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कहानी- वंश बीज (Short Story- Vansh Beej)

"ठहरो, ठहरो, यह क्या अंधेर है? यह कैसी ज़िद? यह कैसा अत्याचार है जसुमती? मुझे सोचने का ज़रा समय दो."
"तीर धनुष से छूट चुका है, अब शेष बातें आप जानें." कहकर जसुमती अपने पूजा के आसन पर जा बैठी. जसुमती का पूजा के आसन पर जा बैठना यानी जसुमती का वह दांव कुंडली का ऐसा नाग था, जिसके काटे का कोई इलाज न था.

मैं अपनी बूढ़ी आंखों से दुलाघाट के जमींदार माणिक घोषाल के वंश के बहुत से उतार-चढ़ाव देखता आया हूं. माणिक घोषाल के बाद से ही ज़मींदारी की नींव हिलती हुई स्पष्ट नज़र आने लगी थी. पीढ़ीजात हवेली भी अब मानो अपनी अंतिम सांसें गिन रही थी. उसी हवेली के पश्चिमी किनारे में स्थित सौरगृह का मैं टूटता हुआ एक झरोखा हूं. क्या-क्या नहीं देखा मैंने बड़े घर की बड़ी बातें, जिनमें दृश्य कम होते है और अदृश्यता ज़्यादा. वही मैं अपने अंधियारे में समेटे हुए हूं, मानो वे ही मेरी धरोहर हैं, जो शेष रह गई हैं और जो मेरे सीने में धड़कन बनकर धड़कती रहती है और यदा-कदा टीस भी जगाती हैं. इनका एक-एक रहस्य नौलखे रत्न से कम न होगा, जिस पर से पर्दा हटते ही आदमी की आंखें मानो चकाचौंध हो जाए.
नहीं, आज मैं ऐसे किसी रहस्य का उ‌द्घाटन करने नहीं जा रहा. आज तो एक ऐसे झगड़े की बात सुनाने जा रहा हूं, जो दुलाघाट के जमींदार माणिक घोषाल के पोते जदुलाल घोषाल एवं उनकी पत्नी जसुमती के बीच हो रहा था.
"क्या कह रही हो जसु? आज हमारे इतने लाड़-प्यार से पाले-पोसे इकलौते बेटे का ब्याह तुम उस अनाथ लड़की से करना चाहती हो, आख़िर ऐसा क्यों? कोई सौतेली मां भी शायद यह न चाहेगी, पर सुव्रत तो तुम्हारा अपना बेटा है, आख़िर ऐसा क्यों चाहती हो तुम जसुमती?"
"इसे तुम मेरी ज़िद मान लो."
"ज़िद?"
"हां, और तुम मेरी ज़िद तो जानते ही हो. आज बीस वर्ष के हमारे वैवाहिक जीवन में जमींदार कालीपद मुखोपाध्याय की इकलौती रूपगर्विता बेटी की ज़िद को तुम भलीभांति जान गए होगे."
"उस अनाथ लड़की में तुमने ऐसा क्या देख लिया?"
"बार-बार उसे मेरे सामने अनाथ न कहो जी!"
"अनाथ न कहूं तो और क्या कहूं? जिसकी न मां का पता है, न बाप का ठिकाना…"
"ठीक है तब, न मानो मेरी बला से. पर जान लो, सुव्रत का ब्याह सुनयना से इसी फागुन मास में न हुआ, तो आज से ही मै अन्न-जल का त्याग करती हूं और तब तक पानी की एक बूंद भी ग्रहण नहीं करूंगी, जब तक सुनयना इस घर में आकर अपने हाथों से पानी नहीं पिलाती."
"ठहरो, ठहरो, यह क्या अंधेर है? यह कैसी ज़िद? यह कैसा अत्याचार है जसुमती? मुझे सोचने का ज़रा समय दो."
"तीर धनुष से छूट चुका है, अब शेष बातें आप जानें." कहकर जसुमती अपने पूजा के आसन पर जा बैठी. जसुमती का पूजा के आसन पर जा बैठना यानी जसुमती का वह दांव कुंडली का ऐसा नाग था, जिसके काटे का कोई इलाज न था.

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जदुलाल कमरे में चहलकदमी करने लगे. उनके माथे पर पसीने की बूंदें उभर आईं. पीठ पर दोनों हाथ बांधे वे दांत पीसने लगे. बहुत देर तक जदुलाल इसी तरह हाथ बांधे इधर से उधर और उधर से इधर टहलते रहे. उन्हें कुछ सुझाई नहीं दे रहा था. समय कितना बीत चुका, इस ओर भी उनका ध्यान नहीं था. अचानक वे‌ लपकते हुए बोले, "आख़िर मुझे इसका कुछ कारण तो बताओ जसुमती. उस अनाथ लड़की का ही तुम्हें क्यों विचार आया?"
जसुमती हंस पड़ी, "इसलिए कि उस अनाथ को हम सनाथ बना सकें. उसे मां-बाप का सच्चा प्यार दे सकें."
"ऐसे तो लाखों अनाथ पड़े हैं जसुमती. किस-किसको हम सनाथ बना सकते है भला? यह तो कोई कारण न हुआ. सच-सच बताओ, बात क्या है?"
"सच सुन पाओगे?"
"क्या?" जदुलाल की आंखें आश्चर्य से फैल गईं, उनमें आतंक आ समाया, कंठ सूखने लगा.
"सुन पाओगे भी ती क्या बर्दाश्त कर पाओगे?"
"क्या?" अब तो जदुलाल के हाथ-पांवों में कंप आ गया, "जल्दी बताओ कि बात क्या हैं? मेरी तो नाड़ी सुन्न हुई‌ जा रही है."
दुलाघाट के प्रतिष्ठित जमींदार माणिक घोषाल के जिस वंश पर तुम्हें इतना नाज़ है, उस वंश का यह इकलौता वारिस सुव्रत एक भिखारी का बेटा है."
यदि आसमान भी फटकर गिर पड़ता, तो जदुलाल सह जाते पर यह विस्फोट भयानक था वे चीख पड़े.
"यह झूठ है जसुमती…" कहते-कहते वे कटे वृक्ष की तरह गिर पड़े.
"इतना क्रूर मज़ाक न करो जसू…" वे गिड़गिड़ाने लगे, "तुम तो जानती हो, तुम मेरी प्रिय पत्नी हो. तुमसे ब्याह करने के बाद मैंने किसी और स्त्री की तरफ़ आंखें उठाकर भी कभी नहीं देखा. यह तुम कैसा बदला लेना चाहती हो मुझसे? नहीं, नहीं, इतनी बड़ी गाली मुझे मत दो जसुमती… नहीं, नहीं, यह सत्य नहीं है."


ऐसा उस हवेली में पहली बार हुआ था. नौकर-चाकर, दास-दासियां सभी हैरान थे कि पति-पत्नी दोनों एक साथ कैसे बीमार पड़ गए और बीमार भी हुए हैं, तो दोनों अलग-अलग कमरे में सारा दिन अकेले ही क्यों पड़े रहना चाहते हैं. न वैद्य-हकीमों की दवा कराना चाहते हैं, न किसी को अपने कमरे में प्रवेश करने की आज्ञा ही देते हैं.
जमींदारी की ईंट तो कब की ढह चुकी थीं, पर ठाठ-बाट बनाए रखने में ही इज़्ज़त महसूस करते थे जदुलाल घोषाल. अतः नौकर-चाकरों की कमी नहीं थी.
कर्ज़ की खाते थे, कर्ज़ की पीते थे, पर हां, पहले जैसी रौनक़ और पहले जैसी रंगरेलियां अब हवेली में नहीं थी, क्योंकि जब में दानापाट के कुबेर जमींदार कालीपद मुखोपाध्याय की बेटी को ब्याहकर लाए हैं, नाच-गाने और नटों के तमाशे हवेली के प्रांगण में भूले से भी भटककर नहीं आते. जदु‌लाल को जसुमती के साज-श्रृंगार को देखने से ही फ़ुर्सत नहीं मिलती थी, तो सैर-सपाटे की कौन कहे. दीवानखाने में मुंशी गुमाश्ते का हिसाब भी देखने नहीं जाते थे.
जदुलाल, हिसाब भी क्या देखे, अपनों कमाई होती तो हर पैसे के ख़र्च का हिसाब देखा जाता. जहां कर्ज़ का ही खानपान हो, वहां एक पैसे की जगह चार भी ख़र्च हो जाएं, तो माथे पर शिकन नहीं आती, अपनी गांठ का क्या जाता है? दो की जगह दस जाएं बला से. ये बातें कभी भी जदुलाल का सिरदर्द न बन सकी. हां, जसुमती को छींक भी आ जाती, तो जदुलाल की दुनिया में भूकंप डोल जाता.
और आज वहीं जसुमती ज्वालामुखी की तरह फट पड़ी थी. जदुलाल उन ज्वालाओं में, सिर से पांव तक धू-धू जल रहे थे. तन-बदन में आग का प्रकोप फैला हुआ था. ये लपटे तन से अधिक उनके मन को झुलसा रही थीं.
मुझ पर तो समय की मार पड़ी है, इसलिए मेरा चेहरा बिगड़ गया है. इस हवेली की बात न पुछिए कभी अपने रूप पर मदमाती यह हवेली जब सितारों के सामने झमककर निकलती, तो चांद भी धोखा खा जाता था और हवेली का अवगुंठन खोलने के लिए झुक आया करता. पर ज्योंही हवेली खिलखिला पड़ती, बेचारा चांद खिसियाना होकर बांदनी की ओर लौटने लगता था. उस समय उसका चेहरा देखते ही बनता था. लेकिन आज तो हवेली का चेहरा विद्रूप हो उठा है. वह उदास उदास रहती है, फिर भी चांद उस पर हंसता नहीं, अपितु एक सच्चे उपासक प्रेमी की भांति पटों हवेली की मुंढेर पर बैठ, अपने दुख-सुख की बातें उसके साथ बतियाता रहता है.
इस हवेली के वाशिंदों का इतिहास भी बड़ा विचित्र है. दुलाघाट के प्रतिष्ठित जमींदार माणिक घोषाल की पांच पीढ़ियों में पुत्र का जन्म बराबर होता आया था. हां, कम से कम यही बात सब जानते थे. दुलाघाट का बच्चा-बच्चा जानता था. परंतु जैसे ही छठी पोढ़ी की शुरुआत हुई. जमींदारी की बागडोर ढीली पड़ने लगी. इधर जदुलाल का सौरगृह में जन्म हुआ और उधर जदुलाल के पिता नवेन्दु घोष की सांप काटने से मृत्यु हो गई. परिवार में हो-हल्ला मच उठा. बड़ा अशुभ माना गया पुत्र जन्म और जदुलाल की मां को उसी क्षण से कारावास में डाल दिया गया. उनकी मृत्यु होने तक परिवार के किसी सदस्य ने कभी उनका मुंह नहीं देखा. यहां तक कि प्रांगण के पेड-पौधों ने भी कभी उनकी परछाई नहीं देखी.

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लेकिन जदुलाल का भाग्य अच्छा था. चौदह वर्ष की आयु होते-होते परिवार के एकछत्र शासक बनते देर नहीं लगी, क्योंकि परिवार के अन्य पुरुष पात्रों की तब तक मृत्यु हो चुकी थी. जमींदारी की बागडोर हाथ आते ही कर्ज़ का खानपान भी शुरू हो गया. जदुलाल के सत्रह वर्ष के होते न होते हवेली में नाच-गाना और रंगरेलिया मनाई जाने लगीं. हर दिन जश्न होता, हर रात दिवाली होती. फिर जदुलाल का पहला ब्याह हुआ. फिर जदुलाल का दूसरा ब्याह हुआ. फिर जदुलाल का तीसरा व्याह हुआ. जदुलाल का तीसरा विवाह क्या हुआ, उनकी दुनिया ही बदल गई जदुलाल को अब बाहरी दुनिया से कोई मतलब नहीं रहा, बस जसुमती ही जसुमती, जिधर देखो उधर उन्हें जसुमती ही दिखाई देती थी.
और पहली बार दुलाघाट के प्रतिष्ठित जमींदार माणिक घोषाल की पांच पीढ़ियों में जो बात नहीं हुई थी, वह हो गई. प्रतिष्ठित जमींदार माणिक घोषाल की हवेली की बाहरी दीवारों ने अथवा परिवार के किसी पुरुष सदस्य ने खानदान के किसी स्त्री-मुख को कभी नहीं देखा था, पर जसुमती अब हवेली और खानदान की सर्वेसर्वा बन गई थी, क्योंकि वह उच्चवगीय, उच्चकुल दानाघाट के जमींदार कालीपद मुखोपाध्याय को लाड़ली सुपुत्री थी. दहेज में वह इतना कुछ लाई थी कि जदुलाल का सारा कर्ज़ अदा हो सके तथा ज़िंदगीभर सुख-चैन की बंसी बजाई जा सके. लेकिन जदुलाल ने उस धन से कर्ज़ अदा नहीं किया. जदुलाल ने उस धन को अपने ही सुख-चैन के लिए ख़र्च करना मुनासिब समझा.
जसुमती क्या आई, कुबेर का ख़ज़ाना लेकर स्वर्ग की अप्सरा ही आ गई थी मानो. तब जदुलाल उस अप्सरा के पांव क्यों न चूम लेते. जसुमती के कंगनों की पहली झंकार रात के तीसरे प्रहर में जब हवेली में गूंजती, तो जैसे हवेली की आंख खुल जाया करती और फिर दिनभर जसुमती की पायल, हवेली के हर कक्ष में सुबह से शाम तक छम-छम गूंजा करती. प्रांगण के पेड़-पौधे भी इस सुख से वंचित न रह सके.
जसुमती ने आते ही अपने पति को अपने बस में कर‌ लिया पर उसका कोमल हृदय रह-रहकर एक बात को सोच-सोचकर कांप उठता था. उसे ज़िंदगीभर की ख़ुशी पाने के लिए दुलाघाट के प्रतिष्ठित जमींदार माणिक घोषाल के वंश को कुलदीपक भी देना था. यही तो उस घराने में स्त्री के आजन्म सुख और वैभव पाने की शर्त थी, वरना वही क़ैद, वही कारावास या फिर देश निकाले जैसी सज़ा. यही नहीं, मैं तो यह भी जानता हूं कि कभी-कभी तो दुलाघाट के प्रतिष्ठित ज़मीदार माणिक घोषाल के वंश की स्त्रियों को इस कसूर के लिए मृत्युदंड भी दिया जाता रहा है. जो स्त्री पुत्र को जन्म नहीं दे पाती, उसे चुपके से हीरे की कनी पीसकर दूध में पीने के लिए बाध्य किया जाता, ताकि वह स्वेच्छा से मृत्यु को स्वीकार कर ले, जिससे दुलाघाट के प्रतिष्ठित ज़मींदार के वंशजों पर हत्या का आरोप न लगे और मृत्युमुखी नारी के अभिशाप से भी बचा जा सके. पर कभी-कभी युवा नारी विद्रोह कर बैठती. जीने की लालसा का अंत इस प्रकार न कर पाती, तब ज़मींदार के वंशजों का मुखिया पुरुष चुपके से उस नारी का गला घोंटकर उसे मार डालता और हवेली के पीछे स्थित कुएं में उसकी लाश को मुंह अंधेरे लुढ़का आता. इस तरह एक इतिहास का अंत हो जाता. उस दिन प्रातःकाल से रात के मध्याह्न तक पुरोहित और पंडितों को बुलवाकर जाप और हवन किया जाता. हवन के उस धुएं के साथ उस घटना को भुला दिया जाता. उस स्त्री को भी भुला दिया जाता. फिर उस स्त्री का नाम परिवार का हर सदस्य भूल जाता. धुएं का तो इतना ही अस्तित्व होता है न, धुएं सा ही उस स्त्री का वैसा ही धुंधला इतिहास होता.
प्रतिष्ठित जमींदार की यह हवेली एक किले की भांति अवस्थित है. हवेली के तीनों ओर तीन पोखर हैं. एक पोखर का पानी पीने के काम आता है, दूसरे पोखर पर घाट बने हैं, जहां माणिक घोषाल के घराने की स्त्रियां नहाने जाया करती हैं और तीसरे पोखर में जमींदार परिवार के खाने के लिए मछलियां पाली जाती हैं. ये तीनों पोखर जमींदार के अपने पोखर हैं. बाहर का कोई आदमी इसके घाट के आसपास भी नज़र आ जाए, तो मृत्युदंड पाने का अधिकारी मान लिया जाता है.


जसुमती को पहली बार जब अपने तन में परिवर्तन होने का आभास हुआ, उसी क्षण से उसका मुंह सफ़ेद पड़ गया था, भय के कारण वह सोचने लगी, अब नौ महीनों तक दिन का चैन और रातों की नींद उसे नसीब न होगी. उसने सुन रखा था कि जदुलाल की पहली पत्नी ने जैसे ही एक कन्या को जन्म दिया, उसी क्षण उस कन्या को गला घोंटकर मार डाला गया था और पहले ही प्रसव में वंश को कुलदीपक न देने के कारण रातोंरात उस बहू को किराए की बैलगाड़ी में बिठलाकर उसके मायके भिजवा दिया गया था. घर की पालकी में भिजवाने की उदारता भी जमींदार घराना नहीं दिखला सका.
ठीक ही तो सुना था जसुमती ने, जसुमती ने तो यह सुना ही था, पर मैंने तो स्वयं अपनी इन बूढ़ी आंखों से देखा है जदुलाल ने कितने चाव से रानीगंज से कुमुदिनी को ब्याहकर इस हवेली में, फूलों के पायदान बिछाते हुए प्रवेश कराया था.
पलक झपकते एक साल बीत गया और जब कुमुदिनी में मां बनने के लक्षण दिखाई दिये तो जदुलाल रात-दिन उसके पास ही बने रहते. जदुलाल ने अपना संपूर्ण कारोबार मुंशी और गुमाश्तों के हाथों में सौंप दिया. उस वर्ष आम के बागों से भी बहुत आमदनी हुई थी. सारे लक्षण बहुत शुभ थे, पर भाग्य की करामात तो अदृश्य की डोर में बंधी होती है न! कुमुदिनी ने कन्या को जन्म दिया. रात-दिन कुमुदिनी के चंद्रमुख को एक चकोर की भांति एकटक निहारने वाले जदुलाल ने एक गर्जना के साथ, एक क्षण का भी विलंब किए बिना नौकर को आज्ञा दी कि तुरंत किराए की गाड़ी हाज़िर की जाए. सबकी बोलती बंद हो गई थी. कुमुदिनी की रोते-रोते घिग्घी बंध गई थी. कुमुदिनी ने कोचवान से मिन्नतें कीं कि वह एक बार जदुलाल को बुलवा दे, ताकि विदा के समय अंतिम बार वह उनकी चरण-धूलि ले ले, जिससे अपनी मृत्यु के समय वह मन में कोई इच्छा न रखकर आसानी से अपने प्राण त्याग सके. पर नहीं, जदुलाल ने फिर कुमुदिनी का मुंह नहीं देखा.
रही सौरगृह की बात, वह तो सिर्फ़ मैं ही जानता हूं कि किस तरह कुमुदिनी सिर पटक-पटक कर गिड़गिड़ा रही थी कि उसकी मासूम बच्ची को गला घोंटकर न मारा जाए कि वह अपने देश निकाले को स्वीकार करती है कि वह बच्ची को स्वयं पाल लेगी कि उसी कन्या के सहारे वह जी लेगी अथवा बच्ची के साथ-साथ उसे भी मार डाला जाए, पर नक्कारों में तूती की आवाज़ कौन सुने? उसकी एक न चली. यह कैसे संभव था कि दुलाघाट के प्रतिष्ठित जमींदार के वंश की कन्या ग़लत हाथों में पहुंचकर कोठे की शोभा बनने के लिए जीवित रख दी जाए.
कन्या का जन्म ही एक अभिशाप है. दहेज के दानव ने जाने बंगाल की ऐसी कितनी कन्याओं को निगल लिया है. यह संख्या तो इतिहास का कोई खूनी पन्ना भी नहीं बता सकता, मैं तो फिर एक हवेली का टूटा हुआ झरोखा हूं. मैं इस सौरगृह में हुई हत्याओं का साक्षी हूं. इस घर के किसी पुरुष ने इस सौरगृह में आने की कभी हिम्मत नहीं की. अगर कोई यहां तक आ पाता, तो उसे मेरी आंखों में झांकने का मौक़ा मिलता.
वह देख पाता कि मेरी आंखों में छाये इस घनघोर अंधेरे में कितना दुख और कितने आंसू छिपे हुए है. यहां हुए अत्याचारों की प्रतिक्रिया उसे मेरी आंखों में झलकता हुआ दिखाई दे जाता, तो मुझे विश्वास है, वह भी अपनी पौरुषी नपुंसकता के लिए अवश्य ही सिर घुनता और फिर उसकी आंख की कोर से अनायास एक बूंद आंसू अपनी पहचान अवश्य बना लेता.

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इसीलिए जसुमती ने प्रसव के समय अपनी छोटी बहन हेमवती को अपने पास ही बिठा रखा था. जैसे ही नवजात शिशु के रुदन की आवाज़ सौरगृह में गूंजी, जसुमती ने अपनी शक्ति और साहस बटोरते हुए हेमवती से पूछा था. हेमवती ने जसुमती के कानों के पास मुंह ले जाकर फुसफुसाहट में ही जवाब दिया, "तो ले यह." कहकर जसुमती ने तुरंत सिरहाने रखी एक थैली उठाई और हेमवती को देकर कुछ आवश्यक बातें समझाई और कहा, "इसमें सोने की मोहरे हैं. तुरंत जा, किसी को कानोंकान ख़बर न होने पाए, सावधान रहना, जाओ जल्दी."
रात के घनघोर अंधेरे में हेमवती कुछ दूर पैदल बढ़ती चली गई, फिर आम के वृक्ष से बंधा घोड़ा लेकर वह सरपट दौड़ पड़ी.
थोड़ी ही देर बाद जब हेमवती लौटी, तब फिर एक बार शिशु के रोने की आवाज़ अंधेरे को चीरकर उभरी. इस बार रोने की आवाज़ तीव्र एवं स्पष्ट थी. तुरंत ही हवेली में बात फैल गई कि जसुमती ने एक पुत्र को जन्म दिया है. चारों ओर उत्सव की तैयारियां होने लगीं, आतिशबाज़ी छूटने लगी, दासियों की खिलखिलाहट गूंजने लगी, ख़ुशी की एक लहर सी दौड़ गई. वंश का कुलदीपक दिया था हवेली की बहू ने. बस फिर क्या था. बहू की आरती उतारी गई, मंगलगान गाए गए, शंख फूंके गए, ढोल बजने लगे. दुर्गा देवी की पूजा की योजना बनने लगी. बहू को नज़र न लगे, इसलिए बहू और नवजात शिशु पर से चांदी के रुपयों न्योछावर कर गरीबों में बांटे गए.
फिर पुत्र के नामकरण के दिन जसुमती की इच्छानुसार गरीबों को महाभोज दिया गया और भोजन के उपरांत उन्हें वस्त्रदान किए गए. अचानक हेमवती दौड़ी आई, हांफते हुए बोली, "दीदी, दीदी!"
"पूरी सांस तो ले ले पगली. देख, तो माथे पर कितना पसीना आ गया है." हेमवती ने आतंक भरे कंठ से फुसफुसाकर कहा, "वह भी आई है दीदी."
"हाय!" जैसे छाती में कोई कील धंस गई हो, जसुमती चीख-सी पड़ी, "कहां है? कहां है? हेमवती मुझे दिखा, मुझे उसके पास ले चल मेरी बहन."
"क्या? तुम जाओगी वहां?" हेमवती मानो आसमान से गिरी.
"हां, मुझे से चलो. एक बार तो मुझे अपने कलेजे का टुकड़ा देख लेने दो हेम, फिर न जाने कब देख सकूंगी."
"नहीं, दीदी नहीं ज़रा भी बात इधर-उधर…"
"जो होगा, सो होगा मुझे न रोक." वेगवती नदी की तरह जसुमती दीवानावार दौड़ती चली गई. भिखारियों के बीच और फिर वह स्वयं स्त्रियों को साड़ियां बांटने लगी. हेमवती का संकेत पाते ही जसुमती ने उस स्त्री को दो साड़ियां दे दी.
हेमवती ने तुरंत उस स्त्री से कहा, "हड़बड़ी में तुम्हें दो साड़ियां आ गई हैं, दूसरी साड़ी अपने बाजूवाली को दे दो."
जसुमती ने फौरन उसे टोकते हुए कहा, "नहीं, रहने दो. दी हुई चीज़ लेते नहीं हेम." फिर वह ऐसे झुक आई, मानो उसे चक्कर आ गया हो. जसुमती ने हौले से झुककर अपनी जाई कन्या के कपोल आख़िर चूम ही लिए थे. इतनी भीड़ में किसी ने क्या देखा होगा, पर मैं तो हवेली के पश्चिमी किनारे पर खड़ा था, अतः पिछवाड़े के प्रांगण में होनेवाली छोटी-बड़ी सभी घटनाएं मेरी आंखों से भला कैसे बच पातीं?
दो-दो साड़ियां पाकर भिखारन ख़ुश हो उठी थी, "दूधो नहाओ मालकिन, पूतो फलो." आशीर्वाद देती हुई वह चली गई.
झगड़े के नौवें दिन जदुलाल से न रहा गया. पुनः जसुमती के कमरे के द्वार पर जा खड़े हुए, क्योंकि वैद्य और हकीमों ने बतलाया था कि निरंतर उपवास के कारण जसुमती के प्राणों पर आ बनेगी. हवेली सूनी पड़ गई थी. कहीं कोई रेलपेल नहीं, हलचल नहीं, मानो हवा को भी सांस लेने की अनुमति नहीं थी.
"जसुमती आख़िर तुम चाहती क्या हो? यह कैसी बिजली गिराई है तुमने मुझ पर? किस बात का बदला ले रही हो तुम?"
जसुमती ठहाका लगाकर हंस पड़ी, "भूल गए? तुमने अपनी पहली पत्नी को घर से इसलिए निकाल दिया था, क्योंकि उसने एक कन्या को जन्म दिया था. तुमने अपनी दूसरी पत्नी का त्याग इसलिए किया, क्योंकि उसने भी एक कन्या को जन्म दिया."
"हां, यह सही है."
"और तुमने उन दोनों बच्चियों को कुएं में फिकवा दिया था."


जदुलाल ख़ामोश रहे.
"पर तुमने अपनी पत्नियों को इतना भी मौक़ा नहीं दिया कि वे कुछ प्रतीक्षा करें.
हो सकता है, वे कदाचित दूसरी बार पुत्र को जन्म दे पातीं. पर तुम्हें तो स्त्री की महत्ता स्वीकार ही नहीं. तुम तो अपने ही अहं को प्रश्रय दिया चाहते हो. पुरुष प्रधान समाज व्यवस्था में स्त्री का क्या इतना भी स्थान नहीं कि वह अपने अधिकारों के लिए लड़ सके? मैंने यही किया है."
"तुमने कहा था, सुव्रत हमारा बेटा नहीं. क्या यह सच है?"
"हां, यह सत्य है और यह भी सत्य है कि वह एक भिखारन का बेटा है."
"जसु..!" जदुलाल छाती पर हाथ रखकर चीख पड़े, "नहीं, नहीं, यह सच नहीं है…" उनकी आवाज़ मुंह से निकल नहीं पा रही थी.
"तो आप ही बताइए, क्या आज आप इस बात से इन्कार कर सकते हैं लोगों के सामने कि सुव्रत आपका बेटा नहीं है?"
मानो सैकड़ों सांपों ने एक साथ जदुलाल को डस लिया हो. उनका चेहरा पीला पड़ने लगा. उन्होंने यह तो सोचा ही नहीं था. कैसे कहें वे लोगों से कि सुव्रत उनका बेटा नहीं है, सुव्रत एक भिखारन का बेटा है. क्या यह बात वे किसी से कह सकेंगे भला? उनकी तो जैसे विचारशक्ति ही लुप्त हो गई थी.
"अभी बात तीसरे के कानों तक नहीं पहुंची है कि सुव्रत एक भिखारन का बेटा है, अतः सुनयना को आप अपनी बहू बना ले."
"तो तुमने अब तक मुझे धोखे में रखा था?"
"हां, स्त्री को उसका स्थान देना ही होगा. उस पर मनमाना अत्याचार करके, आघात करके पुरुष जीत नहीं पाएगा. आख़िर वह अकेला ही जीवन की गाड़ी तो ढोता नहीं."
"तो तुमने बदला लिया है मुझसे?"
"नहीं, इसे बदला नहीं कहा जा सकता. मैंने तो प्रतिघात किया है, इसलिए कि मेरी बच्ची को भी उसके अधिकारों से वंचित न रहना पड़े."
"तुम्हारी बच्ची ?"
"हां, सुनयना हमारी बेटी है."
"मेरा तो सिर चकरा रहा है. मेरी सारी इन्द्रियां जवाब दे गई है. अगर मैं मृत नहीं हूं तो क्या जीवित हूं? तुम कहती हो कि सुनयना तुम्हारी बेटी है और तुम उसे बहू बनाकर इस घर में लाना चाहती हो?" जदुलाल ने लड़खड़ाती हुई जुबान से पूछा.
"हां, सुव्रत हमारा बेटा नहीं है, पर सुनयना हमारा वंश बीज है. उसे इस घर में जब तक नहीं लाऊंगी, तब तक सुव्रत आपके कुल का दीपक नहीं कहला सकता. यह ब्याह तो होना ही है." फिर जसुमती ने व्यंग्य की हंसी अपने होंठों पर लाते हुए पूछा, "अब तो आप लोगों से यह कहने से रहे कि सुव्रत एक भिखारन का बेटा है?"
जदुलाल मानो कटकर रह गए,
"तो?" जसुमती ने जदुलाल की आंखों में आंखें डालते हुए पूछा.
"पर…" पर कटे पंछी की तरह जदुलाल फड़फड़ा उठे.
"तो… अब तो जान ही गए हो कि सुनयना हमारी बेटी है, तो जाकर एक काम करो. अन्य बंगालियों की तरह दहेज जुटा न पाने की स्थिति में सुनयना का गला घोंट दो या फिर उसे उसी तरह पुनः निराधार छोड़ दो, ताकि कल वह किसी वेश्या के कोठे की शोभा बन सके…"
"जसु!"
"और हां, इन सब बातों के पहले मुझे हीरे की कनी पीसकर दूध में देना न भूलना."
इसके बाद क्या हुआ, मैं नहीं जानता दोस्तों, क्योंकि तभी किसी मनचले शरारती बच्चे ने हवेली के रोशनदान के कांच पर पत्थर दे मारा था और मैं लहूलुहान होकर, संज्ञा खोकर धराशायी हो गया था.

- नीर शबनम

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