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काव्य- क्या मैं दंडमुक्त नहीं हुई अभी?.. (Poem- Kya Main Dandmukt Nahi Huyi Abhi?..)

संस्कृति के धुंधलके में कहीं
समाज ने
मेरे माथे पर चस्पां कर दिए
चंद लेबल
ममतामयी, त्यागमयी,
कोमलांगी..

और चाहा उसने
जिऊं मैं वैसे ही
भूल जाऊं अपनी पहचान
तिल तिल..

मयूर पंखी सपने
आकर्षित करते हैं मुझे
दूर की मंज़िलें पुकारती हैं

मैं पुरुष की तरह न सही
परछाई भी नहीं उसकी
सलीब की मानिंद ढोए है
समाज के यह लेबल मैंने
पीढ़ी.. दर पीढ़ी.. दर पीढ़ी..
क्या मैं दंड मुक्त नहीं हुई अभी?..

- उषा वधवा

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Photo Courtesy: Freepik

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