अकेले में शारदा का चिंतन चलता था. आख़िर वह विवाहिता है. भले ही परित्याग का चोला डाले हुए हो, उसे सोमेश के प्रति आसक्त नहीं होना चाहिए. लेकिन दूसरे ही पल उसका मन तर्क देता. 'रामलाल भी तो विवाहित था, फिर उसने सुमित्रा का दामन क्यों पकड़ा? क्या नैतिकता को निभाने की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ स्त्री की है?' उसके गले में भी रामलाल के हाथों से पहनाया गया मंगलसूत्र अभी भी उसे चिढ़ा रहा था. स्त्री-पुरुष के नैतिक-अनैतिक संबंधों में जहां शारदा उलझ रही थी, वहीं उम्र के उस दौर से गुज़रते हुए वह शारीरिक संतुष्टि के लिए विचलित भी थी.
बाबूजी की आज तेरहवीं है. अम्माजी ने लाल चटक रंग की साड़ी पहनी थी. माथे पर बड़ी सी लाल बिंदी लगाई थी, हाथों में चूड़ियां खनक रही थीं और पैरों में छम-छम करती पायल थी, बस कमी थी तो इतनी कि उनकी मांग में सिंदूर नहीं था. हर आनेवाला व्यक्ति एकटक अम्माजी को देखता रह जाता और फिर खाना खाने बैठ जाता.
दबी आवाज़ में अम्माजी की बेटी सुमन ने कहा भी था, "अम्मा, कम-से-कम एक दिन तो और रुक जातीं. ऐसी भी क्या जल्दी पड़ी थी बनने-संवरने की?" अम्माजी ने भी सभी के सामने कह दिया, "अरे किसके लिए ग़म करूं? पूरी ज़िंदगी मुझे मिला ही क्या इनसे..?"
आशा के विपरीत उत्तर मिलने से वह पशोपेश में पड़ गई और बात को बदलते हुए कहा, "अम्मा, आटा ख़त्म हो गया है. हलवाई मांग रहा है."
अम्मा के दिल में दबे गुबार को सुमन अच्छी तरह समझती थी. कुछ धुंधली सी याद सुमन को है. जब अक्सर अम्मा और बाबूजी में किसी-न-किसी बात पर कहा-सुनी होती रहती थी. फिर एक दिन बाबूजी घर से निकल गए और कभी नहीं लौटे. अम्माजी के सामने रोजी-रोटी की समस्या पैदा हो गई थी. लेकिन अम्मा थी बहुत हिम्मतवाली, उन्होंने बाबूजी के ऑफिस में संपर्क किया और आख़िरकार गुजारा भत्ता लेने में सफ़ल हो गई, इसी के साथ अम्मा ने सिलाई-बुनाई का काम सीख लिया और अपना गुज़र-बसर करने लगीं.
रात के ११ बज गए थे. सभी लोग जा चुके थे. सुमन अपनी एक साल की बेटी के पास लेटी उसे सुला रही थी. अम्मा बरामदे से गुज़रते हुए कमरे में आ गईं. सामने बाबूजी का बड़ा सा फोटो लगा था. अम्माजी एक क्षण को रुकीं और उनकी आंखों से झर-झर आंसू गिरने लगे. शायद यह पहला मौक़ा था जब अम्मा बाबूजी के गुज़रने के बाद रोई होंगी, वरना जब बाबूजी की मौत हुई थी, तो सभी कहते- ये बुढ़िया नहीं रोई तो पागल हो जाएगी. लेकिन अम्मा रोई नहीं, एकटक बाबूजी के पार्थिव शरीर को निहारे जा रही थीं, बिना किसी प्रतिक्रिया के, मानो वह अपने और बाबूजी के संबंधों का मूल्यांकन कर रही थीं.
शारदा और रामलाल की शादी हंसी-ख़ुशी के माहौल में हुई थी. शारदा ने आते ही घर संभाल लिया था. हालांकि न तो शारदा के पिता की आर्थिक स्थिति अच्छी थी और न ही रामलाल के परिवार की.
शारदा ज़्यादा पढ़ी-लिखी भी नहीं थी, इसलिए ससुराल में ही क़ैद होकर रह गई थी. इसी बीच उनके यहां सुमन आ गई थी. वह भी रामलाल और उसके माता-पिता की उम्मीद (लड़के की) के विपरीत आ गई थी. रामलाल आकर्षक व्यक्तित्व के धनी तो था ही, साथ ही काफ़ी महत्वाकांक्षी भी था. अच्छे खाने-पीने से लेकर मोटर कार तक की इच्छा उसके हृदय पटल में दफ़न थी और जब कभी वे इच्छाएं उभर आतीं, तो रामलाल उन्हें पाने के लिए लालायित हो जाता.
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इसी दौरान रामलाल के ऑफिस में सुमित्रा ने ज्वाइन किया. वह अपने माता-पिता की इकलौती एवं आधुनिक विचारोंवाली शौकीन लड़की थी. उसके आते ही रामलाल से उसका सामीप्य बढ़ने लगा. एक तरफ़ रामलाल की महत्वाकांक्षाएं थीं, तो दूसरी तरफ़ सुमित्रा के खुले विचार एवं व्यवहार. रामलाल और उसकी नज़दीकियां बढ़ने के साथ-साथ रामलाल का सुषुप्त मन नई उमंगों की हिलोरियां लेने लगा था. उसे शारदा अनुपयुक्त एवं बोझ महसूस होने लगी थी. बेटी सुमन के प्रति भी वह उदासीन हो गया था. शुरू में तो शारदा को कुछ मालूम नहीं पड़ा तथा इस ओर उसने ध्यान भी नहीं दिया. इसी कारण रामलाल के बंधन शारदा से ढीले एवं सुमित्रा के कसने लगे. रामलाल, सुमित्रा के पैसों पर मौज-मस्ती करने लगा. सुमित्रा को जब शारदा और सुमन के बारे में मालूम हुआ, तब उसने रामलाल पर दबाव डाला कि उसे सिर्फ़ उसी का रहना पड़ेगा.
इस तरह की रस्सा-कसी चलती रही. शारदा और सुमित्रा के परिदृश्य में शारदा पहले धुंधली हुई और फिर उसका पटाक्षेप हो गया, जबकि सुमित्रा ने रामलाल पर अपना अधिकार कर लिया. परिस्थितियों से समझौता करते हुए शारदा ने अपनी नाराज़गी दशति लड़ते-झगड़ते सुमन का वास्ता देते हुए अपना अधिकार जताया, लेकिन रामलाल पर सुमित्रा का जादू ऐसा चढ़ा था कि वह शारदा और सुमन को छोड़कर ही चला गया.
अम्माजी ने उठ कर पानी पिया और फिर उनके मानस पटल पर चलता चलचित्र थोड़े समय के लिए थम गया, एक लंबा समय शारदा ने रामलाल के बिना बिताया था. इस बीच उन्होंने कई-कई रातें चिंता और बेचैनी में गुज़ारी थीं. सुमन की बीमारी के समय अकेले ही उसके इलाज के लिए वह दर-दर भटकी थीं.
इन सब पहलुओं के अलावा दूसरा पहलू यह भी था कि शादी के बाद जहां सुख-दुख में समय गुज़ारने से पति-पत्नी को संबल मिलता है, वहीं वह अपनी शारीरिक आवश्यकता की पूर्ति भी करते हैं. गरजते मेघ, घोर बरसात और चमकती बिजली के समय शारदा जब घबरा कर रामलाल के सीने से लग जाती, तब उसे महसूस होता कि दुनिया की सबसे सुखी और तृप्त महिला वही है, लेकिन रामलाल के जाने के बाद उन काली घटाओं और सर्द रातों में शारदा मन मसोस कर रह जाती थी.
उन्हीं दिनों शारदा के पड़ोस में सोमेश रहने आया था. सुमन उसे अंकलजी कहती थी. कभी कभार वह घर आ जाता और शारदा से बातें करता रहता. शारदा को उसका सामीप्य अच्छा लगता था. वह चाहती कि सोमेश उसी के सामने बैठा रहे और वह उनसे ढेर सारी बातें करती रहे. जिस तरह एक सूखी लता में अमृत तुल्य जल पड़ने से वह लहलहा उठती है, उसी प्रकार सोमेश ने शारदा के मन में जीने की ललक पैदा कर दी थी.
अकेले में शारदा का चिंतन चलता था. आख़िर वह विवाहिता है. भले ही परित्याग का चोला डाले हुए हो, उसे सोमेश के प्रति आसक्त नहीं होना चाहिए. लेकिन दूसरे ही पल उसका मन तर्क देता. 'रामलाल भी तो विवाहित था, फिर उसने सुमित्रा का दामन क्यों पकड़ा? क्या नैतिकता को निभाने की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ स्त्री की है?' उसके गले में भी रामलाल के हाथों से पहनाया गया मंगलसूत्र अभी भी उसे चिढ़ा रहा था. स्त्री-पुरुष के नैतिक-अनैतिक संबंधों में जहां शारदा उलझ रही थी, वहीं उम्र के उस दौर से गुज़रते हुए वह शारीरिक संतुष्टि के लिए विचलित भी थी.
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कई बार रात को उसे महसूस होता कि सोमेश उसके एकदम क़रीब है, उसके बालों पर हाथ फेर रहा है… और इसके बाद शारदा हड़बड़ा कर उठ जाती. अपने ही हाथों से अपने बाल खींचती. दो-चार तमाचे मारती अपने गाल पर. क्या इस हद तक गिर सकती है वह? छी… छी…
इसी बीच सोमेश का ट्रांसफर हो गया और एक बीते सपने की तरह वह सोमेश को भूल गई. सुमन अब बड़ी हो चली थी. शारदा ने उसमें अच्छे संस्कारों का बीजारोपण किया था. पढ़ाई में भी होशियार थी सुमन, लेकिन उसके स्कूल की अंक सूची में जब वह रामलाल का नाम देखती, तो गुस्से से उसका चेहरा लाल हो जाता. यह बात उसे बुरी तरह कचोटती कि सुमन की परवरिश वह कर रही है और उसके साथ नाम रामलाल का जुड़ा है.
एक लंबा अंतराल बीत गया. सुमन की शादी शारदा ने काफ़ी देखभाल और सोच-समझकर की. सुमन के जाने के बाद शारदा बिल्कुल अकेली रह गई. इसी बीच कभी- कभार उसे रामलाल के समाचार किसी न किसी से मिल जाते थे.
शारदा के बाल सफ़ेद हो चले थे. चेहरे पर झुर्रियां आ गई थीं. आंखें कमज़ोर हो चली थीं. एक क्षण के लिए शारदा के मन में रामलाल के लिए आक्रोश आता, लेकिन फिर वह बड़े जतन से अपने को बनाती-संवारती, मांग में सिंदूर भरती और घंटों आईने में अपने को निहारती रहती, एक अजीबोग़रीब कशमकश और मानसिक द्वंद्व से गुज़र रही थी शारदा.
लेकिन रामलाल को भी शायद शारदा का अभिशाप लग गया था, सुमित्रा से शादी उसने शारदा के सीधेपन का फ़ायदा उठाते हुए की थी. हालांकि वह जानता था कि शारदा इतनी चतुर नहीं है कि कभी उसके लिए परेशानी खड़ी करे. फिर भी उसने उसके अंगूठे के निशान काग़ज़ पर लगवा कर रख लिए थे. सुमित्रा में शुरू से ही अहं था. रामलाल उसके लिए एक ऐसा अविश्वासी व्यक्ति था, जो अपने स्वार्थ के लिए अपनी विवाहित पत्नी को भी छोड़ सकता था. जिस लड़के की उम्मीद वह सुमित्रा से लगाए था, वह पूरी नहीं हो सकी. सुमित्रा के कोई बच्चे नहीं हुए और उम्र के आख़िरी पड़ाव पर वह रामलाल को अकेला छोड़ कर चली गई. इधर रामलाल का जीर्ण-क्षीण शरीर दिनोंदिन कमज़ोर हो चला था.
जब तक शरीर में ताक़त रहती है, वह अपने को सर्वशक्तिमान समझता है. वह कहता है कि उसे किसी के सहारे की आवश्यकता नहीं है. वह किसी का मोहताज नहीं है. लेकिन शरीर थक जाने पर उसके ही हाथ-पैर, दिमाग़ जब उसका साथ छोड़ने लगते हैं, तब वह आसरे के लिए दर-दर भटकता है. यही हाल रामलाल का हो गया था.
एक दिन शारदा को ख़बर मिली कि रामलाल थोड़े ही दिनों का मेहमान है और उसकी देखरेख करनेवाला कोई नहीं है. हालांकि शारदा का अंतर्मन उसे रामलाल के द्वार पर जाने से रोक रहा था, लेकिन कदम अनायास ही उस तरफ़ बढ़ गए. शारदा को देखकर रामलाल ख़ुश हुआ. शारदा ने सोचा, 'शायद विधाता को यही मंज़ूर था. शायद शुरू और आख़िर में ही उसे रामलाल का सामीप्य मिलना था. शारदा ने बिना किन्हीं पूर्वाग्रहों के रामलाल की सेवा की. लेकिन अंतिम समय में जब शारदा उसके पास खड़ी थी, रामलाल ने उसे झिड़कते हुए कहा, "तुम्हें किसने बुलाया था? तुम क्यों आई यहां..? सुमित्रा के बिना अब मेरे जीने का कोई औचित्य नहीं है." और वह इस दुनिया से चला गया. इस घटना के बाद शारदा अंदर से टूट गई.
रामलाल के इस छद्म भरे रूप को देखकर शारदा के मन में जो बची-खुची सहानुभूति थी, वह भी ख़त्म हो गई थी. रामलाल उसकी नज़र में दुनिया का सबसे बड़ा धोखेबाज़, स्वार्थी इंसान था, लेकिन इतना सब होने के बाद भी, दुनिया को दिखाने के लिए वह सब तो करना ही था, जिसकी समाज अपेक्षा करता है, इसलिए शारदा ने सुमन को ख़बर भेजी.
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आस-पड़ोस और कुछ रिश्तेदार भी इकट्ठे हो गए. सभी के सामने शारदा ने अपनी चूड़ियां तोड़ दीं, माथे का सिंदूर पोंछ दिया, बाल बिखरा लिए, लेकिन इतने दुख लगातार सहते रहने के कारण जैसे आंसू साथ नहीं दे रहे थे. वह रोई नहीं… उनकी सखी-सहेलियों और सुमन ने बहुत कोशिश की कि अम्माजी थोड़ा-बहुत तो रो लें. आख़िर अम्माजी भारतीय परिवेश एवं संस्कारों में पली-बढ़ी थीं, ज़िंदगी के उतार-चढ़ाव के बीच वह इसे ही अपना सौभाग्य समझ रही थीं कि वह सुहागिन हैं.
परिदृश्य बदलते रहे और अम्माजी उसमें अपने को ढालने का प्रयास करती रहीं. सुमन और लोगों के लिए अम्माजी त्याग और ममत्व की मूर्ति हो गई थीं.
रात दो बजे, जब सुमन उठी और अम्माजी को जगते पाया तब उसने कहा, "अम्मा, जो गुज़र गया, उसके बारे में सोचने से क्या फ़ायदा? अब आप हमारे ही साथ रहेंगी, ये कह रहे थे, कल ही आप हमारे साथ लखनऊ चलेंगी, जहां इनका ट्रांसफर हुआ है. वहां इन्होंने मकान भी ले लिया है."
बदलते परिदृश्य में अम्माजी के लिए अब ये सबसे सुखद क्षण थे, जब उन्हें स्थाई संबल मिल रहा था.
- संतोष श्रीवास्तव
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