आंखों में भरे आंसुओं को धोने के लिए वो बाथरूम में गईं और अच्छी तरह से मु़ंह धोकर बाहर निकलीं.
अब तक उन्हें गायब हुए दो-तीन घंटे हो चुके थे और आख़िरकार सुमन का धैर्य जवाब दे गया और वो बोल पड़ी, "बहुत हो गया, चल के एक बार देख तो आओ, मांजी मंदिर में हैं भी या नहीं. मेरा मन घबरा रहा है. ग़ुस्से में कुछ ग़लत न कर बैठें. वैसे भी आजकल वो हमसे नाराज़ ही रहती हैं."
सुबह चाय देने गई तो मांजी की चढ़ी हुई त्योरियां बता रही थीं कि पिछली रात की झड़प अभी लंबी खिंचनेवाली है.
असहाय भाव से सिर हिलाती सुमन कमरे से बाहर आ गई और उसके साथ-साथ मांजी का ऊंचे स्वर में बड़बड़ाना चालू हो गया, "मुंह से एक बार नहीं निकला कि क्या हुआ है? मेरी तो कोई इज़्ज़त ही नहीं है यहां पर… पता नहीं मैं क्यों यहां पर पड़ी हुई हूं."
रसोई में काम करती सुमन के चेहरे पर उत्कंठा के साथ साथ क्रोध बढ़ता जा रहा था.
"हो गया वीकेंड का सत्यानाश… अब यह प्रोग्राम तीन-चार दिन तक तो चलेगा ही… पूरे हफ़्ते मर-मर के काम करते रहो और सप्ताहांत में कोई ना कोई नई नौटंकी चालू हो जाती है…" अपने लिए कप में चाय डालती सुमन मन ही मन बड़बड़ा रही थी.
कमरे से आवाज़ आनी बंद हो गई थी… शायद मांजी नहाने चली गई थीं.
चलो थोड़ी देर शांति रहेगी… सोचती हुई सुमन ने गहरी सांस ली और आकाश को चाय देकर ख़ुद भी बालकनी में सुबह की रूपहली धूप में जाकर बैठ गई.
जब से बाबूजी गए हैं और मांजी उनके साथ रहने शहर आ गई हैं, उनके स्वभाव में अजीब सा परिवर्तन दिख रहा है. हर सीधी बात उन्हें उल्टी लगने लग गई है. सुमन कितनी भी कोशिश कर ले, पर मांजी कोई न कोई बहाना बनाकर ख़ुद भी परेशान होती हैं और उन सबको भी परेशान करतीं हैं.
सुमन और आकाश दोनों ही कामकाजी थे. दो किशोरवय बच्चे थे शिवाय और काव्या. दादा-दादी शुरू से ही साथ में नहीं रहे, इसलिए साथ रहने का अभ्यास नहीं था.
कभी-कभार मिलना होता है, तब सब कुछ अच्छा लगता है, क्योंकि वैचारिक भिन्नता होने पर भी हर कोई सामनेवाले को ये सोच कर बर्दाश्त करता है कि कुछ दिन की बात है. पर संयम और समझदारी की असली परीक्षा तब होती है, जब परिवार काफ़ी समय तक अलग-अलग रहने के बाद एक साथ रहने लगता है. यही हाल अब यहां था. पहले जिन बातों से मांजी को कोई मतलब नहीं होता था, अब वो सब बातें एकाएक उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण हो गई थीं. चाहे वो सुमन का रहन-सहन हो या आकाश का सुमन के साथ रसोई में हाथ बंटाना… सब कुछ मांजी को नागवार गुज़रने लगा था.
बच्चे बड़े हो रहे थे और दादी से ज़्यादा उन्हें दोस्तों का साथ भाता था. जिस उम्र में वो थे उसमें बहुत ज़्यादा रोक-टोक वो पसंद नही करते थे, इसलिए उनकी आए दिन दादी से ठनी रहती थी. इन सबके बीच अगर कोई फंसता था, तो वो थी सुमन… घूम-फिर के सारी बात उस पर आकर ख़त्म होती थी कि उसने बच्चों को ना तो सही संस्कार दिए हैं और ना ही किसी बात पर रोकती-टोकती है.
इन बेवजह की बातों में फंसी सुमन का धैर्य धीरे-धीरे जवाब देने लग गया था. सबसे बड़ी समस्या थी नाते-रिश्तेदारों का यूं जताना जैसे वो लोग मांजी के अकेले और असहाय होने का फ़ायदा उठा रहे हैं. अब चूंकि वो उनके साथ स्थाई रूप से रहने लगी हैं, तो इसलिए उन्हें उचित सम्मान नहीं दिया जा रहा है.
अचानक से अपनी आत्मनिर्भरता और पति को खो चुकीं मांजी असुरक्षा की भावना के चलते बाहरवालों की बातों में आ जातीं और कोई न कोई टिप्पणी ऐसी कर देतीं, जो घर का माहौल ख़राब कर देती.
सुमन और आकाश दोनों ही संयम से काम ले रहे थे कि मां को एडजस्ट होने के लिए थोड़ा समय देना पड़ेगा. पर कभी-कभी उनका धीरज भी छूट जाता था और उनके मुंह से भी कुछ न कुछ ग़लत निकल ही जाता था और फिर बनता था बात का बतंगड़… एक-एक बात आकाश की बहन और बाकी सब रिश्तेदारों तक पहुंचती थी.
इन सब बातों का बच्चों पर असर यह हो रहा था कि उन्हें लगने लग गया था कि दादी के आने से सब ख़राब हो रहा है. चाहे सुमन उन्हें कितना भी समझातीं, किसी ना किसी बात पर वो दादी को उल्टा जवाब दे देते बात और भी ज़्यादा बिगड़ जाती.
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छोटी-छोटी सी बातें ही उन सबके सुखी संसार में आग लगा रही थीं.
कल शाम भी दादी को टीवी पर अपना मनपसंद कार्यक्रम देखना था और काव्या ने उन्हें आवाज़ कम करने के लिए कह दिया और बस… इतना काफ़ी था मांजी को यह बताने के लिए कि उनकी इस घर में कोई इज़्ज़त नहीं है. इन्हीं ख़्यालों में डूबती-उतराती सुमन नाश्ते के लिए मांजी को बुलाने उनके कमरे में गई, तो कमरे में कोई नहीं था.
"लो फिर चली गईं वो नाराज़ होकर…" सुमन आकाश के पास जाकर भुनभुनाई, "फिर सारा दिन उनको मनाने में लगेगा."
घर में बहस होने पर मांजी सारा दिन के लिए या तो किसी मंदिर में जाकर बैठ जाती थीं या फिर किसी पार्क में और जब तक उनके पैर पकड़ कर माफ़ी नहीं मांगी जाती थी, वो घर नहीं आती थीं… रोज़-रोज़ के इस तमाशे से आकाश भी परेशान हो चुका था.
"रहने दो आज… अपने आप शाम को वापस आ जाएंगीं."
बच्चों ने सुना तो उनकी प्रतिक्रिया भी यही थी, "ठीक है… शाम तक तो शांति रहेगी."
"चुप रहो… फ़ालतू बोलने की ज़रूरत नहीं है." सुमन ने बच्चों को डपटा.
कहने-सुनने में यह अच्छा नहीं लगता और ना ही बच्चों के सामने उसने यह ज़ाहिर किया था, लेकिन कहीं ना कहीं सुमन के मन में भी यही था कि शाम तक शांति रहेगी.
अपने कमरे में बैठी मांजी उन सबकी बातों को सुनकर हैरान थीं… वो ज़ोर से चिल्लाकर कहना चाह रही थीं कि मैं यही हूं, पर इससे पहले कि वो किसी तरह से अपने होने का एहसास करवातीं… बेटे-बहू और पोता-पोती की प्रतिक्रिया देखकर वो सन्न रह गईं, "सच कहती हैं सुषमा जीजी, मेरी कोई ज़रूरत नहीं है इन लोगों को…" अपनी ननद की बातें याद करतीं मांजी की आंखों में आंसू आ गए.
स्वर्गवासी पति की तस्वीर की तरफ़ देखकर बोलीं, "सुन रहे हो? तुमने साथ बीच में ही छोड़ दिया. अब परिवार भी अपना नहीं रहा. हर किसी के लिए अनावश्यक बोझ सी हो गई हूं. और तो और आज ये नया नाटक शुरू किया है जैसे किसी को नज़र ही नहीं आ रही हूं. इतनी बेइज़्ज़ती से बेहतर है कि मैं गांव वापस चली जाऊं. वहां के पड़ोसी भी इनसे बेहतर हैं…" कसमसाती हुई मांजी की नज़रें सामने शीशे पर पड़ीं, तो वो बोलती-बोलतीं रुक गईं.
वो तो सच में नज़र नहीं आ रही थीं. उन्होंने घबरा कर शीशे को अच्छी तरह से साफ़ किया, पर केवल कपड़ा शीशे पर फिसल कर रह गया. अब तो मांजी के हाथ-पैर ठंडे पड़ गए. वो भाग के बेटे के पास जाने के लिए मुड़ीं, पर फिर ठिठक कर रुक गईं, 'ये सब समझ रहे हैं कि मैं मंदिर गई हूं… देखूं तो सही इनके मन में क्या ज़हर है मेरे लिए… अगर इन्हें मेरी परवाह ही नहीं है, तो क्या फ़र्क़ पड़ता है कि मैं दिख रही हूं या नहीं.'
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डाइनिंग टेबल पर सब नाश्ते के लिए बैठे, तो मांजी भी खाली कुर्सी पर बैठ गईं, पर ये देख कर वो और भी ज़्यादा ज्यादा हैरान हो गईं कि किसी का भी नाश्ता करने का मन नहीं हुआ और वो सब यूं ही उठ गए.
आकाश अपने लैपटॉप पर काम करने में व्यस्तता का दिखावा करने लगा, पर उसकी नज़रें दरवाज़े पर ही लगी हुई थीं. साफ़ पता चल रहा था कि वो मांजी का इंतज़ार कर रहा है.
मांजी ने सुमन की तरफ़ देखा, तो वो सबकी नज़र बचा कर छत पर जा रही थी. उनकी छत से पासवाला मंदिर नज़र आता था. शायद वो देखने गई थी कि मांजी नज़र आ जाएंगी.
पोता-पोती भी मांजी के कमरे का कई बार चक्कर लगा वापस आ चुके थे. जो बच्चे हर समय उनसे टीवी पर प्रोग्राम देखने को लेकर उलझते रहते थे उन्होंने मांजी की अनुपस्थिति में कई बार टीवी चला कर बंद कर दिया था और बेचैन से अपना-अपना स्कूल का काम कर रहे थे.
अपने बच्चों की बेचैनी देख कर मांजी का मन भी पिघलने लगा था और वो उन्हें आवाज़ लगाने ही जा रही थीं कि सुमन का मोबाइल बजा.
बहन का फोन आने पर सुमन हमेशा कहीं अलग जा कर बात करती थी, पर आज मांजी उसके पास खड़ी होकर सुनने लगीं, 'अब करेगी अपनी बहन से मेरी बुराइयां…' सोचती हुई मांजी का ध्यान सुमन की आवाज़ से टूटा.
"हां दीदी! मांजी भी ठीक हैं. कमरे में आराम कर रहीं हैं…"
सुमन ने तो बहन से बात करके फोन रख दिया. पर मांजी ये देखकर शर्मिंदा सी हो गईं कि सुमन ने तो बहन को ये भी नहीं बताया था कि वो घर पर नहीं है, उनकी बुराइयां तो बहुत दूर की बात थी. मांजी की आंखों से अपने ही बच्चों के प्रति पड़ा हुआ बैर का पर्दा उठने लगा था.
आंखों में भरे आंसुओं को धोने के लिए वो बाथरूम में गईं और अच्छी तरह से मु़ंह धोकर बाहर निकलीं.
अब तक उन्हें गायब हुए दो-तीन घंटे हो चुके थे और आख़िरकार सुमन का धैर्य जवाब दे गया और वो बोल पड़ी, "बहुत हो गया, चल के एक बार देख तो आओ, मांजी मंदिर में हैं भी या नहीं. मेरा मन घबरा रहा है. ग़ुस्से में कुछ ग़लत न कर बैठें. वैसे भी आजकल वो हमसे नाराज़ ही रहती हैं."
सुमन की बात जैसे सब के दिल की बात थी. सभी फौरन बाहर की तरफ़ लपके. अपने बच्चों को अपने लिए इतना परेशान देख कर मांजी का मन भर आया और वो बच्चों को आवाज़ लगाने ही जा रही थीं कि उन्हें शीशे में अपना अक्स नज़र आ गया… वो वापस आ चुकी थीं अपने परिवार के बीच… अपने अपनों के बीच… इससे पहले कि वो आवाज़ लगातीं उनकी नींद सुमन के आवाज़ लगाने से खुल गई. देखा तो सुमन उनका मनपसंद नाश्ता लेकर सामने खड़ी थी, "उठिए मांजी, ग़ुस्सा थूकिए और नाश्ता कर लीजिए."
मांजी उठीं, तो काव्या और शिवाय कान पकड़ कर खड़े थे.
मांजी ने बिना कुछ कहे बच्चों को खींच कर छाती से लगा लिया. कई महीनों बाद दादी के प्यार की ऊष्मा को महसूस करके बच्चे भी दादी से लिपट गए थे.
बच्चों के सिर पर हाथ फेरती मांजी भगवान का शुक्रिया अदा कर रही थीं जिसने उन्हें सोते से जगा दिया था. क्या पता ये ईश्वर का इशारा था कि परिस्थितियों को देखने का नज़रिया बदलने का वक़्त आ चुका है. नहीं तो वो बाहर वालों के बहकावे में आकर अपने ही बच्चों से दूर होती जा रही थीं… सपने में ही सही… गायब होना अच्छा लगा… सोचती मांजी के चेहरे पर मुस्कान थी.
कहानी काल्पनिक है, पर हक़ीक़त के धरातल पर लिखने का प्रयास किया है. जब कोई बुज़ुर्ग जीवन संध्या में अकेला रह जाता है और उसे अपने उस परिवार के साथ आकर रहना पड़ता है, जो अब तक उससे अलग रह रहा होता है, तो दोनों पक्षों के लिए परिस्थितियां बहुत चुनौती पूर्ण होती हैं. और इस चुनौती का सामना मिल कर ही किया जा सकता है, अकेले बाहर वालों के बहकावे में आकर नहीं.
- शरनजीत कौर
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