आंसू तो दिल की भावनाओं के कोमल प्रतिबिंब हैं, आंसू कमज़ोर इंसान ही बहाता है यह सोचना मूर्खता है. सबका दुख महसूस कर कभी आंखें भर आएं, तो इसका मतलब यह तो कतई नहीं है कि वह कमज़ोर है. अपने दुख-तकलीफ़ में तो हर स्त्री रो देती है, पर दूसरे की पीड़ा महसूस कर आंखें भीग जाएं, तो मेरे विचार से तो उन आंसुओं में नारी हृदय की निष्कपट कोमलता निहित होती है.
हम दस महिलाओं की किटी पार्टी में, जिसमें तीस से लेकर सत्तर साल की सदस्याएं थीं, मैं महसूस कर रही थी कि सरिता आंटी कुछ उदास हैं. हाउजी के समय भी अपना नंबर कटने पर उनका उत्साह हमेशा से कम ही लगा. मैंने अपनी ख़ास सहेली कविता से आंखों ही आंखों में पूछा कि आंटी उदास हैं न? कविता ने भी मेरी बात का मूक समर्थन किया. हाउजी, गेम्स, स्नैक्स के बाद किटी पार्टी का पूरा आनंद लेकर मैं, कविता और सरिता आंटी घर के लिए निकले, हम सब एक ही सोसायटी में रहती हैं. हम तीनों का घर पास-पास की बिल्डिंग में ही है, तो अक्सर हम तीनों साथ आती-जाती हैं. अपने घर की तरफ़ मुड़ने से पहले मैंने पूछ ही लिया, “आंटी, आज आप उदास हैं, तबीयत तो ठीक है ना?”
“हां सुमन, ऐसे ही दिल उदास है, कभी-कभी अकेले मन घबरा जाता है. आज बेटी को ऑस्ट्रेलिया फोन भी किया था, फिर भी तसल्ली नहीं हुई. ख़ैर छोड़ो, मेरी लाइफ तो अब ऐसी ही रहेगी, वो तो तुम लोगों के साथ थोड़ा टाइम कट जाता है तो अच्छा लगता है.” कविता की आंखों में आंटी की बात सुनकर आंसू आ गए, एकदम भावुक होकर बोली, “आंटी, आप उदास न हों, हम लोग हैं ना! कोई भी ज़रूरत हो, तो एक फोन कर देना.” सरिता आंटी अकेली रहती हैं. मुंबई में उनके कई रिश्तेदार हैं, पर कभी-कभी उदास हो ही जाती हैं. आंटी चली गईं तो मैंने कविता को डांटा, “यह क्या है! तुम्हें फिर रोना आ गया? क्यों इतनी कमज़ोर हो तुम? किसी की भी बात सुन तुम्हारी आंखों में पहले आंसू आ जाते हैं.” कविता मुस्कुराई, “सुमन, मुझे भी नहीं पता ये आंसू कहां से आ जाते हैं, बस मेरा इन पर कंट्रोल नहीं है.”
“मेरी कमज़ोर सहेली”, कहकर हंसते हुए मैं भी घर लौट आई, कविता भी चली गई.
कविता कुछ अंतर्मुखी स्वभाव की है, वह हर किसी से खुल नहीं पाती. पता नहीं कैसे, कुछ समय से मेरे साथ अपने सुख-दुख बांटने लगी है. कविता के लिए एकाध महिला तो उसके पीठ पीछे कह भी चुकी हैं, “कितनी कमज़ोर है कविता, कोई भी अपना दुख बता रहा हो, तो इसकी आंखें पहले भीग जाती हैं, मन से इतना कमज़ोर भी नहीं होना चाहिए.”
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एक दिन मैंने कविता को फोन मिलाया, तो न तो उसने मोबाइल उठाया और न लैंडलाइन. मैं सोचने लगी, कहां है कविता, उसकी दो बेटियां हैं तन्वी और मानसी. तन्वी इंजीनियरिंग कर चुकी है. वह एम.बी.ए. करने विदेश जा रही है. उसका एडमिशन हो चुका है. तीन महीने बाद वह चली जाएगी. मानसी बारहवीं में है. मेरा बेटा पार्थ भी पेरिस जा रहा है पढ़ने, उसका भी एडमिशन हो चुका है. उसके जाने की तैयारियां चल रही हैं. मैं कविता को तो कमज़ोर-कमज़ोर कहकर छेड़ती रहती हूं, पर बार-बार पार्थ के जाने का सोचकर मैं भी दिनभर रोती रहती हूं. मैं तो पार्थ के बाहर जाने के पक्ष में थी ही नहीं, पर पार्थ की इच्छा को देखते हुए ही अनिल ने हामी भर दी थी. अब तैयारी हो रही है, नए बड़े बैग आ चुके हैं, रोज़ कुछ न कुछ ख़रीदा जा रहा है, हर शॉपिंग बैग मेरा दिल और भारी कर देता है.
कविता से जब भी अपने मन की बात शेयर करती हूं, तो वह भी मेरे साथ रोने लगती है, तो मैं हंसकर उसे चिढ़ाती हूं, “मैंने कितनी कमज़ोर औरत से दोस्ती कर ली है, जो मुझे चुप करवाने की बजाय मेरे साथ रोने लगती है. कमज़ोर लड़की! मैं खुद ही चुप हो जाती हूं, तुम भी अपने आंसू पोंछ लो.” तो फिर कविता मुस्कुरा देती है. मैं पार्थ की तैयारियों में व्यस्त थी तो कविता को फोन करना दिमाग़ से निकल गया था. कुछ दिन ही बीते थे कि अचानक एक सुबह कविता का फोन आया. सिसकते हुए बोली, “सुमन!” लेकिन मैंने उसकी बात काटकर बेचैनी से पूछा, “कहां हो तुम? फोन क्यों नहीं उठा रही?”
“सुमन, विनोद को हॉस्पिटल में एडमिट किया है.”
“क्या?” मुझे झटका लगा.
“हां, वो अचानक बेहोश हो गए थे.”
“क्या? अब कैसे हैं? बताया क्यों नहीं?”
“बस, डॉक्टर टेस्ट में बिज़ी थे. और हां, किसी को बताना मत. मेरी मम्मी, भाई आ गए हैं. बस, तुम्हें ही बता रही हूं.” यह तो मैं जानती ही हूं कि वह अक्सर अपने सुख-दुख अपने तक ही रखती है. पता नहीं कैसे उसने मुझे इस लायक समझा होगा कि अपना यह दुख बता दिया. मैंने पूछा, “कौन से हॉस्पिटल में?” उसने रोते हुए बताया, “तुम परेशान न होना, पार्थ के भी कई काम हैं तुम्हें.” वह लगातार रोये जा रही थी. मैंने सोचा जो भावनात्मक रूप से इतनी कमज़ोर है कि दूसरों के दुख-दर्द में आंसू बहा देती है, वह इतने बड़े संकट में कैसी होगी, इसका अंदाज़ा लगा सकती थी मैं. अनिल के साथ मैं हॉस्पिटल पहुंची, विनोद की स्थिति चिंताजनक थी, रिपोर्ट्स की प्रतीक्षा थी. मैं जितनी देर वहां रुकी, कविता के आंसू नहीं रुके थे.
रिपोर्ट्स आई तो पता चला कि विनोद को ब्रेन ट्यूमर है, जो पूरे सिर में फैल चुका है, जिस कारण अब ऑपरेशन भी असंभव था. डॉक्टर ने टाइम भी बता दिया था, विनोद के पास सिर्फ़ दो महीने थे. लास्ट स्टेज में ही पता चला था. यह एक बहुत बड़ा वज्रपात था. कविता को कैसे तसल्ली दूं कुछ समझ नहीं आ रहा था, शब्द ही नहीं थे. वह बिलख रही थी, “सुमन, उन्हें तो कभी सिरदर्द भी नहीं हुआ, तुमने देखा था ना कितने एक्टिव थे. अब क्या होगा?” कविता का उजाड़ वीरान चेहरा देखा नहीं जा रहा था, कभी-कभी एक पल में ही बदल जाती है दुनिया. मुंह से एक शब्द नहीं निकल रहा था, उसकी हालत देखकर मैं अवाक् रह गई थी.
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कविता और विनोद घर लौट आए, कीमो और रेडिएशन के लिए हॉस्पिटल प्रतिदिन जाना था. डॉक्टर ने कह दिया था, “ये भी करके देख लेते हैं, फ़ायदे की उम्मीद कम ही है. इस समय तन्वी ने जिस तरह घर और हॉस्पिटल संभाला, सब दंग रह गए. मेरे अनुसार तो तन्वी का विदेश जाना अब नामुमक़िन ही था. विनोद का सपना था तन्वी को उच्च शिक्षा के लिए बाहर भेजना, पर अब यह बात तो सोची ही नहीं थी. तन्वी के साथ के बिना कविता अब कुछ भी नहीं थी. बेटी बड़ी हो जाए तो वह मां जैसी ही तो हो जाती है. दुख भरे पलों में मां की तरह ही तो तसल्ली देती हैं बेटियां. मां के कहे बिना बेटियां ही तो समझ सकती हैं मां का दर्द. तन्वी रात दिन मां के साथ खड़ी थी. कभी रात बारह बजे स्कूटी से हॉस्पिटल जाती, तो कभी सुबह चार बजे घर पहुंचती. मैं तन्वी को कविता का इतना मज़बूत सहारा बनते देख हैरान थी. विनोद बैंक, प्रॉपर्टी, सेविंग्स सब बातें कविता को समझा चुके थे. इतने सालों का साथ अब छूटता ही लग रहा था. विनोद कविता को हर तरह की परेशानी का सामना करने के लिए तैयार कर रहे थे और कविता रोती, बिलखती हुई बिखरी जा रही थी.
अचानक एक रात विनोद की तबीयत ख़राब हुई, उन्हें एडमिट किया गया, पर डॉक्टर उन्हें बचा नहीं सके और विनोद चले गए. यह कविता पर एक वज्रपात था जिसका अंदेशा तो था ही, पर हकीक़त कल्पना से ज़्यादा कष्टदायक थी. कविता को संभालना सबके बस के बाहर की बात लग रही थी. उनका शव जब घर लाया गया तो वहां खड़ी महिलाओं के साथ उपस्थित पुरुषों के भी आंसू कविता की हालत देखकर बह चले थे. अगले कई दिनों तक हम सब सहेलियां कविता के पास आती जाती रहीं. सब रस्में, पूजा-पाठ हो चुके थे. पहले पार्थ के जाने के बारे में और अब कविता के बारे में सोचकर मेरा दिल भी भारी रहने लगा था कि इतने कमज़ोर दिल की कविता अब कैसे रहेगी, कैसे संभालेगी बेटियों को.
कुछ दिन बीत गए थे. एक दिन मैं कविता से मिलने गई. काफ़ी व्यस्त दिखी वह फोन पर, फ्री हुई तो मुझसे हमेशा की तरह गले मिली. आंखें आज भी भर आई थीं. मैंने बात शुरू की, “बिज़ी हो?”
“हां, बहुत, तन्वी की तैयारी कर रही हूं.”
मैं चौंकी, “क्या? कौन सी तैयारी?”
“उसे जाना है ना! फीस जमा करवा दी है, जाने की तारीख़ पास आ रही है ना.”
मेरी हैरानी की सीमा नहीं थी, “क्या बात कर रही हो कविता? कैसे रहोगी उसे भेजकर? एडमिशन हो ही गया है, वह अगले साल भी जा सकती है ना?”
“नहीं सुमन, विनोद का सपना था वह जाए, मैं उसे अपना सहारा बनाने के लिए उसके करियर का एक साल ख़राब नहीं कर सकती.”
“कैसे रहोगी कविता?”, मेरा ही गला रुंध गया.
“रह लूंगी सुमन, विनोद जाते-जाते बहुत हिम्मत दे गए, बहुत कुछ करना है अभी तो”, फिर वह पार्थ की बातें पूछती रही. थोड़ी देर बाद मैं घर जाने के लिए उठी, उसके कंधे पर हाथ रखा तो फिर उसकी आंखें छलक आईं. घर आते हुए मैं रास्ते में यही सोच रही थी कि हां, बेहद भावुक है कविता, किसी के भी सुख-दुख की बात सुन उसकी आंखें भर आती हैं, वह कुछ भी हो पर कमज़ोर नहीं है. कहां कमज़ोर है वह, वह तो बेटी का भविष्य बनाने के लिए, विनोद के जाने के बाद अपने जीवन में आए अकेलेपन को और बढ़ा रही है. उसके पास तो एक कारण था तन्वी को न भेजने का, पर नहीं. कितने दृढ़ संकल्प से उसने यह फैसला किया होगा. यह शब्दों में बयान नहीं कर सकती मैं. मुझे साफ़-साफ़ समझ आ रहा था कि अपने अंदर ही आंसू समेटने में बहादुरी नहीं है.
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आंसू तो दिल की भावनाओं के कोमल प्रतिबिंब हैं, आंसू कमज़ोर इंसान ही बहाता है यह सोचना मूर्खता है. सबका दुख महसूस कर कभी आंखें भर आएं, तो इसका मतलब यह तो कतई नहीं है कि वह कमज़ोर है. अपने दुख-तकलीफ़ में तो हर स्त्री रो देती है, पर दूसरे की पीड़ा महसूस कर आंखें भीग जाएं, तो मेरे विचार से तो उन आंसुओं में नारी हृदय की निष्कपट कोमलता निहित होती है. मेरे सामने अब यह भी स्पष्ट हो गया था कि स्वभाव से कोमल नारी भी विपरीत परिस्थितियों में अपने घर-बच्चों के लिए अपने प्रियतम की यादों के सहारे स्वयं को कठिन से कठिन जीवन संघर्ष के लिए तैयार कर अपना मनोबल ऊंचा रखने में प्रयासरत हो जाती है. यही तो नारी की विशेषता है.
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