पिताजी की रूंधी आवाज़ अब थरथराने लगी थी, "समधीजी… बेटी से मां-बाप यह तो ज़रूर पूछ लेते हैं कि सास-ससुर का व्यवहार कैसा है? लेकिन कभी ऐसा क्यों नहीं पूछते कि तुम्हारा व्यवहार उनके प्रति कैसा है?"
समधियों के दिलो-दिमाग़ में सैकड़ों घंटे बजने लगे. वे तो उल्टे ख़ुश ही होते थे कि उनकी बेटी को कोई झंझट नहीं है. स्वतंत्र है अपनी गृहस्थी में. लेकिन यदि उनकी बहू भी इसी तरह स्वतंत्र रहना चाहे तब?
"कुछ भी समझ में नहीं आ रहा…" अनंत बौखलाया, "सगी मां का देहांत हुआ और बेटों को ही ख़बर नहीं.. पूरा हफ़्ता बीत गया.
"तुमने टकलपुर फोन लगाया."
सुमंत का चेहरा स्याह हो गया. सकपकाकर उसने नज़रें झुका लीं. नंदूजी अब भी उसे हैरत से घूर रहे थे, "तो तुम्हें अभी तक समाचार नहीं मिला?"
"न… नहीं."
"अजीब बात है?" मन-ही-मन बुदबुदा कर उन्होंने एक ऑटो रिक्शा रोक, उसमें अपना सामान जमाया, "खैर, अभी तो मैं चलता हूं, मेरी ट्रेन का समय हो रहा है. अठारह तारीख़ को वहीं मिलूंगा, धीरज रखना." और उसकी पीठ थपथपाई व रवाना हो गए.
सुमंत कुछ क्षण बुत बना खड़ा रहा. उसे अभी भी विश्वास नहीं हो रहा था. पीछे एक कार ने हॉर्न दिया. विचारों के भंवर से बाहर निकल सुमंत ने स्कूटर स्टार्ट किया और उदास मन से घर की तरफ़ मुड़ गया.
उसे अचानक आया देख श्लेषा घबरा उठी. पानी का ग्लास थमा चिंतित स्वर में पूछने लगी, "तबियत तो ठीक है न?"
"हां."
"फिर दफ़्तर से इतनी जल्दी कैसे लौट आए."
"श्लेषा!" सुमंत का कंठ सूख गया, "मां नहीं रहीं."
"ओह! कब, कैसे?"
"सात दिन हो गए."
"क्या?" वह लगभग चीख पड़ी, "सात दिन हो गए और हमें ख़बर तक नहीं? किसने कहा आपसे?"
"नंदूजी ने, यहां किसी काम से आए थे. अकस्मात बाज़ार में मिल गए."
"मगर…" श्लेषा अचकचाई, "अजीब बात है? आपकी मां और आपको ही ख़बर नहीं? बड़े भैया का भी फोन नहीं आया? क्या उन्हें भी ख़बर नहीं मिली होगी?"
"लगता तो यही है…" भारी मन से फोन उठा उसने अनंत भैया को एसटीडी लगाई.
ख़बर सुनकर अनंत को भी बेहद आश्चर्य हुआ, "कमाल है? इस बात की सूचना क्यों नहीं दी गयी हमें. आजकल तो गांव-गांव में एसटीडी की सुविधा उपलब्ध है, कहीं नंदूजी को ग़लत समाचार तो नहीं मिला है?"
"नहीं भैया. छोटी बुआजी ने स्वयं उनको फोन किया था. नंदूजी के बेटे की शादी दस दिनों पूर्व हुई थी, इसलिए दाह संस्कार व उठावने में वे नहीं जा पाए. कह रहे थे, अब ग्यारहवें पर जाएंगे."
"कुछ भी समझ में नहीं आ रहा…" अनंत बौखलाया, "सगी मां का देहांत हुआ और बेटों को ही ख़बर नहीं.. पूरा हफ़्ता बीत गया. टकलपुर फ़ोन लगाया?"
"किसको लगाता?.. वहां किसी का नंबर भी तो मालूम नहीं. आपको मालूम है?"
"अं हं."
"फिर? इस ख़बर की पुष्टि कैसे करें?"
"दीदी को फोन लगाकर पूछें?"
"हंसेंगे नहीं वो लोग हम पर?"
"ऐसा करते हैं…" कुछ सोच कर अनंत ने उसे फोन रखने को कहा, "दूसरे ढंग से पूछते हैं."
और सुमंत के फोन रखने के बाद अनंत ने अपनी पत्नी को कुछ समझाया. फिर मेघा ने अनंत की बहन बेला को फोन लगाया और उधर से फोन उठाने, पर मेघा ने पूछा, "हैलो, टकलपुर वाली बेचा हैं? मैं उसकी सहेली सेवंती… यहां बैतूल आई थी, सोचा मिल, क्या? कब? ओह… अच्छा… अच्छा." और फोन रख दिया.
अनंत सिर पकड़ बैठ गया. ख़बर सच्ची थी. मगर उन्हें मिली क्यों नहीं? सब रिश्तेदारों को मिल गई, सिर्फ़ उन्हें ही नहीं दी गई. सगे बेटों को.
दाह संस्कार के बाद उठावने' पर सारे रिश्तेदार आए होंगे… उस दिन भी दोनों बेटों को जब अनुपस्थित पाया होगा, तो… ओफ़! कितनी छिछालेदर हुई होगी? अपने आपको अपमानित महसूस कर अनंत की गर्दन झुक सी गई.
सुमंत को फोन से सूचित कर, वह जाने की तैयारी में जुट गया. चार घंटे बाद की ट्रेन थी. बारह घंटे का सफ़र था. रास्ते भर इसी उधेड़बुन में रत रहा.
सीट पर बेचैनी से पहलू बदल रही मेघा ने नथुने फुलाते हुए आशंका प्रगट की, "मुझे ती गहरी साजिश लगती है."
"कैसी साजिश?"
"मांजी के गहने हड़पने की."
"मैं समझा नहीं."
"अरे, सीधी-सी बात है, हम सब पहले पहुंच गए होते, तो मांजी के गहने हम दोनों बहुओं में बंटते, लेकिन अब न पहुंचने पर कर लिए होंगे किसी ने क़ब्ज़े में." "किसने ?"
"उसी ने, जो हफ़्ते भर से आकर जमी बैठी है." घृणा से मेघा को स्वर विषैला हो गया.
अनंत ने कोई जवाब नहीं दिया. सिर झुकाए विचारों के भंवर में डूबता-उतराता रहा.
अगले दिन प्रातः दस बजे के लगभग दोनों टकलपुर पहुंचे.
पिताजी बाहर बैठक के एक कोने में उदास-ग़मगीन बैठे थे. सामने रिश्तेदार भी शोकाकुल बैठे थे.
रिक्शे से उतर अनंत ने सूटकेस एक तरफ़ रखा और पिताजी की गोद में मुंह छुपा ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा, "कैसे हो गया यह सब. हमें ख़बर तक नहीं मिल पाई."
पिताजी ने कोई जवाब नहीं दिया. दीवार से सिर टिकाए आंखें मूंदे होंठों को कसकर भींच लिया. उनके झुर्रीदार चेहरे पर दर्द की असंख्य लकीरें स्पष्ट दिख रही थीं.
उधर मेघा रिक्शे से उतर अंदरूनी कक्ष में जा अपने आर्त-विलाप से पूरे घर को गुंजाने लगी. दीदी से लिपट फूट-फूट कर रोते हुए उनके कंधे को तर कर दिया उसने.
तीन-चार मिनट तक दोनों (अनंत-मेघा) का यह करुण विलाप चलता रहा, फिर पिता की गोद से सिर उठा अनंत ने भीगे स्वर में उलाहना दिया, "आजकल तो इतने साधन हो गए हैं, हमें फ़ोन तो करवा देते."
"करवा तो देता, मगर फिर सोचा कोई फ़ायदा तो है नहीं."
"क्यों?"
"मुझे लगा, क्या पता इस बार भी तुम्हें छुट्टी मिलने में दिक़्क़त आ जाए."
अनंत को यूं लगा मानो भरी महफ़िल में नंगा कर जूते जड़ दिए गए हों उस पर. सकपकाते हुए सिटपिटाकर हकलाने लगा, "अ… ऐसा कैसे सोच लिया? मरने की ख़बर सुनकर तो हम हर हाल में आते."
"और जीते जी?" बात काटते हुए पिताजी का कंठ हठात रूंध गया.
अनंत कुछ न कह सका. उसके लिए मुंह छुपाना दुश्वार हो गया.
पिताजी से ऐसे आक्रामक रुख की उसने सपने में भी कल्पना नहीं की थी. पिताजी ने एक ही बार में उसका संपूर्ण जीवन चरित्र उधेड़कर रख दिया था. वहां बैठे पांचों रिश्तेदार होंठों पर मुस्कान रोक, मन-ही-मन अनंत की स्थिति का आनंद लेने लगे. अनंत के लिए वहां बैठना असहय हो गया, मगर उठकर जाता भी कहां? क्या घर छोड़ कर वापस चल देता?
उसी समय सुमंत-श्लेषा का रिक्शा रुका. श्लेषा रोती हुई अंदर चली गई. सुमंत पिता के गले से लिपट स्वगीय मां को याद कर रोने लगा. उसका चेहरा आंसुओं से तर था और कंठ ग़म से अवरुद्ध.
बस… स्वर में "हाय मां, ओह मां…" का विलाप करता रहा. कुछ मिनट रोने के बाद उसने हिचकियां लेते हुए पिता को उलाहना दिया, "ख़बर तो करनी थी हमें?"
"कैसे करता?" बात काट पिताजी ने अपनी लाचारी बताते हुए कहा, "मैं अकेला बूढ़ा, दाह संस्कार का इंतज़ाम करता या तुम्हें फोन करने जाता."
"किसी को भी कह देते. ऐसे वक़्त तो हर कोई सहयोग करने आ जाता है."
"सब कहने की बातें हैं बेटा…" ठंडी सांस लेते हुए पिताजी ने सवालिया निगाहों से कहा.
"आज के जमाने में लोगों को अपनों के लिए ही समय नहीं मिलता, तो परायों के लिए कौन खटता है?" सुमंत सकपका गया. वह समझ नहीं पाया कि पिताजी वास्तव में ज़माने की शिकायत कर रहे हैं या बेटों पर कटाक्ष? अचकचाकर उनका मुख देखता रह गया वह.
पिताजी मुंह फेर बाहर सड़क की तरफ़ देखने लगे. सुमंत के लिए वहां बैठना असहय हो गया. रिश्तेदारों की मुखमुद्रा तो उसने पहले ही भांप ली थी. वे सब दबी-छुपी व्यंग्यात्मक मुस्कानों से उसकी स्थिति का आनंद ले रहे थे.
सुमंत के तन-बदन में आग लग गई. मन तो हुआ पिताजी से पूछे कि मां के मरने पर आठ-दस घंटों के अंदर ही सारे रिश्तेदार आ गए थे. किसने किए थे इन सबको फोन? क्या इसी तरह हमें भी फोन नहीं किया जा सकता था? किन्तु पूछने की हिम्मत न कर सका. वहां उसका अब दम घुटने लगा था. बेला दीदी से मिलने का बहाना कर वह उठा और पीछे-पीछे अनंत भी चल दिया.
अंदर बेला तीनों बुआओं के संग किसी कार्य में व्यस्त थी. बेला दीदी के हाथ में कोई लिस्ट थी और तीनों बुआ सामने रखा सामान उसके अनुसार मिला रही थीं. मेघा श्लेषा एक ओर उपेक्षित सी बैठी थीं.
कमरे में प्रवेश करते वक़्त सुमंत ने सोचा बेला दीदी दोनों भाइयों को देखते ही दौड़ती हुई उनके गले लिपट फूट-फूट कर रो पड़ेगी. फिर दोनों भाई उसे सांत्वना देंगे. किंतु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ.
बेला ने एक क्षण के लिए उचटती नज़र उन पर डाली और पूर्ववत् अपने कार्य में व्यस्त हो गई. तीनों बुआओं ने भी बेला का अनुसरण किया.
अनंत-सुमंत कट कर रह गए. चुपचाप मेघा-श्लेषा के पास आकर बैठ गए. चारों को एक-एक पल काटना दूभर हो रहा था. कुछ समय तक मां के बारे में इक्का-दुक्का प्रश्न पूछते रहे, फिर स्नानादि करने का बहाना कर चारों वहां से भी उठ खड़े हुए. उनके जाने के बाद एक लंबी सांस ले बेला ने लिस्ट नीचे रख दी. उसका मन मां की याद में बुरी तरह तड़प रहा था. जिस रात मां शांत हुई, उससे एक दिन पूर्व ही बेला व छोटी बुआ वहां पहुंची थीं.
रात डेढ़ बजे के लगभग मां को घबराहट होने लगी. पिताजी डॉक्टर को बुलाने जाने लगे, तो मां ने कसकर हाथ पकड़कर रोक लिया. पिताजी ने हाथ छुड़ाकर जाना चाहा, लेकिन मां ने पुनः रोक लिया. वह अस्फुट टूटे स्वरों में कुछ बड़बड़ा रही थीं. संभवतः उन्हें आभास हो गया था कि बिछुड़ने की बेला आ गई. है. वह नहीं चाहती थीं कि अंत समय में जब प्राण निकले, तो पति भी सामने न रहें. पिताजी इधर डॉक्टर को बुलाने जाते, उधर उनके प्राण..?
अवश पिताजी को ही रुकना पड़ा. मां की ऊर्ध्व सांस चलने लगी थी और पिताजी बेबसी से अपनी जीवन सहचरी को मौत के मुख में जाते देख रहे थे. भरा-पूरा परिवार है, दो-दो कमाऊ बेटे-बहू हैं… पोते-पोतियां हैं, मगर साथ रहनेवाला कोई नहीं. काश! इनमें से कोई भी एक यहां होता… भावातिरेक में उनके नेत्र छलछला आए. कुछ क्षणों बाद उन्होंने अपने मन को स्थिर किया और ठाकुरजी (भगवान) की मूर्ति के पास रखी गंगा जल की शीशी व तुलसी उठाई. फिर तुलसी के पत्ते मां के मुख में रख चम्मच से गंगा जल पिलाने लगे.
गीता का पंचम अध्याय उन्हें बचपन से कंठस्थ था. उसका पाठ करने लगे. मां तुलसी व गंगा जल का पान करती गीता का श्रवण करती रहीं… बेटों से एक बार मिल लेने की कसक उनके मन को अंतिम क्षणों तक चुभ रही थी. पिताजी ने पिछले माह दोनों को फोन किया था. किंतु बेटों को आने की फ़ुर्सत नहीं मिली. यह आस मन में संजोए लगभग आठ-दस मिनट वे पिताजी की बांहों में तड़पती रहीं.
अंतिम सांस निकलने के पूर्व उन्होंने हाथ बढ़ा पिताजी के चरणों का स्पर्श किया. सामने ठाकुरजी को निहार… अपने नाथ के मुखारविंद पर नज़रें स्थिर कीं और हाथ जोड़ प्राण त्याग दिए. स्तब्ध पिताजी अपनी जीवन संगिनी की निष्प्राण काया कलेजे चिपटाए फूट-फूटकर रो पड़े.
जीवनभर जिसने हंसते-हंसते बिना शिकायत पूर्ण समर्पण भाव से साथ निभाया, आज वह जीवनभर उन्हें अकेला छोड़ अनंत में विलीन हो गई थी. पिताजी का कलेजा मुंह को आने लगा. वे अपने आपको बेहद अकेला महसूस कर रहे थे. इतना बड़ा घर है… दो-दो बेटे-बहू… पोते-पोतियां. मगर उन्हें सहारा देनेवाला कोई नहीं. लोगों को पैसों की कमी के कारण इलाज नहीं मिलता. यहां औलादों की विमुखता के कारण पैसा होकर भी नहीं मिल पाया. माना मौत अटल रहती है… मगर कुछ खटपट तो की जा सकती थी? क्या फ़ायदा दो-दो बेटों के होने का? इससे तो पुत्रहीनता भली.
और ऐसे ही उद्वेलित क्षण में उन्होंने वह कठोर निर्णय लिया. आंसू पोंछ मां की निष्प्राण काया पर चादर ओढ़ा गमले से दो पुष्प तोड उन पर चढ़ाए और दरवाज़ा खोल घर के बाहर आए. कॉलोनी की सुनसान सड़कें रात के सन्नाटे में सांय-सांय कर रही थीं.
छड़ी टेकते हुए वे कॉलोनी के बाहर मेन रोड पर आए, वहां एक एसटीडी बूथ था. बूथ का मालिक वहीं रहता भी था. घंटी बजा उसे जगाया. उसके दरवाज़ा खोलने पर असमय जगाने के लिए माफ़ी मांगी और छोटी बुआ को फोन लगाया. बुआ को उन्होंने सख़्त ताक़ीद कर दी, "दोनों बेटों और उनकी ससुराल को छोड़ बाकी सब रिश्तेदारों को सूचित कर देना." हतप्रभ रह गई बुआ ऊहापोह करने लगी, लेकिन पिताजी ने क़सम दे मुंह बंद कर दिया.
फोन कर पिताजी घर लौटे. सूना घर उन्हें काटने को दौड़ रहा था. छोटी बुआ पास ही गांव में रहती थी. आधे घंटे में फूफाजी के साथ वह मोटर साइकिल से आ गई. आते ही पिता शजी के गले लग फूट-फूट कर रो पड़ी. पिताजी के मन की पीड़ा रोके नहीं रुक रही थी. वे भी बच्चों के समान बिलखने लगे, "छुटकी! एकदम अकेला रह गया हूं मैं." बुआ और फूफाजी उन्हें बांहों में भींच ढाढ़़स बंधाते रहे.
दो घंटे बाद बेला अपने पति व बच्चों के संग आ गई. थोड़ी ही देर बाद बड़ी व मंझली बुझा भी फूफाजी व बच्चों के संग आ गईं. घर में कोहराम मच गया था. पिताजी को धीरज बंधाते हुए सबने समझाना चाहा, "अच्छा लगेगा, दो-दो बेटों के रहते कोई अन्य चिता को अग्नि दे?"
पिताजी की रूंधी आवाज़ अब थरथराने लगी थी, "समधीजी… बेटी से मां-बाप यह तो ज़रूर पूछ लेते हैं कि सास-ससुर का व्यवहार कैसा है? लेकिन कभी ऐसा क्यों नहीं पूछते कि तुम्हारा व्यवहार उनके प्रति कैसा है?
जीते जी क्या कम जला चुके हैं वे इसे? अब मरने के बाद क्या फ़र्क़ पड़ता है. कौन फूंक रहा है?" पिताजी ने दो टूक शब्दों में इंकार कर दिया.
उनकी ज़िद के आगे सबको झुकना पड़ा. प्रातः १० बजे तक और रिश्तेदार भी आ गए थे. ११ बजे महायात्रा आरम्भ हुई, उन्हें मुखाग्नि पिताजी ने स्वयं दी.
अनंत ने ठंडी सांस ली. शाम हो गई थी. गरुड़ पुराण का पाठ करने के लिए पंडितजी पधार चुके थे. घर के परिजन-रिश्तेदार, बैठक व अंदरूनी कक्ष में आकर बैठ गए. अनंत एक कोने में जाकर सिर झुकाकर बैठ गया. उसका चित बेहद अशांत था. मस्तिष्क में विचारों के अंधड़ चल रहे थे. पिताजी के मात्र एक निर्णय ने उसके व सुमंत के व्यक्तित्व का एक-एक तिनका उड़ा दिया था. दोनों को रिश्तेदारी में मुंह दिखाने के क़ाबिल नहीं रखा. समस्त रिश्तेदारों को मालूम हो चुका था कि पिताजी ने स्वयं ही दोनों बेटों व उनके ससुरालवालों को समाचार देने से मना कर दिया था. न कहते हुए भी सब समझ गए थे कि एक अशक्त असहाय वृद्ध ने ऐसा अभूतपूर्ण निर्णय क्यों लिया होगा?
पिता जी यहीं नहीं रुके. उन्होंने रिश्तेदारों को भेजे जाने वाले शोक पत्र पर भी सिर्फ़ अपना ही नाम दिया, बेटों का नहीं. ये पत्र रिश्तेदारों में हरेक के यहां पोस्ट हुए. दूर-दूर के रिश्तेदारों को भी, बस नहीं हुए तो अनंत, सुमंत व उनकी ससुराल में.
ग्लानि से अनंत की गर्दन झुक गई. उसके सम्मुख अभी एक भारी समस्या और थी मां का बारहवां. तीन दिन बाद बारहवें पर पुनः समस्त रिश्तेदारों का जमघट होने वाला था. कैसे करेगा वह सबका सामना? रिवाज़ के मुताबिक़ उस दिन मृतक के बेटों को पगड़ी बंधती है. पिताजी ने इस रस्म के लिए भी स्पष्ट इंकार कर दिया था. इसके बदले उन्होंने सत्यनारायण भगवान की कथा रखी थी. अब इसके लिए क्या जवाब देगा अनंत रिश्तेदारों को? पगड़ी नहीं होने का कारण तो सब खोद-खोद कर पूछेंगे? घबराए अनंत व सुमंत ने अभी कुछ समय पूर्व ही पिताजी से लगभग घिघियाते हुए इस रस्म के लिए याचना की थी. लेकिन पिताजी ने शुष्क-सपाट स्वरों में लताड़ दिया था, "मतलब क्या है पगड़ी की रट लगाने से? पगड़ी उसे बंधती है जिसने जीते जी सेवा की हो. जब सेवा ही नहीं की, उल्टे जी चुराया हो, तो क्या मतलब है बेफ़िजूल ढोंग करने से?" इस साफ़गोई पर अनंत-सुमंत कट कर रह गए. गरुड़ पुराण के बाद अनंत धीरे से उठा और किसी काम का बहाना बना कर घर से निकला. फिर एक दूरस्थ कॉलोनी में जा वहां के एसटीडी बूथ से अपनी व सुमंत की ससुराल फोन लगाया.
संक्षिप्त में पिता की नाराज़गी भी बतला दी. रिरियाते हुए गुहार की कि किसी तरह पगड़ी के लिए राज़ी करवा लें. अगली ही सुबह मेघा-श्लेषा के माता-पिता व अन्य परिजन भी टैक्सियों में भरकर बदहवास आए और हाथ जोड़ माफ़ी मांगी. अनुनय-विनय भी की.
पिताजी के मुख पर अकड़ के कोई चिह्न नहीं थे. वे आत्मीयतापूर्वक उन्हें आश्वस्त करने लगे, "आप व्यर्थ सोच-विचार कर रहे हैं साहब. मेरे मन में किसी के प्रति कोई शिकायत नहीं है."
"फिर हमसे क्या नाराज़गी रही… हमें ख़बर ही नहीं की?"
"ऐसा है." पिता जी के चेहरे पर कूटनीतिक मुस्कान उभरी, "जिनके पत्र आते रहते थे कुशल क्षेम के… उनके नंबर थे मेरे पास… हड़बड़ी में वहीं ख़बर करवा सका." दोनों समधी कटकर रह गए. पिताजी ने बेहद सादगी से उन्हें उलाहना जो दे दिया था.
एक क्षण चुप रह बड़े समधी ने बात सम्भालनी चाही, "इन लोगों ने आपके साथ ऐसा व्यवहार रखा? हमें तो सपने में भी इस बात का गुमान नहीं था. आप यदि एक बार भी पत्र डाल देते…"
"अरे, मैं तो समझता रहा, आप सब जानते होंगे."
"नहीं." मामला संभलता देख बड़े समधी में कुछ उत्साह जागा, "… हमें आभास तक नहीं था."
"अजीब बात है…" पिताजी का स्वर थोड़ा भर्रा गया. "बहुएं हर साल छुट्टियों में मायके पहुंच जाती थीं, आपने कभी पूछा नहीं कि वे सास-ससुर के पास कब जाती हैं?"
"ज… जी."
"सास-ससुर की इच्छा नहीं होती अपने पोते-पोतियों से मिलने की?"
दोनों समधी और उनके परिजनों को काटो तो खून नहीं. पिताजी ने कितने संक्षिप्त शब्दों में बहुओं की सेवाहीनता का दुखड़ा बयान कर दिया था.
सबके सिर झुक गए.
पिताजी की रूंधी आवाज़ अब थरथराने लगी थी, "समधीजी… बेटी से मां-बाप यह तो ज़रूर पूछ लेते हैं कि सास-ससुर का व्यवहार कैसा है? लेकिन कभी ऐसा क्यों नहीं पूछते कि तुम्हारा व्यवहार उनके प्रति कैसा है?"
समधियों के दिलो-दिमाग़ में सैकड़ों घंटे बजने लगे. वे तो उल्टे ख़ुश ही होते थे कि उनकी बेटी को कोई झंझट नहीं है. स्वतंत्र है अपनी गृहस्थी में. लेकिन यदि उनकी बहू भी इसी तरह स्वतंत्र रहना चाहे तब?
वे कांप उठे. कुछ क्षणों की ख़ामोशी के बाद दोनों समधियों ने अपने-अपने अश्रुपूर्ण चेहरे ऊपर उठाते हुए कहा, "अपनी बेटियों के व्यवहार के लिए हम क्षमा चाहते हैं. अब वे ऐसा कदापि नहीं करेंगी."
"खैर… इसे आज़माने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी…" पिताजी ने आदरपूर्वक उनके कंधों को थपथपाया, "मैंने दूसरे इंतजाम कर लिए हैं."
और बारहवें के दिन इन इंतज़ामों का खुलासा हुआ. कथा आरंभ होने के पर्व बड़े फूफाजी ने घोषणा की, "यह मकान पिताजी ने हाईस्कूल के छात्रावास के लिए दान कर दिया है. इसमें सोलह छात्र रह सकेंगे. मां के गहने बेच पिताजी ने स्कूल के संयुक्त नाम से एफडी करवा दी है. छात्रों से किराया और एफडी का ब्याज स्कूल व पिताजी की देखभाल अच्छी तरह कर लेगा. उनके बाद यह सब स्कूल का हो जाएगा…"
सुनते ही मेघा व श्लेषा शर्म से गड़ गईं,. अभी तक अपने दुर्व्यवहार से उन्होंने सास-ससुर के जीवन में जो अंधेरा किया था, उसकी कालिमा कालिख बन कर उनके सुंदर चेहरों पर पुत गई थी.
- प्रकाश माहेश्वरी
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