रणदीप हुड्डा ने एक बार फिर साबित किया कि वे कमाल के संवेदनशील अभिनेता हैं. वे अपनी फिल्मों के क़िरदार में इस कदर रच-बस जाते हैं कि दिल कह उठता है कि इस भूमिका के लिए इनसे बेहतर कोई और हो ही नहीं सकता था. स्वातंत्र्य वीर सावरकर फिल्म को देखते हुए यही एहसास हर पल होता है. सिनेमा के पर्दे पर उन्होंने सावरकर को जीवंत कर दिया. उनका अभिनय, संवाद अदायगी, बॉडी लैंग्वेज बेहद प्रभावित करता है. यह उनकी रोल के प्रति समर्पण भावना ही तो थी, जो उन्होंने कहानी की मांग पर अपना तीस किलो वज़न घटाया था. उनकी आंखें, काला पानी की सज़ा, अंग्रेज़ों के ज़ुल्मों को सहते हुए असहनीय पीड़ा हर भाव को उन्होंने शिद्दत से जिया. इसमें कोई दो राय नहीं कि इसके लिए उन्होंने कड़ी मेहनत की, उनके जज़्बे को सलाम!
जब कभी इतिहास के क़िरदारों पर कोई फिल्म बनाई जाती है, तब उसे लेकर हर तरह की प्रतिक्रियाएं होती हैं, कहीं आलोचनाओं का बाज़ार गर्म रहता है, तो कहीं तारीफ़ों के पुलिंदें भी ख़ूब लगाए जाते हैं. यही हाल इस मूवी का भी है. जहां इसे लेकर रणदीप हुड्डा की चौतरफ़ा तारीफ़ हो रही है, तो वहीं इतिहास के क़िरदारों को लेकर छेड़छाड़ के आरोप-प्रत्यारोप भी ख़ूब लग रहे. किन्तु यह भी समझना होगा कि कई बार समय और क़िरदार को देखते हुए मूवी लिबर्टी भी ली ही जाती है, वही हुड्डा ने भी किया. उन्होंने फिल्म के ज़रिए अपनी बहुमुखी प्रतिभा को उजागर किया है. वे इसके अभिनेता, लेखक, निर्माता-निर्देशक भी हैं. इस चौतरफ़ा ज़िम्मेदारी को बढ़िया तरी़के निभाया है.
आज़ादी के पहले सन् 1857 का क्रांतिकारी आंदोलन, महामारी के रूप में प्लेग की बीमारी में सैकड़ों लोगों को ज़िंदा जलाना, गुमनामी के अंधेरे में गुम हुए क्रांतिकारी नायक, काला पानी की सज़ा, ़कैदियों पर अत्याचार, ब्रिटीश राज के वाशिंदों पर बम से हमला, देश के बंटवारे की विडंबना, अभिनव भारत की नींव, अंखड भारत की अलख जलाते रहना जैसे तमाम मुद्दों के सीन्स व डायलॉग झकझोेर देते हैं. यहां पर रणदीप सावरकर की गांधीजी से अलग राय होने को स्पष्टवादिता को दिखाने से भी नहीं चूकते.
धर्म से है क्रांतिकारी, हौसला है तूफ़ानी.. ना रोक सकता गोरा, ना रोक सकता काला पानी... लाजवाब संवाद रहा है.
गोरों को उनकी ही भाषा में जवाब देने के लिए सावरकर लंदन तक पहुंचते हैं और उनकी क़ानूनी पढ़ाई कर उन्हें करारा जवाब देने की रणनीति रचते हैं. विदेश में रहकर देश की स्वतंत्रता के लिए वहां बसे भारतीय लोगों को एकजुट करना, आज़ादी के लिए शपथ दिलाना, अंग्रेज़ों से देश को मुक्त करने के लिए आज़ादी की मशाल जलाते हैं. रणदीप हुड्डा के ट्रांसर्फोमेशन से लेकर, मर्सी पेटीशंस, नेवी विद्रोह, जहाज की यात्रा, सेलुलर जेल, इंडिया हाउस, दूसरे विश्व युद्ध में हिंदुओं की भर्ती, भारत छोड़ों आंदोलन, सावरकर के पिता का प्लेग से देहांत, बेटी की मृत्यु, हिंदुत्व की नई परिभाषा आदि को पर्दे पर बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत किया गया है.
सावरकर के किशोरावस्था से लेकर युवा, फिर तीसरे पड़ाव तक उनके देश के प्रति दीवानगी, अन्याय को लेकर विद्रोह को लाजवाब ढंग से फिल्माया गया है. किस तरह बम बनाने की विधि को जान अंग्रेज़ों के छक्के छुड़ा देते हैं, वो दिलचस्प है. सावरकर की हिम्मत व दिलेरी से अंग्रेज़ तक कांप जाते हैं और बकौल एक ऑफिसर द्वारा यदि उन्हें रोका या कंट्रोल में नहीं किया गया, तो अंग्रेज़ों को भारत से भागना पड़ सकता है.
रणदीप हुड्डा इतिहास के विद्यार्थी रहे हैं और उन्हें हिस्ट्री पसंद भी ख़ूब है. अपने इसी जुनून को उन्होंने फिल्म बनाने में दिखाया है. इस फिल्म के ज़रिए हम नायक नहीं, बल्कि महानायक विनायक दामोदर सावरकर को बख़ूबी समझ सकेंगे. अक्सर यह देखा गया है कि हमें इतिहास की बहुत सी बातों से गुमराह किया गया है, ख़ासकर सावरकर को लेकर आज भी लोगों में काफ़ी भ्रम है. रणदीप ने उनसे जुड़ी छोटी से छोटी बातों को कम समय में पर्दे पर दिखाने की कोशिश की है. क़रीब तीन घंटे की फिल्म इस कदर बांधे रखती है कि एक पल को भी आप उससे ख़ुद को अलग नहीं कर पाते.
विनायक सावरकर के बड़े भाई गणेश के रोल में अमित सियाल ने लाजवाब अभिनय किया है. अंडमान निकोबार द्विप समूह के जेल में दोनों भाई बरसों ़कैद रहने के बावजूद एक-दूसरे से मिल नहीं पाते. जब मिलते हैं, तब वो इमोशनल सीन देख आंखें नम हो जाती हैं. अमित की एक्टिंग काबिल-ए-तारीफ़ है.
सावरकर की पत्नी यशोदाबाई के रूप में अंकिता लोखंडे ने सराहनीय काम किया है. पति कभी पढ़ाई व क्रांति के लिए विदेश, तो कभी जेल, ऐसे में पत्नी के दर्द को अपने भाव-भंगिमा से ख़ूबसूरती से दर्शाया है उन्होंने.
मृणाल दत्त ने मदनलाल ढींगरा के रोल में ख़ूब वाहवाही लूटी है. राजेश खेरा गांधीजी के अलग अंदाज़ को प्रस्तुत करते हैं, जो ठीक है.
ब्रजेश झा, चेतन स्वरूप, रसेल जिऑफरी बैंक्स, चाफेकर बंधु, कान्होजी आंग्रे, लोकमान्य तिलक, भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस, नहेरू, जिन्ना यानी सभी की भूमिकाओं के साथ कलाकारों ने न्याय किया है. फिल्म को ख़ास बनाने में हर किसी का महत्वपूर्ण योगदान रहा.
फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर उम्दा है. सिनेमैटोग्राफर अरविंद कृष्ण की मेहनत दिखती है. कमलेश कर्ण व राजेश पांडे का संपादन उल्लेखनीय है, वरना ऐसे विषयों को थोड़े में समेटना बहुत मुश्किल होता है.
कॉस्टयूम डिज़ाइनर सचिन लोवलेकर ने भी आज़ादी के पहले के दौर की वेशभूषा से लेकर स्वंतत्रता मिलने के बाद पहनावे को अपनी सूझबूझ से अच्छा करके दिखाया है.
धरती का अभिमान... दरिया ओ दरिया... गीत में संगीत अनु मलिक का राज बर्मन व दिव्य कुमार की आवाज़ मधुर लगती है. जहां कहानी की लेखनी में रणदीप का साथ निभाया है उत्कर्ष नैथानी ने, वहीं निर्माता के तौर आनंद पंडित ने. इनके अलावा योगेश राहार, संदीप सिंह, रूपा पंडित, पांचाली चक्रवर्ती, सैम खान, अनवर अली भी निर्माता के तौर पर जुड़े हैं.
जी स्टूडियो, आनंद पंडित मोशन पिक्चर्स, लिजेंड स्टूडियो, अवाक फिल्म्स और रणदीप हुड्डा फिल्म्स के बैनर तले बनी स्वातंत्र्य वीर सावरकर को हिंदी और मराठी दोनों ही भाषाओं में बनाया गया है. इस साल की बेहतरीन फिल्म के अलावा रणदीप हुड्डा के यादगार अभिनय के लिए वीर सावरकर को हमेशा याद की जाएगा.
- ऊषा गुप्ता
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