बेटे और बेटी में है कितना अंतर
ये अक्सर ही सुनती आई हूं मैं
चलो ये माना मैंने कि है अंतर
लेकिन इस अंतर का अंतर
क्यों ना अब भी समझ पाए हैं हम
बेटी को बस हक़ है पाना
क्यों ना फ़र्ज़ निभाए वो
शिक्षा हम दोनों को देते
आंखों का तारा दोनों हैं
लाड़-प्यार हो या सौग़ातें
पलड़ा भारी हर बेटी का
लेकिन बात जब फ़र्ज़ की आए
तब केवल वो आंख दिखाएं
या फिर अपनी लाचारी बतलाए
बेटा कैसा भी हो बेचारा
हर ज़िम्मेदारी उसके सिर आए
अपनी गृहस्थी संभालेगा वो
और मां-पापा के फ़र्ज़ निभाए
कर्ज़ भले हो सिर पर उसके
पर हिस्से में फ़र्ज़ ही आए
इसीलिए तो आज भी सब
अपना एक बेटा भी चाहें
बेटे और बेटी में केवल
सिर्फ़ सोच का अंतर है
सोच बदल लो और फिर
कुछ परिवर्तन कर दो
अधिकार अगर चाहो जीवन में
फ़र्ज़ भी हमें निभाने होंगे
बिन सेवा के कुछ नहीं मिलता
कुछ कर्ज़ हमें चुकाने होंगे
मानो या ना मानो
कुछ फ़र्ज़ दोनों को निभाने होंगे
कितना सुंदर कहा बड़ों ने
बेटियां अपना फ़र्ज़ पूर्णतः निभाएंगी
तो वृद्धाश्रम की नौबत कभी नहीं आएगी
क्योंकि वृद्धाश्रम में बैठे लोगों को
बेघर किया है किसी की बेटी ने…
- कंचन चौहान
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