"रेस तो मैं जीत गया था सर, पर लक्ष्य तक पहुंचने के पूर्व आपने टंगड़ी मार मुझे गिरा दिया. विजेता वह होता है, जो ईमानदारी से रेस जीते, कूटनीति से नहीं." पता नहीं किस अज्ञात शक्ति के वशीभूत हो तिलक इतना कह गए.
मिश्राजी का स्वर तल्ख हो उठा, "रेस जीतने के लिए कुछ भी करना नीति विरुद्ध नहीं है. बड़े-बड़े युद्ध कूटनीति से ही जीते गए है. प्रमाण पत्र में ये नहीं लिखा रहता रेस बल से जीती गई है या छल से. उसमें तो बस विजेता का नाम लिखा होता है."
अदिति को अस्पताल के नाम से कितना डर लगता था. आज वही अदिति जीवन-मृत्यु के मध्य त्रिशंकु सी झूलती ऑपरेशन थिएटर की विशाल मेज पर निष्प्राण सी पड़ी हुई है. एकाएक ही असहनीय उदर शूल उठा, इन तीन दिनों में एक्स-रे, अल्ट्रा साउण्ड, ब्लड टेस्ट जाने क्या-क्या हो चुका है. इन्टसटाइनल ट्यूबरोक्युनोसिस. आंतों में आब्सट्रिकल हो गया है. मेजर ऑपरेशन होना है. ऑपरेशन का नाम सुनकर अदिति का पति मंगल मूर्च्छित हो रहा था. जैसे-तैसे सूचना दे अदिति के माता-पिता को बुला सका है. ऑपरेशन की तैयारी पूरी हो चुकी है. सबसे बड़े सर्जन डॉ. तिलक की प्रतीक्षा की जा रही है, वे राउण्ड पर हैं. मंगल की अधीर दृष्टि कभी कॉरीडोर के अंतिम छोर तक जाकर सर्जन को ढूंढ़ती है, कभी ऊपर आकाश की ओर उठती. अंतिम अपील ईश्वर के दरबार में होती है. सर्जन कह चुके हैं, "केस कॉम्प्लीकेटेड हो चुका है. दस परसेन्ट होप है, बस."
पर लोग जानते हैं इस दस प्रतिशत में सर्जन साहब बहुत कुछ चमत्कार कर देते हैं. सहसा कॉरीडोर में एक स्फूर्ति की लहर सी उमड़ी, "सर्जन साहब आ गए." सर्जन जिसके पीछे जूनियर डॉक्टरों का छह सदस्यीय दल है, बड़े वेग से ओ.टी. की ओर बढ़े आ रहे हैं. सुदीर्घ कद, भरी हुई सुदर्शन देह, आंखों में सुनहरे फ्रेम का चश्मा, फ्रेंच कट दाढ़ी, कनपटी के ऊपर श्वेत केशों का छोटा सा गुच्छा, आत्मविश्वास से भरे कन्धे, उनकी ठसक, प्रभुत्व से अभीभूत हुए अदिति के पिता ने सर्जन के पैर पकड़ लिए, "डॉक्टर साहब, मेरी बेटी का जीवन आपके हाथ में है. आप ही उसके भाग्य विधाता हैं… उसके छोटे-छोटे बच्चे हैं… बड़ी कच्ची गृहस्थी है सर…"
पैरों पर हुए इस आकस्मिक आक्रमण से सर्जन का वेग थमा. उन्हें करुण मुख परिचित सा लगा.
"आप… आप… यदि मैं भूल नहीं रहा, तो आप बी.एल. मिश्रा…"
"जी हां… जी हां, आप मुझे कैसे जानते हैं सर?"
सर्जन के समक्ष शासकीय बंगले में लगी भव्य नाम पट्टिका घूम गई, उप पुलिस अधीक्षक बी.एल. मिश्रा. और स्मरण हो आया मिश्राजी का वाक्य, "रेस मैंने जीती है. छल-बल से ही सही. प्रमाणपत्र में ये नहीं लिखा रहता रेस किस तरह जीती गई. उसमें तो इस विजेता का नाम लिखा होता है."
सर्जन के स्निग्ध-स्मित मुख में विद्रूप चमक कौंधी- अदिति की पुत्री है? तो क्या आज रेस वे जीत सकते हैं? बिना किसी विशेष प्रयास और श्रम के? अपने सहायक चिकित्सकों को ओ.टी. पहुंचने का निर्देश दें सर्जन, मिश्राजी से संबोधित हुए, "पंद्रह वर्ष पहले एक अनजान सा चिकित्सक तिलक आपके द्वार पर अपनी बहन जिला की ख़ुशियों की भीख मांगने आया था और आपने दुत्कार दिया था. मैं वही तिलक हूं."
"आप… आप… डॉ. तिलक… ओह…" मिश्राजी के जुड़े हाथ तो नीचे लटक गए जैसे तीक्ष्ण कृपाण से काट डाले गए हों. उस संघर्षरत चिकित्सक का ऐसा विराट, विलक्षण प्रभामण्डल? आपाद मस्तक परिवर्तनीय रूप, लगा सारा ब्रह्माण्ड सिकुड़ कर अस्पताल के संगमरमरी श्वेत कॉरीडोर में समाहित हो गया है. ओह… मंगल, अदिति को कैसे अविश्वसनीय हाथों में सौंप दिया है. ये कैसा कुचक्र है? अब तो दस प्रतिशत क्या एक प्रतिशत भी अदिति के बचने की आशा नहीं. भीगे स्वर में कहने लगे, "सर, मैं अत्यन्त लज्जित हूं, न जाने क्यों मैं ऐसा आत्म केन्द्रित, स्वार्थी, अवसरवादी हो गया था. आपसे क्षमा भी मांगू तो किस तरह…"
उधर परिचय जान, मंगल पक्षाघाती मुद्रा में खड़ा रहा. वह इस भव्य व्यक्तित्त्व में क्लीन शेव्ड, श्यामवर्णी उस दुबले-पतले दयनीय चिकित्सक की छवि ढूंढ़ता तो कैसे? और फिर पहचानने का चेत कहां था? मछली सी तड़पती पत्नी को सम्भालता कि इन्हें पहचानता? सर्जन में हुए परिवर्तन और पन्द्रह वर्षों की मोटी गर्द में सब कुछ धुंधला हो चुका है. गिड़गिड़ाया, "सर, बहुत नाम सुना है आपका, आपका नाम तो संजीवनी है."
सर्जन की दृष्टि मंगल के करुण हो आए मुख पर पड़ी. उनका जी चाहा इस लटके चेहरे को लक्ष्य कर फेफड़ा फाड़ हंसे. इन पंद्रह वर्षों मैं इसकी देह में जिस तेजी से मेद चढ़ा है, उसे देख सहज ही पहचानना सरल नहीं था. और फिर रोगिणी की दशा कुछ ऐसी सोचनीय थी कि वे मंगल की ओर ठीक से ध्यान नहीं दे पाए थे अन्यथा केस हाथ में लेते ही नहीं. मिश्राजी को विजेता इसी के पिता ने से पोषित किया था. और ये मंगल… निर्णायक मण्डल का एक नपुंसक सदस्य, अपने भीतर उठ खड़े हुए अंधड़ को बल पूर्वक रोकते हुए बोले, "आपसे किसने कहा मेरा नाम संजीवनी है? मैं मात्र कर्म करता हूं और फल का दायित्व ईश्वर पर छोड़ देता हूं."
"सर, आपको मेरी बच्ची को बचाना ही होगा… अदिति मेरी इकलौती बेटी है… आपकी बहन जैसी है…" दुनियाभर की दीनता उस क्षण मिश्राजी के मुख पर केन्द्रित थी.
तुहिना प्रसंग के बाद सर्जन को वहां एक क्षण भी ठहरना असह्य हो गया. अगले ही क्षण वे ओ.टी. में प्रविष्ट हो गए. जो सर्जन ओ.टी. में प्रविष्ट होते ही विद्युत की त्वरा से अपना काम आरंभ कर देते हैं, उनके हाथ शिथिल पड़ रहे हैं. ऐसी थकान लग रही है जैसे मीलों पैदल चल कर आ रहे हों. कैसे गिड़गिड़ा रहे हैं आज ये महाजन लोग, न जाने कहां विलुप्त हो गया वह वर्ष, रेस जीतने का अभिमान, उनके भीतर एक नृशंस भाव फन उठाने लगा.
अदिति इस विशाल मेज पर निपट अकेली, निःशस्त्र, मूर्च्छित पड़ी है. इसकी इहलीला समाप्त करने में एक क्षण लगेगा और मात्र "सॉरी' कह देने से अपराधमुक्त हो जाएंगे. इन लोगों को भी तो पता चले अपने प्रिय के वियोग में कैसी छटपटाहट होती है.
अदिति के उदर में उपयुक्त स्थान पर चीरा लगाते हुए सर्जन के हाथ कांप रहे हैं. हाथ ऐसे सधे हैं जैसे कोई सुदक्ष बावर्ची सलाद की कलात्मक सज्जा के लिए सब्ज़ियां तराश रहा हो. पर मस्तिष्क की शिराएं चटक जाने के लिए उद्धत हैं, तो हाथ स्थिर कैसे रहेंगे. सहायक चिकित्सक ने पूछा, "सर, आप कुछ टेंस लगते हैं."
"हां… नहीं… नहीं… तो…"
सर्जन ने स्वयं पर सम्भव नियंत्रण किया, पर हाई पावर के विद्युत बल्बों के चुंधियाते उजास में उनके भीतर का हाहाकार स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है.
स्वर्णिम दिवस था वह. सोमवार की तृतीया, तुहिना पसंद कर ली गई थी. तृप्ति से भीग गए थे डॉक्टर तिलक. कहां सोचा था मातृ-पितृ विहीना बहन के लिए इतना कुछ कर पाएंगे. तीर्थ करने गए माता-पिता ने नाव दुर्घटना में जल समाधि ली तब तुहिना कॉलेज के प्रथम वर्ष में थी.
समस्त संचित परिकल्पनाएं, योजनाएं प्रारूप सब कुछ
किसी दैत्याकर शून्य में समा गया था. भाग्यवश नौकरी
समय पर मिल गई और सीधी-सरल-संतोषी पत्नी नीना ने गृहस्थी की डूबती नैया को साध लिया.
तिलक नीना से कहा, "अब बहुत कुछ सेटल हो गया है, बस तुहिना किसी अच्छे घर चली जाती."
तुहिना तुनक जाती "अच्छा घर ? भैया इस घर से भी अच्छा कोई घर होगा क्या? यहां तुम हो, भाभी हैं. मुझे तो लगता है स्वर्ग यदि है तो बस इस छोटे से घर में है." तिलक हंसते हुए बहन के कपोल थपथपा देते - "वही कूप मण्डूक वाली बात. कुएं से बाहर निकलोगी तब देखोगी यह दुनिया कितनी सुंदर है. मैं तो तुम्हें कोई सुख न दे पाया. ईश्वर करे तुम सदा सुखी रहो."
और जब मंगल से विवाह तय हो गया, तो तिलक बहन के सुखी जीवन के प्रति आश्वस्त हो गए. मंगल इकलौता, खेती-बाड़ी है, फ़िलहाल स्कूल में लेक्चरर, पी. एस. सी. की परीक्षा में बैठा है, सफल होने की पूरी आशा है. डिप्टी कलेक्टर, डिप्टी एस. पी. या संसाधनों ने तुहिना को मंगल से भावनात्मक रूप से जोड़ दिया. फिर… तिलक, शेख चिल्ली से ही तुहिना के सुदूर उज्ज्वल भविष्य की रूप रेखा देख आये- बंगला, गाड़ी, अर्दली, पद-प्रतिष्ठा.
जिस दिन मंगल के माता-पिता तुहिना को देखने आने वाले थे. डॉ. तिलक हाट जा भिण्डी, करेला, कटहल जो भी उपलब्ध थीं ले आए थे, "नीना, खाना ऐसा बनाना कि क्या तुहिना को देखकर उंगलियां चबा जाएं."
"अरे… रे… फिर तुहिना कटी उंगलीवाले से ब्याही जाएगी क्या?" नीना हंसी.
"ओहो…. भई खाना ऐसा बने कि बेचारों की उंगलियां बची रहें."
अतिथि प्रायः तुष्ट दिख रहे थे. तिलक ने बिदाई में मंगल के माता-पिता को कपडे और रुपए दिए. मांगा गया दहेज उनकी हैसियत से अधिक भी कुछ पर्व परिचितों द्वारा ऋण देने के आश्वासन पर वे दहेज देने को तैयार हो गए. बहन का विवाह बार-बार नहीं होगा, कोई कमी नहीं होने देंगे. ऋण धीरे-धीरे चुकाते रहेंगे.
अच्छा मुहूर्त देखकर तिलक बरक्षा (विवाह पक्का) कर दिया गया. अगले माह मंगल और उसके माता-पिता सगाई के लिए आए. पूरे घर की विशेष सफ़ाई की गई. विशेष भोजन बनाया गया. नीना ने बड़े मनोयोग से तुहिना का श्रृंगार किया. तुहिना का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था. उस क्षण वह जीवन के टर्निंग प्वाइंट पर खड़ी थी. एक सर्वथा अपरिचित पुरुष उसे अंगूठी पहनाएगा. वह सदा के लिए उसकी हो जाएगी. मंगल ने उसकी अनामिका में अंगूठी पहनाई, तो उंगलियां लरज गईं. पडोसिन चाची ने विनोद किया, "इस उंगली की नस दिल तक जाती है, इसीलिए मंगनी की अंगूठी इसी उंगली में पहनाई जाती है. ले तुहिना, आज से तेरा दिल, मंगल का बंदी हुआ."
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कक्ष में खिलखिलाहट गूंज उठी थी. सजीली-लजीली बहन को देख तिलक को पहली बार लगा था फ्रॉक पहनने वाली गुड़िया कितनी बड़ी हो गई है. इतनी कि अब उसका क़द इस घर में नहीं समा सकता. इतनी कि अब वे उसे अपनी इच्छा से अपने घर नही बुला सकेंगे. अब उसका एक अलग संसार होगा. तिलक के नेत्र नम हो आए.
सुख-दुख के कैसे सम्मिश्रित अविस्मरणीय क्षण थे. स्वर्ण मुद्रिका, साड़ी, श्रीफल, बताशे जैसे कोई राजकोष दे गया हो. तिलक ने बिदाई में अतिथियों को कपड़े और रुपए दिए. विवाह ठण्ड में होना तय हुआ. १५ फरवरी को तिलक, १७ फरवरी को सप्त पदी. घर में एक ही चर्चा-तुहिना का विवाह. जो भी परिचित-मित्र आता उसे सबसे पहले यह शुभ समाचार सुनाया जाता, तत्पश्चात मंगल और उसके देव तुल्य अभिभावकों का स्तुति गान. नातेदारों को यथा सम्भव पत्र द्वारा सूचित कर दिया गया. तिलक नित्य ही बाज़ार में कोई आइटम देख आते. नीना के साथ बैठ कर बजट बनाते, ये आइटम दहेज़ में दिया जा सकता है या नहीं?
माता-पिता की असामयिक मृत्यु से कराहते घर में एक लंबे समय के बाद ख़ुशियों की कोपलें फूटी थीं. उत्सव सा वातावरण कैसे न बनता. उत्सव के आनन्द में डूबे तिलक को तनिक भी भान न था ये उत्सव मात्र एक रात का है. शलभ की भांति वे भी एक रात उत्सव मना भस्म हो जाएंगे.
वह विनम्र पत्र अपने भीतर कैसा विस्फोट, विनाश, विध्वंस समेटे है, ये सम्भवतः लिखनेवाले को ज्ञात न था. हम अपरिहार्य सहकार्य ले कारणवश तुहिना से मंगल का विवाह नहीं कर पाएंगे. तुहिना में कोई दोष नहीं. ऐसा लगता है विधि ने यहां संयोग नहीं बनाया. आशा है आप हमारी विवशता समझेंगे.
मंगल के पिता का पत्र आया है यह सुनकर तुहिना दबे पांव आ द्वार की ओट में खड़ी हो गई. काम छोड़ दौड़ी आई नीना. पति के हाथों में पर कटे विहग से फड़फड़ाते पत्र को देख किसी अनिष्ट की आशंका से पीली पड़ गई, "सब कुशल क्षेम तो है न?"
"वे लोग विवाह रद्द कर रहे हैं."
"ऐसे कैसे? गुड्डे-गुड़िया का विवाह है, जो बच्चों में झगड़ा हो जाने पर रोक दिया जाता है?" नीना मुंह फाड़े बोली.
तिलक को अपना ही स्वर अनजाना लग रहा था.
"तैयारी चल रही है. विवाह की बात चर्चित हो चुकी है. तुम इस पत्र के भरोसे मत बैठो. कोई तीसरा व्यवधान डालने का प्रयास कर रहा है. कल सुबह की बस से चले जाओ. सब पता करके आओ." नौना, पति को झकझोरने लगी.
सन्न रह गई तुहिना, भीतर छनाक से कुछ टूट गया. किस उत्साह से भैया तैयारी कर रहे हैं. वे अपनी, भाभी और दोनों बच्चों की इच्छाएं किस तरह दबाते रहे हैं क्या वह जानती नहीं, उसे लगा किसी बावडी में छलांग लगा दे. उसी के कारण भैया को अपमानित होना पड़ा है. अम्मा-बाबूजी के अवसान से भयावह- सायं-सांय करते घर में उसे नींद नहीं आती थी. तब यही भैया पुस्तक बंद कर उसे थपकी देने पहुंच जाते थे. कुरते के छोर से उसके आंसू पोंछ देते थे. वही धीर-गंभीर भैया कैसे बच्चों से उत्साहित रहने लगे हैं. आज सब कुछ टूट बिखर गया.
तिलक ने तड़के उठ पहली बस पकड़ ली थी. कैसे महाजन लग रहे थे मंगल के पिता.
"आइए डॉक्टर साहब, कैसे आना हुआ?"
"आपका पत्र पाते ही…"
"अच्छा-अच्छा… आपको शायद ज्ञात हुआ हो, पी.एस.सी. रिजल्ट आ गया है. मंगल का चयन डिप्टी कलेक्टर पद के लिए हो गया है.
"डिप्टी कलेक्टर?" उन मारक क्षणों में भी तिलक एक क्षण को उच्छास से भर गए.
"वह डिप्टी कलेक्टर क्या हो गया, हमारी तो मुसीबत हो गई. उसके विवाह की चर्चा नए सिरे से आरंभ हो गई है. लोग दरबार लगाए रहते हैं."
"पर विवाह तो मेरी बहन से होना निश्चित हुआ है." तिलक ने स्मरण कराया.
"हां, मैंने बताया लोगों को. कहते हैं तय हुआ है, हो तो नहीं गया. आप ऐसे हीरा लड़के का सही मोल नहीं लगा रहे हैं, हद है."
"ज… ज… जी…"
"अब लोगों को क्या कहूं? एक डिप्टी एस. पी. है, बी.एल. मिश्रा उन्हीं की पुत्री से विवाह तय हो गया है. वे कार, दो लाख कैश, बीस तोला सोना और बहुत सा सामान दे रहे हैं. वो क्या है कि मंगल पहले अध्यापक था, कैसे भी रह लेता, पर अब वह बड़ा अधिकारी बन गया है. उसका एक स्टेटस होगा, सोसाइटी होगी, प्रेस्टीज होगी. विवाह तो उसके पद के अनुरूप ही होना चाहिए न, अन्यथा लोग कहेंगे अधिकारी लड़के का विवाह कैसा घटिया किया है." मंगल के पिता सुदक्ष बजाज वाली भाषा बोलते रहे. कोई काम न आया. तिलक का हृदय चीत्कार कर उठा, हे सर्वशक्तिमान ईश्वर, यदि मंगल विवाह के बाद अधिकारी बनता तो तुम्हारी महिमा में कौन सी कमी आ जाती? किस निर्ममता से ये वचन भंग किए दे रहे हैं. कपाल पर एक शिकन तक नहीं दिखाई देती. और वो... सम्पन्न-समर्थ- सक्षम डिप्टी एस. पी… कैसे व्यवसायी हो जाते हैं ये बेटी वाले. एक लड़कीवाला दूसरे लड़कीवाले की पीड़ा, विवशता, हाहाकार नहीं समझता. किसी लड़कीवाले ने ही तो अपने हितों की रक्षा के लिए यह कुचक्र रचा है. तिलक को लग रहा था जैसे किसी बलशाली ने तुहिना के मुंह से कौर छीन अपने हठी बच्चे के मुंह में डाल दिया हो.
वे आत्म विस्मृत से कब डिप्टी एस. पी. के द्वार से जा लगे उन्हें नहीं पता. मिश्राजी, अपनी भव्य कलफ़दार वर्दी में सुसज्जित ड्यूटी पर जाने के लिए निकल रहे थे. तिलक के भीतर की अव्यवस्था अस्थिरता, असंतुलन उन्हें बिल्कुल ही दीन-हीन बनाए डाल रही थी. मिश्राजी के रोब-दाब से ध्वस्त हुए वे एक चिकित्सक का स्वाभिमान तक भूल चुके थे. वे एक बहन के नितान्त क़रीब भाई दिखाई दे रहे थे, जो बहन के विवाह के लिए किसी भी सीमा तक झुक सकते थे.
"कहिए, क्या काम है?" मिश्राजी का कलफ़दार स्वर गूंजा. तिलक ने नीलकण्ठ शिव की भांति, देह की समस्त ऊर्जा कण्ठ में संग्रहीत की. अपना परिचय देते हुए बोले, "सर, आप तो बेटी वाले हैं. आप मेरी समस्या नहीं समझेंगे, तो कौन समझेगा? विवाह की तिथि तय हो चुकी है. मंगल से तुहिना की भावनाएं जुड़ चुकी हैं… इस विवाह की चर्चा फैल चुकी है सर… बड़ी बदनामी…"
"आप परेशान लग रहे हैं डॉक्टर साहब. आइए बैठिए, ठण्डा पानी पीजिए…" तिलक, मिश्राजी के मन की थाह लेते हुए दालान में पड़ी केन की कुर्सी पर बैठ गए. अर्दली पानी ले आया. तिलक को लगा इस समय उन्हें सचमुच बड़ी प्यास लगी थी.
यह शीतल जल उन्हें मोर्चे पर डटे रहने हेतु आवश्यक ऊर्जा देगा. मिश्राजी सधे शब्दों में कहने लगे, "हूं… तो आप ही हैं जिनकी चर्चा मंगल के पिताजी कर रहे थे. देखिए डॉक्टर साहब, कौन नहीं चाहता कि उसकी बेटी का हित हो. इतने सस्ते में अधिकारी लड़के मिलते कहां हैं? और फिर आप क्या समझते हैं मैं अपनी बेटी का विवाह मंगल से न करूं, तो उसका विवाह आपकी बहन से हो जाएगा? अरे और कोई आसामी आ जाएगा मैदान में. मैंने समाज सेवा का व्रत नहीं लिया है. अपने बच्चों को एक सार्थक भविष्य देना मेरा कर्तव्य है. डॉक्टर साहब…
ये तो एक रेस है, जिसे जीतने का प्रयास प्रत्येक व्यक्ति करता है. मैं आपके लिए त्याग करूं, दया दिखाऊं, तो मैं रेस हार जाऊंगा. जीतेंगे आप भी नहीं, कोई तीसरा जीत जाएगा."
"रेस तो मैं जीत गया था सर, पर लक्ष्य तक पहुंचने के पूर्व आपने टंगड़ी मार मुझे गिरा दिया. विजेता वह होता है, जो ईमानदारी से रेस जीते, कूटनीति से नहीं." पता नहीं किस अज्ञात शक्ति के वशीभूत हो तिलक इतना कह गए.
मिश्राजी का स्वर तल्ख हो उठा, "रेस जीतने के लिए कुछ भी करना नीति विरुद्ध नहीं है. बड़े-बड़े युद्ध कूटनीति से ही जीते गए है. प्रमाण पत्र में ये नहीं लिखा रहता रेस बल से जीती गई है या छल से. उसमें तो बस विजेता का नाम लिखा होता है."
इस बीच चाय के दो औपचारिक प्याले आ गए. तिलक का जी चाहा इस वाष्प छोड़ती चाय को मिश्राजी के मुंह पर उड़ेल दे, पर निष्क्रिय-निस्पंद निश्चेष्ट बैठे रहे. किसी तरह चाय गुटकी और विदा लेते इसके के पूर्व ही मिश्राजी उठ खड़े हुए, "कुछ देर और बैठते, पर ड्यूटी पर जाना है."
"जी… मैं अब चलूंगा."
तिलक घर पहुंचे तो किसी असाध्य आक्रांत नीना द्वार पर रोक कर पूछने लगी, "कहां रह गए थे."
"मैं रेस हार गया नीना… रेस हार गया." यत्न से थामा गया अपमान, वेदना, छटपटाहट, व्यग्रता पत्नी का स्नेहिल स्पर्श पा फूट पड़ा. जीवन में पहली बार इस तरह तिलक रोए थे. माता-पिता की मृत्यु पर शून्य थे, रोने की सुध नहीं थी. बहन को सम्भालने और घर के प्रबंध में रोने का अवकाश नहीं मिला था. वही साहसी परिस्थितियों से सामंजस्य बैठाता व्यक्ति बच्चों सा बिलख पड़ा था.
पहले आघात में दुख था, पीड़ा थी, करुणा सहानुभूति थी. इस आघात में अपमान था, लज्जा थी, विक्षोभ था, लोगों के संशय थे. विवाह टूट गया? तिथि तय होने के बाद भी? कहीं लड़की में कोई दोष तो नहीं? इस तरह रद्द होता है भला?
रोज़ ही अड़ोसी-पड़ोसी गुप्तचरी करने पहुंच जाते. गुप्तचरी ने भीतर तक मथ डाला तिलक को. घर एकाएक श्मशान भूमि सा लगने लगा था, जहां या तो रीढ़ कंपान सन्नाटा होता है या शव पर किया जानेवाला करुण क्रंदन. तुहिना, नीना, तिलक तीनों एक-दूसरे को ख़ूब समझाते थे. बस नहीं समझा पा रहे थे कि उनकी सर्वगुण सम्पन्न बहन मात्र इसलिए अस्वीकार कर दी गई कि मंगल के परिवार को देने वाला मिल गया है.
फिर एक दिन मंगल के घर से सारा सामान वस्त्र, रुपए वापस आ गया संक्षिप्त पत्र के साथ-
"अब हमें इन वस्तुओं को रखने का अधिकार नहीं है,
आप अन्यथा नहीं लेंगे."
प्रत्याघात भी भीतर खदबदाती कड़वाहट आगन्तुक फूट पड़ना चाहती थी, पर तिलक स्वयं को बांधे रहे. कोई व्यक्त करने की इच्छा शेष न थी. भीतर जा नीना को कहा, "तुहिना से अंगूठी और साड़ी मांग लाओ. उन्होंने हमारा लौटा दिया, तो हम भी उनका सामान नहीं रखेंगे."
यह सुनकर नीना का मुख ऐसा दयनीय हो आया जैसे अभी-अभी सब कुछ लूट कर ले गया हो. लुटी-पिटी नीना तुहिना के सामने जा खड़ी हुई, तुहिना ने सहेज कर रखी ये चीज़ें नीना को थमा दिया. यह अंतिम स्पर्श उसे भीतर तक भेद गया. ये आभूषण नहीं, उसके कोमल-सुकुमार सद्यः प्रस्फुटित भावनाओं का अक्षय बट थीं. एकांत में कई बार पहनी है यह अंगूठी, पहनते ही देह में विद्युत प्रवाहित होने लगती थी. मंगल का स्पर्श आज भी नवनीत ताज़ा, कोमल और स्निग्ध है. आज भी जैसे उसकी कोमल कलाई एक सुदृढ़ हथेली में आबद्ध है. प्रथम पुरुष स्पर्श, अंगूठी पहनते समय जाना था. पुरुष स्पर्श कैसा मादक-मोहक तेजक होता है. आज भी हृदय के प्रकोष्ठों में पड़ोसिन चाची की अनुगूढ़ भरी है, "अंगूठी, अनामिका में इसलिए पहनाई जाती है, क्योंकि इस उंगली की नस दिल तक जाती है." तो क्या अंगूठी देने से उसका हृदय बंधन मुक्त हो गया? भावनाओं का जोड़-तोड़ क्या बार-बार होता है? हृदय महाजन नहीं है, जो हानि-लाभ के अनुसार कार्य करे. आह… पता नहीं मंगल को फिर कभी उसकी याद आई कि नहीं, पर वह तो उस निर्मोही को अपना मान बैठी है. उस प्योर सिल्क की वासंती साड़ी को देह से लगाए कितनी बार तो अपने स्वप्न महल में निर्बाध विचरण कर आई. आज वही दुर्लभ वस्तुएं उससे छीन ली गई. उसे धीरज होता कैसे?
आगन्तुक सामग्री ले लौट गया. वापस आया सामान यथावत बन्द पड़ा रहा जैसे पैकेट खोलते भय लगता. कभी रिश्तेदारों के पत्र आ जाते तुहिना के विवाह की तैयारी कैसी चल रही, तो तड़प जाते तिलक. अति उत्साह में उन्होंने ही तो स्पेशल बुलेटिन सा प्रचारित-प्रसारित कर डाला था. बरक्षा हो गई, ओली हो गई इसके बाद न बताने का कोई कारण भी तो नहीं रह जाता. जानते थे जब तक सप्तपदी न हो जाए विवाह पक्का नहीं माना जाता. और फिर सप्तपदी भी सफल विवाह की प्रतिभूति कहां है? कितनी ही हतभागिनें हैं, जो विवाह के बाद त्याग दी जाती हैं. ऐसी है लड़कियों की नियति, जिनका प्रत्येक क्षण संदेह, संशय, अविश्वास से भरा होता है.
घर में अव्यक्त-अनपेक्षित चुप्पी पसर गई. इस घर में वैभव न था, पर किलोल-कलरव, अठखेलियों का अभाव न था. न जाने किसका श्राप लग गया. श्राप की एक किश्त बाकी थी. डाक द्वारा मंगल का वैवाहिक कार्ड प्राप्त मंगल वेड्स अदिति, वह ख़ूबसूरत कार्ड मुंह चिढ़ाता प्रतीत होता था. कार्ड देख तुहिना फेफड़ा फाड़ हंसी थी. हंसती ही चली गई. उसकी विकृत हंसी में खण्डित भविष्य की तस्वीर स्पष्ट दिखाई दी.
तुहिना की विकृत हंसी के अनुपात में तिलक का "वर खोजो अभियान" गति पकड़ता गया. उधर बहन कभी अट्टहास करती, तो कभी एक लय से रोती. इधर तिलक लड़केवालों का द्वार खटखटाते रहते. उन्हें अपने अभियान में सफलता नहीं मिली. तुहिना अवश्य मानसिक रोगी घोषित कर दी गई.
इस उद्घोष ने उनकी रीढ़ तोड़ दी. बहन ग्वालियर मेंटल
हॉस्पिटल भेज दी गई और उन्हें जैसे विराग हो गया. अपने काम में डूबते गए आकण्ठ. उसी तपश्चर्या का फल था कि उन जैसा सुदक्ष सर्जन इस सम्भाग में दूसरा नहीं है. कितने ही रोगियों की बांह धाम, काल के मुख से बाहर खींच लाए हैं. आज भी एक रोगिणी काल के द्वार पर खड़ी उन्हें पुकार रही है. क्या करें? हाथ बढ़ा सुरक्षित बाहर खींच लाएं या धक्का दे काल के उदर में ढकेल दें? तुहिना की विकृत हंसी, कातर चीख, करुण क्रंदन का हिसाब चुकाने का अवसर फिर नहीं मिलेगा. बाहर बैठे इसके प्रियजन जब इसके शव से लिपट विलाप करेंगे, तब वे इसकी मौत का उत्सव मनाएंगे, मात्र एक "सॉरी" कह वे आज रेस जीत लेंगे. विजेता बन जाएंगे. अन्ततः वे एक साधारण मनुष्य हैं, जिनमें मानवीय दुर्बलताएं हैं, अनुभूतियां हैं. वे सुख-दुख, मान-अपमान, हार-जीत की भावना से अस्पृश्य, तटस्थ, निर्लिप्त कैसे रह सकते हैं? और क्यों रहें? मिश्राजी की तरह उन्होंने भी समाज सेवा का व्रत नहीं लिया.
समाज सेवा का व्रत?.. अन्तर्रात्मा ने झिंझोड़ा- तुमने तो मानव सेवा का महान व्रत लिया है सर्जन. नोबेल प्रोफेशन है. तुम चिकित्सक हो, इसलिए जीवन दाता हो. तुम्हारे स्पर्श मात्र से मुर्दे जी उठे हैं. यह स्त्री जो भाग्य से काल के द्वार से वापस लौट रही है, इसे तुम कैसे मार सकते हो? देखो तो, ऑपरेशन के मध्य तुम्हारे भीतर समुद्र मंथन होता रहा फिर भी तुम्हारे हाथों ने कोई त्रुटि नहीं होने दी. ये हाथ ऐसे सधे हुए हैं कि इनसे त्रुटि हो ही नहीं सकती. तुम्हीं तो कहते हो, "रेस में ईमानदारी बरतनी चाहिए." फिर कूटनीति से रेस क्यों जीतना चाहते हो. जीवन मूल्यों की नियमावली में सुविधानुसार संशोधन मत करो सर्जन. वास्तविक विजेता वही है, जो नियमों का उल्लंघन न करते हुए रेस जीते.
सर्जन जैसे नींद से जागे. ओह, एक रोगी की हत्या कर वे शांति से जी सकेंगे? रेस जीत सकेंगे? इसे जीवन दान देकर ही इसके अभिमानी पिता को पटकनी दी जा सकती है. ऐसी पटकनी की वे रेस में भाग लेने के पूर्व ही मिस फिट हो जाएं मंगल... उस नपुंसक को जिसकी अपनी अलग सोच न हो, धारणा न हो, को प्रतिभागी बनाते उन्हें लज्जा आती है. और अदिति ने तो शायद पहले भी रेस में हिस्सा नहीं लिया होगा. इसे तो ज्ञात तक न होगा उसने किसी अन्य का स्थान हथिया लिया है. ये तो रेस में भाग लेने की पात्रता ही नहीं रखती है. कोई भी प्रतिभागी तो उनके समक्ष नहीं ठहर रहा फिर वे कूटनीति का प्रयोग क्यों करें? वे रेस आरम्भ होने के पूर्व ही रेस जीत चुके हैं. निर्विवाद, अपने बलबूते पर, अपनी क्षमता, सामर्थ्य, साहस और श्रम से. ऑपरेशन सफल रहा. अदिति के उदर के उस लंबे चीरे को सीते हुए सर्जन का मुख दमक रहा था. यह चमक रेस जीतने की थी. विजेता बनने की थी.
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