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कहानी- सुबह का भूला (Short Story- Subah Ka Bhula)

“निष्ठा बेटी, तुम्हारे दोस्त सही कह रहे हैं. होते हैं दुनिया में इस तरह के भी लोग. मक्खी का स्वभाव देखा है तुमने? एक पूरे सुंदर शरीर में मक्खी कहां जाकर बैठती है? जहां छोटा-सा भी घाव हो, क्योंकि इसका स्वभाव ही ऐसा है. हर कहीं गंदगी, बुराई खोजने का.” मैंने गौर किया सुधा दीदी सकपका गई थीं, मगर मैं जान-बूझकर निर्लिप्त बनी रही.

सुधा दीदी ने आते ही आदतन पति, बच्चों और अड़ोस-पड़ोस की बुराई शुरू कर दी थी, जो मेरे क्या किसी के लिए भी नई बात नहीं थी. मधुप ने तो इनके शुरू होते ही तुरंत ब्रीफकेस उठाकर ऑफिस की राह पकड़ ली. छोटी बेटी श्रेया टिफिन उठाकर कॉलेज निकल ली और मैं सदैव की भांति किचन संभालते शांति से इनका आलोचना पुराण सुनने लगी.
सुधा दीदी का स्वभाव ही ऐसा है-परछिद्रान्वेशी. हमेशा दूसरों में छेद ढूंढ़ने में लगी रहती हैं. इसी कारण इन्हें न इनके घरवाले तवज्जो देते हैं और न बाहरवाले. जब बहुत भर जाती हैं और कोई सुननेवाला नहीं होता, तो भड़ास निकालने मेरे पास चली आती हैं. वे तो सब उगलकर हल्की होकर चली जाती हैं, लेकिन मेरा मन कई-कई दिनों तक भारी रहता है. मधुप और बच्चे इनके इसी स्वभाव की वजह से हर वक़्त इनसे कन्नी काटने में लगे रहते हैं, पर मुझे मजबूरी में सब कुछ सुनना और झेलना पड़ता है.
“तुम भी अजीब हो! अपने लेखों, कहानियों से पूरी दुनिया का मार्गदर्शन करती रहोगी, पर अपनी सगी इकलौती ननद को कुछ नहीं सुझाओगी.” सुधा दीदी ने उलाहना दिया.
“दीदी, अब इसमें मैं क्या कर सकती हूं? आप बड़ी हैं, समझदार हैं… अच्छा बताइए, लंच में दाल बाटी बना लूं? आपको पसंद है?”
“हां, बिल्कुल! मधुप को तो बहुत पसंद है. श्रेया और निष्ठा को भी पसंद है? अरे हां, मैं तो पूछना ही भूल गई निष्ठा का वहां मन लगा या नहीं? आई हूं जब से अपनी ही रामायण सुनाए जा रही हूंं.”
“निष्ठा ठीक है. धीरे धीरे सेट हो रही है. नई-नई नौकरी है. थोड़ा टाइम तो लगेगा ही. मैंने तो उसे सबसे घुल-मिलकर रहने को कहा है, ताकि मन लगा रहे. एक तो इसकी बहुत अच्छी दोस्त बन गई है नाम्या.”


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सुधा दीदी को निष्ठा के बारे में बताते हुए मैं अनायास ही उसके ख़्यालों में खो गई थी. इंजीनियरिंग करके निष्ठा ने गुड़गांव में एक ख्याति प्राप्त एमएनसी में जॉइन किया था. नाम्या उसके ऑफिस में ही काम करती थी और उसके पासवाले फ्लैट में ही रहती थी. दोनों साथ-साथ ही ऑफिस आती जाती थीं. नाम्या ने निष्ठा को उसके ऑफिस के सभी कलीग्स के बारे में पहले ही पूरी जानकारी दे दी थी, जो निष्ठा ने ख़ूब मज़े ले लेकर मुझे सुनाई थी.
“सौम्या एक नंबर की आलसी है. हमेशा अपना काम दूसरों पर लादने की फ़िराक में रहेगी. उससे बचकर रहना. नागार्जुन अधजल गगरी छलकत जाए है. जितना बनता है, उतनी उसको नॉलेज है नहीं. सुधांशु बॉस का चमचा है. हर वक़्त उन्हीं के आगे-पीछे घूमता रहेगा.”
मैं निष्ठा की बातें सुनकर ख़ूब हंसी थी.
“अच्छी दोस्त बनाई है तूने! इधर-उधर की लगाई-बुझाई से ख़ूब मनोरंजन करेगी तेरा.” इस तरह हल्के में उठी बात हल्के में ही समाप्त हो गई थी. निष्ठा का प्रसंग छिड़ जाने से मुझे अचानक यह भी याद आया कि कल उसका पहला प्रज़ेन्टेशन है.
“आपने अच्छा याद दिलाया दीदी. वह ज़रूर कल के प्रज़ेन्टेशन की तैयारी में डूबी होगी, तभी कल से फोन भी नहीं किया है. खाना-पीना तक भूल जाती है यह लड़की!” मैंने तुरंत निष्ठा को फोन मिलाया. वह थोड़ी अनमनी-सी लगी.
“लगता है प्रज़ेन्टेशन को लेकर प्रेशर में है.” उसका ख़्याल झटककर मैं काम में लग गई थी, पर मन बार-बार वहीं अटक जाता था. पहले मैं जब भी इसे लेकर अपनी चिंता ज़ाहिर करती वह नाम्या का हवाला देकर मुझे तसल्ली दिलाने का प्रयास करती. “ममा, नाम्या है न मेरे पास. वह दादी अम्मा की तरह बुख़ार में मेरा ख़्याल रख रही है. यहां मत जाओ, वो मत खाओ, इससे मत मिलो, अब रेस्ट कर लो.”
“तेरी इस दादी अम्मा से एक बार मिलना पड़ेगा मुझे. बहुत सुन चुकी हूं इसके बारे में.” मज़ाक में बात ख़त्म करते हुए मैं भी निश्‍चिंत हो जाती थी. पर आज तो इसने नाम्या का नाम तक नहीं लिया. यह मेरे लिए और भी चिंता की बात थी. कुछ सोचकर मैंने निष्ठा को फिर फोन लगाया.
“निष्ठा बेटी, थोड़ा-बहुत प्रेशर होना तो वाजिब है. इससे इंसान अच्छा परफॉर्म करता है, पर हां, ज़्यादा टेंशन नहीं लेना चाहिए. न हो तो नाम्या को…”
“मैं बाद में बात करती हूं.” निष्ठा ने फोन बंद कर दिया था. स्पष्ट था वह मुझसे अपनी परेशानी, तनाव या जो कुछ भी मामला था शेयर नहीं करना चाह रही थी. नाम्या के नाम से इसका बिदकना भी हैरत वाली बात थी. इधर खाने के बाद सुधा दीदी का आलोचना पुराण फिर से आरंभ हो गया था.
“दीदी, मुझे सिरदर्द हो रहा है. थोड़ा लेटना चाहती हूंं. आप भी आराम कर लीजिए.” मैं अपने कमरे में आकर लेट गई थी. निष्ठा के अनमनेपन ने मेरी चिंता बढ़ा दी थी. नाम्या इसे हिम्मत देने के लिए इसके पास है या नहीं? मैं बहुत विकल हो रही थी, पर निष्ठा को फिर से फोन कर और परेशान करने का मन नहीं हुआ. देर शाम जब नहीं रहा गया, तो मैंने उसे फोन लगा ही दिया. उसके फोन उठाते ही मैंने तोप के गोले की तरह सवाल दाग दिया, “प्रज़ेन्टेशन कैसा रहा?”


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“अच्छा रहा ममा” सुनते ही मेरे तन-मन से मानो बोझ उतर गया.
“देखा, मैंने कहा था ना  सब ठीक हो जाएगा. तू व्यर्थ ही घबरा रही थी. आज तेरी दादी अम्मा कहां गई? वो पास नहीं है क्या हिम्मत बंधाने को?” मैंने चुहल करके उसका मूड हल्का करना चाहा, पर वह और भी गंभीर हो गई थी. “मैं घर पहुंचकर बात करती हूं.” कहकर उसने फिर फोन काट दिया था.
“अरे भई, शाम की चाय मिलेगी या नहीं? लगता है, यहां आकर ग़लती कर दी मैंने! यहां तो न कोई सुनने वाला है, न अटेंड करने वाला.” कमरे के बाहर चहलक़दमी करतीं सुधा दीदी का स्वर कानों में पड़ा, तो मैं दुपट्टा डालकर तेज़ी से बाहर की ओर लपकी. सुधा दीदी का बड़बड़ाना जारी था. मैं जवाब दिए बिना रसोई में घुसकर चाय बनाने लगी. साथ ही नाश्ता भी लगा दिया. हाथों के साथ-साथ मेरा दिमाग़ भी तेज़ी से चल रहा था. अब दिमाग़ से निष्ठा उतर चुकी थी.
ये सुधा दीदी भी अजीब हैं. हर वक़्त बस सामने वाले में कमियां ही खोजती रहती हैं. आई हैं जब से मुझसे ही मदद मांग रही हैं और अब मुझमें ही कमियां निकालने लगीं. अभी मैं यह सब सोच ही रही थी कि निष्ठा का स्काइप पर कॉल आ गया. मैंने लपककर कॉल रिसीव किया.
“घर पहुंच गई तू? सब ठीक तो है ना? कैसा छोटा-सा मुंह लग रहा है? न हो तो नाम्या को बुला ले. वह रुक जाएगी तेरे पास.”
“नाम्या नाम्या नाम्या!.. नाम मत लो आप उसका मेरे सामने!” निष्ठा बिफर गई तो मेरा जी धक से रह गया.
“क्यूं? क्या हुआ?”
“ग़लती मेरी ही थी, जो उसकी हर बात पर आंख मूंदकर भरोसा करती रही. उसके कहने में आकर मैंने सबसे किनारा कर लिया था. मुझे क्या पता था वह मेरे साथ भी ऐसा करेगी?”
“ज़रा साफ़-साफ़ बताएगी?” मैं अधीर हो उठी थी. सुधा दीदी बड़बड़ाना छोड़कर चाय का कप थामे कान लगाकर बैठ गई थीं. बीच-बीच में मेरे मोबाइल में झांकने का प्रयास भी कर लेतीं.
“ममा, प्रज़ेन्टेशन के 2-3 दिन पहले मैं काफ़ी नर्वस थी. नाम्या को अपना मानकर मैंने अपनी नर्वसनेस उससे शेयर की. मुझे क्या पता था वह इसका ग़लत फ़ायदा उठाएगी. उसने मेरे सभी कलीग्स, यहां तक कि मेरे बॉस को भी बोल दिया कि निष्ठा जैसी बुज़दिल, अनुभवहीन एंप्लॉई कंपनी के लिए सही नहीं है. वह बाहर से आए डेलीगेशन के सम्मुख कंपनी की साख गिरा सकती है. प्रज़ेन्टेशन वाले दिन जब सौम्या ने मुझे यह बात बताई तो मुझे यक़ीन ही नहीं हुआ. मैं सपने में भी नहीं सोच सकती थी कि नाम्या ऐसा कर सकती है, लेकिन फिर नागार्जुन, करुण आदि सभी ने यही बात दोहराई तो यक़ीन करना पड़ा. मैं और भी नर्वस हो गई थी कि इस बीच आपका फोन आ गया. थोड़ी हिम्मत बंधी. प्रज़ेन्टेशन तो अच्छा गया ममा, पर मन बहुत खट्टा हो गया है. दुनिया में ऐसे लोग भी होते हैं. सुधांशु बता रहा था, नाम्या का तो स्वभाव ही ऐसा है. वह हर किसी में कमियां ही खोजती रहती है. उसे नहीं पता कि यही उसकी सबसे बड़ी कमी है.”
मेरी नज़रें अनायास ही सुधा दीदी की ओर घूम गईं. मन में कुछ कौंधा. क्यूं न एक तीर से दो शिकार किए जाएं?
“निष्ठा बेटी, तुम्हारे दोस्त सही कह रहे हैं. होते हैं दुनिया में इस तरह के भी लोग. मक्खी का स्वभाव देखा है तुमने? एक पूरे सुंदर शरीर में मक्खी कहां जाकर बैठती है? जहां छोटा-सा भी घाव हो, क्योंकि इसका स्वभाव ही ऐसा है. हर कहीं गंदगी, बुराई खोजने का.” मैंने गौर किया सुधा दीदी सकपका गई थीं, मगर मैं जान-बूझकर निर्लिप्त बनी रही.
निष्ठा अभी भी असमंजस में थी. “लेकिन ममा, नाम्या ने हमेशा मेरी हेल्प की है. मुझे समझ नहीं आ रहा उससे आगे दोस्ती रखनी चाहिए या नहीं?” निष्ठा के चेहरे से उसकी परेशानी साफ़ झलक रही थी. मुझे उस पर दया
आने लगी.
“पहले अपने चेहरे से तनाव हटाओ. तनाव में रहोगी, तो पिंपल्स हो जाएंगे और रोओगी तो रिंकल्स हो जाएंगे, इसलिए मेरी बच्ची, हमेशा स्माइल करो, ताकि डिंपल्स हों.” निष्ठा के साथ ही मेरे समीप बैठी सुधा दीदी के चेहरे पर भी मुस्कान आ गई थी.
“…गुड, एक बात और! ऑफिस के काम का ज़्यादा तनाव लेने की आवश्यकता नहीं है. इस बारे में एक मज़े की बात प्रचलित है. तुझे बताती हूंं. प्राचीनकाल में जो लोग अपनी नींद, भोजन, हंसी, परिवार और अन्य सांसारिक सुखों को त्याग देते थे उन्हें ॠषि मुनि कहा जाता था और आज कलयुग में उन्हें एंप्लॉई ऑफ द मंथ कहा जाता है.”
“वेरी ट्रू ममा!” निष्ठा खिलखिलाकर हंस पड़ी थी. मैं अपने प्रयास में कामयाब रही. उसे सहज होते देख मेरे चेहरे पर भी मुस्कान खिल गई.
“नाम्या से एकदम किनारा कर लेने की आवश्यकता नहीं है. उसे ख़ुद ही अपनी ग़लती का एहसास हो जाएगा. ऐसे लोग अधिक समय तक किसी के प्रिय नहीं हो सकते.”
“बिल्कुल ठीक कहा आपने. अब मुझे समझ आया ऑफिस में सभी लोग इससे कटे-कटे क्यों रहते हैं? मैं उसके जैसी हरगिज़ नहीं बनना चाहती. उसने तो मेरा प्रज़ेन्टेशन ख़राब कर मेरा करियर ही डुबो दिया होता.”
“ऐसा कुछ नहीं होगा मेरी बच्ची. तुम अपने लक्ष्य तक ज़रूर पहुंचोगी. लक्ष्य को बेधने से पहले तीर को भी थोड़ा पीछे घिसटना होता है, तभी वह आगे लक्ष्य की ओर बढ़ता है. ज़िंदगी में भी कई बार आगे बढ़ते क़दम ठिठक जाते हैं, पीछे मुड़ जाते हैं, पर फिर सही राह पकड़ लेते हैं. अरे, बातों-बातों में तुझे बताना ही भूल गई, बुआ आई हुई हैं.” मैंने मोबाइल सुधा दीदी को पकड़ा दिया.
“प्रणाम बुआ, कैसी हैं आप? फूफाजी, दीदी और दीपू कैसे हैं?” निष्ठा ने चहककर पूछा.
“सब ठीक हैं. अपने-अपने काम और पढ़ाई में व्यस्त हैं. बस, मैं ही खाली दिमाग़ शैतान का घर हूंं. ख़ैर छोड़, तुझे जब भी ऑफिस से छुट्टी मिले दिल्ली आने का प्रोग्राम बना लेना. तेरी मां से भी यही कह रही हूं कि हर बार मैं ही चली आती हूंं. कभी वह भी तो अपनी ननद को संभालने आएं…”


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कॉल ख़त्म होते-होते सुधा दीदी किसी सोच में डूब गई थीं.
“सोच रही हूं रात वाली बस से निकल जाऊं. मेरे बिना सबको परेशानी तो हो ही रही होगी. अब ये लोग मुंह सेे न बोलें तो क्या हुआ मैं समझती तो हूं ही कि मेरे इस तरह कभी भी मुंह उठाकर चले आने से इन लोगों को पीछे दिक्क़त तो आती ही होगी. तुम्हें भी परेशान कर देती हूं.”
मैं नहीं-नहीं करती ही रह गई, पर सच कहूं तो सुधा दीदी को अपने घर लौटने के लिए सामान बांधते देख मुझे अच्छा लग रहा था. सुबह का भूला शाम को घर लौट जाए तो ख़ुशी तो होती ही है.

संगीता माथुर

 

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Photo Courtesy: Freepik

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