"मां!" राहुल ने खाली प्लेट मां को थमा दी, "कहीं तुम मुझसे नाराज़ तो नहीं हो न?"
"नहीं रे." वे पूरी तरह से भर आईं, "मां भी कभी बेटे से नाराज़ हुआ करती हैं भला?"
"मेरी अच्छी मां!" राहुल ने उनके गले में बांहें डाल दीं.
ऐसे में वे और भी भर आईं. उनकी आंखें थीं कि खाली होने का नाम ही नहीं ले रही थीं. जब वे ख़ूब बरस गईं, तो उन्होंने बेटे के कंधे पर हाथ रख दिया, "तुम नहीं समझोगे पगले! मां तो मोमबत्ती हुआ करती है, मोमबत्ती!"
वे सूर्य को जल चढ़ाने के लिए ऊपर छत पर जा रही थीं, तभी उन्हें राहुल के शयनकक्ष से हंसी की आवाज़ें सुनाई दी. उनके अंदर कहीं मरोड सी उठी. वे वहीं ठिठक गईं. सूर्योदय हो आया था. किंतु बहू अब भी राहुल के संग हंस-खेल रही थी. गहरी सांस खींचकर वे उधर से ऊपर छत की ओर चल दीं.
सूर्य देव को जल अर्पित करती हुईं वे पिछले दिनों को स्मरण करने लगीं. घर में बहू लाने की कितनी ललक थी उनके मन में. किंतु अब उन्हें लगने लगा है कि वह उनका मात्र भ्रम ही था. अब तो वह घर घर नहीं लगा करता. जब से गोपा बहू आई है, मां-बेटे के बोच की दूरी निरंतर बढ़ती ही जा रही है. यह नारी का नारी के प्रति डाह भाव भी नहीं है. बहू के प्रति उनके मन में कहीं कोई कलुष या कुण्ठा भी नहीं है. दहेज भी उनके मन-मुटाव का कारण नहीं है. बहू तो इतनी सुशील और गुणवंती है कि रजनी बिटिया से भी कहीं अधिक वह उनकी सेवा-शुश्रूषा करती रहती है.
""मांजी, पांव दबाऊं?" जब-तब फ़ुर्सत में वह पूछ लेती है.
"नहीं रे.." वे मुस्कुरा देती हैं, "अभी मैं बुढ़िया तो नहीं हुई हूं." जल चढ़ा कर वे नीचे उतर आईं.
बहू चाय बना चुकी थी. किचन से चाय लेकर वे पति के कमरे में चल दीं. श्याम बाबू अख़बार पर दृष्टि जमाए हुए ही चाय सिप करने लगे.
"क्यों जी." उन्होंने पति के आगे नमकीन की तश्तरी सरका दी, "मैं कुछ दिन के लिए पीहर हो आऊं?"
श्याम बाबू ऐनक उतार कर उन्हें घूरने लगे. उन्होंने अख़बार एक ओर रखा और नमकीन खाने लगे. वर्षों बाद पत्नी की पीहर जाने की ललक उनकी समझ में नहीं आ रही थी. उन्होंने पूछा, "तुम मैके जाओगी?
"हां."
"ये बेमौसम की बरसात कैसे होने लगी?" उन्होंने पूछा.
वे पति की प्यालों में चाय उडेलने लगीं, "यूं ही, मन कर रहा है."
"तुम भी एक ही हो." श्याम बाबू परिहास करने लगे, "जल्द ही नातियोंवाली भी हो जाओगी और तुम्हें इस उम्र में मायके जाने की सूझ रही है."
"सो तो ठीक है. पर…" उनकी बात मन में ही बिला गई.
"पर क्या?"
"यहां खाली-खाली जो लगा करता है." बोलीं.
"खैर, तुम जानो." कहकर श्याम बापू पैरों में चप्पल फंसा कर बाहर चल दिए,
गोपा और रजनी दोनों डाइनिंग टेबल पर नाश्ता लगा चुकी थीं. सभी एक साथ सुबह का नाश्ता करने लगे. वे बराबर नोट करती रहीं कि राहुल निरंतर बहू का ही ध्यान रखता आ रहा है. पुत्र की उपेक्षा से उनका मन कसैला हो आया.
शुरू से ही वे संयुक्त परिवार की अभ्यस्त रही हैं. जन्म से ही चहकते हुए परिवार में सांसें लेने की उन्हें आदत रही. पुत्र के लिए 'घरू' बहू लाने की ज़िद उन्होंने इसीलिए की थी. श्याम बाबू उन्हें बड़ी कठिनाई से समझा पाए थे, "अरे भई, तुम समझती तो हो नहीं. राहुल बड़ा हो आया है. वह अच्छा-बुरा सब समझता है. क्योंकर उस पर अपने विचार थोपती हो? उसे अपने मन की क्यों नहीं करने देतीं?"
साढ़े नौ तक सभी अपने-अपने काम पर चल दिए. श्याम बाबू ऑफिस की जीप में बैठ कर घर से ही साइट निरीक्षण पर चल दिए थे. राहुल भी गोपा को लेकर मोटर साइकिल से अपने ऑफिस चल दिया. रजनी साढे आठ बजे ही कॉलेज को निकल गई थी. उतने बड़े घर में अब वे अकेली रह गई थीं. ऐसे में उन्हें वह घर काट खाने को दौड़ता.
दस बजे के लगभग घर में महरी आ गई. आते ही वह उनका चेहरा पढ़ने लगी, "बीबीजी, आज आप कुछ उदास लगती हैं."
"नहीं रे!" वे सहज होने का उपक्रम करने लगीं.
"फिर ठीक है, बीबीजी।" अनारो उधर से किचन की ओर चल दी. वहां वह सिंक में पड़े बर्तन धोने लगी.
बरामदे की ईजी चेयर पर धंसी हुई वे फिर से बीते हुए दिनों को याद करने लगीं.
राहुल उनके साथ कभी कितना लाड़-प्यार किया करता था. हर घड़ी वह मां-मां… की ही रट लगाए रहता था. कभी-कभी तो वह लाड़ में आकर उनके बाल तक नोंचने लगता था. पिछले ही वर्ष तक वह उन्हें गल बांहें डाला करता था.
"मां, इस कमीज़ का रंग मेरी पैंट पर ठीक रहेगा न?"
"मां, इस पैट के साथ यह शर्ट ठीक रहेगी न?"
बिना उनकी अनुमति के राहुल कुछ भी तो नहीं किया करता था. एक बार उन्होंने उसे यूं ही छेड़ दिया था, "क्यों रे राहुल, बहू आ जाने पर तो तू मुझे पूछेगा भी नहीं."
"ओ मां." राहुल ने उनके गले में बांहे डाल दी थी, "बहू दिन-रात तेरी ही सेवा किया करेगी."
"वो तो करेगी ही." वे मुस्कुरा दी थी, "मैं तो यह कह रही हूं कि तब तू मुझे पूछेगा तक नहीं."
"नहीं मां, ऐसा नहीं होगा." राहुल ने उनके कान उमेठ दिए थे, "यू आर ए नॉटी मम्मी."
"क्या बोला?" उनका हाथ उसे मारने के लिए उठ खड़ा हुआ था.
"शरारती मां." उनसे दूर जाकर उसने हंसी का ठहाका लगा दिया था.
वहीं राहुल आज उनकी मुट्ठी से फिसल कर बहू की मुट्ठी में क़ैद हो गया है. विवाह के बाद से तो उसमें बहुत ही बदलाव आ गया है?" हर घड़ी वह बहू के ही आगे-पीछे घूमता रहता है.
"गोपा, आज क्या पहनूं?"
"अरे भई, बताओ ना" जब-तब वह उससे ही राय लेता रहता है, "इस कमीज़ के साथ कौन सी पतलून पहनूं?"
"बीबीजी, चाय पिएंगी?" हाथ पोंछती हुई महरी ने किचन से आकर उनकी तंद्रा भंग की.
"हां री. थोड़ी सी अदरक भी डाल देना." वे वर्तमान में लौट आई. उनका चिंतन फिर से प्रखर होने लगा.
एम.ए. करने के बाद राहुल नौकरी करने लगा था. होम मिनिस्ट्री में उसकी नियुक्ति असिस्टेंट के पद पर हुई थी. तब से तो वे दिन-रात बहू के ही सपने देखने लगी थीं. एक दिन पुत्र को विश्वास में लेकर उन्होंने अपने मन की बात कह ही दी थी, "राहुल, यह चूल्हा-चौका अब मुझसे नहीं संभाला जाता."
राहुल मुस्कुरा कर ही रह गया था.
"हा रे…" उन्होंने बात आगे बढ़ाई थी, "तेरे बाबूजी के एक मित्र हैं. उनकी…"
"लेकिन मां," राहुल ने उनकी बात बीच में ही काट दी थी, "मैं तो कमाऊं पत्नी चाहता हूं."
"अरे!" उनके माथे पर बल पड़ गए थे.
"फिर तेरे बच्चों को देखभाल कौन करेगा, पगले?"
"मां-बाबूजी." वह हंस पड़ा था.
उन्होंने बात पति के कानों तक भी पहुंचा दी थी. श्याम बाबू ने भी राहुल का ही समर्थन कर दिया था. गोपा उसी के ऑफिस में काम किया करती थी. उन दोनों ने बेटे की पसंदगी पर अपनी स्वीकृति की मोहर लगा दी थी.
गोपा दुल्हन बन कर आई, तो राहुल दो ही दिन में रंग बदलने लगा. धीरे-धीरे वह मां की ममता, लाड़-प्यार सब कुछ भूलने लगा.
"बीबीजी, चाय." महरी ने आकर उन्हें चाय की प्याली थमा दी.
"अरी अनारो." उन्होंने चाय सिप कर पूछा, "तेरी बहू के क्या हालचाल हैं?"
"वही रंग-ढंग हैं, बीबीजी," अनारो उनके आगे अपना वही पुराना दुखड़ा रोने लगी, "बाप के घर जा बैठी है. कहती है, तब तक नहीं आऊंगी, जब तक कि विनोद हम से अलग नहीं हो जाता."
"अरे!" उन्होंने पूछा, "बेटा क्या कहता है?"
"वह भी तो उसी की वकालत करता है. आजकल हवा ही ऐसी चल पड़ी है बीबीजी." महरी ने गहरी सांस ली, "जब देखो बहू के ही चोचलों में डूबा रहता है."
"अभी नए-नए हैं न." वे महरी को धैर्य बंधाने लगी. "धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा धीरज रख."
"देखो." अनारो जूठे कप लेकर किचन की ओर चल दी.
घर का काम निबटा कर महरी किसी दूसरे घर में चल दी. वे फिर से अकेली हो गईं.
समय बिताने के लिए वे राहुल के कमरे से उसके विवाह का अलबम उठा लाईं. उनके कश्मीर प्रवास के रंगीन चित्रों को देखकर वे ख़ुद ही शरमाने लगीं. उन छिछोरे चित्रों को वे अधिक नहीं देख पाईं. उन्होंने वह अलबम अंदर रख दिया.
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एक बजे के लगभग रजनी कॉलेज से आ गई. वे जैसे अकेलेपन से उबर गई. उन्होंने पूछा, "आ गई बेटी?"
"हां मां" रजनी अंदर के कमरे में कपड़े बदलने लगी.
"चलो ठीक हुआ." वे बुदबुदा दीं, "एक से दो भले."
"मा!" रजनी उनके पास ही आ खड़ी हुई, "भाभी से नौकरी क्यों नहीं छुड़वा लेतीं?"
"मेरा वश चले तब ना." वे अपना अनदेखा भविष्य बाचने लगीं, "तेरे जाने के बाद तो मैं कहीं की भी नहीं रह पाऊंगी." इस पर रजनी का चेहरा आरक्त हो आया.
अंदर फोन की घंटी बजने लगी, "ज़रा जा के फोन तो सुन आ." उन्होंने बेटी से कहा. रजनी ने अंदर जाकर फोन का चोगा कान से सटा लिया, "हेलो!"
"एक्सीडेंट!" रजनी लगभग चीख सी पड़ी. उसके हाथ से चोगा छूट गया.
"किसका"? वे बुरी तरह से घबरा उठीं.
अंदर जाकर उन्होंने पूछा, " किसका हुआ रे?"
"भैया-भाभी का." रजनी रुआंसी हो आई.
"हे भगवान!" उन्होंने अपने माथे पर उल्टा हाथ मारा. रजनी ने चोंगा उठा कर आगे की पूछताछ की, "हेलो! आप कहां से बोल रहे हैं?"
"पंत अस्पताल से."
"ओह!" रजनी ने फोन पटक दिया. आधा घंटे बाद वे रजनी के साथ पंत अस्पताल चल दीं. वहां इमरजेंसी वार्ड में राहुल और गोपा पास-पास की पलंगों पर थे. गोपा के हाथों पर और राहुल के सिर पर पट्टियां बंधी हुई थीं. उस समय उन दोनों की आंख लगी हुई थी.
"घबराइए नहीं." डयूटी नर्स उन्हें धैर्य बंधाने लगी, "दोनों ही ख़तरे से बाहर हैं."
"चोट कहां-कहां आई है?" उन्होंने बेकली से पूछा.
"कोई ख़ास नहीं." नर्स ने बताया, "गोपाजी को तो मामूली सी खरोंचे भर आई हैं. राहुलजी के सिर पर दो-चार मामूली टांके आए हैं."
"हे ईश्वर!" वे बेटे के पलंग के समीप स्टूल पर बैठ गईं. कभी वे पुत्र को देखतीं, तो कभी पुत्रवधू को.
"मां…" राहुल जाग गया था.
"क्या हो गया था, मेरे लाल?" वे बेटे के पांव दबाने लगीं.
"मोटरसाइकिल…"
तभी नर्स ने उन्हें टोक दिया, "डॉक्टर ने अभी इनसे बात करने की मनाही की है."
गोपा भी जाग गई थी. वे पुत्रवधू की पलंग की ओर चल दीं. भरे हुए स्वर में उन्होंने पूछा, "एक्सीडेंट कैसे हो गया था बहू?"
"राजघाट के चौराहे के पास अचानक मोटरसाइकिल उछल पड़ी थी." गोपा ने बताया, "हम दोनों फुटपाथ पर आ गिरे थे."
"अब तुम कैसी हो?"
"मैं तो अब ठीक हूं." गोपा बिस्तर पर उठ कर बैठ गई. "उन्हें शायद कुछ ज़्यादा चोटें आई हैं."
उनकी अंतरात्मा चित्कार उठी. मन ही मन वे बहू-बेटे के लिए ईश्वर से दुआएं मांगने लगीं. श्याम बाबू भी आ गए थे. उन्होंने धीरे से उनके कंधे पर हाथ रख दिए, "ईश्वर को धन्यवाद दो कि जान बच गई, नहीं तो…"
प्राथमिक चिकित्सा के उपरांत गोपा को अस्पताल से छुट्टी दे दी गई. राहुल को अभी सप्ताह भर वहीं रहना था. बहू को लेकर वे लोग घर आ गए.
अगले सप्ताह राहुल की अस्पताल से छुट्टी होनी थी. दोपहर बाद वे पति के साथ अस्पताल चल दीं. तब तक राहुल के डिस्चार्ज की सारी औपचारिकताएं पूरी हो चली थीं.
"मां!" मां को देखते ही राहुल तीर की तरह से उनके गले से आ लिपटा.
उनकी आंखों से गंगा-जमुना बहने लगीं. उसमें उनका सारा मनोमालिन्य धुलने लगा. उनके मन में अब कोई भी तो गिला-शिकवा नहीं रह गया था. अंतर से वात्सल्य की धार फूट पड़ी. ऐसे में वे बार-बार उसे वक्ष से सटाती जा रही थी. वे उसकी पीठ थपथपाती हुई बुदबुदा दी, "पगला कहीं का."
स्टाफ नर्स ने श्याम बाबू को राहुल का मेडिकल सर्टिफिकेट थमा दिया, "इन्हें अभी सप्ताह भर तक पूरा आराम चाहिए."
"धन्यवाद सिस्टर!" श्याम बाबू ने वे काग़ज़ात अपनी
जेब के हवाले कर दिए. अस्पताल के गेट से वे तीनों टैक्सी में बैठ कर घर आ गए.
राहुल को घर आए हुए दो-तीन दिन हो आए थे. गोपा ने भी ऑफिस से छुट्टियां ले ली थीं. दोनों सास-बहू राहुल की सेवा-शुश्रुषा में लगी हुई थीं.
नित्य की भांति घर में महरी आ गई. छूटते ही उसने उनसे पूछा, "राहुल बाबू कैसे हैं?"
"पहले से कुछ ठीक हैं." उन्होंने बताया, "सिर पर दो-चार टांके आए हैं."
"भगवान का शुक्र है." महरी किचन की ओर चल दी. वे भी उसी के पीछे-पीछे चल दीं. उन्होंने महरी से पूछा, "तेरी बहू आई कि नहीं?"
"नहीं बीबीजी." बर्तन धोते हुए अनारो उदास हो आई, "हमारा विनोद तो हमसे पराया हो गया है."
"अरे!" गोपा के मुंह से निकल पड़ा.
"हां, बीबीजी," महरी ने गहरा उच्छवास भरा, "इन दिनों तो वे दोनों आकाश में तैर रहे है. पर कभी न कभी तो…"
"हां री." वे बेटे के लिए चूल्हे पर हलुआ घोंटने लगीं, "पखेरू भी तो नीचे आकर ही घोंसला बनाया करते हैं."
"लेकिन बीबीजी…" महरी बर्तन पोंछने लगी, "मां का दिल कुछ और ही हुआ करता है."
"हां, सो तो है ही." उन्होंने भी उसी का समर्थन कर दिया, "आजकल के छोकरे मां की ममता को क्या जानें!"
काम समाप्त होने पर महरी किसी और घर की ओर चल दी. वे हलुआ बना चुकी थीं.
बहू के साथ वे बेटे को पूछ-पूछ कर उसे खिलाने लगीं.
"मां!" राहुल ने खाली प्लेट मां को थमा दी, "कहीं तुम मुझसे नाराज़ तो नहीं हो न?"
"नहीं रे." वे पूरी तरह से भर आईं, "मां भी कभी बेटे से नाराज़ हुआ करती हैं भला?"
"मेरी अच्छी मां!" राहुल ने उनके गले में बांहें डाल दीं.
ऐसे में वे और भी भर आईं. उनकी आंखें थीं कि खाली होने का नाम ही नहीं ले रही थीं. जब वे ख़ूब बरस गईं, तो उन्होंने बेटे के कंधे पर हाथ रख दिया, "तुम नहीं समझोगे पगले! मां तो मोमबत्ती हुआ करती है, मोमबत्ती!"
संध्या-समय श्याम बाबू भी अपने ऑफिस से लौट आए थे. किचन का काम सास-बहू दोनों ही कर रही थीं. रात का भोजन करने के बाद वे सभी सोने की तैयारी करने लगे.
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रात को श्याम बाबू ने उन्हें यूं ही छेड़ दिया, "तुम तो उस दिन पीहर जाने को कह रही थीं न!"
"समय के साथ-साथ अब मेरा मन भी बदल गया है." वे हंस दीं.
"हां," श्याम बाबू भी समय का दामन थामने लगे, "ऐसा ही होता है."
अब तो वे एकदम ही हल्की-फुल्की हो आई हैं. हर समय उन्हें यही लगता रहता है जैसे कि राहुल ने उनके गले में बांहें डाली हुई हों. वे बेटे के बाल्यकाल की स्मृतियों में गोते लगाने लगती हैं. बिस्तर से उठ कर वे स्नान के लिए बाहर जाने लगीं. राहुल के शयनकक्ष से वही मिली-जुली खिलखिलाहटें आ रही थीं. बीच-बीच में बहू के हाथों की चूड़ियां भी खनकती जा रही थीं.
वे मुस्कुरा दीं. खिलखिलाहट और चूड़ियों की वह खनक उन्हें बहुत ही कर्णप्रिय लगने लगी. वे अंदर अपने कमरे में आ गईं. श्याम बाबू की आंखों में उनके लिए प्रश्नचिह्न उभर आए. उन्हें इतना उल्लसित उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था.
"बस, यूं ही." शर्म के मारे उनकी आंखें झुक आई.
अब वे अपने बिस्तर पर लेटी हुई थीं. उन्होंने आंखें मूंद लीं. उसी मनोदशा में वे आत्मिक सुख में लीन होने लगीं.
- डॉ. शीतांशु भारद्वाज
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