"बहन चिंता मत कर, अब समझ आ गया कि तुझे गोरा कैसे करना है."
"सच्ची!" मैं भी इन ज़ुल्मों को सहते थक चुकी थी, लेकिन बहन के प्यार और गोरे होने के लालच में ख़ुद पर साबुन रगड़वाती, आंखों से साबुन के झाग हटाती, सब सहन कर रही थी.
सुनते हैं कि भगवान बहुत दयालु हैं, लेकिन भगवान ने मेरे साथ बहुत ही अन्याय किया है. गेंहुए, सांवले, काले रंग के प्राणी बनाए तो ठीक, लेकिन ये उजले, गोरे, दूध से सफ़ेद… नील लगे प्राणी बनाने की भला क्या ज़रूरत थी! कौन सा काम रुक रहा था इन डिटर्जेंट के विज्ञापन के सफ़ेद चमकदार कपड़ों जैसे दूधिया लोगों के बिना… अच्छा चलो, मानते हैं कि भगवान ने ग़लती से बना भी दिए, तो इनमें एटीट्यूड फिट करने की क्या ही ज़रुरत थी.
खैर भैया! वो ठहरा ऊपर वाला, अपने एंटरटेनमेंट के लिए कुछ भी कर सकता है.
मैं भी रंगत की मारी अबला बेचारी जन्म से ही गेंहुए रंग को अपनी चमड़ी पर कसकर लपेटे हुए हूं. मजाल है जो मैंने इन गोरे-चिट्टे लोगों का ज़रा भी असर आने दिया हो ख़ुद पर. वहीं मेरी हमउम्र मौसेरी बहन ज्योति (नाम भी चमकदार होता है इन लोगों का) दूध सी उजली, गोरी.
बचपन में हम दोनों ही गोल मटोल थे! (आज भी हमने अपने वज़न को मेंटेन करके रखा है)
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ये उस ज़माने की बात है जब गर्मियों की छुट्टियां किसी हिल स्टेशन पर नहीं गुज़ारी जाती थीं.
रिश्तेदारों… मामा, बुआ, मौसी, चाचा, ताऊ के घर रिश्तों को रिचार्ज करके बीतती थीं.
ऐसी ही गर्मियों की छुट्टियां में मौसी हमारे घर आईं. हम बहनों की तो मानो मौज ही आ गई… मेरी उम्र क़रीब पांच साल थी और ज्योति मुझसे एक साल छोटी. हम दोनों सारे दिन एक साथ खेलते-कूदते अपनी ही दुनिया में मगन रहते.
मुझे आज भी अच्छी तरह याद है खेलते-खेलते ज्योति मेरा हाथ अपने सफ़ेद हाथ के बराबर में रखते हुए बोली, "बहना, तू ठीक से नहीं नहाती… देख कितनी काली है!"
उसकी बात सुन मैं काम्प्लेक्स में आ गई मानो कितना बड़ा गुनाह उजागर हो गया था. मासूम सा मुखड़ा उतर गया. मुझे उदास देख ज्योति के अंदर का बहन प्रेम जाग गया. उसने मन ही मन दृढ़ संकल्प ले अपना फ़ैसला सुना दिया.
"कल मैं तुझे अच्छी तरह नहलाऊंगी."
बहन का प्यार देख मेरी आंखें भर आईं और मुझ भोली बच्ची ने तुरंत सहमति में गर्दन हिला दी.
फिर अगले दिन हुआ असली कांड!
सुबह उठते ही ज्योति ने आंगन में सारा समान इकट्ठा करवाना शुरू कर दिया. पानी की बाल्टी, नई ख़ुशबूदार साबुन. घर के सब बड़े वहीं कुर्सियां, फोल्डिंग पलंग डाल चाय के साथ ये शो देखने को बैठ गए.
अब ज्योति ने मुझे आंगन में बैठा कर साबुन लगानी शुरू कर दी! कभी चेहरा मलती, कभी हाथ, तो कभी कमर कि कहीं का तो रंग छूटे. लेकिन रंगत बदलने का नाम ही नहीं ले रही थी… साबुन भी घिस कर ख़त्म हो गई. दूसरी साबुन मंगवाई व पानी भी और लाया गया.
कभी साबुन हाथ से फिसलती, तो कभी पसीने से लथपथ ज्योति साबुन पर फिसलती, लेकिन वीर बालिका ने हिम्मत नहीं हारी.
अचानक उसके मस्तिष्क में बिजली कौंधी!
"बहन चिंता मत कर, अब समझ आ गया कि तुझे गोरा कैसे करना है."
"सच्ची!" मैं भी इन ज़ुल्मों को सहते थक चुकी थी, लेकिन बहन के प्यार और गोरे होने के लालच में ख़ुद पर साबुन रगड़वाती, आंखों से साबुन के झाग हटाती, सब सहन कर रही थी.
ज्योति की बात ने अंधेरे में रोशनी का काम किया था.
दरअसल, ज्योति को याद आया कि जब ईंट से रगड़ काला तवा साफ़ हो जाता है, तो मेरी बहन भी गोरी हो जाएगी. बस अपने प्लान पर मन ही मन मुस्कुराई और झट रसोई से ईंट उठा लाई!
उसके हाथ में ईंट देख मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई. अब मैं आगे-आगे और हाथ में ईंट उठाए ज्योति मेरे पीछे सारे घर में दौड़ लगा रही थी.
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वो तो भला हो बड़ों का जिन्होंने उसके हाथ से ईंट छीन कर मुझे 'गोरा' होने से बचा लिया. क़सम फेयरनेस क्रीम की उस दिन के बाद कभी अपने रंग को एक टोन भी गोरा करने की नहीं सोची.
- संयुक्ता त्यागी
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