अब तक तो हम सब की घंटी बज चुकी थी कि आशु भैया के वाक्य प्रयोग के ज्ञान ने कोई बखेड़ा खड़ा कर दिया है. घर वापस आते ही आंटी ने आव देखा ना ताव समझावन लाल उठाया और आशु भैया की वो आरती उतारी कि भैया तो छोड़ो हम दोनों को भी समझ आ गया था कि बड़ों की बातों में कभी नहीं बोलना चाहिए.
हमारे जीवन में यह ज़रूरी नहीं है कि हर पाठ स्कूल में ही पढ़ाया जाए, बहुत से पाठ अभिभावक पढ़ाते हैं और यह भी कतई आवश्यक नहीं है कि माता-पिता यह पाठ प्यार-मुहब्बत से पढ़ाएं.
हमारे ज़माने में तो ऐसे पाठ पढ़ाने के लिए विशेष अस्त्र-शस्त्र… जैसे- कपड़े धोने वाला डंडा बहुत काम आता था. हम तो आज भी इस डंडे को 'समझावन लाल' कहते हैं, क्योंकि अनेक अवसरों पर इस समझावन लाल ने हमें बहुत अच्छे से समझाया और इसके द्वारा सिखाया गया लगभग हर एक सबक हम सब भाई-बहनों को ताउम्र याद रहा.
वर्तमान में बच्चों तथा उनकी मांओं के लिए ये समझावन लाल अर्थात कपड़े कूटने वाला डंडा कुछ अनजानी सी चीज़ होगी, क्योंकि अब अधिकतर घरों में कपड़े धोने के लिए वॉशिंग मशीन होती है. वैसे भी ये प्रकरण आज से लगभग तीस वर्ष पहले का है जब घरों में बच्चों की मार कुटाई बहुत आम होती थी.
बहरहाल, मैं इस बात का समर्थन कदापि नहीं कर रही हूं कि बच्चों की पिटाई होनी चाहिए. ये सिर्फ़ एक हल्की-फुल्की कहानी कहे या आपबीती है, जो आज से कई वर्ष पहले घटी घटना पर आधारित है.
मैं जिस पाठ की बात कर रही हूं, वो पढ़ाया गया था हमारी मित्र मंडली के एक लड़के आशु को.
उसकी छोटी बहन दीप्ति मेरी अभिन्न सहेली थी और उस समय हम दोनों सहेलियां तीसरी कक्षा में और आशु भैया छठी कक्षा में थे.
यह भी पढ़ें: प्रेरक प्रसंग- बात जो दिल को छू गई… (Inspirational Story- Baat Jo Dil Ko Chhoo Gayi…)
यूं तो वो लोग पंजाब से थे, पर जिस वक़्त की मैं बात कर रही हूं उस वक़्त उनका पूरा परिवार लखनऊ में बस चुका था और ये एक इत्तेफ़ाक था कि आंटी की दूर की एक बहन, जिन्हें हम सब राधा मौसी कहते थे, उनका घर भी हमारे मोहल्ले में ही था.
दीप्ति की मम्मी और मौसी दोनों को ही एक-दूसरे का बहुत सहारा था और लगभग रोज ही उन दोनों का एक-दूसरे के घर आना-जाना था.
दीप्ति और आशु भैया के पिता ठेठ गांव के रहनेवाले थे और कुश्ती-अखाड़े और दूध-घी के ख़ूब शौकीन थे. शहर में बसने के बाद कुश्ती जैसे खेल तमाशे तो कहीं पीछे छूट गए, पर दूध-घी का शौक वैसे का वैसा बरक़रार रहा. इसलिए उन्होंने यहां शहर में भी दो-चार भैंसें पाल रखी थीं और उन्हें संभालने के लिए एक आदमी भी रख रखा था.
दूध उनके घर में आवश्यकता से अधिक होता था, तो दीप्ति की मम्मी रोज़ बड़े-बड़े बर्तनों में दही जमाती और उस दही को बिजली की मथानी से मथ कर मक्खन निकालती थी. मक्खन निकालने के बाद जो मट्ठा बचता था, वो किसी अमृत से कम नहीं होता था. अक्सर ही आंटी वो मक्खन और मट्ठा राधा मौसी के घर भिजवा देती थीं.
इसी आने-जाने और आदान-प्रदान के माहौल में राधा मौसी अपने बगीचे से लौकी और तुरई वगैरह तोड़ कर उनके घर ले आया करतीं थीं… जिस दिन की ये घटना है उस दिन आंटी और राधा मौसी… दोनों एक-दूसरे से बातें करने में व्यस्त थीं और दीप्ति और मैं उनके पास बैठे अपना गृहकार्य कर रहे थे…
आंटी राधा मौसी को बता रही थीं कि पिछली बार वो जो तुरई लाई थीं, वो बहुत बढ़िया थीं कि इतने में दीप्ति अपनी मम्मी के पास गई और उनसे आदान-प्रदान पर वाक्य बनाने के लिए पूछा.
इससे पहले कि आंटी कुछ कहतीं उससे पहले ही पास में खेलते आशु भैया बोल पड़े, "मम्मी और राधा मौसी के बीच मठ्ठे और सब्ज़ियों का आदान-प्रदान होता है."…
सुनते ही आंटी ने आशु भैया को घूरा. लेकिन अपनी धुन में मस्त भैया ने आंटी की तरफ़ कोई ध्यान नहीं दिया और अपने बनाए वाक्य पर ख़ुद ही मोहित होकर और जोड़ दिया, "हमारा मट्ठा ताज़ा होता है पर मौसी की सब्ज़ियां सड़ी-गली होती हैं."
ये सुनते ही आंटी सकपका गईं और राधा मौसी का मुंह छोटा सा हो गया, क्योंकि कई बार सब्ज़ियां वाकई में कुछ बासी होती थीं. लेकिन फिर भी ऐसे सामने-सामने कौन कहता है?
यह भी पढ़ें: अपने ग़ुस्से पर कितना काबू कर पाती हैं आप? (Anger Management: 10 Easy Tips To Control Your Anger)
आशु भैया की बात सुनकर राधा मौसी तो ग़ुस्से में तमतमा के उठीं और बिना आगा-पीछा देखे अपने घर को चल पड़ीं. आंटी भी अपनी बहन को मनाने के लिए उनके पीछे-पीछे भागी, लेकिन राधा मौसी तो मानो घोड़े पर सवार थीं… राधा मौसी तो रुकी नहीं और आंटी अपना मुंह लटका कर घर वापस आ गईं.
अब तक तो हम सब की घंटी बज चुकी थी कि आशु भैया के वाक्य प्रयोग के ज्ञान ने कोई बखेड़ा खड़ा कर दिया है. घर वापस आते ही आंटी ने आव देखा ना ताव समझावन लाल उठाया और आशु भैया की वो आरती उतारी कि भैया तो छोड़ो हम दोनों को भी समझ आ गया था कि बड़ों की बातों में कभी नहीं बोलना चाहिए.
आज ये प्रसंग लिखते समय वो घटना मानो मेरी आंखों के सामने जीवंत हो उठी है… आशु भैया डंडे की मार से बचने का प्रयास करते बरामदे में बिछे तख्तपोश के चारों तरफ़ चक्कर काट रहे थे और आंटी क्रोध से उफनती, दांत पीसती.
"आज तो इसको सबक सिखा के ही रहूंगी…" वाले मोड में उसके पीछे पीछे घूम रही थी.
दीप्ति और मैं… हम दोनों ही आतंकित से मूकदर्शक बने इस पकड़म-पकड़ाई को देख रहे थे. एकबारगी तो ऐसा लगा जैसे कि आशु भैया जीत जाएंगे, लेकिन तख्तपोश को छोड़कर बाहर वाले गेट की तरफ़ भागना उन्हें भारी पड़ गया और वो आंटी के हत्थे चढ़ गए. उनके कान उमेठ कर समझावन लाल के एक ज़बरदस्त प्रहार के साथ दो तरह की ध्वनियां हम दोनों लड़कियों को सुनाई दीं.
भैया के मुंह से "आई आई आईईईई…"और आंटी के मुंह से, "अब बोलेगा फालतू?.."
"हाय नहीं मम्मी!" के एक लंबे प्रलाप का असर यह हुआ कि आंटी की पकड़ भैया के कान पर ढीली पड़ गई और एक कुशल प्रतिद्वंदी की तरह भैया उछलकर गेट पर चढ़ गए. जब तक मम्मी पकड़ती तब तक वो लोहे के गेट के ऊपर थे और वही से चिल्लाए, "आप ही तो कह रही थीं कि मौसी सडी-गली सब्ज़ी पकड़ा जाती हैं… मैं कोई झूठ बोल रहा हूं? सच ही तो कह रहा हूं…"
भैया की बात सुनकर आंटी पल भर को ठिठक गईं.
'सच तो कह रहा है लड़का… अब क्या सच बोलने से मना करूं इसे..?'
तभी उनकी तर्क बुद्धि ने अपना काम किया.
"सच बोलने से नहीं.. कुछ भी.. कहीं भी.. बोलने से रोक रही हूं…" और उन्होंने समझावन लाल को घुमा कर एक सटीक निशाना आशु भैया की तरफ़ लगाया और क्रोध से उफनती हुई बोली, "सच बोलना ठीक है, पर अनावश्यक बोलना ठीक नहीं… आपसे कुछ भी बोलने को कहा किसने था सत्यवादी हरिश्चंद्रजी? पूछा था किसी ने कुछ? चुप नहीं रह सकते थे? बड़ों के बीच में बोलना ज़रूरी था क्या?"
यह भी पढ़ें: बच्चों को मारने-पीटने के होते हैं कई साइड इफेक्ट्स (There are many side effects of beating children)
शायद यह प्रकरण अभी कुछ और लंबा चलता, पर तभी दीप्ति और आशु भैया के पापा दफ़्तर से घर वापस आ गए और जैसे-तैसे करके इस पूरे प्रकरण का पटाक्षेप किया गया.
आंटी और राधा मौसी के संबंध तो कालांतर में मान मनौव्वल के बाद ठीक हो ही गए, क्योंकि ये एक ऐसा युग था जब दिल के रिश्ते इस तरह की ग़ुस्से-नाराज़गी से कहीं ऊपर होते थे.
इस पूरे घटनाक्रम ने मुझे और दीप्ति को एक बहुत आवश्यक सबक सिखा दिया था, जो हमें आजीवन याद रहा कि बिना आज्ञा के किसी के भी सामने अपना ज्ञान नहीं बघारना चाहिए. नहीं तो पासा उल्टा पड़ जाता है. और इसके साथ ही शायद उस दिन आंटी ने भी एक सबक अवश्य सीखा होगा कि बच्चों के सामने कभी भी कुछ अनाप-शनाप बड़बड़ाना भी नहीं चाहिए… क्या पता कब किस के अंदर का हरिश्चंद्र जाग उठे और वह बाहर वालों के सामने पोल खोल दे.
Photo Courtesy: Freepik
अधिक कहानियां/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां क्लिक करें – SHORT STORIES