रेटिंगः ***
हिंदी सिनेमा में खेल पर बहुत कम फिल्में बनी हैं, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि जितनी भी बनी यादगार और लाजवाब रहीं, उसी में एक बेहतरीन कड़ी है 'मैदान'.
भारतीय फुटबॉल का स्वर्णिम दौर साल 1952-1962 के उन दस सालों को माना जाता रहा है, जब भारतीय फुटबॉल टीम के कोच और मैनजर थे सैयद अब्दुल रहीम. उन्होंने दुनिया में इस खेल में देश को पदक दिलाने और नाम रौशन करने में अहम भूमिका निभाई थी. उन्हीं के जीवनी पर आधारित है मैदान फिल्म.
अजय देवगन ने सैयद अब्दुल रहीम के क़िरदार में अब तक की अपनी बेस्ट परफॉर्मेंस दी है. उनके संवाद से ज़्यादा उनकी आंखें बोलती हैं. पूरी फिल्म में वे छाए हैं. इसमें कोई दो राय नहीं कि उन्हें इस फिल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाज़ा जाए. वैसे भी बायोग्राफी की फिल्मों में अपने उत्कृष्ट अदायगी के लिए जाने जाते हैं अजय देवगन, लीजेंड ऑफ भगत सिंह, तानाजी आदि इसी के उदाहरण रहे हैं.
निर्देशक अमित रवींद्रनाथ शर्मा ने इस फिल्म को बनाने में छह साल लगा दिए, पर उनकी मेहनत और जुनून फिल्म में दिखती है. कैसे रहीम बने अजय देशभर से चुनिंदा खिलाड़ियों को ढूंढ़ते हैं और टैलेंट से भरी एक विनिंग टीम बनाते हैं, देखना दिलचस्प है. लेकिन बाद में वे खेल में हो रही राजनीति के शिकार हो जाते हैं. उन्हें कोच के पद से हटाना, फिर उनका अपनी ज़िद पर फिर से कोच बनना, क्योंकि उन्हें कैंसर हो गया है और उनकी इच्छा कि देश के जीत का परचम लहरा कर ही दुनिया से अलविदा कहें, सभी देख भावविभोर हो जाता है मन.
रहीम की पत्नी बनी प्रियामणि का ये कहना कि बीमारी से घर में घुट-घुटकर मरने से कई अच्छा है कि अपने प्यार, फुटबॉल के जुनून को पूरा करते हुए मरना… रहीम को प्रोत्साहित करता है कि वे भारतीय फुटबॉल टीम को एशियन चैंपियन बनाने में अपनी जान लड़ा दें. और वैसा करते भी हैं. आख़िरकार 1962 के एशियन गेम्स के फाइनल में दक्षिण कोरिया को २-१ से हराकर भारत एशियन चैंपियन बनती है. भारत के लिए प्रदीप कुमार बनर्जी व जरनैल सिंह ने गोल किए थे.
लेखक, निर्देशक, निर्माता व सभी कलाकारों को दाद देनी पड़ेगी कि गुमनामी में खोए हमारे ऐसे हीरो, जिन्हें बहुत कम लोग जानते थे को बड़े पर्दे पर लाने की सराहनीय कोशिश की गई.
अजय देवगन को बराबर की टक्कर देते दिखे गजराज राव. ईष्यालु और दांव-पेंच करनेवाले पत्रकार के रूप में वे ख़ूब जंचे हैं. प्रियामणि ने भी अपने सहज अभिनय से वाहवाही लुटी है. उनकी जब-जब एंट्री होती है सुकून सा मिलता है. रुद्रनील घोष, अभिलाष थपलियाल, विजय मौर्या, इश्तियाक खान के साथ अन्य सभी कलाकारों ने बढ़िया काम किया है. तीन घंटे की फिल्म दर्शकों को बांधे रखती है.
अमित शर्मा ने निर्देशक के तौर पर बधाई हो फिल्म बनाई थी. एक दिलचस्प विषय पर बनी इस फिल्म ने सफलता के कई कीर्तिमान बनाए थे. अब मैदान में उन्होने अपने निर्देशन की जादूगरी दिखाई है. हालांकि फुटबॉल पर नागराज मंजुले की अमिताभ बच्चन को लेकर बनाई गई फिल्म 'झुंड' भी लाजवाब थी, पर मैदान की बात ही कुछ अलग है.
रितेश शाह के संवाद अर्थपूर्ण और मज़ेदार हैं. लेकिन मनोज मुंतशिर और ए. आर. रहमान के गीत-संगीत कमाल नहीं दिखा पाए. सिनेमैटोग्राफी में तुषार कांति रे बेहतरीन रहे, फ्योदोर ल्यास ने भी उनका अच्छा साथ दिया. देव राव जाधव चाहते तो फिल्म की लंबाई थोड़ी कम कर सकते थे, लेकिन फिर भी तीन घंटे की फिल्म कहीं भी बोर नहीं करती.
पूरी फिल्म में एक बात जो बेहद खटकती है, वो है अजय देवगन और अन्य ख़ास क़िरदारों का सिगरेट व सिगार का धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जाना. माना यह उस दौर व स्थिति की मांग रही हो, पर निर्देशक चाहते तो इसे संयमित रूप से दिखा सकते थे. उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए हमारे अधिकतर युवाओं के आदर्श होते हैं फिल्मी कलाकार, ख़ासकर एक्टर. जब अजय देवगन के फैंस उन्हें चेन स्मोकर के रूप में देखेंगे तो वे भी उसका अनुसरण करने में देर नहीं लगाएंगे. अतः यह ज़रूरी है कि इस तरह की छोटी समझी जानेवाली बड़ी ग़लती को नज़रअंदाज़ न किया जाए. पता नहीं सेंसर बोर्ड को यह खामी क्यों नहीं दिखी.
फिल्म के अंत में भारतीय फुटबॉल टीम के रियल हीरो यानी असली खिलाड़ियों के चेहरे व नाम को देख ख़ुशी और संतुष्टि मिलती है कि उनके टैलेंट को सराहा गया.
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फिल्म की कहानी सायविन क्वाड्रस, रितेश शाह, अमय राय, अतुल शाही, आकाश चावला व अरुनव जॉय सेनगुप्ता ने मिलकर लिखी है. निर्माता के रूप में बोनी कपूर के साथ आकाश चावला और अरुनव जॉय सेनगुप्ता जुड़े हुए हैं. जी स्टूडियो के बैनर तले बनी मैदान ने खेल के मैदान में ही नहीं, बल्कि लोगों के दिलों के मैदान में भी बाजी मारी है. खेल पर बनी एक ख़ूबसूरत फिल्म के रूप में हमेशा याद की जाएगी.
- ऊषा गुप्ता
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