रेटिंग: ३ ***
भारत देश में जाने कितने प्रतिभावान खिलाड़ी रहे हैं, जिनमें बहुत कम लोगों की ही संघर्षपूर्ण यात्रा लोगों के सामने आ सकी. ऐसे ही एक मुरलीकांत राजाराम पेटकर रहे हैं. वे पहले ऐसे खिलाड़ी रहे हैं, जिन्होंने 1972 के पैरा ओलंपिक प्रतियोगिता में स्विमिंग में वर्ल्ड रिकॉर्ड के साथ गोल्ड मेडल जीतकर भारत का नाम ओलंपिक के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज किया था.
इस महान खिलाड़ी के जज़्बे को सलाम करना चाहिए, जो बचपन से ही देश के लिए ओलंपिक में मेडल जीतने के सपने देखता रहा, फिर चाहे खेल के क़िरदार बदलते रहे, पहले कुश्ती की बारीक़ियों के साथ पहलवानी में ज़ोर आज़माइश हुई, फिर बॉक्सिंग के दांव-पेंच सीखे गए, लेकिन कामयाबी तैराकी में जाकर मिली. अपनी ज़िंदगी के हर दौर के संघर्ष को जितनी दिलेरी व साहस से मुरलीकांत ने जिया था, उतनी ही लगन व शिद्दत से कार्तिक आर्यन ने भी उनकी भूमिका में जान फूंक दी.
कार्तिक आर्यन की मेहनत और पूर्ण रूप से समर्पित तैयारी क़िरदार को लेकर पूरी फिल्म में दिखाई देती है. उन्होंने क़रीब दो साल तक अपना वज़न घटाने से लेकर कुश्ती, मुक्केबाज़ी, तैराकी तक की बारीक़ियों को सीखा-समझा. कह सकते हैं कि कबीर खान निर्देशित ‘चंदू चैंपियन’ के लिए कार्तिक ने काबिल-ए-तारीफ़ मेहनत की है. यह उनकी अब तक की सबसे बेस्ट और यादगार परफॉर्मेंस रही है. यह कार्तिक के अभिनय का ही तो कमाल है कि जब वे दुखी होते हैं, तब उनके साथ माहौल भी ग़मगीन हो जाता है. लेकिन इसी के विपरीत जब मुस्कुराते, हंसते-गाते-नाचते हैं, तो फिज़ां तक खिल उठती है.
जब 1952 में हेलसिंकी ओलंपिक में भारत के लिए पहलवानी में प्रथम पदक कांस्य के रूप में जीतनेवाले खाशाबा दादासाहेब जाधव (के.डी.जाधव) महाराष्ट्र के अपने कराड गांव में रेलगाड़ी से आते हैं, तब आसपास के सभी गांवों के लोग हज़ारों की तादाद में उनका स्वागत करते हैं. उन्हीं में से मुरलीकांत भी रहते हैं, जो अपने बड़े भाई के कंधे पर सवार होकर इस ख़ुशी का लुत्फ़ उठाते हैं. साथ ही भाई द्वारा सभी बातें जानने पर यह ऐलान करते हैं कि मैं भी ओलंपिक जाऊंगा और मेडल जीतूंगा. स्कूल में मास्टरजी के पूछने पर यही कहने पर सहपाठी उसका मज़ाक उड़ाते हैं. और मखौल उड़ाने के साथ चंदू चैंपियन… का ठप्पा भी लग जाता है.
लेकिन पक्के इरादे वाले मुरली का बचपन से देखा गया यह सपना बड़े होते-होते जुनून बन जाता है. के. डी. जाधव जैसा मान-सम्मान पाने की चाहत में मुरली कड़ी मेहनत करने लगता है. महान खिलाड़ी व अभिनेता रहे दारा सिंह उसके प्रेरणास्त्रोत बन जाते है. गांव के अखाड़े के गुरू से पहलवानी सीखने की चाह रहती है, पर सभी पहलवानों की सेवा-टहल में समय बितता चला जाता है, पर वो निराश-हताश नहीं होता. सतत सभी की सेवा करता रहता और कुश्ती के दांव-पेंच भी समझता-देखता.
गांववासी हर कोई हैरान व आश्चर्यचकित रह जाते हैं, जब पहलवानी के दंगल में मुरली दूसरे गांव के जमींदार के बेटे को चारो खाने चित कर देते हैं. योजनाबद्ध की गई जीत में इस उलटफेर से जमींदार बौखला जाता है और उसके लठमार मुरली के जान के प्यासे. उनसे बचने के लिए बड़े भाई के कहने पर मुरली जो भागना शुरू करता है, सो ताउम्र अलग-अलग परिस्थितियों में भागता ही रहता है. कभी अपनी जान बचाने, तो कभी भावनाओं से, तो कभी अपने सपने को पाने के लिए.
मुरलीकांत की प्रेरणादायी सफ़र में कई लोगों का साथ और मार्गदर्शन मिलता चला जाता है. कैरनल जैसा दोस्त, टाइगर अली जैसे कोच, टोपाज़ जैसा केयर टेकर या हमदर्द ही कह लीजिए.
शुरू से लेकर अंत तक क़रीब ढाई घंटे की फिल्म पूरी तरह से बांधे रखती है. कभी यह हंसाती है, तो कभी यह आंखें नम भी कर देती है, ख़ासकर आर्मी द्वारा सूचित करने पर परिवार का मुरली को अस्पताल में मिलने आना. बड़े भाई का उन्हें समझाना कि गांव में आर्थिक स्थिति के चलते वे उनकी देखभाल नहीं कर पाएंगे, उनका यहां रहना ही ठीक है. मां को वे समझा देंगे. यह सीन पूरी फिल्म की जान है. सच, अपने होकर भी कैसे कोई अनाथ हो जाता है, तब क़िस्मत की इस विडंबना को क्या कहेंगे.
दोस्त की सलाह पर ओलंपिक के लिए फौज में भर्ती होने से लेकर वहां पहलवानी तो नहीं कर पाने, लेकिन बॉक्सिंग में मौक़ा मिलता है और मुरली अपनी प्रतिभा को साबित भी करते हैं. लेकिन 1965 की जंग में मुरली को नौ गोलियां लगती है. एक तो आज भी उनके रीढ़ के यहां फंसी हुई है. ऐसे में कोच विजय राज द्वारा दारा सिंह का उदाहरण देते हुए समझाना मुरली को इस कदर प्रेरित करता है कि वो अपना सब कुछ झोंक देते हैं खेल के लिए. चूंकि गोलियों के कारण उनका शरीर का निचला हिस्सा लकवाग्रस्त हो गया है. ऐसे में डॉक्टरों द्वारा तैराकी के लिए सलाह दी जाती है. रिहैबिलिटेशन से शुरू हुआ स्विमिंग उन्हें इसी में आगे बढ़ने की प्रेरणा भी देता है. आख़िरकार साल 1972 के जर्मनी के म्यूनिख में हुए पैरालंपिक में मुरलीकांत गोल्ड मेडल जीतकर देश का नाम रौशन करते हैं.
फिल्म का हर कलाकार बेजोड़ है, फिर चाहे वो भाई जोगनाथ के रूप में अनिरुद्ध दवे हों, मित्र जरनैल सिंह (भुवन अरोड़ा), आर्मी हेड उत्तम सिंह (यशपाल शर्मा), कोच टाइगर अली (विजय राज), वॉर्ड बॉय टोपाज (राजपाल यादव), श्रेयस तलपड़े, सोनाली कुलकर्णी हर किसी ने उम्दा काम किया है.
फिल्म की कहानी कबीर खान ने सुमित अरोड़ा और सुदीप्तो सरकार के साथ मिलकर लिखी है. साजिद नाडियाडवाला के साथ निर्माता की भूमिका भी कबीर खान ने निभाई है. प्रीतम और जुलियस पैकम का संगीत जोश से भरपूर है. सुदीप चटर्जी की सिनेमैटोग्राफी लाजवाब है. यदि नितिन बैद कोशिश करते तो फिल्म थोड़ी एडिट की जा सकती थी.
82 वर्षीय मुरलीकांत राजाराम पेटकर वर्तमान में पत्नी और बच्चों के साथ महाराष्ट्र के पुणे में शांतिपूर्ण ख़ुशहाल जीवन बिता रहे हैं.
नाडियाडवाला ग्रैंडसन एंटरटेंमेंट और कबीर खान फिल्म्स के बैनर तले बनी चंदू चैंपियन वाकई में एक चैंपियन फिल्म है.
- ऊषा गुप्ता
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