"कितने बड़े हो गए तुम्हारे पौधे… वाह भई, एक ज़रा से बीज से इतने बड़े-बड़े हो गए."
"अरे नहीं", प्रतिमा मुस्कुराते हुए बोली, "सब थोड़ी बीज से उगाए हैं, ये चारों पौधे तो नर्सरी से लाई थी मैं."
मैं सफल हो गया था व्यूह रचना में. मैं मुस्कुराया, "हांं, क्या फ़र्क़ पड़ता है… पौधे चाहे यहां बीज से जन्म लें या नर्सरी से लाए जाएं…घर आकर तो अपने ही हो जाते हैं…"
प्रतिमा मेरा मुंह देखती रह गई और मैं प्यार से उसका गाल थपथपाकर ऑफिस निकल गया.
"तुम मेरी जगह खड़े होकर सोचो एक बार, आख़िर दिक़्क़त क्या है इसमें?"
"क्यों मैं सोचूं तुम्हारी तरह? मुझसे नहीं होगा ये सब… क्यों मैं पालूं किसी और का बच्चा?"
प्रतिमा फिर से गुड़ाई में जुट गई. ऐसी ग़ुस्सैल और चिड़चिड़ी ये हमेशा से नहीं थी. दो बार मां बनते-बनते रह गई. अब कोई उम्मीद नहीं है… बस अपने पौधों में लगी रहती है. उन्हीं में जीवन ढूंढ़ती है. उनसे बात करती है. कभी-कभी तो मैं डर जाता हूं, पागल तो नहीं हो रही है?
"दिनभर धूप में छोड़ दिया, राजा ग़ुस्सा हो गया?"
"कल दिनभर तुम्हारे पास नहीं आई, तभी मुंह लटका हुआ है?"
मैं समझता हूं, ममता के बादल घुमड़ते तो हैं ही. इन्हीं बेज़ुबान पौधों पर बरसाकर सुकून मिल जाता है इसको… और कुछ इसको भाता नहीं है. ना घूमना, ना सजना, ना बात करना…
शायद इतना ही बहुत नहीं था, तभी एक और हादसा मुझे हिला गया…
सुबह-सुबह भइया का फोन आया. दीदी और जीजाजी की कार ट्रक से टकरा गई, दोनों ने वहीं दम तोड़ दिया…और पीछे छोड़ गए तीन महीने की अबोध बिटिया मानसी!..
मैं फूट-फूटकर रो पड़ा. ये भी होना बाकी था क्या!
इतना समझाया प्रतिमा को, लेकिन वो अड़ी हुई थी कि वो बच्ची को नहीं स्वीकारेगी. रात-दिन की बहस के बाद मैंने एक निर्णय लिया. मानसी अपनी नानी के पास थी. मैं उसे यहां ले आया. एक २४ घंटे की आया रख ली. ऑफिस देर से जाने लगा और कोशिश रहती थी कि जल्दी घर पहुंच जाऊं.
मैं प्रतिमा को बाध्य नहीं कर सकता कि वो बच्ची को स्वीकार करे… दिन कट रहे थे.
एक दिन प्रतिमा पौधों को सींच रही थी, कुछ सोच कर मैं गया, बात शुरू की, "कितने बड़े हो गए तुम्हारे पौधे… वाह भई, एक ज़रा से बीज से इतने बड़े-बड़े हो गए."
"अरे नहीं." प्रतिमा मुस्कुराते हुए बोली, "सब थोड़ी बीज से उगाए हैं, ये चारों पौधे तो नर्सरी से लाई थी मैं."
मैं सफल हो गया था व्यूह रचना में. मैं मुस्कुराया, "हांं, क्या फ़र्क़ पड़ता है… पौधे चाहे यहां बीज से जन्म लें या नर्सरी से लाए जाएं… घर आकर तो अपने ही हो जाते हैं…"
प्रतिमा मेरा मुंह देखती रह गई और मैं प्यार से उसका गाल थपथपाकर ऑफिस निकल गया.
रात को पानी पीने उठा, देखा प्रतिमा बगल में नहीं थी. दूसरे कमरे में जाकर देखा, आया बेसुध होकर सो रही थी. मानसी भी वहां नहीं थी… मैं बुरी तरह घबरा गया, हड़बड़ाकर बाहर आया… पैर ठिठक गए. लाॅन में रोशनी थी. थोड़ा आगे बढ़ा, कुछ सपने जैसा घटित हो रहा था…
प्रतिमा मानसी को चिपकाए हुए थी. कभी माथा चूमती थी, कभी बाल सहलाती थी. ममता की ऊष्मा से प्रतिमा पिघल रही थी. लगातार आंसू बहे जा रहे थे…
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मेरे हाथ अनायास जुड़ गए. मेरे सामने प्रतिमा और मानसी नहीं, मां मरियम और उनकी गोद में नन्हें से यीशु थे.
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