था वो भयावह स्वप्न..! पंखे से लटकी लाश का पहचाना सा चेहरा अंधेरों की स्याही के कारण ठीक से नज़र नहीं आ रहा था, पर था बहुत ही अपना.
शादी के बाद मनीष के वेतन से घर का किराया और अपने फ्लैट की किश्तें और अस्मिता के वेतन से घर ख़र्च निर्धारित रूपरेखा के अनुसार चलते हुए एक वर्ष ही हुआ था कि नन्हें मेहमान की आहट से पुलक उठी थी वो. पर मनीष के स्वर में झुंझलाहट आ गई थी, “हमने तो तय किया था कि जब तक हम अपना फ्लैट नहीं ख़रीद लेते तब तक ये दायित्व नहीं ओढ़ेंगे.”
“हां, मगर ग़लती से ही सही, पर पहला बच्चा…”
“डोंट बी इमोशनल फूल लाइक डोमेस्टिक गर्ल्स! मकान का किराया, अपने मकान की किश्तें और घर ख़र्च के बाद बच्चे का ख़र्च कैसे मैनेज करोगी? आगे जैसी तुम्हारी मर्ज़ी.”
तर्क तो मनीष के भी सही ही थे, फिर क्यों लग रहा था कि नर्सिंग होम में बिस्तर की जगह मानो कांटे बिछे हों और इंजेक्शन शरीर की जगह दिल में कील की तरह ठोंक दिया गया हो. और उस रात फिर वही दु:स्वप्न आया था. पंखे पर लटकी किसी बहुत आत्मीय लगने वाले चेहरे की लाश पर रोना और वो उलाहना भरी निगाहें… पर सपने की दहशत से बड़ी थी ये यंत्रणा कि चाहकर भी मनीष की बांहों में सिर छिपाकर रो नहीं पाई थी. जानती थी कि नींद खुल जाने पर मनीष बुरी तरह झल्ला जाता है.
जॉब के तनाव के साथ गृहस्थी के सारे काम अकेले निपटाते हुए उसे लगता जैसे किसी दौड़ प्रतियोगिता में निर्धारित ट्रैक पर बस भागती ही चली जा रही है. सर्दियों की धूप में चाय की चुस्कियां लेते हुए मनीष के साथ ठिठोली करने का सपना, टीवी पर कोई कार्यक्रम देखते हुए खिलखिलाने का सपना और ऐसे ही हज़ारों नन्हें सपने मन में ही कुचल कर शहर की सबसे पॉश कही जाने वाली कॉलोनी में फ्लैट लेने का बड़ा सपना आख़िर साकार हो ही गया.
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जीवन फिर एक बार घर को सभी सुविधाओं से सजाकर सोसाइटी में अपना ऊंचा स्थान सुनिश्चित करने की होड़ में दौड़ने लगा था कि एक नन्हीं धड़कन के स्पंदन ने वक़्त के बहुत से घाव भर दिए थे. डिलीवरी के अंतिम सप्ताह तक काम करके लगभग सात माह की छुट्टियां बचा ली थीं. उसने सोचा था, मन की उपेक्षित संदूक में बंद सारी कोमल भावनाओं को इस नवागत के साथ धूप दिखाएगी. उन लम्हों की कल्पना उसके मन में पुलक भर देती थी, पर ये काल्पनिक सुख भी यथार्थ की ज़मीन पर उतर न सका.
बाबला के आगमन के दो माह बाद जब तबियत थोड़ी सी संभली ही थी कि बॉस का प्रमोशन के साथ छुट्टियां कैंसिल करने का प्रस्ताव आ गया था. लिहाज़ा मनीष ने एक महीने की छुट्टी ले ली थी, क्योंकि तीन माह से छोटा बच्चा कोई क्रेच रखने को तैयार नहीं था.
पहले दिन सुबह आठ बजे घर से निकली और रात के आठ बजे लौटी, तो थककर चूर हो चुकी थी. किसी तरह ब्रेड-दूध खाकर बिस्तर पर बैठी ही थी कि बाबला उसकी ख़ुुशबू पाकर जगकर उसकी ओर बांहें फैलाकर रोने लगा था. थकान, क्रोध, बेबसी और ग्लानि से उसकी पलकें जल उठी थीं. मनीष ने मौक़े की नज़ाकत देखकर बाबला के दूध में दो बूंद ब्रांडी मिलाकर उसे सुला दिया था और वो सीने और आंखों में भारीपन लिए यूं ही बिस्तर पर पसर गई थी.
उस रात फिर वही भयानक स्वप्न… पंखे से लटकी उलाहने भरी आंखों से उसे देखती लाश, उसे लगा कि वो इस चेहरे को रोज़ देखती है. इतना जाना-पहचाना है कि… फिर वही दबी घुटी सी चीख..!
मनीष फिर उसके चीखने पर उठा और उसके क्षुब्ध चेहरे पर एक उड़ती सी नज़र डालकर करवट बदलकर सो गया. उस दिन छह वर्षों के संतुलित कहे जाने वाले दांपत्य जीवन में पहली बार अनुराग की यादों का झोंका शिद्दत से हिला गया था.
गृहस्थी की सारी सिरदर्दी एकाकी थी. मनीष तो व्यावसायिक व्यस्तता का बहाना बनाकर शुरू से ही गृहस्थी की ज़िम्मेदारियों से पल्ला झाड़ चुका था. उसके घर लौटने का कोई निश्चित समय नहीं था. पूछने पर जवाब मिलता कि ‘कॉन्टैक्ट्स’ के साथ ‘बार’ में बिताया गया समय उसकी व्यावसायिक आवश्यकता है. और मनीष को अस्मिता का मेड के होते हुए हर समय बाबला के आगे-पीछे लगे रहना, उसकी हर ज़रूरत को ख़ुद पूरा करना मिडिल क्लास मेंटैलिटी से उबर न सकना लगता.
वो और मनीष एक छत के नीचे रहते हुए भी मानो अपनी-अपनी वृतीय रेखाओं पर घूमते नक्षत्रों की तरह अजनबी और यांत्रिक हो चुके थे. उनमें संवाद का एक ही सेतु था- बाबला, जिसकी ज़िद्द से कभी-कभी परिवार के साथ किए जाने वाले मनोरंजन की रस्म पूरी कर ली जाती थी. जैसे-जैसे वो बड़ा हो रहा था, उसकी साथ समय गुज़ारने की मांगें भी बड़ी होने लगी थीं, जिन्हें मनीष भी टाल नहीं पाता था. इसी क्रम में बारह सालों बाद पहली बार दोनों ने छुट्टी लेकर पहाड़ी स्थान पर घूमने का कार्यक्रम बनाया था. अस्मिता को लगने लगा था कि बहुत से भावों की मुर्झाने लगीं पत्तियां वापस हरी होने को हैं.
तभी उसकी एक उपलब्धि के उपहारस्वरूप ज़ोनल डायरेक्टर का पद ऑफर कर दिया गया. इस पद को लेने का मतलब था जॉब का टुअरिंग हो जाना. मनीष ने सुना तो गर्मजोशी से गले लगाते हुए ढेर सारी शुभकामनाएं उड़ेल दी उस पर. ‘बाबला कहां रहेगा?’ की समस्या का बोर्डिंग रूपी समाधान भी तुरंत परोस दिया उसने. मगर ये सुनकर बाबला उसके पैरों से लिपटकर रोने लगा, तो उसकी छाती कसक उठी थी. और एक बार फिर मनीष ने तसल्ली से बैठकर समझाया था, “जिस उपलब्धि के लिए लोग सारी ज़िंदगी राजनीति करते हैं, वो तुम्हें अपनी प्रतिभा और परिश्रम के बल पर मिल रही है. ऐसे में स्वयं ही अपने से कम प्रतिभावान लोगों के मातहत काम करने का निर्णय लेना कहां की अक्लमंदी है?” मनीष के तर्क तो हमेशा की तरह सही ही लग रहे थे, फिर क्यों बोर्डिंग के फॉर्म पर हस्ताक्षर करते हुए लगा था जैसे किसी जतन से लगाए प्यारे पौधे की कोंपल फूटते ही उसे जड़ से उखाड़ फेंकने जा रही हो.
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बाबला रोते-रोते सो गया था और वो बिना खाए ही बेड पर ढह गई थी. पलकें जल रही थीं और मन में प्रश्नों का बवंडर उठ रहा था. क्यों जब ज़िंदगी को जीने का समय आता है तो जीने की बजाय एक नई उपलब्धि को अर्जित करने निकल पड़ती है वो? कब तक चलेगा ये सिलसिला? हाड़तोड़ मेहनत से जो उपलब्धियां हासिल की हैं, वो उसकी अपनी महत्वाकांक्षाएं थीं. फिर क्यों लगता है कि ज़िंदगी उसकी मुट्ठी से रेत की तरह फिसलती जा रही है और वो कुछ नहीं कर पा रही? सब कुछ तो है उसके पास, फिर किस चीज़ की कमी खटकती है? क्या खलिश है जीवन में जो चैन नहीं लेने देती? नींद ने मन में चल रही इसी ऊहापोह के साथ उसे आगोश में ले लिया था और फिर उसी स्वप्न की भयावह दुनिया में ला पटका था. आज ये सपना भय की पराकाष्ठा पर पहुंच गया था. अंधेरे कमरे में पंखे से लटकती लाश पर रोना… रोशनी के आने पर उसका चेहरा स्पष्ट होते ही रोंगटे खड़े हो जाना…
पंखे पर लटका उसका अपना ही मृत चेहरा उसे ही व्यंग्य और उलाहना भरी निगाहों से देख रहा था. तो ये वो ख़ुद थी? ‘बेबस और भयातुर!’ तो यूं आगाह करता था उसका अंतर्मन उसे. ख़ुद रोती थी बेरहमी से कुचले गए अपने ही कोमल भावों की लाश पर! अस्मिता की दहशत क्षोभ में, क्षोभ हताशा में और हताशा सवालों में बदलकर उसकी चेतना में बिखर गई. क्या चाहती है वो ज़िंदगी से? माना बहुत कुछ पाया है उसने ज़िंदगी को संघर्ष बनाकर, पर और क्या बढ़ा लेगी वो इस प्रमोशन से? वो सुख-सुविधाएं, जिन्हें भोगने के लिए उसके पास समय नहीं है? उस जीवनसाथी की नज़र में सम्मान, जिससे कभी एक साथी की तरह सुख-दुख नहीं बांटा? या अपने इस अर्जित स्टेटस के मित्रगण? क्यों वो इस अनचाहे प्रमोशन को सिर्फ़ अहं की तुष्टि के लिए स्वीकार करके अपनी कोमल इच्छाओं को मारने पर विवश है? क्यों वो चाहे भी तो अपने जीवन की दिशा मोड़ नहीं पाती? क्यों अपनी अर्जित उपलब्धियों के भोग के सुख को ही कल पर टालते जाने को बेबस है वो? क्या उसने ख़ुद ही नहीं बुना है इस मरीचिका को? क्या इससे निकलना सच में उसके बस में नहीं है?
प्रश्नों की अंधड़ से दम घुटने लगा, तो उसने उठकर पर्दा एक झटके से पूरा हटाकर सारी खिड़कियां खोल दीं. स्याह अंधेरे छंटने को थे. भोर की पहली कोमल किरण एक मधुसिक्त हवा के ताज़ा झोंके के साथ आंखों और त्वचा पर क़दम रखकर दिल की गहराइयों में उतरती चली गई. नीचे करीने से बिछी हरी घास पर लाफ्टर क्लब के लोग योगा के बाद हंसी की क्रिया पूरी कर रहे थे, तो कुछ टहल रहे थे. ऊपर स्वच्छंद आसमान पसरा था. ढेर सारे प्यारे रंगों के छोटे-बड़े बादल उसकी गोद में खेल रहे थे. अस्मिता प्रकृति के इस नयनाभिराम दृश्य के सामने दोनों बांहें फैलाकर खड़ी हो गई जैसे उस भोर के ख़ुशनुमा एहसास को इस तन-मन में सोख लेना चाहती हो. सुगंधित हवा का ताज़ा झोंका उसकी संपूर्ण देह को भिगोते हुए आत्मा में समाता चला गया. सहसा उसके विचार सकारात्मक होने लगे. जो कुछ उसने खोया है, अगर वो त्रासद है, तो जो कुछ पाया है वो भी कम सुखद नहीं है. ग़लती बस इतनी सी है कि वो संतुलन नहीं बना पाई. अर्जन और भोग के बीच सीमा रेखा का निर्धारण नहीं कर पाई. पर अभी देर नहीं हुई है. चंद कतरा ज़िंदगी उसकी झोली में है और उसे बचाने की इच्छाशक्ति भी. जो मर चुके हैं उन्हें ज़िंदा नहीं किया जा सकता, पर ज़िंदा को तो बचाया जा सकता है.
उसने उठकर अपना प्रमोशन ऑर्डर और बोर्डिंग का फॉर्म फाड़कर फेंका और बाबला को स्कूल के लिए जगाने को उसके माथे पर एक प्यार भरा चुंबन अंकित कर दिया.
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