"जो सिंह पुरुष होते हैं, वे अपनी पत्नी को इज़्ज़त और बराबरी का दर्ज़ा देने में कभी नहीं हिचकिचाते. किंतु जो कायर होते हैं, वे एकांत में तो स्त्री के तलवे चाटते हैं, लेकिन दूसरों के सामने उसे अपमानित कर अपने पौरुष का प्रदर्शन करते हैं. और शायद आप उसी श्रेणी के हैं."
कहानी का शीर्षक काग़ज़ पर लिखकर अनिल घंटों से कहानी लिखने का प्रयास कर रहा था. लेकिन अभी तक कहानी की शुरूआत भी न कर सका था, इसलिए वह मन ही मन झुंझला रहा था. अंदर से दीपा के बड़बड़ाने की आवाज़ सुनाई पड़ रही थी, "थोड़ी देर में शाम हो जाएगी और अभी तक घर में दीये नहीं आए. जनाब काग़ज़-कलम लिए बैठकर ध्यान लगा रहे हैं, सबेरे से."
अचानक दीपा धड़धड़ाते हुए अनिल के सामने आकर खड़ी हो गई और ग़ुस्से से बोली, "तुम्हें दीन-दुनिया की कुछ ख़बर रहती है? कब से चिल्ला रही हूं कि जाकर दीये लाओ, दीये लाओ और तुम हो कि सुनते ही नहीं, काग़ज़-कलम लिए बैठे हो."
अनिल को अपनी ओर प्यार भरी नज़रों से देखते हुए पाकर दीपा का ग़ुस्सा शांत हो गया और शर्म से उसका चेहरा सिंदूरी हो गया. कृत्रिम क्रोध प्रकट करती हुई बोली, "अब ऐसे क्या देख रहे हो? उठो और जाकर दीये लाओ."
"तुम बहुत सुंदर लग रही हो दीपा. ऐसा लग रहा है जैसे कोई अप्सरा आकर मेरे सामने खड़ी हो गई है." अनिल ने अपनी मदभरी नज़रों से दीपा को देखते हुए कहा और उसका हाथ अपने हाथ में लेकर अपनी आंखों को ढक लिया.
"अच्छा छोड़ो अब, इतनी देर से जनाब कहानी लिखने बैठे हैं. वह नहीं लिख सके तो अब कविता करने लगे है." दीपा ने कहा और अपना हाथ छुड़ाकर अनुनय करती हुई बोली, "देखो प्लीज़, अब देर न करो, जाओ ना."
"जाना तो मैं भी चाहता हूं मैडम, लेकिन आपको यूं अकेली छोड़कर जाने में डर लगता है." अनिल ने शरारत से कहा.
"जाओ… जाओ, अब मुझे कोई रावण आकर नहीं उठा ले जाएगा." दीपा ने कहा और अनिल का हाथ पकड़कर उठाने लगी. अनिल झोला उठाकर जाते हुए बोला, "अच्छा, तुम सब तैयार रखो, मैं अभी आया."
"मेरा सब तैयार है, बस तुम जल्दी आ जाओ." दीपा ने कहा.
दीपा की बात सुनकर अनिल दरवाज़े से पलट पड़ा और बिल्कुल पास आकर दीपा की आंखों में झांकते हुए शरारती अंदाज़ में बोला, "सब तैयार है तो मुझे बाहर क्यों भेज रही हो?"
"जाओ… हटो." दीपा ने कहा और उसे ठेलकर दरवाज़े के बाहर करके दरवाज़ा बंद कर लिया.
अनिल बाज़ार चला गया. अनिल की प्यार भरी शरारतों से दीपा का हृदय प्रसन्नता से खिल उठा. वह कोई गीत गुनगुनाती हुई ड्रॉइंगरूम में ही बैठ गई. उसे इस पल अनायास उस घटना की याद आ गई, जिसकी वजह से उसे अनिल जैसा जीवनसाथी मिला. जिसने उसकी ज़िंदगी में प्यार की ख़ुशबू बिखेर दी थी. धीर-धीरे वह अतीत की गहराइयों में उतर गई.
विवाह मंडप ख़ूब सजाया गया है. चारों तरफ़ ख़ूब चहल-पहल है. पापा और मम्मी अत्यंत व्यस्त नज़र आ रहे हैं और आएं भी क्यों न, आख़िर आज पापा की लाड़ली बिटिया 'दिप्पो' की शादी जो थी. मेरे पापा और मम्मी के तीन बेटियां ही थीं. कोई बेटा नहीं था, फिर भी उन्होंने बेटियों को कभी कोसा नहीं और न कभी अपने भाग्य का रोना ही रोया. मेरे पापा प्रगतिशील विचारों के व्यक्ति थे. उन्होंने हम तीनों बहनों को ख़ूब पढ़ाया-लिखाया, मेरी दो बहनें एमए थीं और उनकी शादी हो चुकी थी. मैं पापा की सबसे आख़िरी संतान थी, इसलिए सबसे अधिक लाड़ली थी. पापा का मेरे प्रति विशेष स्नेह था, जिसके कारण मुझे घर से पूरी आज़ादी थी.
एमएससी करने के दौरान ही अपनी ही कॉलोनी के एक लड़के से मेरा प्रेम हो गया. वह डॉक्टरी अध्ययन के अंतिम वर्ष में था. हमने शादी करने का फ़ैसला कर लिया. मैंने अपने पापा से यह बात कही, तो वे पहले तो विस्मित हुए. किंतु फिर अत्यंत संयमित स्वर में बोले, "बेटी, मैं तो सोचता था कि तुम और आगे पढ़ो, शोध करो या आईएएस में बैठो, क्योंकि तुम मेरे सभी बच्चों में पढ़ने में सबसे अधिक होशियार हो."
उस समय मेरी युवा वृद्धि को यह टालमटोल वाली बात लगी, अतः मैंने कुछ विद्रोही स्वर में कहा, "पापा, वो तो शादी के बाद भी हो सकता है और फिर अभी तो…"
"चुप कर, अब ज़्यादा बकर-बकर मत कर. शर्म नहीं आ रही इस तरह बात करते हुए." मम्मी का क्रोध से फुफकारता हुआ स्वर उभरा. वे अंदर से सब बातें सुन चुकी थीं. फिर पापा की ओर आग्रेय दृष्टि से देखती हुई वे बोलीं, "देख लिया सिर चढ़ाने का नतीज़ा?"
मैंने पापा की बात मान ली और पापा ने घर तथा समाज के अनेक विरोधों के बावजूद शादी के लिए सब तैयारियां प्रारंभ कर दीं. प्रदीप ने भी अपने घरवालों को शादी के लिए राज़ी कर लिया था.
उस दिन भी दिवाली थी. प्रदीप के घरवाले ऐन दीवाली के मौक़े पर गृहलक्ष्मी को अपने घर ले जाना चाहते थे. अमावस की वह काली रात बिजली के लडूओं और राडों से जगमगा रही थी. शहनाई का मधुर स्वर गूंज-गूंजकर मेरे अंदर एक अद्भुत मिठास घोल रहा था. तभी पंडित ने कहा, "कन्या को बुलाया जाए."
शादी के जोड़े में सिकुड़ी-सिमटी मुझे मंडप में ले जाया गया. मंत्रोच्चार का उच्च स्वर मेरे हृदय के तार-तार को झंकृत कर रहा था. फिर पंडित ने गंभीर स्वर में कहा, "अब सिंदूर दान का मुहूर्त हो गया है." तभी प्रदीप के पिताजी अचानक मंडप में खड़े हो गए और एकदम फिल्मी अंदाज़ में बोले, "वशिष्ठजी, पहले लड़के को दिए जानेवाले सब सामान यहां ला दीजिए."
उनके इस अप्रत्याशित सवाल पर पूरा मंडप स्तब्ध हो गया मेरे पापा का चेहरा भी हतप्रभ हो गया. किंतु अपने को संयत करते हुए वे बोले, "पांडेयजी, आपको अचानक क्या हो गया? जो चीजें लड़के के लिए आअई है, उन्हें तो मैं दूंगा ही, आख़िर अब प्रदीप मेरा भी बेटा है."
"नहीं नहीं, आप अपने शब्द जाल में मुझे नहीं फंसा सकते, पहले सब सामान लाइए."
प्रदीप के पिता ने निर्णायक स्वर में कहा.
मेरे पापा बहुत स्वाभिमानी है. उन्होंने कभी अन्याय और अनीति से समझौता नहीं किया. ब्राह्मण होने के बावजूद वे पोंगापंथी लोगों के बहुत ख़िलाफ़ रहते थे. किंतु मैंने देखा कि आज अपनी प्यारी बिटिया के सुख के कारण उन्होंने अपमान का यह घूंट पिया और सब सामान बाहर लाने का आदेश अपने आदमियों को दिया.
मंडप में स्कूटर, टीवी, घड़ी, बर्तन आदि सब सामान लाकर रख दिया गया. सभी सामान को एक-एक कर देखने के बाद प्रदीप के पिता ने कहा, "ह..ह. यही सामान है, चलो कोई बात नहीं. बेटे की नादानी का हर्ज़ाना तो भरना हो पड़ेगा, लेकिन नकदी किधर है?"
अब मेरे पापा का चेहरा अपमान और क्रोध से लाल हो गया. फिर भी वे अपने को संभालते रहे. उन्होंने कहा, "समधी साहब, आपके और हमारे बीच तो लेन-देन की बात ही नहीं थी. हम दोनों ने ही बच्चों की ख़ुशी के लिए इस रिश्ते को ख़ुशी-ख़ूशी मंजूरी दी थी. और फिर मैंने अपनी औकात से ज्यादा ही सामान…"
"हुह अगर यही औक़ात थी, तो एक डॉक्टर लड़के को फांसने के लिए अपनी लड़की को क्यों उकसाया." प्रदीप के पिता ने व्यंग्यपूर्वक कहा.
"चुप रहिए पांडेयजी, बकवास की भी हद होती है." मेरे पापा ने कहा. उनका चेहरा क्रोध से तमतमा गया था.
"अच्छा तो मैं बकवास कर रहा हूं. अपने दरवाज़े बुलाकर मेरी बेइज़्ज़ती कर रहे हो. ठीक है, प्रदीप बेटा उठो, अभी चलो. अब यह शादी नहीं होगी." कहकर प्रदीप के पिता उसे उठाने लगे.
मेरे भविष्य का ख़्याल करके मेरे पापा अब एकदम नरम पड़ गए और लगभग गिडगिडाते हुए बोले, "ऐसा मत कीजिए पांडेयजी, मेरी बेटी की ज़िंदगी का ख़्याल कीजिए. अपने बच्चे की ख़ुशी का ख़्याल कीजिए." फिर वे एकाएक प्रदीप की तरफ़ मुखातिब होते हुए बोले, "बेटा प्रदीप, तुम्हीं समझाओ न अपने पिताजी को."
लेकिन प्रदीप कुछ न बोला. पूरी घटना के दौरान वह एक मूकदर्शक बना रहा. मेरी हालत अत्यंत दयनीय हो गई थी. मुझे ग्लानि हो रही थी कि मेरे कारण मेरे पापा का अपमान हो रहा था. अब मुझसे चुप न रहा गया. मैंने लोक-लाज को एक किनारे करके प्रदीप को भरे मंडप में पकड़कर झिंझोडा, "क्यों, अब बोलते क्यों नहीं? हमें जलील कराने के लिए बरात लेकर आए थे."
लेकिन वह कुछ नहीं बोला और अपने को छुड़ाकर जाने के लिए मुड़ा ही था कि किसी की बुलंद आवाज़ मंडप में गूंजी, "एक कायर आदमी दूसरे की इज़्ज़त क्या समझेगा. आप लोग व्यर्थ उसके सामने गिड़गिड़ा रहे है." सबका ध्यान उसकी तरफ़ चला गया और मेरा भी. एक सांवला, सुगठित युवक सामने खड़ा था. क्रोध से उसका चेहरा लाल हो रहा था.
वह धीरे-धीरे आगे बढ़ा और मेरे पापा के पास आकर अत्यंत विनम्र स्वर में कहा, "आप परेशान न हो. आपकी बेटी के लिए प्रदीप से भी योग्य लड़के मिल जाएंगे." मेरे पापा ने उस युवक की ओर आश्चर्य से देखा और कहा "वो तो है बेटा, लेकिन इस समय तो मेरी बेइज़्ज़ती हो ही रही है."
"नहीं, आप ऐसा न सोचे यह आपकी बेइज़्ज़ती नहीं हो रही है, यह उस नौजवान की बेइज़्ज़ती हो रही है, जो डॉक्टरी की उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी गधे की तरह अपने पिता के घृणित आदेश के खूटे से बंधा है. वैसे यदि आप बुरा न माने, तो मैं एक बात कहूं?" उस युवक ने साफ़ और सधे स्वर में कहा.
"नहीं बेटा, बुरा क्यों मानूंगा, बोलो." पापा ने कहा.
"मैं एक सिविल इंजीनियर हूं. यदि आप और आपकी लड़की मुझे पसंद करे, तो मैं इस रिश्ते को अपना सौभाग्य मानूंगा." युवक ने कहा.
मेरे पापा का चेहरा प्रसन्नता से खिल उठा, लेकिन दूसरे ही पल उन्होंने मेरी ओर मायूस नज़रों से देखा. मैंने अपने को संभाला और पापा की ओर देखकर मुस्कुरा दी. बस फिर क्या था मेरी और उस युवक की शादी उसी मंडप में उसी समय हो गई.
वह युवक और कोई नहीं, बल्कि मेरा अनिल ही था. मंडप में मैंने सोचा था कि यह लडका बड़ा गंभीर स्वभाव का होगा. लेकिन शादी के बाद कई सालों में मैंने जाना कि अनिल का व्यक्तित्व निर्णय लेने के मामले में जहां एक तरफ़ चट्टान की तरह दृढ़ एवं गंभीर है, तो वहीं दूसरी तरफ़ प्यार के मामले में जनाब किसी शायर से कम नहीं. मुझे अपने भाग्य पर कभी-कभी विश्वास नहीं होता.
तभी दरवाज़े की घंटी बजने से दीपा का ध्यान भंग हुआ. उसने देखा साढ़े छह बज गए थे. वह अतीत के ख़्यालों में ही डुबी रही. सोचा अनिल दीये लेकर आ गया. अपनी झेंप मिटाने के लिए बड़े गर्मजोशी से, "आइए आइए जनाब, तशरीफ़ ले आइए…" कहते हुए उसने दरवाज़ा खोला, तो सामने जो व्यक्ति खड़ा था, उसे देखकर हतप्रभ हो गई. उसके मुख से मुश्किल से निकला, "आप!"
"अंदर आने को नहीं कहोगी." आगंतुक ने कहा, किंतु इतना कहने में भी उसका स्वर कांप गया.
अब तक दीपा अपने को संयत कर चुकी थी, बोली, "आइए." आगंतुक अंदर आकर कमरे में पड़े सोफे पर बैठ गया. उसी कमरे में एक कुर्सी पर दीपा भी बैठ गई. कमरे में पसर गए सन्नाटे को तोड़ते हुए आगंतुक ने कहा, "इंजीनियर साहब नहीं दिखाई दे रहे हैं."
"वे बाज़ार गए हैं." दीपा ने तटस्थ भाव से जवाब दिया. फिर बात वही समाप्त करने के उद्देश्य से बोली, "मैं आपके लिए चाय लाती हूं."
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"हूं केवल चाय पर ही टालने का इरादा है?" आगंतुक ने बेतकल्लुफ़ी से मुस्कुराते हुए कहा.
दीपा ने उसकी तरफ़ कोई ध्यान नहीं दिया और अंदर से कोल्ड ड्रिंक्स की एक बोतल लाकर उसके सामने टेबल पर रख दी.
आगंतुक ने बोतल को हाथ में लेकर घुमाते हुए कहा, "कैसी हो?"
"मैं ठीक हूं. आपने कैसे तकलीफ़ की?" दीपा ने कहा.
"इस शहर के सरकारी अस्पताल में मेरा ट्रांसफ़र हो गया है. ट्रांसफर ऑर्डर पर इस शहर का नाम पढ़ते ही तुम्हारी याद आ गई. बड़ी मुश्किल से तुम्हारा पता तुम्हारे पिता से दूसरे-तीसरे लोगों के माध्यम से ले पाया. फिर यहां आने से अपने को रोक न सका और सोचा चलो अपनी दीप्पो से मिल आए और मैं चला आया." आगंतुक ने कहा.
उसे सुनकर दीपा का मुख तमतमा गया. फिर रूखे स्वर में
बोली, "इतने बड़े डॉक्टर होकर अभी तक आपको बात करने की भी तमीज नहीं आई. आपकी दिप्पो आज से चार साल पहले ही मर गई. यहां कोई दिप्पो नहीं रहती. मैं श्री अनिल कुमार शर्मा की पत्नी दीपा शर्मा हूं."
आगंतुक का चेहरा एक पल को म्लान हो गया. फिर भी उसने व्यंग्यपूर्वक मुस्कुराते हुए कहा, "वो तो बंगले पर लगी नेमप्लेट देखकर ही जान गया था. जहा मिस्टर और मिसेज़ शर्मा के नाम साथ-साथ लगे है. पति-पत्नी को समानता का यह भी एक अजीब नमूना देखने को मिला आज."
"जो सिंह पुरुष होते हैं, वे अपनी पत्नी को इज़्ज़त और बराबरी का दर्ज़ा देने में कभी नहीं हिचकिचाते. किंतु जो कायर होते हैं, वे एकांत में तो स्त्री के तलवे चाटते हैं, लेकिन दूसरों के सामने उसे अपमानित कर अपने पौरुष का प्रदर्शन करते हैं. और शायद आप उसी श्रेणी के हैं." दीपा ने कहा और उठ खड़ी हुई.
आगंतुक भी उठ खड़ा हुआ और उत्तेजित स्वर में बोला, "अपने घर में मुझे गालियां दे रही हो."
"मेरे घर में आकर मुझे फिर अपमानित करना चाहते हो मि. प्रदीप कुमार पांडेय, लेकिन यहां आपकी दाल नहीं गलेगी. अब सीधे यहां से रास्ता नापिए और फिर कभी अपनी दिप्पो से मिलने का ख़्याल भी मन में मत लाना समझे." दीपा ने क्रोध में एक-एक शब्द चबाते हुए कहा. प्रदीप तेजी से बाहर चला गया. दरवाज़ा बंद करने के लिए बाहर के कमरे में आते ही दीपा चौंक उठी वहां अनिल न जाने कब से खड़ा था.
अनिल को देखते ही दीपा का तमतमाया हुआ चेहरा रुआंसा हो गया और वह अनिल के सीने में मुंह छुपाकर फफक कर रो पड़ी.
"रोते नहीं दीपा, तुम तो एक बहादुर नारी हो. मुझे तुम पर गर्व है. चलो देखो गोधूलि की बेला हो गई है, दीये नहीं जलाओगी." अनिल ने कहा.
दीपा ने आंचल में आंसू पोंछते हुए अनिल से सभी दीये लिए और उन्हें जलाकर रखने लगी. उसने अनिल की ओर प्यार भरी नज़रों से में देखा और अनिल ने उसके अश्रुमिश्रित चेहरे पर एक गहरा चुंबन जड़ दिया. उसी समय पूरा घर गोधूलि के दीप से जगमगा उठा है.
- शिवकुमार कश्यप
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