Close

कहानी- बिन बदरा बरसात (Short Story- Bin Badra Barsat)

“जानती हो मैं इतना क्यूं हंस रही हूं? अंदर जब कुछ पिघलता है न, तो वो या तो उन्मुक्त हंसी के रूप में फूटता है या आंसुओं के रूप में. मैं तुम सभी को अपने यहां आने का निमंत्रण ज़रूर देती, पर मैं जानती हूं न तो वे लोग तुम लोगों को इतने खुले दिल और अपनेपन से अपना पाएंगे और न तुम लोग ही वहां सहज महसूस कर पाओगे. फिर भी एक फेवर चाहती हूं तुमसे!” उसने मेरा हाथ पकड़ा तो मैंने सहमति से सिर हिला दिया.

नित्या ने फोन पर अपने आने और मेरे यहां रुकने की ख़बर सुनाई तो ख़ुशी के मारे मैं गुब्बारे की तरह फूल उठी, पर फोन रखकर सारी स्थिति पर विचार किया, तो ख़ुशी का गुब्बारा एक सेकंड में पिचककर हवा में झूल गया. नित्या हमारी प्रिंसिपल मैम की बेटी थी और क्लास की मॉनिटर भी. उसकी चाल-ढाल, खान-पान, बोलने आदि हर अंदाज़ में संभ्रात वर्ग की छाप स्पष्ट नज़र आती थी. लड़कियों के बीच वह हमेशा कौतूहल और चर्चा का विषय रहती थी.
“कपड़ों की क्रीज़ तो देखो, तलवार की धार की तरह पैनी, हाथ फिराओ तो उंगली कट जाए. जूतों की चमक ऐसी कि मुंह देखकर कंघी कर लो.”
“अरे! मैंने तो सुना है घर में समय की इतनी पाबंदी है कि आसपास के लोग इनके कार्यकलापों को देखकर अपनी घड़ियां मिलाते हैं. घर में खाने-पीने, उठने-बैठने, सोने के अलावा किस बात पर कितना मुस्कुराना है इसके भी नियम बने हुए हैं. इनका कुक कह रहा था कि इनका बस चले तो ये रोटी भी छुरी-कांटे से काटकर खाएं.” जितने मुंह उतनी बातें. अपनी मां की ही तरह बेहद कड़क, चुस्त और अनुशासनप्रिय नित्या से क्लास की सारी लड़कियां खौफ़ भी खाती थीं और उसकी दोस्ती के लिए लालायित भी रहती थीं. पढ़ाई में अच्छी होने के कारण मैं उसकी गुडलिस्ट में आती थी.
अलग-अलग कॉलेजों में चले जाने के बाद भी सोशल साइट पर हमारा संपर्क बना रहा. मैं अपने आपको बहुत ख़ुशक़िस्मत मानती थी कि वह मुझे इस लायक समझती है कि औपचारिक हाय-हैलो ही सही, पर उसने मुझसे संपर्क बनाए रखा. यहां तक कि अपनी शादी में भी आमंत्रित किया. यह अलग बात है कि मैं जा नहीं पाई. सूत्रों से ज्ञात हुआ कि उसकी शादी किसी आर्मी ऑफिसर से हुई थी. “राम मिलाई जोड़ी” कहकर मैंने गहरी सांस भरी थी.
इसके कुछ समय बाद मेरी भी शादी तय हो गई थी, लेकिन मैंने न जाने क्या सोचकर उसे कार्ड नहीं भेजा था, फिर भी उसने सोशल साइट पर मुझे बिना किसी शिकायत के बधाई प्रेषित किया था. आज मैं समझ पा रही थी कि मैंने उसे कार्ड क्यों नहीं भेजा था. दरअसल, आज ही की तरह तब भी मैं उसे सावंत से मिलवाने में कतरा रही थी. सावंत, मेरे पति दिल के बहुत अच्छे होते हुए भी ज़रा देशी टाइप के हैं. कहीं भी पांव पसारकर बैठ जाना, हो-हो करके पूरा मुंह फाड़कर हंसना, बात-बात में चुटकुले सुनाना, हंसी-मज़ाक करना, कुछ भी पहन लेना, कहीं भी कुछ भी खा-पी लेना जैसी उनकी आदतों में यदि कइयों को ‘सादा जीवन उच्च विचार’ दिखाई देता है, तो कुछ क्लासी लोगों को फूहड़ता और गंवारपन नज़र आता है और नित्या की गणना मैं निःसंदेह उन क्लासी लोगों में ही करना पसंद करूंगी.
“क्या बात है जानेमन, किसका फोन था जिसे सुनते ही तुम इतनी गहरी सोच में डूब गई हो. उं… कोई पुराना आशिक?” आदत से मजबूर सावंत हंसी-मज़ाक का कोई मौक़ा नहीं छोड़ते थे. उन्हें ऑफिस जाने के लिए तैयार देख मैंने उनका ऊपर से नीचे तक निरीक्षण किया. “यह क्या? चप्पल पहनकर ऑफिस जा रहे हैं?”
“हां तो क्या हुआ? नई है, अभी पिछले महीने ही तो ख़रीदी है. याद है ना, पूरे 700 रुपए की आई थी.”
“पर है तो चप्पल ही ना? कम से कम ऑफिस तो जूते पहनकर जाया कीजिए.” सावंत बदलने चले गए तो मैं फिर सोच में डूब गई. अब ऐसे में कैसे इन्हें नित्या से मिलवाऊंगी? मैं कसमसा रही थी.
“आप अगले सप्ताह यहीं हैं या कहीं टूर पर जा रहे हैं?” मैंने स्वर को भरसक कोमल बनाते हुए पूछा. उम्मीद थी शायद वे तब टूर पर हों.
“यहीं हूं, कुछ काम है?”
“नहीं, दरअसल, मेरी सहेली नित्या यहां किसी शादी में भाग लेने आ रही है. हमारे यहां ही रुकेगी.” मेरे मुंह से सच्चाई निकल ही गई.
“ओह! तो इसलिए परेशान हो रही हो कि उसे लेने कौन जाएगा, आवभगत कौन करेगा? अरे बाबा, मैं सब संभाल लूंगा. तुम बस, लिस्ट बनाकर दे दो कि क्या-क्या लाना है और क्या-क्या काम है?” अपने सहज, निश्छल स्वभाव के वशीभूत सावंत एकदम बोल उठे, तो मैं मन ही मन पानी-पानी हो गई. कितना सरल और सहयोगी मन है इनका! और मैं ऐसे पति पर गर्व करने की बजाय लज्जित हो रही हूं. सावंत को विदा करके भी मन चिंतामुक्त नहीं हो पाया था. इतने संभ्रात परिवार की नित्या यदि मुझे अपनी मेज़बानी का अवसर दे रही है, तो मुझे भी उसकी अपेक्षाओं पर खरा उतरना चाहिए.
नियत दिन सावंत के संग धड़कते दिल से मैं उसे लेने एयरपोर्ट पहुंची थी. आंखों पर महंगे सनग्लासेस, चुस्त जींस-शर्ट, कटे लहराते बाल, बड़ा-सा महंगा हैंडबैग और ऊंची हील में ठसक से आती नित्या को मैंने दूर से ही पहचान लिया था. धन्यवाद सोशल साइट्स का ये तो जन्म से बिछड़ों को भी मिला देती है. फिर हम तो पूरी स्कूल लाइफ साथ बिताकर जुदा हुई थीं. मैंने नित्या की ओर इशारा करके हाथ हिलाया, तो साथ आते सावंत हैरानी से आंखें फाड़े उस ओर देखने लगे.
मेरा दिल यह सोचकर एक बार फिर धक-धक करने लगा था कि नित्या जाने क्या इंप्रेशन लेकर लौटने वाली है? ख़ैर, रास्ता आराम से गुज़रा. ड्राइविंग करते सावंत नित्या को रास्ते में आने वाले प्रसिद्ध स्थलों के बारे में बताते रहे और वह भी पूरी रुचि से उनसे संबंधित सवाल-जवाब करती रही. सावंत का सामान्य ज्ञान देखकर मैं स्वयं हैरान थी. इतनी जानकारी तो मुझे भी नहीं थी.
“मेजर साहब नहीं आए? वे आते तो हमें और भी अच्छा लगता.” मैंने शिष्टाचारवश कहा.
“अशोक ज़्यादातर ड्यूटी पर ही तैनात रहते हैं. सारे सोशल ऑब्लिगेशन्स मुझे ही निभाने होते हैं. अब यह भी तो ससुराल की ही शादी है. मेरे सास-ससुर तो चार दिन पहले ही पहुंच चुके हैं, पर मैंने कह दिया कि मैं तो सेम डे ही पहुंचूंगी और रहूंगी भी अपनी फ्रेंड के यहां. यू नो, मुझे भीड़भाड़ में घुटन होती है. और शादी के बाद आराम से तीन-चार दिन दिल्ली भ्रमण करके ही लौटूंगी.”
मैंने मन ही मन ये तीन-चार दिन सकुशल निकल जाने की प्रार्थना की. दो दिन के प्रवास में ही मैंने देख लिया कि शादी के बाद नित्या में यदि कोई परिवर्तन आया था, तो वह यह कि वह पहले से ज़्यादा स्मार्ट और सलीकेदार हो गई थी. छोटे से वाक्य में ढेर सारे अंग्रेज़ी शब्द, सधा हुआ उच्चारण, धीमा स्वर, नपी-तुली मुस्कुराहट, निःशब्द खाना-पीना उसके व्यक्तित्व के चारों ओर एक प्रभावी औरा बना रहे थे. मैं फिर से उसके सम्मोहन में डूबने ही लगी थी कि सावंत के ठहाके की आवाज़ से चौंक उठी. वे दोस्त से मोबाइल पर सप्तम स्वर में बतिया रहे थे, “अबे, तू घर पर तो आ. तुझे तेरी पसंद का ठेठ देशी खाना अपने हाथों से बनाकर खिलाता हूं. हां… हां, दिल्ली भी घुमा दूंगा.” फोन बंद कर वे हमारी ओर पलटे.
“क्या संयोग है, मेरा भी स्कूल का दोस्त मुझसे मिलने और दिल्ली घूमने आ रहा है. नित्याजी, अपनी सहेली के हाथ का बना सॉफिस्टीकेटेड फूड आपने बहुत खा लिया, अब आज शाम से आप मेरे हाथ के बने ठेठ देशी व्यंजनों का लुत्फ़ उठाइए.”
डिनर में सावंत ने पूरे मनोयोग से बनाया हुआ बाजरे का खिचड़ा घी और गुड़ की डलियों से सजाकर परोसा, तो उनका दोस्त थाली पर टूट ही पड़ा. नित्या ने नज़ाकत से घी अलग करते हुए अपने चम्मच से खिचड़ा भरना चाहा तो सावंत ने टोक दिया. “नित्याजी, देशी खाना देशी तरीक़े से खाए जाने पर ही स्वाद देता है.” कहते हुए वे हाथ से घी-गुड़ मिला-मिलाकर गरम-गरम कौर गले के नीचे उतारने लगे. मेरे आश्‍चर्य का ठिकाना न रहा जब मैंने नित्या को भी तत्परता से उनका अनुसरण करते देखा. उत्साहित सावंत उसे हाथ से खाने के फ़ायदे गिनाने लगे, “हाथ से खाने से सबसे बड़ा फ़ायदा तो यह है कि हमें भोजन के मिजाज़ का पता रहता है कि गर्म है या ठंडा, सख़्त है या नरम…”
“हूं… यह तो है.” नित्या ने सहमति में गर्दन हिलाते हुए अगला कौर हाथ द्वारा मुंह तक पहुंचाया. उसे यह सब एक खेल की तरह लग रहा था.
“दूसरे यह कि आपको इससे स्वाद ज़्यादा आएगा. पता है क्यों?”
“क्यों?” नित्या ने कौतूहलवश पूछा.
“क्योंकि इससे बनाने वाले का प्यार और अपनापन सीधे आपके दिल तक पहुंचता है.”
“और कटलेरी से खाते हैं तब?” नित्या ने उत्सुकता से पूछा.
“तो प्यार कटलेरी में ही अटक जाता है.” कहते हुए आदतानुसार सावंत पूरा मुंह खोलकर हो-हो हंसने लगे. उनके दोस्त ने भी उनका पूरा साथ दिया. मैंने अचकचाकर नित्या की ओर ताका, तो देखा उसके होंठों पर भी हंसी खिल उठी थी. पहली बार मैं उसे इस तरह खुलकर हंसता देख रही थी.
“यह हंसी अब तक कहां दबा रखी थी? तुम हंसते हुए बेहद ख़ूबसूरत लगती हो.” मेरे मुंह से बरबस ही निकल गया था. नित्या लजा गई थी. तब से मैंने ग़ौर किया कि वह सावंत के साथ खिलखिलाकर हंसने का कोई भी मौक़ा नहीं छोड़ती थी. दोनों में मानो होड़-सी लग गई थी कि कौन कितने ज़ोर से हंसता है. और गगन, सावंत का दोस्त ऐसा हर पल बड़ी तत्परता से अपने कैमरे में कैद कर लेता. अगले दो ही दिनों में सावंत ने सोगरा, रबड़ी, बाटी जाने क्या-क्या बना डाला था और नित्या सहित सभी ने चटकारे ले-लेकर खाया था.
वे सोने के दिन और चांदी की रातें थीं. मुझे एक नई ही नित्या देखने को मिल रही थी. हम चारों पूरे दिन दिल्ली की सड़कें नापते रहते, जी खोलकर मस्ती करते, चुटकुले सुनाते, फिर पेट पकड़कर फुटपाथ पर ही हंसते-हंसते ढेर हो जाते, कपड़े झाड़कर उठते, फिर चल पड़ते. कभी सड़क किनारे किसी ठेले से गोलगप्पे और चाट खाते, सड़क किनारे बैठे लोगों से मोलभाव कर सामान ख़रीदते. एक दिन तो घूमने जाते वक़्त नित्या ने ज़बर्दस्ती मुझे अपनी जींस-टीशर्ट पहना दी. नए अवतार में मुझे देखकर सावंत ने मुंह गोल करके सीटी मारी, तो नित्या चिहुंक उठी थी, “मेरे जाने से पहले मुझे यह सीटी बजाना ज़रूर सिखा देना.”
सावंत उस दिन फुल मस्ती के मूड में आ गए थे. पूरे रास्ते वे हमें ठेठ देहाती लहज़े में देहात के चटपटे क़िस्से सुनाते रहे. नित्या खोद-खोदकर उनका मतलब पूछती और फिर हंसते-हंसते सीट पर दोहरी हो जाती. कई बार तो वह बिना किसी विशेष बात के ही ताली पीट-पीटकर इतनी ज़ोर से हंसती कि हम तीनों परस्पर मुंह ताकने लग जाते कि यह बिन बदरा बरसात क्यूं? सावंत से क़िस्से सुन-सुनकर उसके मन में देहात जाने की प्रबल इच्छा जाग उठी थी. यूरोप, अमेरिका घूम चुकी नित्या की ऐसी आकांक्षा मेरे लिए कौतुक की बात थी.
“आप अगली बार जब भी आएंगी हम निश्‍चित रूप से आपको अपने गांव ले जाएंगे.” सावंत ने वादा किया. लौटते समय मैंने देखा नित्या कुछ उदास सी हो गई थी. घर लौटते ही थकान के बावजूद सावंत हमेशा की तरह अपना आज का डिनर मेनू ‘केर सांगरी’ तैयार करने रसोई में घुस गए थे. गगन भी उनकी मदद करने रसोई में पहुंच चुका था. हमेशा तो सीखने के बहाने मैं और नित्या भी रसोई में पहुंच जाते थे, पर आज वह खिड़की के पास जाकर बैठ गई तो मुझसे रहा नहीं गया.
“घर की याद सता रही है? अब कल तो जा ही रही हो.”
“इसीलिए तो उदास हूं. घर के मायने तो यहां आकर समझी हूं. जहां बेतकल्लुफ़ी हो, अपनापन हो, प्यार हो, साझा भाव हो वह चारदीवारी ही घर कहलाने लायक हो सकती है. जहां इंसान को बोलने से पहले दस बार सोचना पड़े. खाने से पहले टेबल-कुर्सी, नैपकिन, छुरी-कांटे आदि अस्त्र-शस्त्रों से लैस होना पड़े. हर वक़्त एटीट्यूड, एटीकेट्स का ध्यान रखना पड़े वो घर कहां? वो तो कैदखाना हुआ ना? मैंने तो बचपन से जो सख़्ती, अनुशासन, अदब-कायदे अपने घर में देखे, शादी के बाद वे ही ससुराल में देखे. अभिजात्य वर्ग का मुखौटा लगाकर ज़िंदगी जीते-जीते मैं तो भूल ही गई थी कि मुखौटे के नीचे मेरा अपना कोई असली चेहरा भी है? मेरा असली चेहरा तो मुझे यहां तुम लोगों के बीच देखने को मिला.” नित्या गगन द्वारा खींची अपनी हंसती हुई फोटो मोबाइल में दिखाने लगी.
“जानती हो मैं इतना क्यूं हंस रही हूं? अंदर जब कुछ पिघलता है न, तो वो या तो उन्मुक्त हंसी के रूप में फूटता है या आंसुओं के रूप में. मैं तुम सभी को अपने यहां आने का निमंत्रण ज़रूर देती, पर मैं जानती हूं न तो वे लोग तुम लोगों को इतने खुले दिल और अपनेपन से अपना पाएंगे और न तुम लोग ही वहां सहज महसूस कर पाओगे. फिर भी एक फेवर चाहती हूं तुमसे!” उसने मेरा हाथ पकड़ा तो मैंने सहमति से सिर हिला दिया.
“साल में एक बार मुझे यहां आने की इजाज़त दोगी? यहां से कुछ ताज़ी सांसें भरकर लौटूंगी तो उस घुटन भरे माहौल में जीना आसान हो जाएगा.” अपनी बात समाप्त करते-करते नित्या की आंखें छलक उठी थीं. आज शायद अंदर का लावा आंसुओं के रूप में फूट पड़ा था. रसोई से बाहर आते सावंत बिना बताए ही सारा माज़रा भांप चुके थे. माहौल को हल्का बनाने की गरज से वे बोल उठे, “नित्या मैडम, बस आज और आपको इस बंदे और उसकी डिश को झेलना पड़ेगा.”
नित्या खिलखिला उठी, तो मेरे दिल में सावंत के लिए अनगिनत जलतरंगें हिलोरें लेने लगीं. मन किया उन्हें चूम लूं और एकांत मिलते ही मैंने ऐसा कर भी डाला. प्रत्युत्तर में सावंत के चेहरे पर प्रश्‍नवाचक मासूमियत भरी मुस्कान थी, “यह बिन बदरा बरसात क्यूं?”
संगीता माथुर

Photo Courtesy: Freepik

Share this article